हास्य - व्यंग्य ग़ज़लें व कवितायेँ -वीरेन्द्र जैन होली की डोली फिर हथेली खुजाय है भाई आय का क्या उपाय है भाई ...
हास्य - व्यंग्य ग़ज़लें व कवितायेँ
-वीरेन्द्र जैन
होली की डोली
फिर हथेली खुजाय है भाई
आय का क्या उपाय है भाई
कोई पूछे न सेव गुझिया को
हर जगह चाय चाय है भाई
पाइप लाइन से नहीं ड्रापर से
आजकल जल प्रदाय है भाई
अपनी संसद से भी कहीं ज्यादा
अपने घर काँय काँय है भाई
ऐसी असहाय है सरकार कि बस
हर तरफ हाय हाय है भाई
वो गये जब से छोड़ कर इसको
सारा घर साँय साँय है भाई
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नैनो में सपने
इसमें केवल बीबी बच्चे आयेंगे
नैनो में माँ-बाप समा ना पायेंगे
दादाजी का रिश्ता, कोई रिश्ता है
वे पापा के पापाजी कहलायेंगे
माल विदेशी बिके स्वदेशी झख मारे
अंधे जब पीसेंगे कुत्ते खायेंगे
इतना बोझ न डालो कंधे झुक जायें
अपनी डोली फिर किससे उठवायेंगे
हमको केवल स्वागत गान नहीं आते
होली पर गाली भी हमीं सुनायेंगे
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टेंशन मत पालो
गुलशन है बेहाल टेंशन मत पालो
उल्लू है हर डाल टेंशन मत पालो
देख न्याय का हाल टेंशन मत पालो
हम सब सव्वरवाल टेंशन मत पालो
पैसा करे सवाल टेंशन मत पालो
लोग बजायें गाल टेंशन मत पालो
अफसर खाते माल टेंशन मत पालो
स्टिंग खींचे खाल टेंशन मत पालो
प्रेस बिछाये जाल टेंशन मत पालो
मचता रहे बवाल टेंशन मत पालो
पड़ता रहे अकाल टेंशन मत पालो
सूखें नदिया ताल टेंशन मत पालो
उन्हें नहीं गर झेंप टेंशन मत पालो
फोन हो गये टेप टेंशन मत पालो
बुश बनते मेहमान टेंशन मत पालो
राजघाट पर श्वान टेंशन मत पालो
भरें फैसले आह टेंशन मत पालो
मुकरें सभी गवाह टेंशन मत पालो
सोती है सरकार टेंशन मत पालो
महंगाई की मार टेंशन मत पालो
सभी कुओं में भांग टेंशन मत पालो
लगी गाँव में आग टेंशन मत पालो
पड़े रहें हर वक्त टेंशन मत पालो
हम अजगर के भक्त टेंशन मत पालो
फागुन का संदेश टेंशन मत पालो
धुत्त पड़ा है देश टेंशन मत पालो
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पास आई दीवाली
घर में उगी है घास पास आई दीवाली
सब हो रहे उदास पास आई दीवाली
लक्ष्मी की ओर इस प्रकार घूरतीं मिलीं
जैसे खड़ी हो सास पास आई दीवाली
बत्ती बना के दीये में डालेंगे डिग्रियाँ
एम.ए. ओ‘ बी.ए. पास, पास आई दीवाली
अपना भी अगर होता तो सीधा उसे करते
कोई उलूकदास पास आई दीवाली
सपनों से और यादों से फेंटे ही जा रहे
हम जिन्दगी की ताश पास आई दीवाली
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एक भोपाली की ग़ज़ल
उसकी बस्ती सुकून कैसा खाँ
मार्च में लगता जून जैसा खाँ
रोज हाजिर है अपने ऐब लिए
आदमी कार्टून जैसा खाँ
देख कर उनको छा गया हरदम
मुझ पै कोई जुनून जैसा खाँ
काहे की जात काहे का मजहब
तेरा भी मेरे खून जैसा खाँ
उसके आने का इंतजार रहा
वो हुआ मानसून जैसा खाँ
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चुनावों में
तरह तरह के साँप चुनावों में
सबकी अपनी छाप चुनावों में
नेता लोग बनाया करते हैं
गदहे को भी बाप चुनावों में
भाषण की गंगा में बह जाते
कॉमा फुलस्टाप चुनावों में
उनके घर विलाप संभावित है
लेते जो आलाप चुनावों में
उसका वोट बोल देगा सबकुछ
वोटर है चुपचाप चुनावों में
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अफसर
गोरे अफसर काले अफसर
पीली रंगत वाले अफसर
जैसे होते सत्ताधारी
उसने वैसे पाले अफसर
गलती नेता के निर्णय की
लेकिन गये निकाले अफसर
मंत्री की आंतों तक जाती
चाहे रिश्वत खा ले अफसर
मन में उठा पटक चलती है
दिखते बैठे ठाले अफसर
दफ्तर माई बाप हो जाते
चौराहों के साले अफसर
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व्यंग्यजल
बिल्लियों ने रास्ते काटे बहुत
हुये होंगे उन्हीं के घाटे बहुत
गाल पर बच्चे के जब बोसा लिया
खाये अपने गाल पर चाँटे बहुत
वो मिलन की रात आंखों में कटी
आये थे आशिक को खर्राटे बहुत
जब से उनके हुस्न को ’काँटा‘ कहा
मेरी राहों में बिछे कांटे बहुत
आ भी जाओ ऐ सुकूने जिन्दगी
शोर करते हैं ये सन्नाटे बहुत
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व्यंग्यजल
अच्छा है
इस कदर हाल-चाल अच्छा है
आंख रोती है गाल अच्छा है
आपको देख कर के आपस में
लोग कहते हैं माल अच्छा है
गंगा मैली है आजकल उससे
अपना भोपाल ताल अच्छा है
शर्म से लाल लाल गाल हुये
बनिया समझा गुलाल अच्छा है
मुंह दिखायी में औरतें बोलीं
साड़ी अच्छी है फाल अच्छा है
गोरे गालों के बीच में मस्सा
रूप का द्वारपाल अच्छा है
ख़ुशबू उठती है ब्याह के घर से
शाम को डौल डाल अच्छा है
सारा साहस जुटा के पूछ लिया
हँस के बोले सवाल अच्छा है
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हिन्दुस्तान बिक रहा
योग बिक रहा ध्यान बिक रहा
धर्म बिका ईमान बिक रहा
गुरूकुल बिकें आश्रम बिकते
सन्यासी विद्वान बिक रहा
मोबाइल से बिकें विधायक
लोकतंत्र का मान बिक रहा
अपना मंदिर बनवाने को
तथाकथित भगवान बिक रहा
रीढ़हीन विकलांग केंचुआ
बेउसूल इन्सान बिक रहा
क्या बाजार व्यवस्था आयी
पूरा हिंदुस्तान बिक रहा
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व्यंग्यजल
जिसके मुंह में मिठास होती है
मक्षिका आस पास होती है
उसके बंगले की ओर जाते गधे
जिसके बंगले में घास होती है
दूध से पानी से या मय से भरो
जिन्दगी तो गिलास होती है
मूलतः नग्न सभी होते हैं
सभ्यता तो लिबास होती है
यात्राएं तभी तलक होतीं
जब तलक इक तलाश होती है
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व्यंग्यजल
तेल उनका फुलेल उनका है
उनकी महफिल में खेल उनका है
दूर से दिख रहा जो गुलदस्ता
दरअसल घालमेल उनका है
चाहे वे पालें या शिकार करें
उनकी चिड़िया गुलेल उनका है
ताल में मय उसूल डूब गये
इस तरह तालमेल उनका है
क्या करें बंध गये मुहब्बत में
नाक मेरी नकेल उनका है
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व्यंग्यजल
मुहब्बत में रहे कायर हमेशा
वे आशिक हो गये शायर हमेशा
कभी सुनवाई उनकी हो न पायी
अपीलें कीं मगर दायर हमेशा
शमा जलती तो होती रौशनी भी
जली है दिल में इक फायर हमेशा
कभी बैटिंग कभी बॉलिंग नहीं की
बने रहते हैं अम्पायर हमेशा
वही सच बोलती उनकी अदालत
दिखाते जो उसे लॉयर हमेशा
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व्यंग्यजल
बजा दे काश! ये किस्मत हमारी
हमारे फोन पर घण्टी तुम्हारी
तुम्हारा स्वर बने कानों का व्यंजन
उठे हर शब्द से ख़ुशबू ख़ुमारी
हमेशा आशिकों की साँस फूली
मुहब्बत की बहुत ऊंची अटारी
उतारेंगे भला क्या आरती वो
जिन्होंने आपकी इज्जत उतारी
मदारी ने निकाले साँप हरदम
बजट सी खोलता जब भी पिटारी
दीवानी सीख ले कच्चा चबाना
इधर ईंधन बहुत महँगा हुआ री
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वाहन दर्शन
वाहनों पर पद लिखे हैं
उन पदों में कद लिखे हैं
प्रेस से लेकर पुलिस तक
मंच या परिषद लिखे हैं
लाल पीली बत्तियों से
मालिकों के मद लिखे हैं
मंत्र जयकारे गुंजाते
मन्दिरोमस्जिद लिखे हैं
जो न लिखना चाहिये थे
शब्द वे बेहद लिखे हैं
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वे बहुत नहीं आते
खुशनुमा दस्तखत नहीं आते
फोन आते हैं खत नहीं आते
उनने कुछ ठीक कर लिया होगा
गम को करने गलत नहीं आते
जबसे आने लगे हैं नेताजी
मन्दिरों में भगत नहीं आते
कहने सुनने से मानते ही नहीं
जब तलक खुद भुगत नहीं आते
कोई मतलब जरूर होता है
आप य ही फकत नहीं आते
जब भी आ जायें उनकी मर्जी है
आजकल वे बहुत नहीं आते
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व्यंग्यजल
असलियत कम गुमान ज्यादा दे
बात कम कर बयान ज्यादा दे
अब ज़मीनों के भाव ऊंचे हैं
इसलिए आसमान ज्यादा दे
राह जैसी है वैसी रहने दे
रूह वाली उड़ान ज्यादा दे
नौकरी छीन बन्द कर धंधे
फैले हाथों को दान ज्यादा दे
देह की देखभाल पूरी रख
और भाषण में जान ज्यादा दे
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व्यंग्यजल
कैसों कैसों की जरूरत पड़ती
जब भी पैसों की जरूरत पड़ती
आत्मा में वजन नहीं फिर भी
यम का भैंसों की जरूरत पड़ती
इस सियासत में अच्छों अच्छों को
ऐसे वैसों की जरूरत पड़ती
मेरे घर जब बहार आती है
आप जैसों की जरूरत पड़ती
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नहीं भोपाल दिखता है
इन्हें आकाश दिखता है इन्हें पाताल दिखता है
इन्हें इतिहास का बीता हुआ हर साल दिखता है
इन्हें दिल्ली दिखायी दे रही भोपाल में बैठे
जिन्हें भेापाल में बैठे नहीं भोपाल दिखता है
अभी कल तक उधारी से गृहस्थी को चलाता था
मिनिस्टर हो गया जब से वो मालामाल दिखता है
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ग़ज़ल
उजाले का सफर अब मुल्तवी मालूम देता है
वो शायर था, मगर अब मौलवी मालूम देता है
कभी खुद से जियादा जानता था जिसके बारे में
वही इन्सान मुझको अजनबी मालूम देता है
जमाने के लिए लब खोलता तो बात दीगर थी
मगर हर बात में वह मतलबी मालूम देता है
हजारों लोग अब दहशतजदा हैं देख कर उसको
जो अन्धे हैं उन्हें ही अब नवी मालूम देता है
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इन्सानों की आफत चाचा
जब तक खुदा सलामत चाचा
इन्सानों की आफत चाचा
मुल्ला मरे पादरी मरता
मरता ग्रन्थी पंडित चाचा
पाँचों वक्त नमाजें पूजन
फिर भी नहीं हिफाजत चाचा
वे भी जर जमीन मालिक जो
रब से रखें अदावत चाचा
सहते सहते उमर बीत गई
अब तो करो बगावत चाचा
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फजीता आम चुनाव में
ये हारा वो जीता आम चुनाव में
अच्छा हुआ फजीता आम चुनाव में
गीदड़ निकला मतगणना के बाद वो
जो दिखता था चीता आम चुनाव में
रामराज्य के धोबी जैसी फब्तियाँ
खड़ी हुयी जब सीता आम चुनाव में
मानव देह धरे गिरगिट अवतार जो
उसको बड़ा सुभीता आम चुनाव में
चन्दा दे दे गंजी हो गयी चाँद भी
खाली हुआ खलीता आम चुनाव में
वर्कर पानी पी पी कर के कोसता
जो दारू पीता था आम चुनाव में
कागज कलम उठा दफ्तर में बैठ फिर
जो बीता सो बीता आम चुनाव में
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व्यंग्यजल
सबको चिकनी शक्ल दिखलाता मिला
पीठ पीछे आइना काला मिला
रास्ते आवागमन के दूसरे
सामने के द्वार पर ताला मिला
वोट देकर आदमी बाहर हुआ
फिर न कोई पूछने वाला मिला
बैठकों में कीमती फानूस था
माँ के कमरे में लगा जाला मिला
दाल रोटी भी न खा पाये कभी
देख कर के दाल में काला मिला
नीर गंगा का बहुत मैला हुआ
ला बिरहमन इसमें कुछ हाला मिला
वो कभी दाता नहीं हो पाये जो
विधाता से मांगने वाला मिला
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मंच माला शामियाने आ गये
हाथ फिर अपना बनाने आ गये
देख, महफिल में सयाने आ गये
फिर किसी की सादगी भायी हमें
फिर लगा गुजरे जमाने आ गये
हम तो मय को खून दे कर लाये हैं
आप पैमाने उठाने आ गये
मर गयी कविता इसी पाखण्ड में
मंच माला शामियाने आ गये
यार तेरे दर पै आना था हम
जो मिला जब उस बहाने आ गये
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व्यंग्यजल
दौड़ कर बाप से लिपटा बच्चा
जैसे चुम्बक चिपक गया सिक्का
खत है उनका तो वो धरोहर है
छोड़िये भी कि उसमें क्या लिक्खा
एक हम पर निगाह उड़ती सी
बात कितनी बड़ी है अलबत्ता
आपका द्वार आपकी चौखट
अपनी काशी यही, यही मक्का
वो तो अब आसमान में होगा
जो गिरा खा के इश्क में धक्का
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व्यंग्यजल
खेतों कुओं पै वादों के खम्भे गड़े रहे
बिजली न आई खेत तो सूखे पड़े रहे
नारों न गालियों का कहीं कुछ असर हुआ
सत्ता का तेल पी के वे चिकने घड़े रहे
लिख के तो लाये थे मगर खत दे नहीं सके
जब तक रहा मैं पास में बच्चे खडे़ रहे
ना आये वे तो दिल ने लगातार बात की
वो आ गये तो होंठ पै ताले पड़े रहे
रोजी मिली न रोटियाँ, घर भी उजड़ गया
अखबार में उपलब्धियों के आंकड़े रहे
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ग़ज़ल
लगते हैं आम जब भी दरख़्तों में डाल पर
बस्ती के लोग खेलते पत्थर उछाल कर
जैसा सिखाओगे उसे वैसा ही करेगा
बच्चा डरा रहा हमें आंखें निकाल कर
चिडयाघरों में देख कहाँ यह सवाल है
हिरनी सी आंख मुग्ध है, हिरनी की चाल पर
जिस जिस ने जो भी पूछा वो उत्तर उन्हें मिले
उठ कर चले गये हैं हमारे सवाल पर
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किताबें
सकपकाती हैं, न हैं डरती किताबें
डाकियों का काम जब करती किताबें
नाम दो सुन्दर सुलेखों में बना कर
मिटाती संकोच से घिरती किताबें
शब्द के बिन भी कई सन्देश देतीं
सीढ़ियों पर बेवजह गिरती किताबें
छात्र आते और जाते मौसमों से
जिन्दगी भर को हुयी भरती किताबें
शब्द का साधक समय के पार जाता
देह मरती पर नहीं मरती किताबें
थाम लेतीं जब इन्हें नाजुक हथेली
संग संग इठलाई सी फिरती किताबें
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संपर्क:
वीरेन्द्र जैन
२/१ शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टॉकीज के पास भोपाल म.प्र.
vyang se bhari bahut achhi gazale,kahi satya pradaarshan karati nice
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