शेरजंग गर्ग के दो व्यंग्य

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आदत क्यू में खड़े होने की पान खाने से लेकर पान न खाने तक की आदतों को विभिन्न कोणों से बुरा-भला कहा गया है। हमारे ज़्यादातर नए साहित्यकारो...

आदत क्यू में खड़े होने की

पान खाने से लेकर पान न खाने तक की आदतों को विभिन्न कोणों से बुरा-भला कहा गया है। हमारे ज़्यादातर नए साहित्यकारों को गालियाँ खाने और गालियाँ खिलाने की आदत है; हमारे एक पड़ौसी के बच्चे को गली-मोहल्ले की नालियों में झाड़ू लगाने की आदत है। ठीक उसी प्रकार जैसे हमारे अध्यापकों को न पढ़ाने तथा विद्यार्थियों को न पढ़ने की आदत है। एक कविबंधु ने ज़िन्दगी जीने को भी आदत कहा है और उनके कथनानुसार यह आदत मरने के बाद ही जाती है। पर क्यू यानी लाइन में खड़े रहने की आदत शायद मरने के बाद भी नहीं जाती। मरने के बाद भी लोगों की अर्थियों को क्यू में खड़ा हुआ पाया गया है। जिन कमबख़्तों को ज़िन्दगी भर क्यू में खड़े रहने की आदत नही पड़ती, अक्सर उनके मुर्दे भी अर्थियों में ही करवटें बदलने लगते हैं और उनके दाह-संस्कार का स्वर्णिम दिवस अनिश्चित काल के लिए टल जाता है।

मैं परमात्मा का आभारी हूं। मुझे कम सुनाई पड़ने लगा है। परमात्मा जो कुछ करता है, सोच-समझकर करता है और ठीक करता है अर्थात् मनुष्य जो कुछ करता है बिना सोचे-समझे करता है और गलत करता है। इसी प्रसंग में परमात्मा के दूत डॉक्टरों का भी शुक्रगुज़ार हूँ। उनकी समझ में मेरी बीमारी नहीं आ रही। यदि उनकी समझ में मेरी बीमारी आ गई होती तो वे ईश्वरीय आदेश के विरुद्ध मेरे कान ठीक कर देते और मुझे सुननी-अनसुननी सुननी पड़ती। लोग जब कहनी-अनकहनी से बाज़ नहीं आयेंगे, मैं इसी प्रकार परमात्मा का आभारी रहूँगा। मैं दूसरों की सुविधा का भी पूरा ध्यान रखता हूँ। लोग मेरी बातें भी सुन सकें इसलिए मैंने बहुत धीरे-धीरे बोलना आरंभ कर दिया। इस सबके लिए आपको मेरा आभारी होना चाहिए।

कर्ण-विशेषज्ञ (अर्थात कान, नाक और गला स्पेशलिस्ट) से परामर्श लेने गया तो वहाँ ऊचाँ सुनने वालों की एक लम्बी क्यू थी। मुझे इतनी ज्यादा भीड़ देखकर प्रसन्नता हुई। न जाने लोग भीड़ से घबराते क्यों हैं ? गोया भीड़ न हो ततैयों का कोई छत्ता हो और काट खाए जाने का डर हो। अरे भाई, यहाँ तो भीड़ पहले से ही मरी हुई है, वह किसी को ख़ाक काटेगी ? अत: मुझे अपने सहरोगियों की भीड़ देखकर सहयोगियों का-सा प्यारा भ्रम हुआ, फिर कुछ उदासी महसूस हुई; क्योंकि मैंने स्वयं को क्यू में सबसे पीछे खड़ा हुआ पाया। अभी पूरी तरह उदास भी नहीं हो पाया था कि सामने दीवार पर लटकी प्लेट पर लिखा मिला-'क्यू में खड़े होने की आदत डालिये' गर्ज़ेकि क्यू में शांतिपूर्वक खड़े रहिये। धक्के खाइये, छक्के छोड़िये, हक्के-बक्के हो जाइये, लेकिन धक्के खिलाइये नहीं। औरों को क्यू तोड़कर जीने दीजिये। मैंने इसी नियम के अनुसार स्वयं को संतोषपूर्वक क्यू में लगाये रखा।

यह जान कर मुझे अतिरिक् त प्रसन् नता हुई कि सभी बुज़ुर्ग और प्रौढ़ नज़र आ रहे व्यक्ति क्यूवादी थे और क्यू को ज़रा भी आँच नहीं आने दे रहे थे। अगले सिरे पर कुछ गड़बड ज़रुर थी। नई पीढ़ी के नौजवान मुस्कराते चेहरे लिए आते-जाते और क्यू में पहले खड़े व्यक्ति से इधर-उधर की बातें करते और फिर क्यू में नहीं, सीधे डाक्टर के कमरे में प्रवेश करते नज़र आते। यह सब मुझे सरासर क्यू-आचार संहिता को भंग करने तथा उसमें दुष्टता का रंग भरने के समान लगा। मैंने ज़ोर-ज़ोर से या कहूँ शोर-शोर से ऊँची आवाज़ में बोल-बोल कर इसका विरोध किया पर किसी ने मेरी एक न सुनी, क्योंकि वे लोग इस क़दर बहरे थे कि ऊँचा भी नहीं सुन सकते थे। परिणाम वही हुआ जो हमारी राष्ट्रीय परंपरा के अनुसार होना चाहिए। यानी हम उस दिन ज्यों-के-त्यों क्यू में खड़े रहे और डाक्टर अपनी ड्यूटी पूरी करके छू-मंतर हो गए। मेरे पास कोई चारा नहीं रहा। अगर रहता भी तो मैं उसे किसी को डालने के मूड में नहीं था। मैं बस स्टैंड पर आ गया और दफ्तर की बस की प्रतीक्षा में क्यू में खड़ा हो गया। इत्तफ़ाक़ से मेरा अफसर भी उसी क्यू में खड़ा था। अब हम एक-दूसरे से नज़रें बचा रहे थे। ज़ाहिर है, उस दिन अफसर को मेरे देर से दफ्तर पहुँचने पर क्रॉस लगाने का अवसर नहीं मिला। पर क्यू में खड़े-खड़े उसने ईसाई पादरियों की शैली में कई बार क्रॉस ज़रूर बनाया।

क्यू में खड़े रहने की स्थिति में किसी भी व्यक्ति का नाक-भौं न सिकोड़ना अपने-आप में बॉक्स में प्रकाशित होने के योग्य समाचार है। नयी पीढ़ी ने तो जैसे किसी भी क्यू में खड़े न होने की मानो कसम खा रखी है। उसके नारे हैं-'हम क्यू में खड़े नहीं रह सकते', 'क्यू में वे खड़े हों जिन्हें अपने आप पर भरोसा नहीं','क्या हमारी नियति क्यू में खड़े रहना ही हैं ?' इसी प्रकार के अनेक नारे हैं जो हमें गाहे-बगाहे सुनने को मिलते हैं। यहाँ हर होनहार क्यू बनाने का नेक काम न करने तथा क्यू तोड़ कर भागने के लिए कुछ वैसा व्यवहार कर रहा है जैसे भारतीय विधायक मंत्रिमंडल में शामिल न किए जाने पर अपना दल छोड़ने के लिए और अड़ियल बैल अपनी रस्सी तोड़ने के लिए करता है। सारे-का सारा देश प्रधान मंत्री बनना चाहता है। पर लोगों की समझ में इतनी मोटी बात क्यों नहीं आती कि सब्र से क्यू में लगे रहो और जब भी मौका आये,उसे तोड़ दो। माफ़ कीजिये, मैं ही ग़लती पर था। मोटी बात कह कर समझा रहा था, सबको समझ में आ जाएगी। पर यह भूल गया था कि कुछ लोगों की समझ इतनी मोटी होती है कि उसमें मोटी बात भी नहीं आ सकती।

जहाँ तक मेरी बात है, मैंने क्यू में खड़े होने की आदत डाल ली है। सुबह से शाम तक मैं जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण काम करता हूँ, वह क्यू में खड़ा होना ही है। सुबह नौ बजे जाकर दफ्तर की बस की क्यू में लग जाता हूँ और फुरसत में क्यू में खड़ा-खड़ा अनेक योजनाएँ बनाकर अपनी दमित इच्छाएँ पूरी करता हूँ। अमुक व्यक्ति से अमुक काम निकल सकता है,अमुक व्यक्ति को किस प्रकार नीचा दिखाया जा सकता है, अमुक व्यक्ति को किस प्रकार ऊँचा उठाया जा सकता है आदि-आदि। यह आकस्मिक नहीं है कि आधुनिक मनुष्य अपनी समस्त महत्वपूर्ण योजनाएँ क्यू में खड़ा-खड़ा ही बनाता है। फिर क्यू में खड़ा-खड़ा अखबार पढ़ लेता हूँ। आगे या पीछे खड़ी लड़की से बातचीत करने का बहाना तलाशने की कोशिश करता हूँ, यानी अपना इश्क भी क्यू में ही हो जाता है। इस प्रकार क्यू में खड़े-खड़े कितनी बार मुझे ऐसा अवसर मिला है जब मैने मुहब्बत को नए सिरे से शुरू किया है।

क्यू में इस प्रकार, लगातार और बार-बार खड़े रहते रहने का प्रताप है कि सिनेमा के टिकट-विक्रेता से अपनी दोस्ती है, राशनिंग विभाग के हेडक्लर्क अपने यार हैं, पब्लिक लायब्रेरी का संचालक मुझे जानता है, पोस्ट आफिस का विंडो क्लर्क मेरा मित्र है। और इन सब स्थानों पर क्यू में खड़ा नहीं होना पड़ता। जिस प्रकार दुख और जेल का साथी जीवन भर का साथी बना रहता है, उसी प्रकार क्यू का साथी भी आसानी से दामन छोड़ने को तैयार नहीं होता।

अपने आपको क्यू में खड़ा न करने वालों तथा इस स्थिति की निंदा करने वालों की मैं निंदा करता हूँ। क्यू में खड़े रहना हमारी सबसे बड़ी राष्ट्रीय आवश्यकता है। दूध के डिपो से लेकर मंत्रियों के बंगलों तक जहाँ देखिए क्यू-ही-क्यू नजर आती है। देश में क्यू सम्प्रदाय की जड़े निरंतर गहरी होती जा रही हैं और हज़ारों-लाखों लोग क्यू में खड़े हैं। ऐसी हालत में स्वयं को इन क्युओं से अलग घोषित करना राष्ट्र विरोधी कार्य है। सारे देश का भविष्य इन क्युओं पर और इन क्युओं का भविष्य आप पर निर्भर करता है। मतदाता के दरवाजे पर पाँच साल में एक बार वोट माँगने वालो की क्यू लगती है और देश के हर कोने में मतदाता रोज़ाना क्यू में खड़ा रहता है।

क्यू में खड़े हुए ये लोग मेरे स्वर में स्वर मिलाकर आपसे निवेदन कर रहे हैं कि ख्यू में खड़े होने की आदत अवश्य डालिये। यह आदत नहीं डालिएगा तो आपको भी जनसामान्य किसी नेता का भाई-भतीजा समझने लगेगा। और अगर आप पहले से ही नेता हैं, तब भी यह आदत बुरी नहीं रहेगी; क्योंकि आपको एक दिन मतदाता के दरवाज़े पर उम्मीदवारों की क्यू में ज़रूर खड़ा होना होगा।

 

क्या नहीं होता ?

एक बार किसी शायर ने अपनी प्रेमिका से यह शिकवा किया था:

और तो तुमसे क्या नहीं होता

एक वादा-ए-वफ़ा नहीं होता।

यानी शायर ने पहले तो महबूबा की स्तुति की,उसका गुणगान किया; उसे समस्त विशिष्टताओं और क्षमताओं से युक्त सृष्टि के समस्त कर्मों और मर्मों की अधिष्ठात्री सिद्ध करने की गरज़ से पहला मिसरा लिखा या यों कहें कि कहा और बाद में उसे बेवफा कहकर बेचारी का पत्ता ही काट दिया। हो सकता है कि वह जमाना इतना ही खराब हो। अपनी इस क़दर चापलूसी करने वाले प्रशंसकों, फैनों और अद्यतन मुहावरों में कहें तो चमचों से भी वफ़ा का वायदा न करते हों और प्रेमियों,आशिकों,प्रशंसकों को विध्वंसक विरोधियों की भंगिमा अपना कर दूसरी किस्म की पंक्तियाँ जोड़नी पड़ी हो। इसलिए उस ज़माने को यक़ीनन ही पुराना ज़माना करार दिया जा सकता है।

पर आज ज़माना बदल चुका है। ज़नाने के तेवर बदल चुके हैं, ज़माने के त़ेवर बदल चुके हैं। प्रेमी, आशिक और प्रशंसकों के साथ-साथ माशूक,प्रेमिका ओर आराध्य बदल चुके हैं। अब चाहे मात्र प्रेमी हो अथवा देश-प्रेमी यानी नेता, वायदा कुछ इस तरह करते हैं गोया कपड़े बदल रहे हों या चुनाव सभा में अर्ज़ीनुमा भाषण दे रहे हों।

प्रेमी प्रेमिका के लिए आकाश के तारे तोड़ लाने से लेकर बच्चे खिलाने तक का वायदा बड़ी आजिज़ी और विनम्रता से करता है तथा नेताजी दीन-दुखी जनता के जीवन में बुद्ध जयन्ती पार्क की-सी खुशहाली और हरियाली का वचन देते हैं। अध्यापक नालायक विधार्थियों को ट्यूशन पढ़ा-पढ़ाकर लायक बना देते हैं और यदि कोई विधार्थी अपनी ट्यूशन को धारावाहिक रूप से चला नहीं पाता तो उसके फेल होने की संभावनाएँ सिर उठाने लगती हैं। दरअसल वायदे का सम्बन्ध कायदे से इतना नहीं है जितना कि फायदे से। बाबू साहब को तरक्की के आसार नज़र आयें तो अफसर के घर शाम और सुबह की सब्जी बिना नाग़ा पहुँचाने का वायदा पक्का समझो। बीवी के मायके जाने की ख़बर सुनकर बहुत से पतियों ने कांजीवरम और शांतिनिकेतन की साड़ियाँ लाने का वायदा किया है, उसे निबाहा भी है। इस अन्तराल में उन्होंने अपने लिए एक अदद सूट का फायदा कमाया है।

इस संदर्भ में 'वादा-ए-वफ़ा' वाली बात इतनी महत्वपूर्ण है ही नहीं, जितनी कि 'और तो तुमसे क्या नहीं होता !' वाली उक्ति। इस पर भी यदि 'क्या नहीं होता' पर ही विचार किया जाए तो कई नायाब नुक़् ते हाथ लगेंगे। यह 'क्या नहीं होता' लगभग उसी अंदाज़ में कहा गया है जिसमें अक्सर यह सब कहा-सुना जाता है-त्यागियों के महल खड़े हैं, ब्रह्मचारियों के बच्चे कान्वेंटों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, वेश्याएँ आत्मशोध पर कविताएँ पढ़ रही हैं, अकविगण इस-उस मंच से कविताएँ पढ़ने को लालायित हैं और लाला झंगूमल आमरण अनशन करके भी हर तरह का चन्दा खा रहे हैं।

यह बात शुरू-शूरू में मेरे गले इसलिए नहीं उतरती थी, क्योंकि मैं मानता था, 'क्या होता है ?'मेरी अन्तरात्मा और विवेक मुझसे कहा करते थे: अमुक जी हर काम बेईमानी से कर रहे हैं, धोखाधड़ी कर रहे हैं, तुम्हें उनका विरोध करना चाहिए और मैं कहता था कि मेरे विरोध से क्या होता है ? बाज़ार में चीज़ें नहीं मिल रही हैं, ज़रूरत से ज़्यादा महँगी मिल रही हैं,तुम तो फिज़ूल की चीज़ें खरीदनी बंद कर दो,ज़रूरत से ज़्यादा कुछ भी न लो। यहाँ तक कि अपनी ज़रूरतें भी कम कर दो,क्योंकि तुम्हारी ही तरह यदि और लोग भी ऐसा ही करें, घर नहीं भरें तो चीज़ों के दाम खुद-ब-खुद गिर जाएँगे और देश गिरने से बच जाएगा और मैं कहता रहा कि मेरे करने से क्या होता है ? लोग सड़ी गली लैंगिक सड़ाँध से भरपूर कविताएँ साहित्यिक गोष्ठियों में पढ़ते रहे और क्षमाशील सज्जनों ने उन्हें यह सोच कर नया कर दिया कि हमारे करने से क्या होता है। नतीजा यह हुआ कि हमारे कुछ न करने से कुछ नहीं हुआ। अमुक जी का लाखों का बिज़नेस है और बुद्धिजीवियों को बुद्धू समझते हैं, महँगाई दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और सड़ियल कविताओं के कवि स्वयं को हिन्दी ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं का एज़रा पाउंड समझ रहे हैं।

'क्या नहीं होता ?'की जड़े गहरी करने का श्रेय उन नागरिकों को (मेरे एक मित्र ऐसे नागरिकों को गँवारों की संज्ञा प्रदान करते हैं) प्रमुख रूप से जाता है, जिनकी मान्यता है कि अमुक कार्य के लिए इस या उस मंत्री से कहला दीजिए, फिर देखते हैं यह काम किस तरह नहीं होता, इस कार्य के लिए अमुक जी को आज किसी तरह इतनी रक़म दे दीजिए, काम हो ही जाएगा; अरे यार, कभी-कभी उनसे मिलते जुलते रहा करो न, वह खुद ही अपने योग्य सेवा पूछते नजर आयेंगे। समय चाहिए, टैकल करने का तरीका चाहिए, व्यवहार कुशलता चाहिए; कभी-कभी ज़रूरत पड़ने पर काकटेल पार्टी का इंतजाम भी चाहिए, क्या नहीं होता ? अच्छी-अच्छी कटावदार, पैनी और तनी हुई मूँछें इन करिश्मों के सामने झुक जाती हैं और पूँछों में परिवर्तित होकर हिलती हुई नजर आने लगती हैं। बड़े-बड़े हेकड़ मियाँ आपके लिए कुछ भी करने को लालायित हो उठते हैं और वर्षों का रुका काम मिनटों या घंटों में हो जाता है। मज़ेदार बात तो यह है कि इस सम्प्रदाय के अनुयायी अथवा सरपरस्त चाटुकार, बेईमान और ठग होते हुए भी साम्प्रदायिकता के राष्ट्रीय रोग से पूर्णत: मुक् त हैं।

चार दिन पहले की बात है। पड़ोस के शर्माजी सुबह-सुबह दरवाज़े पर दस्तक दिए बिना ही कमरे में घुस आए थे और बोले थे, "लड़के का एडमिशन नहीं हो रहा है। आप चाहें तो करा सकते हैं। कई कालेज़ों में आपके मित्र पढ़ाते ही हैं।" नम्बरों के बारे में पूछताछ की तो मालूम हुआ कि उनका लड़का बहुत कम नम्बरों से पास हुआ था। मैंने कहा, "जब नम्बर ही बहुत कम आए हैं तो मैं इस मामले में कर ही क्या सकता हूँ ?"

शर्माजी को मुझसे ऐसी आशा नहीं थी। स्वयं को सँभाल नहीं पाए और बोले थे, "आप जैसा व्यक्ति भी ऐसी बातें करता है ? आप किसी से ज़रा कह दें तो काम हो ही जाएगा। सिफारिश से क्या नहीं होता ?"

शर्माजी के लड़के का दाखिला कराने का पुण्य लूटना मेरे भाग्य में नहीं था, मैनें नहीं लूटा। मगर शर्माजी ने कहीं और से कहलवा-सुनवा कर एडमिशन करा लिया था। शर्माजी इसी तरह सिफारिश करवाते रहेंगे और बस उनका वह नालायक लड़का सिफारिशों के बल पर लायक बनता रहेगा, अपने से योग्य छात्रों को नालायक सिद्ध करता रहेगा, आगे बढ़ता रहेगा, तरक्की करता रहेगा। फिर सिफारिश कराकर अच्छी नौकरी प्राप्त करेगा अथवा व्यापार में नाम रोशन करेगा; बैंक बैलेंस बढ़ायेगा, कोठियाँ बनायेगा, चुनाव जीतेगा तथा सुखी आदमी की तरह जीवन-यापन करेगा। दुर्भाग्य से यदि यह किसी सरकारी अथवा गैर-सरकारी उच्च पद को पाने से वंचित भी रह गया तो इस व्यक्ति की सिफारिश का विशेष महत्व होगा।

मुझे लगता है कि इस प्रकार की बातें करके मैं इस लेख के गम्भीर पाठकों का मनोविनोद नहीं कर रहा हूँ। भावुक जन इस लेख में पीड़ा और दुख के तत्व खोजकर उदास हो सकते हैं, जो स्वयं एक दुखद स्थिति है। पर समझदार पाठक वे ही माने जाएँगे जो पीड़ा के इस प्रकरण में भी कुछ काम की बात निकाल लें। मसलन मौक़ा पड़ने पर उन्हें साधनों के शुभ-अशुभ का ध्यान नहीं रखना चाहिए। चापलूसी, बेईमानी, धूर्त्तता से क्या नहीं होता ? यानी सब कुछ हो सकता है। कौन नहीं जानता कि आधुनिक असार संसार के निर्माण तथा उत्थान में इन तत्त्वों ने अपनी क्षुद्र भूमिका बखूबी निभाई है।

 

(टीडीआईएल के हिन्दी पाठ कार्पोरा से साभार. व्यंग्य संग्रह ‘दौरा अंतर्यामी का’ में संकलित)

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रचनाकार: शेरजंग गर्ग के दो व्यंग्य
शेरजंग गर्ग के दो व्यंग्य
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