अनुज खरे का व्यंग्य : हमारे भरोसे मत रहिए…

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व्यंग्य   हमारे भरोसे मत रहिए...   -- अनुज खरे   देश में लगातार बम फट रहे हैं, बम मिल रहे हैं । लोग मर रहे हैं - गिर रहे हैं, आक...

व्यंग्य

 

हमारे भरोसे मत रहिए...

 

-- अनुज खरे

 

देश में लगातार बम फट रहे हैं, बम मिल रहे हैं । लोग मर रहे हैं - गिर रहे हैं, आक्रोशित हो रहे हैं। प्रशासन- पुलिस पर नाकारा होने के आरोप लगाए जा रहे हैं। गुप्तचर एजेंसियों को कोसा जा रहा है। स्वतंत्रता के बाद उनकी 8327वीं बार असफलता घोषित की जा रही है। ऐसे हालात में मैंने अपना पत्रकारीय दायित्व समझते हुए इस विषय पर कुछ रिसर्च-वर्क करके सभी पक्षों से वर्जन लिया है। काफी मौलिक संदर्भ सामग्री जुटाई, ताकि जाना जा सके कि एजेंसियों व पुलिस की कार्यप्रणाली क्या है, वे किन कामों में ‘बिजी’ रहते हैं। किस तरह के तनाव-दबाव से दो-चार होते हैं। किस कारण उनके पास ‘महत्वपूर्ण कार्यों’ के लिए ज्यादा वक्त नहीं निकल पाता। ताकि कड़ियों से कड़ियां जुड़ सकें। जिम्मेदारी तय की जा सके। पूरी सामग्री पढ़कर आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि उनके पास इतने महत्वपूर्ण दायित्व हैं जिसके आगे छोटी-मोटी गंभीर लापरवाही ज्यादा मायने नहीं रखती। सभी पक्षों के नाम सुरक्षा की दृष्टि से गोपनीय रखे गए हैं । मेरा नाम आप गोपनीय रखें ।

पहले जानते हैं गुप्तचर एजेंसियों का पक्ष

गुप्तचर एजेंसियों की ओर से बताया गया है कि वे हर घटना से पूर्व लगभग सारी जानकारी राज्यों को प्रदान कर देती हैं । सिवाए बम कहां- कैसे, कब फटेगा, आरोपी कौन होगा, सामग्री कहां से, कैसे लाई गई है, इसके पीछे किसका हाथ है। अब राज्य सरकारों और पुलिस का दोष है कि वे इतनी ‘‘ठोस’’ सूचना मिलने के बाद भी जरा सा बम नहीं खोज पाती । ‘‘सब हरामखोर हो गए हैं साले’’। अतिरिक्त टिप्पणी के रूप में उन्हीं अधिकारी महोदय ने जोड़ा जिन्होंने नाम न छापने की शर्त पर जानकारी दी थी। कोई कर्मठ नहीं हैं। सब जिम्मेदारियों से बचते हैं। सूचना आने पर उसे रद्दी की टोकरी में फेंककर कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। यहां मर-मर कर देश के दुश्मनों के ठिकानों पर घुसकर कैसे तो जानकारी लाते हैं। एक ये राज्यों की पुलिस है हर सप्ताह भेजे जाने वाले सौ-सौ, डेढ-डेढ सौ पन्नों की ‘गोपनीय’ जानकारी को रद्दी समझती है। तभी तो घटना हो जाती है और फिर हमें ‘मजबूरी’ में बताना पड़ता है कि दी तो थी जानकारी। दूसरे सप्ताह के डिस्पैच के खंड दो के अध्याय 5 के पेज दो के ऊपर से तीसरे पैरे की सातवीं लाइन में लिखा है कि राज्य में कोई ‘अप्रिय’ घटना हो सकती है।

बताइए सोए पड़े रहते हैं कि नहीं? हमारी सूचनाओं का ईमानदारी से अध्ययन करें तो क्यों नहीं रोक सकते ऐसी घटनाएं? सब साले आरोप मढ़ने के ‘एक्सपर्ट’ होते हैं। कुछ अधिकारियों को तो ड्यूटी ही हर घटना में गुप्तचर एजेंसियों की असफलता बताने भर की है। बताइए तो ऐसे होगा समन्वय! हमसे नहीं तो दुश्मनों से ही प्रेरणा ले लें वे कितना समन्वय रखते हैं। पुलिस में ‘एक्सपर्ट’, प्रोफेशनल लोगों की भारी कमी है, विदेशों में देखिए कितने एक्सपर्ट लोग होते हैं। खैर, कुछ तो खुद करें, पता करें, काम करें, तेजी दिखाएं, कुल मिलाकर हमारी तो सलाह है कि खुद ‘एक्टिव’ हो जाएं, हमारे भरोसे मत रहें। बल्कि हमारी तो ये भी गंभीर एडवाइज है कि जनता को भी एक्टिव हो जाना चाहिए। सतर्कता रखनी चाहिए। आते-जाते हर आदमी को संदिग्ध नजरों से देखना चाहिए, हर वस्तु पर जासूसी निगाहें लगाना चाहिए। तब जाकर पार पड़ेगा भैइया, ये क्या कि हमारे भरोसे ही पड़े रहे। अच्छा अब इजाजत दीजिए एक वीवीआईपी के कुछ ‘पर्सनल इम्पोर्टेंड मैटर’ को डील करने जाना है।

अब जानते हैं पुलिस क्या कहती है

पुलिस की ओर से बताया गया कि ज्यादातर जवान वीवीआईपी सुरक्षा, राजनीतिक समीकरणों की व्यवस्था देखने, विरोधियों की गतिविधियों की पड़ताल, खरीदे जाने, बिके जाने की जांच के महती कार्यों में जुटे हैं। ‘‘पब्लिक तो समझे बैठी है जैसे हम फोकट हैं’’, बकौल एक शीर्ष अधिकारी, नाम न छापने की शर्त। उपरोक्त कार्यों से जो थोड़ा बहुत समय मिलता है उसमें पेट-परिवार के लिए वसूली का थोड़ा बहुत काम करना पड़ता है । मंथली टारगेट पूरे करने पड़ते हैं । साहब की ‘‘बंधी’’ पहुंचाना है। थाने में आरोपियों को कूटना है, कुछ झगड़ों में मध्यस्थता करनी है । कार्यों का इतना बोझ होता है, एक बेचारी जान, इतने काम, थकान नहीं होती होगी? आप बम-बम कर रहे हैं। इतना बम-बम भोले करते तो मोक्ष ही प्राप्त कर लेते। बात करते हैं और सुनिए भाई साहब पब्लिक को क्या लगे हैं हम कोई जादुई छलनी लेकर बैठे हैं लोगों को छाना और आरोपियों को कंकड़-पत्थर की तरह बाहर फेंका। अबे, हम भी इंसान हैं। अंदाजा ही तो लगा सकते हैं, वही करके इतने सारों को कूट डाला, निकला क्या आरोपी? फिर हमारे तो तरीके ही प्राचीनतम हैं। सीधे-साधे मारपीट के अलावा हमें कोई तरीका ही नहीं मालूम सच उगलवाने का। बम रखने वाले शातिर हैं, हम भोले हैं वे आधुनिक तकनीक अपना रहे हैं, हम परंपरा प्रेमी है। कैसे करें मुकाबला।

हमारे हथियारों को ही लो, वो एके-47 लाते हैं, हम थ्री नॉट थ्री ले जाकर इंतजार करते हैं कि कभी तो बच्चू की गोलियां खत्म होंगी। फिर अपनी 303 को लट्ठ की तरह भांज-भांजकर सालों का खोपड़ा फोड़ डालेंगे। कर तो रहे हैं मुकाबला? अब क्या गोलियां की बौछार के बीच जाकर उनका कॉलर पकड़ लें। हम विनम्रता से बात करते हैं वे गोलियों से जवाब देने लगते हैं। ऊपर से हमारे साले हवलदार-कांस्टेबल कामचोर हैं जरा सा कहते हैं कि पकड़ लाओ, वे हमें ही जवाब देने लगते हैं कि आप ही पकड़ लो जाकर। अरे भइया हमीं तो हैं जिनने उनकी गोलियों की बौछार में भी सिर नहीं निकला। सारी गोलियां खत्म करवा दीं, अब सड़ा सा पकड़ने का काम बचा है इनसे वो भी नहीं होता। ये साले इतने डरपोक-मक्कार आ पड़े हैं फोर्स में कैसे होगा मुकाबला?, आप ही देख लो। फिर आप कहते हो कि काम नहीं होता, मुफ्तखोर हैं, तनखा उठा रहे हैं। अरे, आप क्या जानो तनखा से होता ही क्या हैं, कैसे घर चला रहे हैं? कैसे तो कहीं से मांग-मग के छीन-छान के घर चलाते हैं। उसमें भी सौ दिक्कतें, ठेलेवाले तक मंत्रियों की धौंसपट्टी देते हैं।

डरते-डरते तो वसूली करते हैं कि कहीं ये भी उनका रिश्तेदार निकला तो पैसे तो गए ही टाइम खोटी हुआ सो अलग। और आफ कहने से क्या होता है कि ऊपर से गुप्तचर एजेंसियां तो ठोस सूचनाएं भेज रही हैं, पकड़ते क्यों नहीं? किसे पकड़ लें? ताड़-ताड़ कर वे ऐसी-ऐसी चीजें भेजते हैं कि डिपार्टमेंट ही अंदर हो जाए। पिछले बार तो फिंगर प्रिंट ऐसे भेजे कि मिलान करने वाले हवलदार और थानेदार के फिंगर प्रिंटों से ही मिलने लगे, बताओ तो अब उन्हें अंदर कर देते क्या? बड़ी मुश्किल से उन्हें बचाया गया तो अब कोई मिलान करने को तैयार नहीं होता कि क्या पता इस बार हमारे ही मिल जाएं। पता नहीं कहां से आर्डर देकर ऐसे फिंगर प्रिंट बनवाते हैं। पिछली बार संदिग्धों का स्कैच लेकर भी एक आया था। थाने में एसपी साहब शेविंग करके बैठे हुए थे। फिर लो साहब हूबहू एकदम जुड़वां शक्लें, साहब ने तो शेविंग करना ही बंदकर दिया। बाद में दाढ़ी अनुशासन से ऊपर निकलने लगी तो स्कैच के ही काली लाइनें खिंचवाकर दाढ़ी उगवाना पड़ी । तब जाकर खुद शेविंग कर पाए थे। और लो संदिग्धों की बातचीत के ई-मेल प्रिंट भिजवा दिए थे। इंग्लिश में थे एक पढ़े-लिखे को पकड़ के लाए तब पढवा पाए चार घंटे तो उसे खोजने में ही लग गए, बताओ इतनी व्यवस्थाओं में समय नहीं लगेगा।

आप कह रहे हो कि पकड़ लो, किसे पकड़ लें! पिछली बार भी एक संदिग्ध को पकड़ लाए थे, अंग्रेजी के ऐसे-ऐसे हमले किए उसने कि पूछो मत बडी मुश्किल से दो-चार सौ रुपए देकर विदा करना पड़ा था। और सुनो पिछले बार तो एक बम की सूचना आ गई थी। डिस्पोजल स्क्वायड को बुलाया तो पता चला मेन आदमी जिम गया है। जैसे-जैसे वहां से पकड़ा तो बोला हेलमेट लेकर बेटा क्रिकेट खेलने गया है, बिना हेलमेट के बम नहीं छुऊंगा। हेलमेट आया तो मेटल डिटेक्टर की बैटरी का पानी सूखा हुआ था। उसका भी कहीं से इंतजाम करवाया तो इतने में कोई बम वाला ‘थैला’ ही उठाकर ले गया, बताया गया कि उसमें आम थे, बडे स्वादिष्ट थे। अब लो बताओ इतनी तो अंधेरगर्दी है, सुरक्षा की कहीं कोई चिंता ही नहीं है। अरे भाई, आम भी थे तो कम से कम पुलिस के आने तक तो रुकना ही था, जांच हो जाने देते, जब्ती बन जाने देते। ऐसे क्या भूखे मर रहे थे कि जान पर खेल गए, आम उठाकर खा गए, बेशर्मी से बता भी रहे हैं कि स्वादिष्ट थे। गुठली ही फटेगी साले के पेट में तब आएगा समझ में।

आप पुलिस के कर्तव्यों की बात कर रहे हो। आम खाएं आप, कर्तव्य निभाए पुलिस, ऐसा कहां लिखा है। एक बार सूचना भेज दी कि फलां-फलां मकान में छिपे है संदिग्ध। छापा मारा तो ‘साहब’ ही निकल आए, वहीं बेइज्जत करने लगे। बोले- सालों शर्मा डिप्टी से पैसे खाकर मेरी ‘सीआर’ खराब करवाना चाहते हो। इतने नाराज थे कि दो महीने तक वसूली का 8॰ प्रतिशत लेते रहे तब जाकर गुस्सा कुछ कम हुआ था। लो बताओ ऐसी क्या सूचना? बाद में भी कहते रहे कि संदिग्ध मकान था। काहे का संदिग्ध? अब हमारे साहब लोगों ने दो-चार मकान बनवा भी लिए शहर में तो क्या सबकी सूचना देते फिरें। फिर किराए पे उठाकर कुछ रुपए कमा लिए तो आफ पेट में जलन, रिटायरमेंट के बाद क्या आपसे ‘पैसे’ लेकर स्टेटस मेंटेन करेंगे, बताओ भला। इतना तनाव है की परिवार ही टूटने की कगार तक पहुंच जाए, पिछले बार ही एक संदिग्ध महिला पर नजर रखने के लिए एक लेडी कांस्टेबल लगवाई थी, बाद में खैर महिला तो भाग गई लेडी कांस्टेबल ने उसके पति से शादी कर ली, रोज-रोज बेचारी कहां-कहां से कैसे-कैसे नजर रखती तो उसने घर में ही स्थायी चौकी की स्थापना कर डाली।

आप कहते हो काम नहीं करते और क्या होता है काम? आप तो घर में मजे से क्रिकेट मैच देखते रहते हो हम यहां गर्मी-ठंडी में चौकसी पर लगे रहते हैं। संदिग्ध तो आते नहीं साहब जरूर राउंड पर आकर ‘कैश-कलेक्शन’ करके ले जाते हैं। बताओ, हम क्यों यहां जान देते पड़े हैं। ऐसा नहीं है कि संदिग्ध हमारी पकड़ में आते नहीं हैं। कई बार हम किसी को किसी मामले में पकड़कर लाते हैं और वो बताना दूसरी बात शुरू कर देता है, तो ऐसे बडे-बडे राज खुल जाते हैं, हम कभी आपको बताते हैं कि इतने बडे इल्जाम के अलावा इस पर मूल आरोप किसी गाड़ी से पेट्रोल चोरी का था। ईश्वर ऐसे ही नहीं मदद करता, प्रयास करना होता है। पुलिस वही करती है, पकड़ लाती है, कर्म करती है। तब जाकर इतने बडे-बडे मामले सामने आते हैं, ईश्वर पर भरोसा रखना ही चाहिए। सभी पुलिस वाले रखते हैं। आप भी रखिए। हमारे भरोसे मत रहिए।

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संपर्क­

अनुज खरे

सी- 175 मॉडल टाउन

जयपुर

मो. 982988739

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रचनाकार: अनुज खरे का व्यंग्य : हमारे भरोसे मत रहिए…
अनुज खरे का व्यंग्य : हमारे भरोसे मत रहिए…
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