योगेन्द्र कृष्णा का आलेख : रचनाकार होने की पहली शर्त

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आलेख रचनाकार होने की पहली शर्त -योगेन्द्र कृष्णा लेखक-चित्रकार इस्माइल चुनारा बेहद संजीदा , नेकदिल और संवेदनशील इंसान हैं. उनके...

आलेख

रचनाकार होने की पहली शर्त

-योगेन्द्र कृष्णा

लेखक-चित्रकार इस्माइल चुनारा बेहद संजीदा, नेकदिल और संवेदनशील इंसान हैं. उनके दिल और दिमाग दोनों के दरवाजे खुले हैं. वे जैसा लिखते हैं वैसा ही सोचते हैं और जैसा सोचते हैं उससे अलग जिंदगी वे जीते नहीं. इसलिए सेक्युलरिज्म उनके लिए फैशनपरस्ती या मुखौटा नहीं जिसे सुविधा या जरूरत के मुताबिक पहन या उतार दिया. इसकी साफ झलक उनकी कहानियों, कविताओं और नाटकों में दिखाई देती है. ...

यहां प्रारंभ में ही यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह टिप्पणी लेखक-चित्रकार इस्माइल चुनारा के व्यक्तित्व या उनकी रचनाओं के आकलन का प्रयास नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त उद्धरण, जो कि राजकमल से प्रकाशित उनकी पुस्तक यादों के बुझे हुए सवेरे के ब्लर्ब से लिया गया है, से यह भ्रम पैदा प्रतीत होता है. यह दरअसल आज की विकट साहित्यिक परिदृश्य से पैदा हुई उस पाठकीय मन:स्थिति की पड़ताल में लिखी गई एक टिप्पणी है जिसमें रचनाओं की प्रामाणिकता एवं अर्थवत्ता की निर्मिति में रचनाकार का व्यक्तिगत एवं सामाजिक आचरण हस्तक्षेप करता प्रतीत होता है.

बहरहाल, उपर्युक्त उद्धरण के संदर्भ में, यह विचारणीय है कि किसी लेखक या कलाकार के बारे में जोर दे कर यह कहने की जरूरत क्यों आन पड़ती है कि वे जैसा लिखते हैं वैसा ही सोचते हैं और जैसा सोचते हैं उससे अलग जिंदगी वे जीते नहीं. यह किसी रचनाकार की विशिष्टता नहीं हो सकती, यह तो एक रचनाकार होने की पहली शर्त है, न्यूनतम योग्यता, जिसके बिना आप कुछ और तो हो सकते हैं पर लेखक या कलाकार नहीं.

जो लेखक या कलाकार होने की पहली शर्त है उसे ही अगर आज पाठकों के सामने लेखक की विशिष्टता के रूप में परोसा जा रहा है तो निश्चय ही इसके निहितार्थ अत्यंत भयावह हैं. और इसके निहितार्थ में शामिल है समाज और साहित्य का वह विरूप परिदृश्य जिसमें हाल के वर्षों में वैसे लेखकों, कलाकारों, राजनीतिकर्मियों की संख्या में भरपूर इज़ाफ़ा हुआ है जो जैसा लिखते, रचते और बोलते हैं वैसा सोचते नहीं, और जैसा सोचते हैं उससे बिल्कुल अलग जिंदगी वे जीते हैं. और इस विरूप परिदृश्य में, कहीं न कहीं, साहित्य के प्रति आधुनिक समाज की भयावह उदासीनता के कई जटिल कारणों में से एक अत्यंत महत्तवपूर्ण कारण के बीज की शिनाख्त भी की जा सकती है.

उत्कृष्ट साहित्य के पाठक सीमित हैं, वे अनिवार्यत: संवेदनशील एवं संजीदे हैं और समाज और व्यक्ति के मूल्यों में विश्वास करते हैं और उन पर पैनी नज़र भी रखते हैं. मूल्यों के बिना किसी भी समाज की कल्पना नहीं की जा सकती. यह मूल्य समाज, व्यक्ति और काल सापेक्ष हो सकते हैं. अलग-अलग लेखकों के जीवन के मूल्य और उनके सरोकार अलग-अलग हो सकते हैं, जो परिस्थितिजन्य कारकों पर भी निर्भर करते हैं.

इसलिए प्रश्न लेखक की नैतिकता का उतना नहीं है जितना कि उसके अपने मूल्यों, उसकी अपनी विचारधारा, उसकी अपनी सोच और उसके प्रति उसकी ईमानदारी और प्रतिबद्धता का है. समाज में व्याप्त भ्रष्ट आचरण, बाजार के दबाव से पैदा हुई व्यवहार की यांत्रिकता, संबंधों के बीच उभरती अविश्वास की मन:स्थितियां एवं भौतिक महत्वाकांक्षाओं तथा यश-लोलुपताओं के बीच समाज में लेखक का एक द्वीप की तरह अक्षुण्ण बना रहना शायद संभव न हो, लेकिन इतना तो ज़रूर संभव है कि वह अपनी रचनाओं में ईमानदार और विश्वसनीय बना रहे--वह जो है वही उनमें दिखे. अपनी रचनाओं में वह अपने व्यक्तित्व और विचारों का कोई विलोम न रचे.

यहां मेरा अभिप्राय लेखक की नैतिकता से कहीं अधिक उसके वास्तविक जीवन, दर्शन और उन मूल्यों से है जिनमें वह विश्वास करता है, जिन्हें वह व्यवहार में जीता है, अपने लेखन में उनके प्रति उसकी ईमानदारी और सरोकार से है. उदाहरण के लिए, कोई लेखक यदि विवाहेतर संबंधों में विश्वास करता हो और वैसी ही ज़िंदगी वह जीता हो तो एक लेखक के रूप में उसे केवल इस कारण ख़ारिज नहीं किया जा सकता. लेकिन अगर वह लेखक अपनी रचनाओं में ऐसे संबंधों का प्रतिकार करता हो, इसे अनैतिक करार देता हो और एक यूटोपिया रचता हो तो वह निस्संदेह अपनी रचनाओं में अपने व्यक्तित्व का विलोम रच रहा है जो उसकी रचनाओं को केवल इस कारण ही अविश्वसनीय एवं अप्रामाणिक सिद्ध कर देने में सफल होगा, चाहे उसकी रचनाएं कितनी भी अच्छी क्यों न हों. उसी प्रकार, किसी लेखक की रचनाओं में यदि एक तरफ दलित, पिछड़े एवं शोषित समाज के प्रति उसकी पक्षधरता दिखती हो, वहीं दूसरी तरफ उसकी सोच और उसका सामाजिक आचरण इसके प्रतिकूल सामंतवाद के इर्द-गिर्द ही मँडराता फिरता हो, तो सिर्फ रचना के स्तर पर उसकी इस छद्म पक्षधरता से न तो इस समाज का कोई भला हो सकता है और न साहित्य का. रचना और रचनाकार के बीच की यह द्वंद्वात्मकता, यह 'फांक' (dichotomy) उसे पाठकों के बीच सिरे से अविश्वसनीय एवं अस्वीकार्य बना देगी अगर पाठक इस फांक के बारे में जान रहे हों.

और नहीं जानने का भी प्रश्न कहां उठता. लेखक भले ही इस सुखद भ्रम में जीते रहें कि उनकी निजी दुनिया में उनके पाठकों का प्रवेश वर्जित है. यहीं पर रचना और रचनाकार के आकलन में लेखक और पाठक के बीच की निकटता और दूरी की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है.

वर्तमान परिदृश्य में, लेखक और समाज के बीच तेजी से बदलते रिश्ते के संदर्भ में, जबकि आज का लेखक हमारे समाज में एक सक्रिय कर्मी की भूमिका में भी है, लेखक और पाठक के बीच की वह आभिजात्य दूरी जो उन्नीसवीं शताब्दी या हमारे पूर्ववर्ती साहित्यकारों की विशेषता रही थी आज प्राय: समाप्त हो चुकी है. आज पाठकों के पास हमारे लेखकों को, उनके व्यक्तित्व को जानने-समझने, उनसे संवाद और विमर्श के पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं. ऐसे में किसी लेखक की रचना का आकलन एवं उस पर अंतिम निर्णय सिर्फ उसकी रचना के पाठ पर निर्भर नहीं रह सकता. जैसे ही हम उसकी रचना के आकलन का प्रयास करते हैं हमारा जाना-समझा उसका व्यक्तित्व रचना के अंतिम प्रभाव के निर्माण में हस्तक्षेप कर जाता है. यह हस्तक्षेप रचना को सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही स्तरों पर प्रभावित कर सकता है.

इस संदर्भ में, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित फ्रांस के चर्चित लेखक जीन जेने का व्यक्तित्व एवं रचनाएं यहां प्रासंगिक हो उठती हैं. जेने की मां ने उसे जन्म के बाद उसके भाग्य पर इसलिए छोड़ दिया था कि वह उसकी नाज़ायज संतान था. उसने अपना संपूर्ण जीवन चोरी-डकैती, पाकेटमारी, आवारगी, वेश्यावृत्ति एवं हर प्रकार के व्यभिचार एवं लंपटताओं में बिताया. डकैती के एक आरोप में उसे कारावास की सज़ा हुई थी और वहीं से उसके लेखन की शुरुआत हुई. लेखन और जीवन-शैली की यह भयावह व्यभिचारिता सहगामिनी के रूप में उसके साथ चलती रही. लेकिन अपनी रचनाओं में उसने उसे ही अभिव्यक्ति दी जिसे उसने जिया. इसलिए उसकी रचनाओं में उसका व्यक्तित्व पूरी साहसिकता, आश्वस्ति एवं प्रामाणिकता के साथ मुखर हुआ है--रचना और व्यक्तित्व एक-दूसरे को समृद्ध और संपुष्ट करते हुए न कि एक-दूसरे से शर्मसार होते हुए. आज अगर जीन जेने का व्यक्तित्व और उसकी रचनाएं महानता के निकट आंकी गई हैं तो शायद इसलिए भी कि उसके जीवन और कृतित्व के बीच कोई 'फांक' नहीं थी. कोई आश्चर्य नहीं अगर फ्रांस के ही महान लेखक और दार्शनिक सार्त्र ने जीन जेने की लंबी प्रशंसात्मक जीवनी संत जेने में जेने को एक संत का दर्ज़ा दिया है. अपने देश के साहित्य में भी ऐसे और मिलते-जुलते उदाहरणों की कमी नहीं रही है. विष्णु प्रभाकर ने शरतचंद्र पर लिखी अपनी जीवनी में उन्हें अगर आवारा मसीहा का दर्ज़ा दिया तो उसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी था.

लेकिन आज के लेखन में हम अपनी रचनाओं और अपने वास्तविक जीवन के बीच एक अलंघ्य दीवार खड़ी करना चाहते रहे हैं कि एक में दूसरे की ताक-झांक की कोई संभावना नहीं बने, और हम इस पार और उस पार, दोनों ही तरफ निरापद बने रहें.

ग़ौर करें तो रचना के उत्तर आधुनिक पाठ और विखण्डनवाद की दुहाई भी आज हम अपने देश के साहित्य के संदर्भ में शायद इसलिए भी देते फिर रहे हैं कि हमारे वास्तविक चरित्र और लेखकीय चरित्र के बीच इस दीवार को मजबूत और अभेद्य बनाए रखने में वह हमारी मदद करता प्रतीत होता है. लेकिन शायद हम यह भूल रहे हैं कि बाहर से आयातित आलोचना के इन सिद्धांतों की हम लाख जुगाली क्यों न कर लें, हमें अपने जातीय समाज और साहित्य के लिए उसके अनुरूप आलोचना के निकष की तलाश करनी होगी जो अंतत: हमें हमारी अपनी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सके. ऐसे विकट एवं अराजक समय में--जबकि जीवन के सारे आयाम, सारे अनुशासन और इसलिए साहित्य भी छद्म आकांक्षाओं, कृत्रिम सरोकारों, जटिलताओं एवं महत्वाकांक्षी दांव-पेंच से निरंतर आक्रांत हैं--हमें एक सहज मनुष्य बने रहने में हमारी मदद कर सके, और इस तरह हमें अपने छद्म, अपनी चालाकियों, अपनी कृत्रिमताओं और अपने ही द्वारा विरूपित अपनी छवियों को पहचानने के पर्याप्त अवकाश और औज़ार उपलब्ध करा सके, और जो कि अंतत: आलोचनाकर्म का दायित्व भी है.

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योगेन्द्र कृष्णा

जन्म % 1 जनवरी, 1955 ( मुंगेर, बिहार )

शिक्षा : अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य में स्नातकोत्तार

लेखन हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में. पहली रचना 'एक चेहरा आईना' श्रीपत राय संपादित कहानी में प्रकाशित. रचनाएं कहानी, पहल, हंस, कथादेश, वागर्थ, ज्ञानोदय, साक्षात्कार, अक्षरपर्व, पल प्रतिपल, परिकथा, आउटलुक, आजकल, कुरुक्षेत्र, समयांतर, युध्दरत आम आदमी, हिंदुस्तान, लोकमत समाचार समेत देश की लगभग सभी स्तरीय साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा पटना दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से समय-समय पर प्रसारित.

प्रकाशित कृतियां - खोई दुनिया का सुराग़ (काव्य-पुस्तक) /गैस चैंबर के लिए कृपया इस तरफ : नाज़ी यातना शिविर की कहानियां (पोलिश कथाकार ताद्युश बोरोवस्की की कहानियों का अनुवाद) @ लेव तालस्ताय ( इल्या तालस्ताय के संस्मरण का अनुवाद प्रकाशनाधीन) बीत चुके अपने शहर में (काव्य-पुस्तक प्रकाशनाधीन)

संप्रति बिहार विधान परिषद के हिंदी प्रकाशन विभाग में अधिकारी.

संपर्क

योगेंद्र कृष्णा, 82/400, रोड नं. 2, राजवंशीनगर, पटना - 800023

ई-मेल: ykrishnapatna@yahoo.com

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बेनामी9:42 am

    सही कहा आपने। पर एक कुशल रचनाकार होने के लिए मेरे समझ से यह आवश्यक नहीं की वह वही लिखे जो अपने जीवन में जी रहा हो, खासकर उस समय जब एक व्यक्ति सुरु सुरु में, जब लेखन कार्य में प्रवेश करता है,हालांकि वह ऐश्वर्या-पूर्ण जीवन को जी रहा होता है। पर विचलित तो उसे उस समाज का तत्कालीन समाज और उसका परिवेश करता है। मैं तो मानता हूँ की रचना आत्मा की अभिव्यक्ति होती है। और जरूरी यही है की वह अपनी उस आत्मा के आवाज को सुनाता कैसे है।

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रचनाकार: योगेन्द्र कृष्णा का आलेख : रचनाकार होने की पहली शर्त
योगेन्द्र कृष्णा का आलेख : रचनाकार होने की पहली शर्त
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