कविता मेरी आवाज़ -सीमा सचदेव 1. हुआ क्या जो रात हुई हुआ क्या जो रात हुई, नई कौन सी बात हुई | दिन को ले गई सुख की आँधी, दुखों की...
कविता
मेरी आवाज़
-सीमा सचदेव
1. हुआ क्या जो रात हुई
हुआ क्या जो रात हुई,
नई कौन सी बात हुई |
दिन को ले गई सुख की आँधी,
दुखों की बरसात हुई |
पर क्या दुख केवल दुख है?
बरसात भी तो अनुपम सुख है |
बढ़ जाती है गरिमा दुख की,
जब सुख की चलती है आँधी |
पर क्या बरसात के आने पर,
कहीं टिक पाती है आँधी|
आँधी एक हवा का झोंका,
वर्षा निर्मल जल देती |
आँधी करती मैला आँगन,
तो वर्षा पावन कर देती |
आँधी करती सब उथल-पुथल,
वर्षा देती हरियाला तल |
दिन है सुख तो दुख है रात,
सुख आँधी तो दुख है बरसात |
दिन रात यूँ ही चलते रहते ,
थक गये हम तो कहते-कहते |
पर ख़त्म नहीं ये बात हुई,
हुआ क्या जो रात हुई |
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2.आँसू
आँसू इक धारा निर्मल,
बह जाता जिसमें सारा मल|
धो देते हैं आँसू मन,
कर देते हैं मन को पावन |
हो जाते हैं जब नेत्र सजल,
भर जाती इनमें अजब चमक |
बह जाएँ तो भाव बहाते हैं,
न बहें तो वाणी बन जाते हैं |
उस वाणी का नहीं कोई मोल,
देती ह्रदय के भेद खोल |
उस भेद को जो न छिपाता है,
वह कलाकार कहलाता है |
उस कला को देख जो रोते हैं ,
अरे,वही तो आँसू होते हैं |
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3.आदर्शवादी
एक्जीक्यूटिव चेयर पर बैठे हुए जनाब हैं
उनके आदर्शों का न कोई जवाब है
ऐनक लगी आँखों पर, उँचे -उँचे ख्वाब हैं
उपर से मीठे पर अंदर से तेज़ाब हैं
बात उनको किसी की भी भाती नहीं
शर्म उनको ज़रा सी भी आती नहीं
दूसरों के लिए बनाते हैं अनुशासन
स्वयं नहीं करते हैं कभी भी पालन
इच्छा से उनकी बदल जाते हैं नियम
बनाए होते हैं उन्होंने जो स्वयं
इच्छा के आगे न चलती किसी की
भले ही चली जाए जिंदगी किसी की
स्वार्थ के लोभी ये लालच के मारे
करें क्या ये होते हैं बेबस बेचारे
मार देते हैं ये अपनी आत्मा स्वयं ही
यही बन जाते हैं उनके जीवन करम ही
गिरते हैं ये रोज अपनी नज़र में
हर रोज,हर पल,हर एक भँवर में
आवाज़ मन की ये सुनते नहीं
परवाह ये रब की भी करते नहीं
आदर्शवाद का ये ढोल पीटते हैं
जीवन में आदर्शों को पीटते हैं
जीवन के मूल्यों को करते हैं घायल
जनाब इन घायलों के होते हैं कायल
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4..समाज के पहरेदार
समाज के पहरेदार ही,
लूटते हैं समाज को |
करते हैं बदनाम फिर ,
रीति रिवाज को |
कुरीतियों को यही लोग,
देते हैं दस्तक |
हो जाते हैं जिसके आगे,
सभी नतमस्तक |
झूठी शानो शौकत का,
करते हैं दिखावा |
पहना देते हैं फिर उसको,
रंगदार पहनावा |
अधर्मी बना देते ये फिर,
धरम के ठेकेदार को |
समाज के.....................................................
लोगों के बीच करते हैं,
बड़े बड़े भाषण |
दूसरों को बता देते हैं,
सामाजिक अनुशासन |
अपनी बारी भूलते हैं,
सब क़ायदे क़ानून |
इन्हीं में झूठी रस्मों का ,
होता है जुनून |
ताक पर रख देते हैं,
ये शर्म औ लाज को |
समाज के..............................................
लालची हैं भेड़िये हैं,
भूखे हैं ताज के |
किस बात के पहरेदार हैं ,
ये किस समाज के |
अंदर कुछ और बाहर कुछ,
क्या यही सामाजिक नीति है?
लानत है कुछ और नहीं,
क्या रिवाज क्या रीति है |
क्या है क़ानून ? जो दे सज़ा,
ऐसे दगाबाज़ को |
समाज के................
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5..एक सपना
कल रात को मैंने
एक सपना देखा
भीड़ भरे बाज़ार में
नहीं कोई अपना देखा
मैंने देखा
एक घर की छत के नीचे
कितनी अशांति
कितना दुख
और
कितनी सोच
मैंने देखा
चेहरे पे चेहरा
लगाते हैं लोग
ऊपर से हँसते
पर अंदर से
रोते हैं लोग
भूख,लाचारी,बीमारी,बेकारी
यही विषय है बात का
आँख खुली
तो देखा
यह सत्य है
सपना नहीं रात का
वास्तव में देखो
तो यह कहानी
घर-घर में
दोहराई जाती है
कोई बेटी जलती है तो
कोई बहु जलाई जाती है
कितनों के सुहाग उजड़ते रोज
तो कई उजाड़े जाते है
यह सब करके
भी बतलाओ
क्या लोग शांति पाते हैं ?
कितनी सुहागिनें हुई विधवा
कितने बच्चे अनाथ हुए
कितना दुख पाया जीवन में
और ज़ुल्म सबके साथ हुए
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6.वह सुंदर नहीं हो सकती
अपनी ही सोचों में गुम
एक
मध्यम-वर्गीय परिवार की लड़की
सुशील
गुणवती
पढ़ी-लिखी
कमाऊ-घरेलू
होशियार
संस्कारी
ईश्वर में आस्था
तीखा नाक
नुकीली आँखें
चौड़ा माथा
लंबा कद
दुबली-पतली
गोरा-रंग
छोटा परिवार
अच्छा खानदान
शोहरत
इज़्ज़त
जवानी
सब कुछ...........
सब कुछ तो है उसके पास
परंतु
परंतु, वह सुंदर नहीं हो सकती
क्यों?
क्योंकि..........................
वक्त और हालात के
थपेड़ों के
उसके चेहरे पर निशान हैं
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7.झोंपड़ी में सूर्य-देवता
पुल के नीचे
सड़क के बाजू में
तीलों की झोंपड़ी के अंदर
खेलते..............
दो बूढ़े बच्चे
एक नग्न और
दूजा अर्ध-नग्न
दीन-दुनिया से बेख़बर
ललचाई नज़रों से
देखते.........
फल वाले को
आने-जाने वाले को
हाथ फैलाते.....
कुछ भी पाने को
फल,कपड़े,जूठन,खाना
कुछ भी.........
सरकारी नल उनका
गुस्लख़ाना
और रेलवे -लाइन.....पाखाना
चेहरे पर उनके केवल अभाव
सर्दी-गर्मी का उन पर
नहीं कोई प्रभाव
अकेले हैं बिल्कुल
कुछ भी तो नहीं
उनके अपने पास
नहीं करते वे किसी से
हंस कर बात
और झोंपड़ी से
झाँकता सूर्य देवता
मानो दिला रहा हो
अहसास........
कोई हो न हो
लेकिन
मैं तो हूँ
और हमेशा रहूँगा
तुम्हारे साथ
तब तक............
जब तक है
तुम्हारा जीवन
यह झोंपड़ी
और ग़रीबी का नंगा नाच
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संपर्कः
सीमा सचदेव
एम. ए ,एम.एड , पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस
रामान्जन्या
लेआऊट
माराथली, बैंगलोर
५६००३७
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(चित्र - कृष्णकुमार अजनबी की कलाकृति)
bahut achhi,sundar ,,dil ko chu lenewali kavitayen,bahut acha laga padhkar.
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