कविता मानस की पीड़ा -सीमा सचदेव ( पिछले अंकों से जारी...) मानस की पीड़ा भाग 7. भरत विलाप श्री राम जय राम जय जय राम मन ...
कविता
मानस की पीड़ा
-सीमा सचदेव
(पिछले अंकों से जारी...)
मानस की पीड़ा
भाग 7. भरत विलाप
श्री राम जय राम जय जय राम
मन में केवल श्री राम का नाम
अब था भरत नाना क घर
पर हर क्षण बसा राम अन्दर
शत्रुघ्न भी था भरत के साथ
अब कर रहे थे आपस में बात
जाने क्यों व्याकुल हो रहा मन
वहाँ खुश हो भैया राम लखन
आँखों में आँसू भी आ रहे
दोनों ही दुखित हुए जा रहे
मन में बेचैनी समा रही
पर समझ नहीं कुछ आ रही
समा रही मन में भावुकता
और घर जाने की उत्सुकता
अब नहीं रहेंगे नाना के यहाँ
कल ही जाएँगे अयोध्या
निकल पड़े अगले ही दिन
भारी पड़ रहा था हर पल छिन
कुछ शकुन नहीं अच्छे हो रहे
दोनों ही यह थे कह रहे
किसी तरह से पहुँचे दोनों अवध
मन में विचारों का चल रहा युद्ध
दोनों को अवध लगा सूना
लगा जैसे नहीं यह देश अपना
बस सन्नाटा ही पसरा था
नहीं रोशन कोई घर था
न वहाँ पे थी कोई चहल-पहल
यह देख के मन भी गया दहल
रहे लोग भरत से मुँह फेर
समझने में न लगी कोई देर
लोगों का उससे यूँ हटना
हुई अवश्य कोई दुर्घटना
पर क्या यह नहीं समझ पाए
जल्दी से राज महल आए
जैसे ही उनके कदम पड़े
दशरथ ने अपने प्राण छोड़े
नहीं पिता से हो पाई थी बात
दिल पर लगा था ऐसा आघात
कुछ देर ही पहले पहुँच जाते
तो पिता से बातें कर पाते
जिस पिता ने चलना सिखलाया
वही अब दुनिया में नहीं रहा
जो गोदी बिठा के खिलाता था
वही मृत्यु की छैया पे लेटा था
दोनों भाई गिरे बेसुध हो के
आँसू न रुकते थे रोके
पकड़े हुए थे पिता के चरण
पिता की बातें कर रहे स्मरण
पर कहाँ है भैया लखन राम
जब विधाता भी हुआ वाम
क्यों नहीं दिख रहे दोनों भाई
अब भरत के मन में यह आई
माताओं से बोले ! हे मैया
कहाँ है राम लखन भैया
सीता भाभी भी नहीं यहाँ
कही बाहर गए है तीनों क्या?
जल्दी से उनको बुलवा ले
और यह सन्देश भी भिजवा दे
अब नहीं रहे है हमारे पिता
वापिस आएँ राम लखन सीता
सुमित्रा कौशल्या नहीं बोली
दुख से जुबान भी नहीं खोली
और अब बोली थी भरत की माँ
तुम ध्यान से मेरा सुनो कहना
राम को मैंने वन भेजा
तुम बनोगे अयोध्या के राजा
तेरा रसता है साफ किया
और तेरे साथ इन्साफ किया
सिया लखन गए है स्वेच्छा से
नहीं गए है मेरी इच्छा से
मैंने तो राम के लिए कहा
उसे चौदह वर्ष वनवास दिया
राम न तेरी बने बाधा
इसलिए था यह निर्णय साधा
नगर में भी वह नहीं रहेगा
राजा बनने को नहीं कहेगा
अब साफ है तेरा हर रसता
बेशक नहीं था सौदा ससता
पति खो दिया इसका दुख है
पर सुत राजा अनुपम सुख है
कुछ पाने के लिए खोना पड़ता
पर भविष्य में नहीं रोना पड़ता
अब मन में नहीं रखो कोई दुख
राजा बन राज्य का भोगो सुख
बस्, बस माँ भरत था चिल्लाया
तेरे मन में जरा भी नहीं आया
तूने कितना बड़ा कर दिया पाप
बोलो क्या करना है मुझको राज
तुम राज्य की केवल थी भूखी
क्या सुहागिन हो कर नहीं थी सुखी
तुममें नहीं जरा सी भी ममता
क्या ऐसी होती है माता
अब तुम ही जा राज्य करना
पर मुझको सुत अब नहीं कहना
क्या ऐसी है जननी मेरी?
मैं नहीं समझा सच्चाई तेरी
वो प्यार था तेरा बस झूठा
जिसने मेरा सबकुछ लूटा
अरे ! राम तो मेरी जिन्दगी है
वही तो मेरी बन्दगी है
नहीं चाहिए मुझे कुछ राम के बिना
उसके बिना क्या जीवन जीना
तुम नहीं समझी क्या है श्री राम
तुम्हें तो बस राज्य से काम
आज मुझ सा नहीं कोई अभागा
जिसके माथे पे कलंक लागा
राज्य के लिए भाई को भेजा वन
नहीं तुझमें है इक माँ का मन
अपने सुत पे ही लगाया कलंक
मुझसा नहीं कोई दुनिया में रंक
दुख है मुझे तुमने जन्म दिया
लज्जित हूँ क्या उपहार दिया
अब किसी को मुँह न दिखा सकता
नहीं पिता को वापिस ला सकता
कैसे होंगे दोने भाई
क्या करती होगी सिया भाभी
वह तीनों ही सोचते होंगे
दोषी ही मुझे कहते होंगे
लालची ही मुझे वे समझेंगे
मुझे कभी क्षमा भी नहीं करेंगे
मुझसे तोडेंगे हर नाता
कैसी है मेरी यह माता
उस भाई से दूर किया मुझको
ईश्वर समझे हर कोई जिसको
कोटि राज्य कुर्बान वहाँ
श्री राम सा भाई हो जहाँ
पर मेरा भाग्य कितना क्रूर
वही भाई मुझसे हुआ दूर
तुम जननी यह नाता अपना
पर नहीं देखो सुत का सपना
तेरे सामने नहीं आऊंगा
तुम्हें अपना मुँह न दिखाऊंगा
मुझको अब पुत्र नहीं कहना
अच्छा यही मुझसे दूर रहना
जननी तुम कुछ नहीं कह सकता
किया भाई को दूर नहीं सह सकता
ऐसे विलाप कर रहा भरत
खुद से भी होने लगी नफरत
मुझे जीने का अधिकार नहीं
बिन राम क रहना स्वीकार नहीं
गिरा भरत राम की माँ के पास
बोला माँ ! मुझपे करो विश्वास
मुझे नहीं राज्य का लालच माँ
नहीं कह सकता मुझे करो क्षमा
नहीं केवल दूर हुआ बेटा
मेरे कारण ही तुम हुई विधवा
आज तो मैं हो गया अनाथ
न माँ न पिता कोई भी साथ
तुमसे क्या कहुँ हे मँझली माँ
तेरे जैसी कोई माँ कहाँ
क्यों नहीं दिया तुमने मुझे जन्म
कितना भाग्यशाली है लखन
खुशी से सुत को दिया भेज
जहां पर है बिछी काँटों की सेज
जिसके लिए तो अवसर अच्छा
श्री राम का वही सेवक सच्चा
मैं तो जीते ई मर गया
न वन का न घर का ही रहा
भाई औ पिता का छूटा साथ
मैं तो आज हो गया अनाथ
जो मैं ननिहाल नहीं जाता
ऐसा न करती यह माता
न खोते हम पिता का साया
रहती भाई की भी छाया
सब गलती ही थी मेरी
बुद्धि ही फेरी गई मेरी
मैं ही था भाई को छोड़ चला
उसी का ही फल मुझे आज मिला
कभी नहीं बिछुडे चारों भाई
पर कैसी अब आँधी आई
इक दूजे के बिना जो नहीं जिए
वही भाई आज है बिछुड़ गए
अब कैकेई को आई सुध
और खो दी उसने सुध-बुध
गिर गई वहाँ हो के बेहोश
और खत्म हो गया सारा जोश
फिर नहीं किसी से वह बोली
सुत ने उसकी आँखें खोली
पर बीता वक्त नहीं आता हाथ
बस रह जाता है पश्चाताप
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(जारी क्रमशः अगले अंकों में...)
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संपर्क:
सीमा सचदेव
एम.ए.हिन्दी,एम.एड.,पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस.,ज्ञानी
7ए , 3रा क्रास
रामजन्य लेआउट
मरथाहल्ली बैंगलोर -560037(भारत)
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