चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (6)

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चार्ल्स   डार्विन   की   आत्मकथा अनुवाद एवं प्रस्तुति :   सूरज प्रकाश   और के पी तिवारी   (पिछले...

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

charls darwin

अनुवाद एवं प्रस्तुति :

 सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

 

(पिछले अंक से जारी…)

 

यह भी काफी मज़ेदार बात है कि वे उन विषयों पर भी अपनी रुचि बरकरार रखते थे, जिन पर वे पहले ही काम कर चुके होते थे। भूविज्ञान के बारे में तो यह बात एकदम खरी उतरती थी। अपने एक पत्र में उन्होंने मिस्टर जुड को लिखा था कि वे अवश्य घर आएँ, क्योंकि लेयेल की मृत्यु के बाद से उन्होंने भूविज्ञान पर चर्चा नहीं की थी। साउथम्पटन के भूगर्भ में पड़े कंकरों के बारे में उन्होंने सर ए गेकेई से कुछ चर्चा अपने पत्रों के जरिए की थी, जो इसका ही दूसरा उदाहरण है। यह चर्चा उन्होंने अपने देहान्त से कुछ ही पहले की थी। इसी प्रकार डॉक्टर डोहर्न को लिखे एक पत्र में उन्होंने बार्नकल (एक समुद्री जीव जो जलयानों के पेंदे में चिपका रहता है) के बारे में अपनी रुचि के बरकरार रहने का जिक्र किया था। मैं समझता हूँ कि यह उनके दिमाग की ताकत और उर्वरता के कारण था। इस बारे में वे कहते थे कि यह किसी दैवी शक्ति का उपहार है। वे अपने बारे में यही नहीं बल्कि कभी कभी यह भी बताते थे कि वे किसी विषय या प्रश्न के बारे में कई-कई बरस तक सजग रहते थे। उनकी यह मेधा शक्ति किस सीमा तक थी, यह बात इससे सिद्ध हो जाती है कि उन्होंने नाना प्रकार की समस्याओं का समाधान किया, जबकि ये समस्याएँ उनके समक्ष काफी पहले आ खड़ी हुई थीं।

यदि अपने आराम के क्षणों के अलावा भी वे कभी खाली बैठे होते थे तो उसका मतलब यही होता था कि उनकी तबीयत बिल्कुल ठीक नहीं; क्योंकि ज़रा-सा आराम मिलते ही वे अपने जीवन के बंधे हुए रास्ते पर चल पड़ते थे। रविवार और बाकी के दिन सब उनके लिए बराबर थे। उनके जीवन में काम और आराम का समय निर्धारित था। उनके दैनिक जीवन को निकट से देखने वालों के अलावा किसी दूसरे के लिए यह समझ पाना निहायत ही नामुमकिन था कि उनकी राजी-खुशी के लिए उनका नियमित जीवन कितना ज़रूरी था। अभी मैंने उनकी जिस जीवनचर्या का जिक्र किया है उसको सही रूप में चलाए रखने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार रहते थे। यदि लोगों के सामने कुछ बोलना होता था तो भले ही वह सामान्य-सी बात हो, वे उस समय बहुत तैयारी करते थे। सन 1871 में अपनी बड़ी बेटी की शादी के लिए जब वे गाँव के छोटे से गिरजे में गए तो उस समय प्रार्थना के दौरान वे सहज नहीं हो पाए। इसी तरह के अन्य मौकों पर भी वे सहज नहीं रह पाए थे।

मेरे ख्यालों में अभी भी वह घटना तरोताज़ा है जब वे ईसाईयत की दीक्षा के दौरान हमारे साथ चर्च में थे। हम बच्चों के लिए यह एक अनोखी घटना होती थी कि वे चर्च में रहें। मुझे याद है कि अपने भाई ईरास्मस को दफनाने के मौके पर वे कैसे लग रहे थे। बर्फ की फुहारों के बीच काले लबादे में खड़े हुए उनका चेहरा निहायत ही संज़ीदा और पीड़ा से भरा हुआ दिखाई दे रहा था।

कई बरस तक दूर रहने के बाद जब एक बार वे लिनेयन सोसायटी की सभा में गए, वास्तव में यह एक गंभीर विषय था, किसी भी के लिए यह घटना दिल बैठाने के लिए काफी होती, और इस सबके बाद जो परेशानियाँ उठानी पड़तीं उन सबसे हम किसी तरह बच गए। इसी प्रकार सर जेम्स पेगेट ने एक ब्रेकफास्ट पार्टी दी थी, उसमें मेडिकल कांग्रेस (1881) के कुछ प्रमुख मेहमान भी थे, और यह दावत उनके लिए बहुत ही कष्टदायक साबित हुई।

सुबह सुबह का समय ऐसा होता था जब वे अपने आप को सहज समझते थे, और अपने सभी कामों को कहीं ज्यादा महफूज ढंग से पूरा करते थे। इसीलिए जब वे अपने वैज्ञानिक दोस्तों से मिलने लन्दन जाते थे तो, इस आवागमन का समय सवेरे दस बजे तक ही रखा जाता था। यही कारण था कि वे यात्रा पर जाते समय सबसे पहली गाड़ी पकड़ने का प्रयास करते थे, और लन्दन में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के घर पहुँचते थे तो वे सब अपनी नित्य क्रियाओं में ही लगे होते थे।

वे अपने एक एक दिन का हिसाब रखते थे। किस दिन उन्होंने काम किया और किस दिन अपनी खराब सेहत के कारण वे कुछ नहीं कर पाए, उनके लिए यह बताना संभव होता था कि साल भर में कितने दिन वे निष्क्रिय रहे। उनका यह रोजनामचा, पीले रंग की एक डायरी के रूप में हुआ करता था। यह डायरी उनके आतिशदान पर रखी रहती थी। यह डायरी दूसरी पुरानी डायरियों के ऊपर रहती थी। इस डायरी में वे यह भी दर्ज करते थे कि कितने दिन वे अवकाश पर रहे और कब लौटे।

अवकाश के दिनों में वे ज्यादातर एक सप्ताह के लिए लन्दन जाते थे। या तो अपने भाई के घर (6, क्वीन एन्न स्ट्रीट) या फिर अपनी बेटी के घर (4, ब्रायन्स्टन स्ट्रीट)। अवकाश के दिनों में मेरी माँ उनके साथ ही रहती थीं। जब उनकी बीमारी के दौरे बढ़ जाते या बहुत ज्यादा काम करने की वजह से उनका सिर झूलने लगता था, तो इस तरह का अवकाश उनके लिए ज़रूरी हो जाता था। वे बड़े ही बेमन से लन्दन जाते थे, और इसके लिए सौदेबाजी भी करते थे। उदाहरण के लिए कभी कहते कि छह दिन की जगह पाँच दिन में ही लौट आएंगे। इस सारी यात्रा में उन्हें जो बेचैनी होती थी, वह केवल यात्रा की कल्पना से ही हो जाती थी, उन्हें तो यात्रा के नाम से ही पसीना छूटता था, और यह हालात सिर्फ शुरुआत में ही रहती थे, वर्ना तो कानिस्टन की लम्बी यात्रा के बाद भी उन्हें बहुत कम थकान हुई। उनकी कमज़ोरी को देखते हुए यह थकान हमें कम ही लगी। इस यात्रा में उन्होंने बच्चों जैसी खुशी जाहिर की थी, और यह खुशी बेइन्तहा थी।

हालांकि, जैसा उन्होंने बताया था कि उनकी सौन्दर्यपरक रुचि में गिरावट आ रही थी, तो भी प्राकृतिक नज़ारों के लिए उनका प्रेम तरोताज़ा और पुख्ता ही बना रहा। कोनिस्टन में की गयी हर सैर उन्हें ताज़ा दम बना देती थी। एक बड़ी झील के दो किनारों पर बसे इस पर्वतीय देश की खूबसूरती का बखान करते वे थकते नहीं थे।

इन लम्बे अवकाशों के अलावा वे कुछ समय के लिए दूसरे रिश्तेदारों के पास भी जाते रहते थे। कभी लेइथहिल के पास रिश्तेदारी में तो कभी अपने बेटे के पास साउथेम्पटन। उन्हें ऊबड़ खाबड़ ग्रामीण इलाके में घुमक्कड़ी बहुत पसन्द थी। लेइथहिल और साउथेम्पटन के पास ग्राम्य भूमि, एशडाउन जंगल के पास झाड़ियों से भरी हुई परती जमीन, या उनके दोस्त सर थॉमस फेरेर के घर के पास बंजर में उन्हें बहुत मजा आता था। अपने अवकाश काल में भी वे निठल्ले नहीं बैठते थे, बल्कि कुछ न कुछ तलाशते रहते थे। हार्टफील्ड में उन्होंने ड्रोसेरा नामक पौधे को कीड़े वगैरह पकड़ते देखा और इसी तरह टॉर्के में उन्होंने शतावरी का परागण देखा, और यही नहीं थाइम के नर मादाओं के सम्बन्ध भी जाँचे परखे।

अवकाश बिता कर घर लौटने पर वे प्रसन्न हो उठते थे। लौटने पर अपनी कुतिया पॉली से उन्हें जो प्यार मिलता था उस पर वे बहुत खुश होते थे। उन्हें देखते ही वह खुशी से व्याकुल हो उठती थी, उनके चारों ओर घूमती, किंकियाती, कदमों में लोटती, कूद कर कुर्सी पर चढ़ जाती और वहीं से छलांग मार कर नीचे आती। और पिताजी - वे नीचे झुककर उसे थपथपाते, उसके चेहरे को अपने चेहरे से छुआते, और वह उनका चेहरा चाट भी लेती। वे उस समय बहुत ही नरम और प्यार भरी आवाज़ में बोलते थे।

पिताजी में कुछ ऐसी ताकत थी कि गरमी की इन छुट्टियों को खुशनुमा बना देते थे। सारा परिवार इस बात को महसूस करता था। घर पर उन्हें काम का जो बोझ रहता था, उसके चलते जैसे उनकी खुशमिजाजी काफूर हो जाती थी, और जैसे ही इस बोझ से निजात मिलती तो अवकाश के दिनों का आनन्द उठाने के लिए वे जैसे जोश से भर जाते थे, और उनका साथ बहुत ही रोचक बन जाता था। हमें तो यही लगता था कि एक सप्ताह के साथ में उनका जो रूप हमें दिखाई देता था, वह रूप तो एक महीने घर रहने के दौरान भी देखने को नहीं मिलता था।

मैंने अभी जिन अवकाशों की बात की है, उनके अलावा वे जल चिकित्सा के लिए भी जाते रहते थे। सन 1849 में जब वे बहुत बीमार थे और लगातार पीड़ित थे, तो उनके एक दोस्त ने जल चिकित्सा के बारे में बताया। काफी समझाने के बाद वे मेलवर्न में डॉक्टर गुली के चिकित्सा केन्द्र में जाने को तैयार हो गये। मिस्टर फॉक्स को लिखे पत्रों में पिताजी ने बताया था कि इस इलाज से उन्हें काफी फायदा हुआ था, और उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा था कि मानो अब सभी बीमारियों का इलाज मिल गया, लेकिन बाद में वही हुआ कि इलाज के दूसरे तौर तरीकों की तरह यह भी बेअसर साबित होने लगा। जो भी हो यह तरीका उन्हें इतना पसन्द आया कि घर आकर अपने लिए डूश बाथ का इंतज़ाम कर लिया और हमारा खानसामा उन्हें नहलाने का काम भी सीख गया।

मूर पार्क में एल्डरशॉट के पास डॉक्टर लेन के जल चिकित्सा केन्द्र में वे बार बार जाने लगे थे, वहाँ से लौटने के बाद उनका चित्त प्रसन्न हो जाता था।

उन्होंने अपने बारे में जो कुछ बताया है उसके आधार पर यह अंदाज़ लगाया जा सकता है कि परिवार और दोस्तों के साथ उनके सम्बन्ध किस प्रकार थे, हालांकि इन सम्बन्धों का पूरी तरह से वर्णन कर पाना नामुमकिन सा है, लेकिन मोटे तौर पर अंदाज़ लगा पाना मुश्किल नहीं है। उनके वैवाहिक जीवन के बारे में, मैं ज्यादा कुछ नहीं जानता। हाँ, इतना ज़रूर है कि माँ के साथ उनका रिश्ता और लगाव बहुत गहरा था। उनके प्रति वे बहुत ही प्रेमपूर्ण व्यवहार रखते थे। उनकी मौजूदगी में पिताजी को सबसे ज्यादा खुशी होती थी। यदि उनका साथ न होता तो शायद पिताजी का जीवन बहुत ही ग़मगीन होता। उनके जीवन में संतोष और खुशी का दरिया मेरी माँ ने ही प्रवाहित किया था।

उनकी पुस्तक एक्सप्रेशन ऑफ इमोशन्स से ज्ञात होता है कि वे बच्चों की हरकतों को कितना बारीकी से देखते थे। यह उनका जन्मजात गुण था (मैंने उन्हें कहते सुना था)। हालांकि वे रोते चिल्लाते बच्चों के हाव भाव को बारीकी से देखने को आतुर रहते थे, लेकिन उसके दुख के प्रति उनकी संवेदना के चलते यह आतुरता धरी रह जाती थी। अपनी एक नोट बुक में उन्होंने अपने छोटे बच्चों की बातों को लिख रखा था, जिससे आप समझ सकते हैं कि वे बच्चों के बीच रहकर कितनी खुशी महसूस करते थे। कभी कभी ऐसा लगता है कि उन सभी घटनाओं की याद करके वे एक तरह से दुखी भी होते थे, क्योंकि बचपन दूर जा चुका है। उन्होंने अपने री कलेक्शन्स में लिखा है : `जब तुम बहुत छोटे थे तो तुम्हारे साथ खेलकर मैं भी आनन्द मग्न हो जाता था, उन दिनों की याद बड़ी ही दुखद है क्योंकि वे बीते दिन कब आने वाले!'

छोटी बिटिया एनी की असमय ही मृत्यु के कुछ दिन बाद उन्होंने जो वाक्य लिखे, वे उनके मन की सुकोमलता को बताते हैं-

`हमारी बेचारी बिटिया एनी 2 मार्च 1841 को गॉवर स्ट्रीट में पैदा हुई थी और 23 अप्रैल 1851 की दोपहर को मेलवर्न में हमसे सदा के लिए बिछुड़ गई।

`मैं उसकी याद में ये चन्द पेज लिख रहा हूँ, क्योंकि मैं समझता हूँ कि अपने वाले समय में, यदि हम जिन्दा रहे, तो लिखी हुई ये सभी घटनाएँ उसकी याद को और भी गहराई से हमारे सामने लाएँगी। मैं जिस तरह से भी उसके बारे में सोचूं हमारे बीच से उसके चले जाने के बावजूद उसकी जो शरारतें आज भी हमारे सामने कौंध जाती हैं वे उसकी किलकारियाँ। इसके अलावा उसकी खासियत में पहली तो थी उसकी संवेदनशीलता जो कि अजनबी लोगों के ध्यान में नहीं आती थी और दूसरे उसका गहरा प्रेम। उसके चेहरे से ही पता चल जाता था कि वह कितनी प्रसन्न और अबोध है, उसके लिए एक एक पल असीम शक्ति और जीवंतता से भरा हुआ था। उसे गोद में उठाकर घूमना भी बहुत खुशी प्रदान करता था। आज भी उसका प्यारा चेहरा मेरी आँखों के आगे तैर उठता है। कई बार वह मेरे लिए नौसादर की चुटकी लाती थी, और उस समय मुझे खुश देखकर स्वयं भी पुलक उठती थी। उसका वह पुलकित मुखड़ा अब भी मेरे सामने दिखाई देता है। जब वह अपने चचेरे भाई-बहनों के साथ खेल रही होती थी, तो मेरी आँखों के इशारे मात्र से उसके चेहरे के हाव-भाव बदल जाते थे, हालाँकि मैं कभी भी अप्रसन्नता भरी नज़र से उसे नहीं देखता था, तो भी उसकी चंचलता को एक विराम-सा लग जाता था।

उसकी दूसरी खासियत यह थी कि उसमें बड़ा ही गहरा स्नेह था जो कि उसकी प्रसन्नता और किलकारियों को और भी भावपूर्ण बना देता था। जब वह छोटी-सी थी तो भी यह बात दिखाई देती थी। अपनी माँ को छुए बिना तो जैसे उसे चैन ही नहीं आता था, खासकर जब वह बिस्तर में लेटी होती थी, मैं देखता था कि बहुत बहुत देर तक अपनी माँ के बाजुओं को सहलाती रहती थी। वह जब कभी बहुत बीमार पड़ती तो उसकी माँ भी उसके साथ लेटकर उसे दुलराती रहती थी, यह सब दूसरे बच्चों से बिल्कुल अलग होता था। इस तरह वह आधे आधे घंटे तक खड़ी मेरे बालों को संवारती रहती थी, वह कहती थी `बाल' ठीक कर रही हूँ। फिर बोलती बहुत सुन्दर या फिर मेरी प्यारी बच्ची मेरे कॉलर और कफ के साथ खेलती रहती थी।

उसकी इन किलकारियों के अलावा भी उसका व्यवहार बहुत ही प्रेमपूर्ण, निश्छल, सहज, सरल था। उसमें जरा भी दुराव छिपाव नहीं था। उसका मन अबोध और निर्लिप्त था। उसे देखते ही कोई भी उस पर भरोसा कर सकता था। मैं हमेशा यही सोचता था कि इस बुढ़ापे में भी हमारी आत्मा उसी तरह बनी रहती जिस पर इस संसार चक्र का कोई असर किसी भी दशा में न पड़ता। उसके सभी काम ऊर्जा से भरे, सक्रिय और सलीकेदार होते थे। मैं सैन्डवाक पर काफी तेज़ चलता था, लेकिन जब कभी वह मेरे साथ होती थी तो मेरे आगे आगे ही अपनी पैरों के पंजों पर फुदकती चलती तो बड़ा ही मनोहर लगता था, और इस सारे समय उसके चेहरे की आभा और मधुर मुस्कान आज भी आँखों के आगे तैर जाती है। मेरे सामने वह जिस तरह से नखरे करती थी, उसकी याद भी मुझे भाव विभोर कर देती है। कई बार वह बातें बढ़ा चढ़ाकर पेश करती थी, और जब मैं उसी की भाषा का प्रयोग करते हुए उससे कुछ पूछता तो अपने सिर को हल्का सा झटका देकर कहती,`ओह! पापा! आपको इतना भी नहीं मालूम!' अपनी बीमारी के छोटे से दौर में उसके मुखड़े पर बहुत ही ज्यादा सहजता और दैवतुल्य भाव दिखाई देते थे। उसने कभी कोई शिकायत नहीं की, कभी भी अधीर नहीं हुई, हमेशा दूसरों का ख्याल रखती थी और उसके लिए जो कोई भी जो कुछ भी करता था, तो वह बड़े ही सभ्य और करुणामय ढंग से अपना आभार प्रकट करती थी। जब वह बहुत थक गई और बोलने में तकलीफ होने लगी तो भी उसका लहजा नहीं बदला। जब भी उसे कोई चीज दी जाती थी तो वह आभार जरूर प्रकट करती जैसे,`वह चाय तो बहुत अच्छी थी।' जब मैं उसे पानी पिलाता थे वह बोल उठती, इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद, और मुझे लगता है कि यही उसके वे बेशकीमती बोल थे, जो उसके होंठो से निकल कर मेरे कानों में शहद घोल जाते थे।

पिताजी ने उसके बारे में लिखा था,`हमारे पूरे परिवार की रौनक चली गई, हमारे बुढ़ापे की चश्मे चिराग थी वो, उसे भी मालूम होगा कि हम उसे कितना प्यार करते थे। काश वह जान पाती कि हम कितनी गहराई और नज़ाकत से उसे प्यार करते थे। उसका प्यारा मुखड़ा आज और हमेशा हमारी आँखों के आगे घूमता रहेगा। उसे बहुत बहुत दुआएँ!'

`अप्रैल 30, 1851'

बचपन में हम सभी उनके साथ खेलने का आनन्द उठाते थे। वे जो कहानियाँ सुनाते थे इतनी अनूठी होती थीं कि हमें अपने साथ बाँध कर रख लेती थीं।

उन्होंने हमारा लालन पालन किस तरह किया, वह इस घटना से स्पष्ट हो जाएगा। यह घटना मेरे भाई लियोनार्ड के बारे में है। पिताजी हमें यह घटना अक्सर सुनाते रहते थे। वे बैठक में आए और देखा कि लियोनार्ड सोफे के किनारे पर खड़ा नाच रहा था, इससे तो सारी कमानियाँ खराब हो जाएँगी, पिताजी बोले,`अरे लेनि! यह ठीक नहीं है,' इस पर लियोनार्ड जवाब देता तो फिर ठीक है कि आप कमरे से बाहर चले जाइए। लेकिन पिताजी ने आजीवन किसी भी बच्चे पर गुस्सा नहीं किया, फिर भी कोई बच्चा ऐसा नहीं तो जो उनकी अवज्ञा करता था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब एक बार मेरी लापरवाही के लिए पिताजी ने मुझे झिड़क दिया था, मुझे अभी भी वह घड़ी याद है कि किस प्रकार मैं उदास हो गया था, लेकिन पिताजी ने मुझे ज्यादा देर तक उदास नहीं रहने दिया। जल्द ही इतनी दयालुता से उन्होंने मुझसे बात की, कि मेरी सारी उदासी दूर हो गई। हमारे प्रति उनकी प्रसन्नतापूर्ण, प्रेमपूर्ण भावना सदा सर्वदा बनी रही। कई बार मुझे हैरानगी होती है कि वे ऐसा किस तरह से कर पाते थे, क्योंकि हम लोग तो उनके मुकाबले कुछ भी नहीं थे, लेकिन मुझे इतना तो पता ही है कि उन्हें यह मालूम था कि उनके प्रेमपूर्ण वचनों और व्यवहार से हम सब कितना खुश होते थे। वे अपने बच्चों के साथ हँसते थे, और अपने ऊपर भी हँसने देते थे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हमारे बीच के सम्बन्ध काफी संतुलित थे।

वे हरेक की योजनाओं या सफलताओं में हमेशा रुचि लेते थे। हम उनके साथ ठिठोली करते थे, और कहते थे कि उन्हें अपने बेटों पर भरोसा नहीं है। मिसाल के तौर पर, वे अपने बेटों की इस बात पर जल्दी यकीन नहीं करते थे कि हम लोगों ने कुछ काम किया है, क्योंकि वे यह नहीं मानते थे कि हम सब पूरी तरह समझदार हो चुके हैं। दूसरी तरफ यह भी रहता था कि वे हमारे काम को देखकर काफी तरफदारी भी करते थे। जब मैं यह सोचता था कि किसी भी काम को लेकर उन्होंने काफी ऊँची कसौटियाँ बना रखी हैं, तो इस समय वे काफी रुष्टता दिखाते और झूठे क्रोध से भर जाते थे। उनके संदेह भी उनके चरित्र के अभिन्न अंग थे। जिस किसी भी चीज़ को स्वयं से जोड़कर देखते तो उस काम के प्रति उनका नज़रिया बहुत ही अनुकूल रहता था, और इसीलिए वे हरेक के प्रति उदार रहते थे।

वे अपने बच्चों के प्रति भी आभार प्रकट करना नहीं भूलते थे, इसके लिए उनका अपना ही तरीका था। मुझे याद नहीं आता कि मैंने उनके लिए कोई खत लिखा हो या कोई किताब पढ़कर सुनायी हो और उन्होंने आभार न प्रकट किया हो। अपने छोटे पौत्र बर्नार्ड पर तो वे जान छिड़कते थे। वे कई बार बताते थे कि लंच करते समय ठीक सामने अगर बर्नार्ड बैठा होता था, तो उन्हें बेहद खुशी होती थी। उनकी और बर्नार्ड की पसन्द भी एक जैसी ही थी। स्वाद को ही लें तो दोनों ही सफेद शक्कर के बजाय भूरी शक्कर पसंद करते थे, और नतीजा होता, `हमारी पसंद एक है न!'

मेरी बहन लिखती है :

`हमारे साथ खेलकर पिताजी कितना खुश होते थे, यह मुझे अच्छी तरह से याद है। वह अपने बच्चों के साथ बहुत गहराई तक जुड़े हुए थे, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे संतानों के प्रति अंध प्रेम रखते थे। हम सभी के लिए वे बहुत अच्छे दोस्त थे, बहुत ही श्रेष्ठ, संवेदनशील व्यक्ति थे। हालांकि इस बात को बता पाना पूरी तरह से नामुमकिन है कि वे अपने परिवार के प्रति कितना प्रेमपूर्ण व्यवहार रखते थे। जब हम बच्चे थे तब भी और जब हम बड़े हो गए तब भी।'

हमारे बीच प्रगाढ़ता और खेल के दौरान वे कितने अच्छे साथी थे। इन दोनों बातों का प्रमाण इससे मिल जाएगा कि एक बार उनके चार वर्षीय बेटे ने उन्हें सिक्स पेन्स (जैसे भारत में पहले इकन्नी चलती थी उसी प्रकार इंग्लैंड का एक सिक्का) का लालच दिया और कहा कि चलो काम के समय भी खेलें।

वे अपने आप में बहुत ही सहनशील और प्रसन्नवदन नर्स भी थे। मुझे याद है कि जब भी मैं बीमार होता था तो मैं उनके साथ स्टडी सोफे पर बैठा हुआ महसूस करता मानों मैं शांति और आराम के सागर में बैठा हूं। इस दौरान मैं दीवार पर टंगे भूगर्भीय नक्शे पर आँखें गड़ाए रखता था। शायद उनके काम करने का समय होता था क्योंकि वे हमेशा घोड़े के बाल से बनी कुर्सी पर अलाव के पास बैठे रहते थे।

उनमें कितना धैर्य था, इसका पता इस बात से भी चल जाएगा कि जब कभी भी हमें बैंड एड टेप, गोंद, धागे, पिन, कैंची, डाक टिकटों, फुट पट्टी या हथौड़ी की ज़रूरत होती तो उनके अध्ययनकक्ष में दनदनाते हुए चले जाते थे। ये सब चीज़ें और ऐसी ही कई दूसरी ज़रूरी चीज़ें जो कहीं और नहीं मिलती थीं, उनके पास शर्तिया मिलती थीं। वैसे तो उनके काम के समय में हमें वहाँ जाना गलत लगता था, लेकिन जब बहुत ज़रूरी हो जाता था तो हम जाते ही थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उनके चेहरे पर कितना धैर्य था जब उन्होंने मुझसे यह कहा था,`तुम्हें क्या लगता है कि तुम बाद में नहीं आ सकते थे, मुझे बहुत परेशानी होती है।' जब कभी भी हमें स्टिकिंग प्लास्टर की ज़रूरत होती थी तो उनके कमरे में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, क्योंकि उन्हें यह बिल्कुल पसन्द नहीं था कि हम अपने हाथ-पैर काटते रहें। यहीं तक होता तो चल जाता लेकिन खून देखकर उनके जो संवेदनशील भाव जाग उठते थे, हम उससे भी बचना चाहते थे। मैं हमेशा ध्यान रखता था कि वे पर्याप्त दूरी पर चले गए हों और तभी मौका पाकर प्लास्टर ले उड़ता था।

`मैं अतीत में झांक कर देखूं तो जीवन के उन शुरुआती दिनों में काफी नियम कायदे थे, और सिवाय कुछ रिश्तेदारों (और कुछेक ज़िगरी दोस्तों) के अलावा, हमारे घर में कोई और नहीं आता था। दिन की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद हम जहाँ चाहें वहाँ जाने के लिए आज़ाद थे, और हमारे जाने की जगह खास तौर पर दीवानखाना या बगीचा होता था, और इस तरह से हम लोग हमेशा अपने माता-पिता के साये में ही रहे। हमें उस समय बहुत ही खुशी होती थी, जब वे बीगेल की कहानियाँ या श्रूजबेरी में बीते बचपन की घटनाएँ - कुछ स्कूली जीवन और कुछ अपनी शरारतों के बारे में बताते थे।'

वे हमारी रुचियों और इच्छाओं का बहुत ख्याल रखते थे और उन्होंने हमारे साथ जीवन जिस ढंग से बिताया वैसा तो बहुत कम ही लोग कर पाते हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि इस प्रगाढ़ता में भी हमें कभी भी यह नहीं लगता था कि हम दूसरों की इज़्ज़त करने और उनका हुक्म मानने में कोई आनाकानी करें या कमी आने दें। वे जो कुछ भी कहते थे वह हमारे लिए पत्थर की लकीर होता था। हमारे किसी भी सवाल का जवाब देने में वे अपना पूरा दिलो-दिमाग़ लगा देते थे। ऐसा ही रोमांचक वाकया मुझे याद आता है, जो मुझे यह एहसास दिलाता है कि हम जिस चीज़ की फिक्र करते थे, उसकी उन्हें भी उतनी ही फिक्र रहती थी। वे बिल्लियों में बहुत रुचि नहीं लेते थे, लेकिन मेरी बहुत-सी बिल्लियों की खासियत उन्हें मालूम थी, और कुछेक की आदतों और खासियतों का बखान तो उन्होंने तब भी किया जबकि उन बिल्लियों को मरे हुए कई साल हो चुके थे।

`अपनी संतानों के साथ वे जिस तरह से पेश आते थे, उसकी एक और खासियत यह भी थी कि वे अपने बच्चों की आज़ादी और व्यक्तित्व के बारे में ऊँचे विचार रखते थे। यहाँ तक कि छोटी लड़की के रूप में जो आज़ादी मुझे मिली थी उसकी याद भी मुझे खुशी से भर देती है। हमारे माता-पिता को यह जानने या सोचने की ज़रूरत नहीं रहती थी कि हम लोग क्या करते हैं, जब तक कि हम खुद ही न बताएँ। वे हमें हमेशा यह याद दिलाते रहते थे कि हम भी ऐसे प्राणी हैं जिनके विचार और ख्यालात उनके लिए बहुत खास हैं। इसलिए हमारे भीतर के सभी गुण उनकी मौज़ूदगी में और भी निखर उठे।

`हमारे सद्गुणों के बारे में जो उन्हें अतिशय विश्वास था, हमारे बौद्धिक या नैतिक गुणों पर उन्हें जो गर्व था, उससे हम लोग बिगड़ैल या घमण्डी नहीं बने बल्कि और भी विनम्र और उनके प्रति शुक्रगुजार ही रहे। इसके पीछे नि:सन्देह यही कारण था कि उनके चरित्र, उनकी सदाशयता और उनकी अन्तरात्मा की महानता ही तो थी, जिसका अमिट प्रभाव हम पर पड़ा था। यह प्रभाव उनके द्वारा हमारी प्रशंसा या उत्साहवर्धन से कहीं ज्यादा हमारे भविष्य का नियन्ता बन गया।

परिवार के मुखिया के रूप में उन्हें बहुत स्नेह और इज़्ज़त मिली हुई थी। वे नौकरों से बहुत ही नरमी से पेश आते थे। नौकरों से कुछ भी माँगने से पहले वे यह ज़रूर कहते थे, `देखो, तुम मेरी मदद करो---' अपने नौकरों पर उन्होंने शायद ही कभी गुस्सा किया हो। मुझे याद है कि कभी बचपन में एक बार उन्हें किसी नौकर को डाँटते सुना था, मैं सारे माहौल से इतना घबरा गया था कि डर के मारे छत पर भाग गया। वे बगीचे, गायों आदि की रखवाली के पचड़े में नहीं पड़ते थे। वे घोड़ों पर थोड़ी बहुत चिन्ता जाहिर करते थे, कभी कभी बड़े ही संदेह में पड़ कर पूछते कि वे घोड़ागाड़ी चाहते हैं, ताकि सनड्यू के लिए केस्टन को भेजें या फिर पौधे मंगवाने के लिए वेस्टरहेम नर्सरी भेजें, या ऐसा ही कोई काम करायें।

एक मेज़बान के रूप में मेरे पिता में एक खास तरह का आकर्षण था; मेहमानों की मौज़ूदगी उन्हें उत्तेजना से भर देती थी और वे अपने सर्वोत्तम रूप में सामने आने को लालायित हो उठते थे। श्रूजबेरी में वे कहा करते थे कि ये उनके पिता की इच्छा थी कि मेहमाननवाजी लगातार करते रहना चाहिये। मिस्टर फॉक्स को लिखे एक पत्र में उन्होंने इस बात के लिए खेद व्यक्त किया था कि घर मेहमानों से भरा होने के कारण वे खत नहीं लिख पा रहे हैं। मेरा ख्याल है कि वे इस बात से हमेशा बेचैनी महसूस किया करते थे कि वे अपने मेहमानों की आवभगत के लिए ज्यादा सब कुछ नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन नतीजे अच्छे ही रहते और इसमें कोई कमी रह भी जाती तो उसे इस तरीके से पूरा कर लिया जाता कि मेहमान इस बात के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र थे कि वे जो चाहें, करें। अमूमन सबसे ज्यादा आने वाले मेहमान वे ही लोग होते तो शनिवार को आते और सोमवार को लौट जाते। जो लोग इससे ज्यादा अरसे तक टिके रहते, आम तौर पर रिश्तेदार वगैरह होते और उनकी जिम्मेवारी पिता की तुलना में मां की ज्यादा रहती।

इन मेहमानों के अलावा कुछ विदेशी लोग होते। कुछ अजनबी लोग भी आते। ये लोग लंच के लिए आते और दोपहर ढलने पर लौट जाते। पिता जी उन लोगों को लंदन से डाउन के बीच की लम्बी दूरी के बारे में बताने के लिए खासी मेहनत करते और बताते कि ये सफर कितनी मुश्किलों से भरा हुआ है। वे सहज ही ये मान कर चलते कि इस सफर में जितनी तकलीफ खुद उन्हें होती है, उतनी ही मेहमानों को भी होगी। फिर भी, अगर वे आने से अपने आपको आने से रोक नहीं पाते तो पिता जी उनकी यात्रा का इंतज़ाम करते। वे उन्हें बताते कि कब आयें, और ये बताने से भी न चूकते कि वापिस कब जायें। उन्हें अपने मेहमानों से हाथ मिलाते देखना एक शानदार नज़ारा होता था। जब वे किसी से पहली बार मिल रहे होते तो उनका हाथ इतनी तेजी से आगे आता मानो मेहमान से मिलने के लिए वे कितने उतावले थे। पुराने यार दोस्तों से हाथ मिलाते समय उनका हाथ पूरी हार्दिकता से लहराता हुआ आता और ये देख कर दिल जुड़ा जाता। हॉल के दरवाजे पर खड़े हो कर जब वे किसी को विदाई देते तो इसमें खुशी की खास बात ये रहती कि वे मेहमानों के प्रति इस बात के शुक्रगुज़ार होते कि उन्होंने मिलने के लिए वक्त निकाला और आने के लिए जहमत उठायी।

ये लंच पार्टियां मौज मजे के मौके जुटाने में बहुत सफल रहतीं। न किसी की टांग खिंचाई होती और न ही किसी को नीचा ही दिखाया जाता। पिताजी शुरू से आखिर तक उत्तेजना से भरे चहकते रहते। प्रोफेसर दे कांडोल ने मेरे पिता का एक सराहनीय और सहानुभूतिपूर्ण खाका खींचते हुए डाउन में अपनी एक विजिट के बारे में बताया था। वे लिखते हैं कि पिता का तौर तरीका वैसा ही था जैसा कि ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज में किसी स्कालर का होता है। मुझे तो ये तुलना बहुत अच्छी नहीं लगी। जब पिताजी सहज होते और अपनी प्राकृतिक अवस्था में होते तो उनकी तुलना किसी फौजी से की जा सकती थी। उस समय वे किसी भी आडम्बर और दिखावे से परे होते थे। उनकी इस आडम्बरहीनता, स्वाभाविकता और सादगी का ही कमाल था कि वे अपने मेहमानों के साथ बातचीत को उन्हीं विषयों पर ले आते जिन पर वे लोग बात करना चाहते हों, और ये बात पिताजी को किसी अजनबी के सामने भी एक शानदार मेजबान के रूप में पेश करती थी। वे जिस कुशलता से बातचीत का बेहतरीन विषय चुनते, वह उनके व्यक्तित्व के सहानुभूतिपूर्ण रवैये और विनम्रता से आता था और उसमें ये तथ्य छुपा रहता कि वे दूसरों के कामों में कितनी दिलचस्पी लेते हैं।

मेरा ख्याल है कि कुछेक लोगों को वे अपनी विनम्रता से हैरान परेशान भी कर बैठते थे। मुझे स्वर्गीय फ्रांसिस बेलफार का किस्सा याद है जब उन्हें एक ऐसे विषय पर अपना ज्ञान बघारने वाली स्थिति में आ जाना पड़ा जिसके बारे में पिताजी का हाथ बिलकुल तंग था।

मेरे पिताजी की बातचीत की विशेषताओं पर उंगली रख कर बताना निहायत ही मुश्किल काम है।

उन्हें इस बात से खासी कोफ्त होती थी कि लोग बाग उनके किस्से दोहरायें। वे अक्सर कह बैठते, `आपने मुझे ये कहते सुना ही होगा', या `मुझे लगता है, मैं आपको बता चुका हूं।' उनकी एक खास आदत थी जिससे वे अपनी बातचीत में एक रोचक प्रभाव ले आते। वे अपना वाक्य बोलना शुरू ही करते कि पहले ही कुछ शब्दों से उन्हें उस बात के पक्ष में या विपक्ष में कुछ और याद आ जाता और जो वे कहने जा रहे होते और इससे वे भटक कर किसी और मुद्दे पर जा पहुंचते और बात कहां की कहां जा पहुंचती। एक उप वाक्य से दूसरा उप वाक्य निकलता जाता और जब तक वे अपना वाक्य खतम कर देते, बातचीत का सिर पैर समझ में न आता कि वे कह ही क्या रहे थे। वे अपने बारे में कहा करते कि किसी के साथ तर्क को आगे बढ़ाने में वे तेजी नहीं दिखा पाते। मेरा ख्याल है, इस बात में सच्चाई भी थी। जब तक बातचीत का विषय वही न होता जिस पर वे उन दिनों काम कर रहे होते तो वे अपने विचारों को तरतीब देने में मुश्किल महसूस करते। ये बात उनके खतों में भी देखी जा सकती है। उन्होंने प्रोफेसर सेम्पर को एकांतवास के प्रभाव के बारे में दो खत लिखे थे और उनमें वे अपने विचारों को तरतीब नहीं दे पाये थे। ये कुछ दिन बाद तभी हो पाया था जब पहला खत भेजा जा चुका था।

जब बातचीत करते हुए वे अपने शब्दों में ही फंस जाते तो उनकी एक खास आदत सामने आती थी। वे वाक्य के पहले शब्द पर हकलाने लगते। और मुझे याद आता है कि इस तरह का हकलाना सिर्फ एक ही अक्षर डब्ल्यू के साथ होता था। ऐसा लगता है कि इस अक्षर के साथ उन्हें खासी मशक्कत करनी पड़ती थी। इसके पीछे उन्होंने ये कारण बताया था कि बचपन में वे डब्ल्यू का उच्चारण नहीं कर पाते थे और एक बार तो उन्हें छ: पेंस के सिक्के का लालच भी दिया गया कि व्हाइट वाइन शब्द का उच्चारण करके दिखायें। वे इन्हें राइट राइन ही कहते रहे थे। शायद ये उच्चारण दोष उन्हें इरास्मस डार्विन से विरासत में मिला हो। वे भी हकलाया करते थे।

वे कई बार भाषा संबधी अन्य भूलें भी कर बैठते और तुलनात्मक वाक्यों में कुछ नये ही गुल खिला देते। वे दरअसल जिस बात पर जोर देना चाहते, उसके चक्कर में गलत वाक्य विन्यास कर बैठते। वे कई बार ऐसी जगह बात को बढ़ा चढ़ा कर कह देते जहां जरूरत न होती। लेकिन इससे एक बात तो होती ही कि उनकी उदारता और गहरी प्रतिबद्धता के ही दर्शन होते। एकाध बार ऐसा भी हुआ कि वे बात करते हुए गुस्से में आ गये और अपनी बात कह नहीं पाये। वे जानते थे कि गुस्सा विवेक का दुश्मन होता है और वे चाह कर भी ऐसे मामले में कुछ नहीं कर पाते थे।

वे बातचीत में अत्यधिक विनम्र बने रहते। इसका सबूत मैं यही दे सकता हूं कि एक बार रविवार की दोपहर उनसे मिलने सर जॉन लब्बाक्स के उनके कई मेहमान आये। कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि वे भाषणबाजी में या उपदेश देने जैसी मुद्रा में आयें हों, हालांकि उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ था। जब वे किसी से छ़ेड़खानी करते और वह भी मजे लेने के लिए तो वे बहुत भले लगते। ऐसे वक्त में वे बेहद हल्के फुल्के स्वभाव वाले और बच्चों जैसे हो जाते और तब उनकी प्रकृति की बारीकी बहुत मुखर हो उठती। इसलिए ऐसा भी होता कि जब वे किसी ऐसी महिला से बात कर रहे होते जिसने उन्हें खुश और मुदित किया हो तो वे उस पर सौ जान न्यौछावर हो जाते और उसके प्रति सम्मान और चुटकी लेने की उनकी भावना देखते ही बनती। उनके व्यक्तित्व में एक निजी किस्म का आत्म सम्मान था जो बहुत अधिक परिचित मुलाकातों में भी डिगता नहीं था। सामने वाले को यही लगता कि कम से कम इस व्यक्ति के साथ तो छूट नहीं ही ली जा सकती है। और न ही मुझे ऐसा कोई वाक्या याद ही आता है कि किसी ने इस तरह की छूट लेने की कोशिश की हो।

जब मेरे पिता से मिलने कई मेहमान एक साथ आ जाते तो वे बहुत ही बढ़िया ढंग से उनसे निपटते। सबसे अलग अलग बात करते या फिर दो तीन मेहमानों को अपनी कुर्सी के आस पास बिठा लेते। इस तरह की बातचीत में आमतौर पर मज़ाक चलता, वे अपनी बात को किसी हंसी भरी बात की तरफ मोड़ देते या फिर खुलापन आ जाता बातचीत में जिससे सबको अच्छा लगता। शायद मेरी स्मृति में हंसी मज़ाक वाले मौके ज्यादा दर्ज हैं। उनकी सबसे अच्छी बातें मिस्टर हक्सले के साथ होती थीं। उनमें गजब का हास्यबोध था। मेरे पिता को उनका ये हास्यबोध बहुत भाता था और वे अक्सर कहते थे,`मिस्टर हक्सले भी क्या शानदार आदमी हैं।' मेरा ख्याल है, लायेल और सर जोसेफ हूकर के साथ उनकी बातचीत वैज्ञानिक तर्कों के रूप में (एक तरह से झगड़े की तरह) ज्यादा होती थी।

वे कहा करते थे कि इस बात से उन्हें तकलीफ होती है कि जिंदगी के बाद के हिस्से वाले दोस्तों के लिए वे अपने भीतर वह गर्मजोशी नहीं पाते जो युवावस्था के दोस्तों के लिए हुआ करती थी। कैम्ब्रिज से हरबर्ट और फॉक्स को लिखे गये उनके शुरुआती पत्र इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं। लेकिन इस बात को मेरे पिता के अलावा और कोई नहीं कहेगा कि अपने दोस्तों के प्रति उनका स्नेह पूरी जिदंगी उसी तरह की गर्मजोशी वाला नहीं रहा। अपने किसी दोस्त के लिए कुछ करते समय वे अपने आपको भी नहीं बक्शते थे और उसे अपना कीमती समय और शक्ति सवेच्छा से दिया करते थे। इस बात में कोई शक नहीं कि वे किसी भी सीमा तक जा कर अपने दोस्तों को अपने से बांधे रखने की ताकत रखते थे। उनकी कई शानदार दोस्तियां थीं। लेकिन सर जोसेफ हूकर के साथ उनकी जो दांत काटी दोस्ती थी, वैसी दोस्ती की मिसाल आम तौर पर पुरुषों में कम ही दिखायी देती है। अपनी रीकलेक्शंस में उन्होंने लिखा है,`मैंने हूकर जैसे प्यारे शायद ही किसी दूसरे इन्सान को जाना हो।'

गांव के लोगों के साथ उनका नाता खुश कर देने वाला था। वे जब भी उनके सम्पर्क में आते तो वे उनके सुख दुख में बराबरी से शामिल होते और उनके जीवन में दिलचस्पी लेते और सब के साथ एक जैसा व्यवहार करते। जब वे डाउन में बसने के लिए आ गये तो कुछ ही अरसे बाद उन्होंने एक मैत्री क्लब स्थापित करने में उनकी मदद की और तीस बरस तक उस क्लब के खजांची बने रहे। वे क्लब की गतिविधियों में खूब रस लेते और बारीकी से और एक दम सही तरीके से उसका हिसाब किताब रखते। क्लब को फलता फूलता देख उन्हें बहुत खुशी होती। हरेक छुट्टी वाले सोमवार के दिन क्लब बैनर लगाये घर के सामने गाजे बाजे के साथ जुलूस की शक्ल में निकलता और खूब रौनक रहती। वहां पर वे क्लब के लोगों से मिलते और उन्हें क्लब की शानदार माली हालत के बारे में बताते। इस मौके के लिए पिता जी खास कुछ घिसे पिटे लतीफों के साथ अपना भाषण देते। अक्सर ये होता कि वे बीमार चल रहे होते और इतनी सी कवायद कर पाना भी उनके लिए भारी पड़ता। लेकिन शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि वे उन लोगों से न मिले हों।

वे कोयला क्लब के भी खजांची थे। उन्हें वहां के लिए भी कुछ काम करना पड़ता। वे कुछ बरस तक काउंटी मजिस्ट्रेट के पद पर भी काम करते रहे।

गांव की गतिविधियों में पिता जी की दिलचस्पी के बारे में मिस्टर ब्रॉडी इन्स ने कृपापूर्वक मुझे अपनी स्मृति के खजाने में से ये घटना सुनायी है:

`जब मैं 1846 में डाउन का धर्मगुरू बना तो हम दोनों दोस्त बन गये और ये दोस्ती उनकी मृत्यु तक चलती रही। मेरे और मेरे परिवार के प्रति उनका स्नेह असीम था और बदले में हम भी उनके स्नेह का प्रतिदान करने की कोशिश करते थे।'

चर्च के सभी मामलों में वे हमेशा सक्रियतासे हिस्सा लेते। स्कूलों, धर्मार्थ कामों और दूसरे कारोबारों में वे हमेशा दिल खोल का दान देते और कभी कहीं कोई विवाद हो भी जाता, जैसा कि दूसरे गिरजाघरों में होता रहता था, मुझे यकीन होता था कि वे अपना समर्थन किसे देंगे। वे इस बात के कायल थे कि जहां सचमुच कोई महत्त्वपूर्ण आपत्ति न हो, वहां पर उनका समर्थन पादरी के पक्ष में जाना चाहिये। वही व्यक्ति ऐसा होता है जो सारी स्थितियों को जानता बूझता है और वही मुख्य रूप से जिम्मेवार भी होता है।'

अजनबी लोगों के साथ उनकी मुलाकात सजग और औपचारिक विनम्रता से पगी होती। दरअसल सच तो ये था कि उन्हें अजनबियों के सम्पर्क में आने के मौके ही बहुत कम मिलते और डाउन में जिस तरह के एकांत में वे जी रहे थे, वहां बड़े भीड़ भड़क्के वाले आयोजनों में वे अपने आपको भ्रम में पउा़ हुआ पाते। उदाहरण के लिए रॉयल सोसाइटी के आयोजनों में वे अपने आपको संख्याओं में खोया हुआ महसूस करते। बाद के बरसों में यह भावना कि उन्हें लोगों को जानना चाहिये और उस पर तुर्रा यह कि वे नाम भूल जाते थे, इस तरह के मौकों पर उनकी मुश्किलें और बढ़ा देते थे। वे इस बात को समझ नहीं पाते थे कि वे तो फोटो से ही पहचान लिये जायेंगे, और मुझे एक किस्सा याद आता है कि क्रिस्टल पैलेस एक्वेरियम में जब एक अजनबी ने उन्हें पहचान लिया तो वे खासे बेचैन हो उठे थे।

मैं यहां पर थोड़ा सा जिक्र इस बात का भी करना चाहूंगा कि वे अपना काम किस तरह से करते थे। उनकी सबसे खास बात थी समय के लिए सम्मान। वे समय के मूल्य को कभी भी नहीं भूलते थे। इस बात का अंदाजा इस तथ्य से ही लग जायेगा कि वे किस तरह से अपनी छुट्टियों को कम करते जाते थे। और इस बात को ज्यादा साफ तौर पर बताऊं तो वे अपनी कम अवधि की छुट्टियों को तो बिल्कुल खत्म ही कर देते थे। वे अक्सर कहा करते थे कि समय की बचत करना, काम पूरा करने का एक तरीका होता है। मिनट दर मिनट बचाने के प्रति अपने प्यार को वे चौथाई घंटे और दस मिनट में किये गये काम के बीच के अंतर के जरिये बताते थे। वे कभी कुछ पलों की भी बरबादी भी सहन नहीं कर पाते थे कि काम के समय समय बरबाद तो नहीं ही करना है। मैं अक्सर इस बात को ले कर हैरान रह जाता था कि वे अपनी सामर्थ्य की अंतिम बूंद तक काम करते रहते थे कि तभी अचानक यह कह कर डिक्टेशन देना बंद कर देते थे कि मुझे लगता है कि बस हो गया, मुझे और नहीं करना चाहिये। समय बरबाद न करने की यही उत्कट चाह तब भी सामने आती थी जब वे काम करते समय चुस्ती से अपने हाथ पांव हिलाते। मैंने इस बात को खास तौर पर उस वक्त नोट किया जब वे फलियों की जड़ों पर एक प्रयोग कर रहे थे जिसके लिए बहुत सावधानी से काम करने की जरूरत थी, जड़ों के ऊपर कार्डों के छोटे छोटे टुकड़े बांधने का काम बहुत सावधानी से और अनिवार्य रूप से धीरे धीरे किया गया, लेकिन बीच के सभी हावभाव बहुत तेज थे। एक ताजी फली लेना, ये देखना कि उसकी जड़ स्वस्थ है, उसे एक पिन पर उठाना और कार्क पर टिकाना, ये देखना कि ये सीधी खड़ी है आदि। ये सारी प्रक्रियाएंं अपने आपको नियंत्रण में रखते हुए उत्सुकता से पूरी की गयीं। वे सामने वाले को ये अहसास दिला देते थे कि वे अपने काम में बहुत आनंद ले रहे हैं और कत्तई बोझ की तरह नहीं कर रहे हैं। मेरी स्मृति में उनकी वह छवि भी अंकित है जब वे किसी और प्रयोग के नतीजे दर्ज कर रहे थे और प्रत्येक जड़ को उत्सुकता से देख रहे थे और उतनी ही तेजी से लिखते जा रहे थे। मुझे याद है, जब वे प्रयोग की वस्तु और अपने नोट्स देख रहे थे तो उनका सिर तेजी से हिल रहा था।

वे किसी भी काम को दोबारा न होने दे कर अपना बहुत सासमय बचा लेते थे। हालांकि वे अपने ऐसे प्रयोग भी धैर्यपूर्वक दोहराते रहते थे जहां कुछ भी हासिल होने वाला नहीं होता था, लेकिन वे इस बात को भी सहन नहीं कर सकते थे कि जो प्रयोग पूरी सावधानी बरतने के बावजूद पहली ही बार में कुछ नतीजे नहीं दे सकता था, उसे दोहराने का मतलब नहीं लेकिन इससे उन्हें लगातार ये चितां भी बनी रहती थी कि प्रयोग व्यर्थ नहीं जाने चाहिये। वे मानते थे कि प्रयोग पवित्र होते हैं भले ही उनके नतेजे मामूली ही क्यों न हों। वे चाहते थे कि प्रयोगों से जितना अधिक सीख सकें, सीखें ताकि उन्हें वे सिर्फ उसी बिन्दु के आस पास चक्कर न काटते रहें जिसके लिए प्रयोग किया जा रहा था। एक साथ कई चीजों को देखने की उनकी शक्ति गजब की थी। मुझे नहीं लगता कि वे शुरुआती या रफ प्रेक्षणों की तरफ ध्यान देते रहे होंगे कि इन्हें मार्गदर्शक के रूप में और दोहराने के लिए इस्तेमाल में लाया जाये। जो भी प्रयोग किया जाता था, उसका कोई न कोई महत्त्व होता ही था और मुझे याद है, इस बारे में वे इस बात की जरूरत पर बहुत बल देते थे कि किसी भी असफल प्रयोग के नोट्स रखे जायें और इस नियम का वे कड़ाई से पालन करते थे।

अपने लेखन के साहित्यिक पक्ष में भी उन्हें समय बरबाद होने का यही हौवा सताता रहता था और उस वक्त वे जो कुछ भी कर रहे होते थे, उसी उत्साह से उसे निपटाते थे। इस बात ने उन्हें इतना सतर्क बना रखा था कि वे ऐसा लेखन करें कि किसी को बिना वजह दोबारा न पढ़ना पड़े।

उनकी प्राकृतिक प्रवृत्ति ये थी कि आसान तरीके और कुछेक औजार ही अपनाओ। उनकी युवावस्था के बाद से जटिल माइक्रोस्कोप का चलन बहुत बढ़ गया है और ये माइक्रोस्कोप सरल वाले की जगह पर आया है। आजकल हमें ये बात असाधारण लगती है कि जब वे बीगल की यात्रा पर निकले थे तो उनके पास जटिल माइक्रोस्कोप नहीं था। इस मामले में वे राबर्ट ब्राउन की बात को ही मानते हैं जो इस मामले में उस्ताद थे। उन्हें साधारण वाला माइक्रोस्कोप ज्यादा पसंद था और उनका मानना था कि आजकल तो इसे बिल्कुल भुला ही दिया गया है और कि हर आदमी को चाहिये कि जटिल माइक्रोस्कोप को अपनाने से पहले जितना ज्यादा हो सके, इस साधारण वाले यंत्र को ही इस्तेमाल में लाये। अपने एक पत्र में वे इसी मुÿñ पर बात करते हैं और उनकी टिप्पणी है कि मुझे उस आदमी के काम पर ही शक है जो साधारण माइक्रोस्कोप को इस्तेमाल ही नहीं करता।

चीर फाड़ करने वाली उनकी मेज एक मोटे से पुट्ठे की बनी हुई थी जिसे अध्ययन कक्ष की खिड़की में फंसा दिया गया था। इसकी ऊंचाई साधारण मेज की तुलना में कम थी ताकि उन्हें उस पर खड़े हो कर काम न करना पड़े। लेकिन मुझे नहीं लगता कि अपनी ऊर्जा बचाने के लिए उन्होंने उसे ऐसा बनवाया होगा। वे चीर फाड़ करने की इस मेज पर एक निहायत ही छोटे से स्टूल पर बैठा करते थे। ये स्टूल उनके पिता का हुआ करता था। इसकी सीट एक आड़े खांचे पर घूमती थी। इसमें बड़े आकार के पहिये लगे हुए थे जिससे वे मनचाही दिशा में आसानी से घूम सकते थे। उनके साधारण औजार वगैरह मेज पर ही पड़े रहते थे लेकिन इस ताम झाम के साथ ही एक गोल मेज पर दूसरे कई तरह के यंत्र रखे रहते। ये मेज उनके दायें तरफ रखी होती। इस मेज में खुलने वाली दराजें बनी हुई थीं। इन दराजों पर लेबल लगे हुए थे। बेहतरीन औजार, रफ औजार, नमूने, नमूनों की तैयारी, वगैरह। इन दराजों में रखे साज सामान की सबसे अजब बात ये थी कि इस बेकार के कबाड़ को बहुत ही संभाल कर रखा गया था। वे इस सुनी सुनाई बात में पक्का यकीन करते थे कि अगर आप किसी चीज को फेंक देते हैं तो तुंत ही आपको उसकी जरूरत पड़ जायेगी। बस, यही सोच कर वे सब कुछ जमा करते चलते थे।

हां, अगर किसी की निगाह मेज पर फैले उनके साज सामान वगैरह पर पड़ जाती तो वह उनकी सादगी, जोड़ तोड़ कर बनाये गये सामान और अजीबो गरीब चीजों को देखकर हैरत में पड़ जाता।

उनकी दायीं तरफ शेल्फ बने हुए थे जिनमें कई तरह की चीजें,प्लेटें, बीजों को खमीरा करने के लिए बिस्कुटों के टिन के बक्से, रेत से भरी प्लेटें वगैरह भरे हुए थे। इस बात को देखते हुए कि वे अपने जरूरी काम काज में कितने सलीकापसंद और तौर तरीके वाले इन्सान थे, इस बात को देख कर हैरानी होती थी कि उन्होंने कितनी अल्लम गल्लम चीजें जुटा रखी थीं। मिसाल के तौर पर सामान रखने के लिए भीतर से काला किये हुए सही आकार के थिडब्बे रखने के बजाये वे कुछ भी ऐसा तलाशते जिस पर भीतर से जूता पालिश करके काला किया जा सके। बीजों के अंकुरण के लिए गिलासों के लिए उनके पास ढक्कन नहीं थे। इनके लिए वे किसी भी उल्टी सीधी चीज को इस्तेमाल में ले आते। कई बार तो ये चीजें इतने अजीब आकार की होतीं कि पूछिये मत। लेकिन उनके ज्यादातर प्रयोग सरल प्रकार के होते जिनके लिए लम्बे चौड़े ताम झाम की जरूरत न पड़ती। लेकिन मेरा ख्याल है कि इस मायने में उनकी ये आदत अपनी शक्तियों पर काबू पाने की ललक की वजह से ज्यादा रहती होगी बजाये जरूरी चीजों पर उसे बरबाद करने की।

यहां मैं चीजों पर निशान लगाने की उनकी आदत के बारे में बताना चाहूंगा। अगर उन्हें बहुत सारी चीजों में फर्क करना होता, मसलन, पत्तियां, बीज, फूल वगैरह तो वे उनके चारों तरफ अलग अलग रंग के धागे बांध देते। ये तरीका वे आम तौर पर तब अपनाते जब उनके सामने फर्क करने वाली दो ही चीजें होतीं। मिसाल के तौर पर अगर उन्हें क्रास और स्वयं पुष्पित होने वाले फूल के बीच फर्क दिखाना होता तो उन पर वे काला और सफेद धागा बांधते। मुझे याद है एक बार उन्होंने दो कैप्सूलों के बीच फर्क करना था तो एक ही ट्रे में रखे कैप्सूलों पर उन्होंने काले और सफेद धागे बांध रखे थे। अगर उन्हें एक ही गमले में उगाये गये दो बीजों के बीच के फर्क का अध्ययन करना होता तो वे उनके बीच जस्ते की पट्टी खड़ी कर देते और उन पर जस्ते के लेबल लगा देते जिनसे प्रयोग के सारे ब्योरे मिल जाते। ये उनकी एक तरफ मेज पर रखे रहते जिससे उन्हें पता चल जाता कि कौन सा क्रास है और कौन सा स्वयं पुष्पित।

संकरण के इन प्रयोगों में यह साफ प्रकट होता था कि प्रत्येक प्रयोग विशेष के प्रति उन्हें कितना लगाव था, और उससे भी ज्यादा उनका उत्साह कि प्रयोग से प्राप्त फल को भी नष्ट न होने दिया जाए - वे इतने सावधान रहते थे कि कोई भी कैप्सूल कभी किसी गलत ट्रे में न चला जाए, तथा ऐसी ही बहुत सी बातें। मुझे उनकी वह मुखमुद्रा कभी नहीं भूलती कि साधारण माइक्रोस्कोप के नीचे वे कितनी एकाग्रता से बीजों को गिनते थे - गिनती जैसा साधारण काम और उसमें भी इतने तल्लीन। मुझे लगता है कि प्रत्येक बीज उनके सामने एक व्यक्ति जैसा बन जाता था और उन्हें डर रहता था कि कहीं कोई बीज गलत ढेर में न चला जाए, और यह सब तौर तरीका उनके कार्य को एक खेल का रूप प्रदान कर देता था। उपकरणों पर भी उन्हें पूरा भरोसा था, और स्वाभाविक रूप से वे किसी भी पैमाने, नापने वाले गिलास आदि की शुद्धता पर संदेह नहीं करते थे। उन्हें तब बड़ा आश्चर्य हुआ जब उन्हें यह पता लगा कि उनके एक माइक्रोमीटर और दूसरे के बीच काफी अन्तर है। अपने अधिकांश उपकरणों में उन्हें कोई बहुत अधिक परिशुद्धता नहीं चाहिए थी, और उनके पास कोई बेहतर पैमाना था भी नहीं। बस एक पुराना सा तीन-फुटा पैमाना, जो सारे कुनबे का साझा पैमाना था। यह लगातार एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता रहता था, और सारे घर में इस पैमाने की जगह तय थी, बशर्ते सबसे अन्त में उठाने वाले व्यक्ति ने इसे सही सलामत उसी जगह पर रख दिया हो। पौधों की उँŠचाई नापने के लिए उनके पास सात फुट की छड़ी थी, जिसे गाँव के ही बढ़ई ने तैयार किया था। बाद में काग़ज के पैमानों का प्रयोग करने लगे जिन पर मिलीमीटर तक के निशान लगे थे। यह सब बताने का मतलब यह नहीं है कि इस प्रकार के उपकरणों को उपयोग में लेने के कारण उनकी पैमाइश में शुद्धता नहीं रहती थी, बल्कि मैं यह बताना चाहता हूँ कि उनके उपकरण कितने सरल थे - और उपकरण बनाने वाले पर उन्हें कितना भरोसा था, जिसका पूरा व्यवसाय ही उनके लिए रहस्य था।

उनकी दिमागी खासियत में से कुछेक मुझे अभी भी याद आती हैं, और इनका असर उनके काम के तरीके पर भी था। उनके दिमाग की एक खासियत और बहुत बड़ी उपयोगिता यह थी कि वे हमेशा कुछ न कुछ तलाशने में लगे रहते थे। यह उनके दिमाग की ही कुछ ताकत थी जो अपवादों को भी नजरअंदाज नहीं करती थी। यदि कोई अपवाद खास हो या बार बार होने लगे तो कोई भी उस पर ध्यान देगा लेकिन किसी भी अपवाद को वे पहली ही बार में पकड़ लेते थे, और यही उनकी खासियत थी। कुछ बातें ऐसी होती थीं जो उनके वर्तमान काम के बारे में बहुत ही सामान्य होती थीं, जिन्हें उनसे पहले के बहुत से लोगों ने लगभग अनदेखा-सा ही किया होता था या फिर जिनकी अधूरी व्याख्या की होती थी, जो कि कोई व्याख्या नहीं कहलाती, और इन्हीं बातों को पकड़ कर वे अपना अध्ययन शुरू करते थे। एक तरह से देखा जाए तो इस तरीके में कुछ खास नज़र नहीं आता, लेकिन उन्होंने बहुत-सी खोजबीन इसी तरीके से की थी। मैं यह सब इसलिए बता रहा हूँ कि मैं उन्हें जिस प्रकार से काम करते हुए देखता था, तो प्रयोगकर्ता के रूप में इस ताकत की कीमत ने मुझ पर बहुत असर डाला था।

उनके प्रयोगात्मक कार्यों की एक और खासियत थी कि वे किसी एक विषय पर जैसे चिपक जाते थे, वे अपने इस धैर्य के लिए कई बार क्षमा माँगते थे, और कहते थे कि बस वे इस काम में हारना नहीं चाहते, भले ही यह उनके लिए कमज़ोरी का ही सबब क्यों न बन जाता हो। वे कई बार यह कहावत कह उठते थे, `गुड़ पर चींटे सा चिपक गया हूँ।'

और मैं सोचता हूँ कि यह `चींटे सा हठीला' उनके दिमाग के खाके को उनके अनथक प्रयासों की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से प्रकट करता था। अनथक प्रयास तो मुश्किल से ही उनकी उस बलवली इच्छा को प्रकट कर पाता जो सत्य को उद्घाटित करने के लिए उनके मन में होती थी। वे अक्सर कहते थे कि किसी भी व्यक्ति के लिए यह जानना ज़रूरी है कि वह सही मौका कौन-सा है जब अपनी तलाश खत्म की जाए। और मैं समझता हूँ कि यह उनकी प्रवृत्ति में था कि यह सही मौका अक्सर पीछे छूट जाता था और वे अपने अनथक प्रयास के लिए माफी माँगते थे और उनका काम में लगना गुड़ पर चींटे सा चिपकना हो जाता था। वे अक्सर यह भी कहते थे कि कोई भी व्यक्ति अच्छा प्रेक्षक तब तक नहीं बन सकता जब तक कि वह सक्रिय सिद्धान्तवादी न हो। यह बात याद आते ही मैं फिर से उनकी वह भावना याद करने लगता हूँ जिसके तहत वे अपवादों को तुरन्त पकड़ते थे। लगता है कि उनमें सिद्धान्तप्रियता इतनी थी कि वह जरा से भी विचलन को देखते ही सक्रिय हो उठते थे। इसलिए वास्तव में यह होता था कि छोटी से छोटी चीज भी उनमें सिद्धान्तों को सक्रिय कर देती थी, और इस प्रकार कोई भी तथ्य महत्त्वपूर्ण हो उठता था। इस प्रकार सहज ही उनके मन में कई सिद्धान्त मूर्त रूप ले चुके थे, लेकिन कल्पनाओं के साथ ही उनमें निर्णय करने का विवेक भी था जो इस प्रकार की विचित्रताओं को निक्रिय भी कर देता था। वे अपने सिद्धान्तों के प्रति ईमानदार थे, और उन्हें समझे बिना कभी भी नकारते नहीं थे। इस प्रकार से देखा जाए तो वे ऐसी बातों पर भी परीक्षण करने को आतुर रहते थे, जिन्हें अन्य लोग परीक्षण के लायक ही नहीं समझते थे। अपने कुछ परीक्षणों को वे मूढ़ परीक्षण कहते थे, और इनमें आनन्द भी लेते थे। मिसाल के तौर पर यह घटना ही लीजिए कि एक अनोखे किस्म के पौधे के बीजड़पत्र मेज के हिलने डुलने के कंपन के प्रति खास संवेदना रखते हैं तो उन्होंने यह कल्पना की शायद ये ध्वनि के कंपनों को भी पकड़ें और इसलिए मुझे कहा गया कि मैं उस पौधे के पास बेसून बजाऊँ।

कोई भी प्रयोग करने की बलवती इच्छा उनमें थी, और मुझे याद है जिस प्रकार वे कहा करते थे कि, `जब तक मैं इसका परीक्षण नहीं कर लूँगा मुझे चैन नहीं पड़ेगा,' जैसे कोई बाहरी शक्ति उन्हें प्रेरित कर रही हो। केवल कारण-परक कार्यों की तुलना में प्रयोगात्मक कार्य उन्हें अधिक पसंद थे, और जब कभी वे अपनी किसी ऐसी किताब में उलझे होते थे जिसमें तर्क और तथ्यों को सूत्रबद्ध करना अपेक्षित होता था तो वे महसूस कर लेते थे कि प्रयोगात्मक कार्यों को विराम या अवकाश दिया जाए। इस प्रकार, वेरिऐशन ऑफ एनिमल्स एन्ड प्लान्ट्स पर 1860ड़61 के दौरान काम करते हुए उन्होंने ऑर्चिड का निषेचन प्रयोग भी किया और इन पर बहुत ज्यादा समय लगाने के लिए खुद को बेकार ही उलझा हुआ भी कहा। यह सोचना रुचिकर हो सकता है कि शोध के इस खास काम को फुर्सत में करने के बजाय और ज्यादा गंभीर कार्य के रूप में लेना चाहिए था। इस दौरान हूकर को लिखे अपने एक खत में उन्होंने बताया,`भगवान मुझे माफ करे कि मैं इतना आलसी क्यूँ हूँ; जबकि मैं पागलपन भरे दूसरे काम तो कर ही रहा हूँ।' इन पत्रों में उन्होंने बताया था कि निषेचन के प्रति पौधों की अनुकूलन क्षमता के समझने में उन्हें कितना आनन्द आता था। अपने किसी एक खत में उन्होंने लिखा था कि डीसेन्ट ऑफ मैन से विराम लेते हुए उनका विचार था कि सन्डÎ पर काम किया जाए। अपने रीक्लेक्शन में उन्होंने बताया है कि विषम वार्तिकता की समस्या का समाधान करने में उन्हें कितनी खुशी हुई। एक बार मैंने उन्हें यह कहते सुना था कि दक्षिण अफ्रीका के भूविज्ञान ने उन्हें सबसे ज्यादा आनन्द दिया। शायद कार्य करने में यह खुशी प्राप्त करने के लिए बड़ी पैनी निगाह चाहिए जो अवलोकन को एक ताकत देती है, जो कि उनमें थी और उनके दूसरे गुणों की तरह ही उत्कृष्ट थी।

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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रचनाकार: चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (6)
चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा (6)
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