कहानी तारे जमीन पर का बेचारा पप्पू - नरेन्द्र निर्मल बचपन से ही शर्मीला किस्म का इंसान। लड़कियां तो दूर लड़कियों के शब्द से ...
कहानी
तारे जमीन पर का बेचारा पप्पू
- नरेन्द्र निर्मल
बचपन से ही शर्मीला किस्म का इंसान। लड़कियां तो दूर लड़कियों के शब्द से भी सिरहन सी होने लगती। दोस्त कई सारे हुए मगर सभी समान लिंग वाले। इसका कदापि मतलब नहीं की उसमें ‘दोस्ताना’ वाले लक्षण शामिल थे, बल्कि वह अभी नाबालिग था। दसवीं तक यहीं दौर चला। पढ़ाई में भी कुछ खास न था। अव्वल आता परन्तु पीछे की तालिका से। घरवाले भी काफी परेशान रहते। खेल खेलना भी पसंद नहीं करता। अगर मन में कभी खेल भावना हिचकोले भी मारती तो घरवाले ताना देते। हर वक्त खेल, इसलिए तो पढ़ाई में अव्वल आते हो वह भी पीछे की दिशा से। तुम्हारा तो अब भगवान ही मालिक है। ताने सुनता रहा तुलना औरों से होती रही। देखो उस समीर को फर्स्ट लाया है अपने बाप का नाम रौशन किया है। दर्द असहनीय होता गया। मन में क्षोभ जन्म लेने लगे। बेचारा था... पप्पू ही रहा। दसवीं के परिणाम ने एक बार फिर से निराशा के अंधेरे में ढकेल दिया। लेकिन घर में एक मां थी जिसने हर वक्त पुचकारा, गलतियों पर पर्दा डालती रही। जानती थी, वह भी उसकी कोख से जन्मा उसके कलेजे का टुकड़ा रहा। उस बेचारे की तरफदारी में कभी-कभार आक्षेप के दंश को भी हंसकर सहन करने से न कतराती। मां जो ठहरी, विशाल हृदय होना तो लाजमी ही था। बाप की तरह पत्थर दिल की संस्कृति हमारे भारतीय सभ्यता में नहीं देखी गई है। और अपनी ही छवि को धूमिल होता देख कहा चुप रह पाती।
दसवीं के बाद किसी प्रकार उसे मॉडर्न स्कूल में डाल दिया गया। ताकि संकुचित मस्तिष्क में पड़ी धूल छट सके। इस दौरान उसे प्रेम का मतलब पता चला। आकर्षण किसे कहते है, बोध होने लगा। एक लड़की से मन ही मन प्यार करने लगा। बेचारा शर्मीला जो ठहरा। कहने की हिम्मत कहा थी। लेकिन एक बात तो उसमें थी कि वह अपने सभी बातों को बेधड़क दोस्तों को कह देता। उसे शहर की हवा भी नहीं लग पाई थी। क्योंकि जहां वह रहता था उसे गांव कहा जाता। गांव की संस्कृति में पला-बढा जहां हर पड़ोसी में रिश्ते-नाते तलाश लेता। किसी को चाचा-चाची, मामा-मामी, दीदी-भैया और बहन बना लेता। और एक बार जो मन में बिठा लेता, दूर-दूर तक उस पर कुदृष्टि नहीं डालता। लेकिन जहां वो पढ़ने के लिए मॉडर्न स्कूल जाता था। आस-पास का वातावरण शहर के माहौल में पूरी तरह ढल चुका था। सामने खुलने वाले दरवाजों के बीच रिश्ते तो दूर की बात, एक-दूसरे को जानते तक नहीं। अनजाने मुसाफिर को घर तलाशने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ती थी।
घर से निकलता स्कूल बस पर और संध्या को सीधा उसी गांव के वातावरण में। उसने प्यार तो सीख लिया पर प्यार के अलावा कुछ नहीं सीखा, जो आज के महानगरों के बच्चे कक्षा सातवीं से ही जान चुके होते है। न तो लड़कियां रिझाने के तौर-तरीके से ही वाकिफ था, उसके बाद की परिकल्पना की तो बात ही छोड़ दें।
इसी क्रम में बेचारे की दो साल भी घीसा-पीटा बीत गया। और होना क्या था, बारहवीं का परिणाम सामने। परिवार वालों का शोर कानों में लाउडस्पीकर की तरह एक बार फिर बजने लगा। इसका कदापि तात्पर्य नहीं कि वह फेल हो गया था। बल्कि प्रथम से दो अंक पीछे रहकर द्वितीय श्रेणी का खिताब तो अवश्य ही पा लिया था। सब ने कहां अब क्या करोगे? उसने कहां तैयारी मेडिकल की करूंगा, शायद डाक्टर बन जाऊं। कॉनफिडेंस लूज जो ठहरा। मेडिकल की तैयारी के लिए कोचिंग में दाखिला लिया पर उसकी अजीबो-गरीब सी पढ़ाई ने उसे और असमंजस में डाल दिया। यह भी एक साल यू ही जाता रहा। एक बात अवश्य रही इस बार उसे प्रेम का मोह मन में नहीं पनप पाया।
निराश लौट आया घर को खुद को कोसते हुए। परिवार वालों ने कोसा, वो अलग। पढ़ाई से मानो अब मन ही उचट गया था। बिजनस में जाने का मन बना लिया। घर वालों ने भी प्रोत्साहन देने के बजाय एक बार फिर से पढ़ाई की दल-दल में झोक दिया। कहां अभी पढ़ो बिजनस करने की उम्र अभी बहुत बची है। पास के कालेज में दाखिला लिया ताकि स्नातक की खानापूर्ति हो सके। इसी बीच बेचारे को दिल्ली घूमने का मौका मिला। वहां की दौड़ती भागती जिंदगी से काफी प्रभावित हुआ। रोज नए-नए हुस्न के दर्शन और उससे पनपते आकर्षण ने दिल्ली में रहने की ललक जगा दी। दिल्ली में रहना कोई आसान नहीं था। महंगा शहर था। वो दक्षता भी नहीं थी जिससे की वह खुशहाल जिंदगी अपनी बना सके। लेकिन अचानक उसके जेहन में कई सारे रंगीन सपनों ने जगह बनाना शुरू कर दिया। मन से एक आगाज उठने लगा, कहने लगाः-
‘‘देश के लिए कुछ करूं या तो नाम कमाऊं
राजनीति मे नहीं तो टीवी पर तो आऊं
वो भी न कर सका तो मैं मिट्टी में मिल जाऊं’’
जिंदगी में आगे चलकर उसे क्या करना है। कुछ नहीं जानता बस इतना जानता ‘जो मन में ठानी है, उसे हर कीमत पर पाना है’। ऐसे में रोजगार परक कोर्स के विचार मंथन चलने लगा। साथ ही मन की आवाज को भी पूरा करना था। पत्रकारिता एक मात्र रस्ता दिखा जिसके माध्यम से इन तमाम रास्तों से गुजरा जा सकता है। लेकिन कुछ कमियां उसमें जिससे इस रास्ते पर आना आसान नहीं दिख रहा था। लेकिन कहते है न जो किस्मत में लिखा है वहीं होता है। अचानक उसके हाथों में लिखने की क्षमता जागृत होने लगी। शुरुआत बेचारे ने कविताओं से की। इसी बीच एक लड़की के पुलकित चेहरे ने उसकी आखों में दस्तक दी। फिर क्या था प्रेरणा उबाल मारने लगा। कलम की, धार धारदार होती चली गई। रफ्तार भी तेज होती गई लिखने की। शब्दों और वाक्यों से खेलने की कला में भी निखार आने लगा। हां एक कमी थी उसमें साहित्यिक शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर पाता। वजह एक मात्र थी, वो गांव, जहां हिन्दी भी शुद्ध नहीं बोली जाती थी। क्योंकि प्रादेशिक भाषा का बोल-बाला था।
उसने तय कर लिया पत्रकार ही बनेगा। चाहे कितनी भी परेशानियों का सामना करना पड़े। लड़ेगा वो थकेगा नहीं। स्नातक पास कर लिया वह भी पप्पू की तरह लटक-झटक कर। लेकिन पत्रकारिता के स्नातकोत्तर में दाखिला लेने में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी। दाखिला लेने के बाद उसने तय किया कि वह अब अपने शर्म को अपने दिल के कोने में बने संदूक में डाल देगा। ऐसा ही कुछ किया। फिर क्या था दोस्तों की कतार बढ़ने लगी। इस बार लड़कियां भी उस कतार में शामिल होने लगीं।
अपनी कक्षा में अव्वल रहने व बनने की जि़द में उसने लेखन में कई कार्य किये। अपना कलात्मक सोच में भी तीक्ष्णता लाता गया। कालेज में होने वाले कार्यक्रमों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगा। लड़कियों के साथ भी खिल-खिलाकर हंसने की कला सीख ली थी उसने। इस बीच अपने ही कालेज से प्रकाशित होने वाली पुस्तक का सम्पादन किया। कई सारे लेख और कविताएं उनमें डाले। इसी बीच सहपाठी कन्या का दिल में दस्तक देना आरम्भ हुआ। दोनो में फौरन अच्छी दोस्ती भी हो गई। लेकिन बेचार फिर पप्पू बन गया क्योंकि लड़की शर्मीली थी। और थोड़ी कसर उसने भी पूरी कर दी। न उधर से इस प्यार के आग को हवा दी गई और न ही उसमें इतनी हिम्मत थी कि आग में घी डाल सके। हां बातों-बातों में मुहावरों से जरूर समझाने का प्रयास किया परन्तु विफल रहा। एक दिन हिम्मत कर उसने सब कुछ कहना चाहा तो उससे पहले ही पता चला उसे कोई और प्यार करता था। इतना ही नहीं उस शख्स ने धमकी दे रखी थी, अगर तुने बेवफाई की तो आत्महत्या कर लूंगा। वो बेचारा सोच में पड़ गया। किसी की जान से ज्यादा उसका प्यार कीमती नहीं हो सकता। उसने फौरन उसे दिल से निकाल दिया। दोस्ती रखी पर वो एहसास खत्म कर दिये, जिसने उसके दिल को विचलित कर रखा था। फिर क्या था दिल खाली कहां रहता है वह भी उम्र के ऐसे पड़ाव में। तलाश तो सबको रहती है अपने लिए एक साथी की।
इन एक सालों में वह दिल्ली की संस्कृति से पूरी तरह अवगत हो चुका था। कि यहां सच्चे प्यार की कोई कद्र नहीं है। सब पैसे के भूखे है। हर जिस्म की कीमत होती है यहां। लेकिन उसे जिस्म से ज्यादा एक साथी की तलाश थी। ताकि उसके कमी के एहसास को भर सके। लेकिन नाकामयाब रह गया। तब तक साल भी बीत चुके थे। वह रेगिस्तान में तड़पते प्यासे की तरह प्यार के लिए प्यासा ही रह गया। आज वो नौकरी की जुगत में इधर-उधर भटक रहा है। जिस पत्रकारिता के दम पर उसने समाज में फैली बुराईयों को मिटाने का बीड़ा उठा रखा था। आज उसी पत्रकारिता के बदले स्वरूप जिसमें जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाई-भतीजावाद और बाजारवाद के बढ़ते चलन ने काफी निराशा पहुंचा है। वह समझ चुका है कि पत्रकारिता अपनी पुरानी धारा खो चुकी है। जिसके उफान मात्र से ही बड़े से बड़े चट्टान धूल में परिणत हो जाते थे। बल्कि वैश्वीकरण के इस युग में यह भी एक खूबसूरत रंगीन लिफाफे की तरह दिखता है। समय के तकाजे को भांपते हुए अब उसने भी खुद को बदलने का फैसला कर लिया है क्योंकि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इस बदली हुई परिस्थिति में नई सोच के साथ खुद के लिए मुकम्मल स्थान पाने का प्रयास उसका जारी है। देखना होगा आने वाले दिनों में वह कितना सफल हो पाता है।
इस बीच उसे मालूम चला की उसका पहला सच्चा प्यार, जिसे किसी के आत्महत्या की धमकी ने उसके एहसास तक मिटाने के लिए विवश कर दिया था। उसकी मांग अब सजने वाली है। हाथों में मेंहदी रचाने जा रही है पर वह भी किसी और से। लेकिन एक बड़ी आश्चर्य करने वाली बात सामने आई कि वह उस पप्पू से प्यार करती थी, लेकिन उसे कभी कहने की हिम्मत नहीं हुई थी। ऐसे में एक बात अवश्य सामने आती है कि बेचारे लड़के को पप्पू की संज्ञा दी जाती है। लेकिन उन लड़कियों का क्या नाम दिया जाए जो पप्पू वाली हरकतें करती रहती है। विचार करे!
------
नरेन्द्र निर्मल
के- 10, द्वितीय तल, शकरपुर, दिल्ली
मो.- 9868033851
 
							     
							     
							     
							    
COMMENTS