काले कपोत किसी शांतिदूत की सुरक्षित हथेलियों में उन्मुक्त आकाश की अनंत ऊँचाइयों की निस्सीम उडान को आतुर शरारती बच्चों से चहचहात...
काले कपोत
किसी शांतिदूत की सुरक्षित हथेलियों में    
उन्मुक्त आकाश की अनंत ऊँचाइयों     
की निस्सीम उडान को आतुर     
शरारती बच्चों से चहचहाते     
धवल कपोत नही हैं ये     
न किसी दमयंती का संदेशा लिए     
नल की तलाश में भटकते धूसर प्रेमपाखी     
किसी उदास भग्नावशेष के अन्तःपुर की     
शमशानी शान्ति में जीवन बिखेरते पखेरू भी नही     
न किसी बुजुर्ग गिर्हथिन के     
स्नेहिल दाने चुगते चुरगुन     
मंदिरों के शिखरों से मस्जिदों के कंगूरों तक     
उड़ते निशंक     
शायरों की आंखों के तारे     
बेमज़हब परिंदे भी नही ये     
भयाकुल शहर के घायल चिकित्सागृह की     
मृत्युशैया सी दग्ध हरीतिमा पर     
निःशक्त परों के सहारे पड़े निःशब्द     
विदीर्ण ह्रदय के डूबते स्पंदनों में     
अँधेरी आंखों से ताकते आसमान     
गाते कोई खामोश शोकगीत     
बारूद की भभकती गंध में लिपटे     
ये काले कपोत !     
कहाँ -कहाँ से पहुंचे थे यहाँ बचते बचाते     
बल्लीमारान की छतों से     
बामियान के बुद्ध का सहारा छिन जाने के बाद     
गोधरा की उस अभागी आग से निकल     
बडौदा की बेस्ट बेकरी की छतों से हो बेघर     
एहसान जाफरी के आँगन से झुलसे हुए पंखों से     
उस हस्पताल के प्रांगन में     
ढूँढते एक सुरक्षित सहारा     
शिकारी आएगा - जाल बिछायेगा - नहीं फंसेंगे     
का अरण्यरोदन करते     
तलाश रहें हो ज्यों प्रलय में नीरू की डोंगी     
पर किसी डोंगी में नहीं बची जगह उनके लिए     
या शायद डोंगी ही नहीं बची कोई     
उड़ते - चुगते- चहचहाते - जीवन बिखेरते     
उजाले प्रतीकों का समय नहीं है यह     
हर तरफ बस     
निःशब्द- निष्पंद- निराश     
काले कपोत !
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कहाँ होंगी जगन की अम्मा
सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये    
ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा ’शर्मिन्दा सा जेबें टटोलते     
अचानक पहुंच जाता हूं     
बचपन के उस छोटे से कस्बे में     
जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं     
और मां बांस की रंगीन सी डलिया में     
दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर     
जहां इंतज़ार में होती थीं     
सुलगती हुई हांड़ियों के बीच जगन की अम्मा.     
तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका     
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी     
बस जगन की अम्मा थीं वह     
हालांकि पांच बेटियां भी थीं उनकीं     
एक पति भी रहा होगा जरूर     
पर कभी जरूरत ही नहीं महसूस हुई     
उसे जानने की     
हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू     
और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान.     
हालांकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर     
नहीं था कहीं उसका विज्ञापन     
हमारी अपनी नंदन, पराग या चंपक में भी नहीं     
अव्वल तो थी हीं नहीं इतनी होर्दिंगे     
और जो थीं उन पर कहीं नहीं था इनका जिक्र     
पर मां के दूध और रक्त से मिला था मानो इसका स्वाद     
तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू     
और तमाम दृश्यों में सबसे खूबसूरत था वह दृश्य .     
मुट्ठियाँ भर-भर कर फांकते हुए इसे     
हमने खेले बचपन के तमाम खेल     
उंघती आँखों से हल किये गणित के प्रमेय     
रिश्तेदारों के घर रस के साथ यही मिला अक्सर     
एक डलिया में बांटकर खाते बने हमारे पहले दोस्त     
फ्राक में छुपा हमारी पहली प्रेमिकाओं ने     
यही दिया उपहार की तरह     
यही खाते-खाते पहले पहल पढ़े     
डिब्बाबंद खाने और शीतल पेयों के विज्ञापन!     
और फिर जब सपने तलाशते पहुँचे     
महानगरों की अनजान गलियों के उदास कमरों में     
आतीं रहीं अक्सर जगन की अम्मा     
मां के साथ पिता के थके हुए कंधो पर     
पर धीरे-धीरे घटने लगा उस खुशबू का सम्मोहन     
और फिर खो गया समय की धुंध में तमाम दूसरी चीजों की तरह.     
बरसों हुए अब तो उस गली से गुजरे     
पता ही नहीं चला कब बदल गयी     
बांस की डलिया प्लास्टिक की प्लेटों में     
और रस भूजा - चाय नमकीन में!     
अब कहाँ होंगी जगन की अम्मा?     
बुझे चूल्हे की कब्र पर तो कबके बन गये होंगे मकान     
और उस कस्बे में अब तक नहीं खुली चिप्स की फैक्ट्री     
और खुल भी जाती तो कहाँ होती जगह जगन की अम्मा के लिए?     
क्या कर रहे होंगे आजकल     
मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भर देने वाले हाथ?     
आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले     
होती हैं अनेक भयावह संभावनायें....     
जेबें टटोलते मेरे ’शर्मिन्दा हाथों को देखते हुए गौर से     
दुकानदार ने बिटिया को पकड़ा दिये है- अंकल चिप्स!
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सबसे बुरे दिन
सबसे बुरे दिन नहीं थे वे    
जब घर के नाम पर     
चौकी थी एक छह बाई चार की     
बमुश्किलन समा पाते थे जिसमे दो जि+स्म     
लेकिन मन चातक सा उड़ता रहता था अबाध!     
बुरे नहीं वे दिन भी     
जब ज़रूरतों ने कर दिया था इतना मजबूर     
कि लटपटा जाती थी जबान बार बार     
और वे भी नहीं     
जब दोस्तों की चाय में     
दूध की जगह मिलानी होती थी मज+बूरियां.     
कतई बुरे नहीं थे वे दिन     
जब नहीं थी दरवाजे पर कोई नेमप्लेट     
और नेमप्लेटों वाले तमाम दरवाजे     
बन्द थे हमारे लिये.     
इतने बुरे तो खैर नहीं हैं ये भी दिन     
तमाम समझौतों और मजबूरियों के बावजूद     
आ ही जाती है सात-आठ घण्टों की गहरी नींद     
और नींद में वही अजीब अजीब सपने     
सुबह अखबार पढ़कर अब भी खीजता है मन     
और फाइलों पर टिप्पणियाँ लिखकर ऊबी कलम     
अब भी हुलस कर लिखती है कविता.     
बुरे होंगे वे दिन     
अगर रहना पड़ा सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला     
दोस्तों की शक्लें हो गई बिल्कुल ग्राहकों सीं     
नेमप्लेट के आतंक में दुबक गया मेरा नाम     
नींद सपनों की जगह गोलियों की हो गई गुलाम     
और कविता लिखी गई फाईलों की टिप्पणियांे सी.     
बहुत बुरे होंगे वे दिन     
जब रात की होगी बिल्कुल देह जैसी     
और उम्मीद की चेकबुक जैसी     
वि’वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन     
खुशी घर का कोई नया सामान     
और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत.     
लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन     
जब आने लगेगें इन दिनों के सपने!
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सैनिक की मौत
तीन रंगो के    
लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा     
लौट आया है मेरा दोस्त     
अखबारों के पन्नों     
और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर     
भरपूर गौरवान्वित होने के बाद     
उदास बैठै हैं पिता     
थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन
सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच    
बार-बार फूट पड़ती है पत्नी     
कभी-कभी     
एक किस्से का अंत     
कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है     
और किस्सा भी क्या?     
किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन     
फिर सपनीली उम्र आते-आते     
सिमट जाना सारे सपनो का     
इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के     
अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग
या फिर केवल योग    
कि देशभक्ति नौकरी की मजबूरी थी     
और नौकरी जिंदगी की     
इसीलिये     
भरती की भगदड़ में दब जाना     
महज हादसा है     
और फंस जाना बारूदी सुरंगो में     
’शहादत!     
बचपन में कुत्तों के डर से     
रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त     
आठ को मार कर मरा था     
बारह दुश्मनों के बीच फंसे आदमी के पास     
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है?     
वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ     
जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त     
दरअसल उस दिन     
अखबारों के पहले पन्ने पर     
दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था     
और उसी दिन ठीक उसी वक्त     
देश के सबसे तेज चैनल पर     
चल रही थी     
क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा     
एक दूसरे चैनल पर     
दोनों देशों के मशहूर शायर     
एक सी भाषा में कह रहे थे     
लगभग एक सी गजलें     
तीसरे पर छूट रहे थे     
हंसी के बेतहाशा फव्वारे     
सीमाओं को तोड़कर     
और तीनों पर अनवरत प्रवाहित     
सैकड़ों नियमित खबरों की भीड़ मे     
दबी थीं     
अलग-अलग वर्दियों में     
एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी     
नौ बेनाम लाशों     
.     
.     
.     
अजीब खेल है     
कि वजीरों की दोस्ती     
प्यादों की लाशों पर पनपती है     
और     
जंग तो जंग     
शाति भी लहू पीती है!
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तुम्हे कैसे याद करूँ भगत सिंह?
    
जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें     
उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें     
जिन कारखानों में उगता था     
तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज     
वहां दिन को रोशनी     
रात के अंधेरों से मिलती है     
ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत     
कि कांपी तक नही जबान     
सू ऐ दार पर     
इंक़लाब जिंदाबाद कहते     
अभी एक सदी भी नही गुज़री     
और ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी     
कि पूरी एक पीढी जी रही है     
ज़हर के सहारे     
तुमने देखना चाहा था     
जिन हाथों में सुर्ख परचम     
कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में     
रोज़ भरे जा रहे हैं     
अख़बारों के पन्ने     
तुम जिन्हें दे गए थे     
एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब     
सजाकर रख दी है उन्होंने     
घर की सबसे खुफिया आलमारी मैं     
तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है     
इस साल जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडों के साथ     
सब बैचेन हैं     
तुम्हारी सवाल करती आंखों पर     
अपने अपने चश्मे सजाने को     
तुम्हारी घूरती आँखें डरती हैं उन्हें     
और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं     
अवतार बनने की होड़ में     
तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे रंग     
रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में     
तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है     
मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल     
तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह     
जबकि जानता हूँ की तुम्हे याद करना     
अपनी आत्मा को केंचुलों से निकल लाना है     
कौन सा ख्वाब दूँ मै     
अपनी बेटी की आंखों में     
कौन सी मिट्टी लाकर रख दूँ     
उसके सिरहाने     
जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते     
... हिन्दुस्तान बन गया है
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दे जाना चाहता हूँ तुम्हें
   
(अपनी पुत्री की पाँचवीं वर्षगाँठ पर ) 
ऊब और उदासी से भरी इस दुनिया में
पांच हंसते हुए सालों के लिए    
देना तो चाहता था तुम्हें बहुत कुछ 
प्रकृति का सारा सौंदर्य    
शब्दों का सारा वैभव     
और भावों की सारी गहराई  
लेकिन कुछ भी नहीं बच्चा मेरे पास तुम्हें देने के लिए
फूलों के पत्तों तक अब नहीं पहुंचती ओस    
और पहुँच भी जाए किसी तरह     
बिलकुल नहीं लगती मोतियों सी 
समंदर है तो अभी भी उतने ही    
अद्भुत और उद्दाम     
पर हर लहर लिख दी गयी है किसी और के नाम 
पह्दों के विशाल सीने पर    
अब कविता नहीं     
विज्ञापनों के जिंगल सजे हैं   
खेतों में अब नहीं उगते स्वप्न    
और न बंदूकें ...     
बस बिखरी हैं यहाँ-वहां     
नीली पद चुकीं लाशें 
सच मनो    
इस सपनीले बाज़ार में     
नहीं बचा कोई दृश्य इतना मनोहारी     
जिसे दे सकूँ तुम्हारी मासूम  आँखों को     
नहीं बचा कोई भी स्पर्श इतना पवित्र     
जिसे दे सकूँ तुम्हें पहचान की तरह 
बस    
समझौतों और समर्पण के इस अँधेरे समय में     
जितना भी बचा है संघर्षों का उजाला     
समेटकर भर लेना चाहता हूँ अपनी कविता में     
और दे जाना चाहता हूँ तुम्हें उम्मीद की तरह     
जिसकी शक्ल     
मुझे बिलकुल तुम्हारी आँखों सी लगती है 
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वैश्विक गांव के पंच परमेश्वर
पहला    
कुछ नहीं खरीदता     
न कुछ बेचता है     
बनाना तो दूर की बात है     
बिगाड़ने तक का शऊर नहीं है उसे     
पर तय वही करता है     
कि क्या बनेगा- कितना बनेगा- कब बनेगा     
खरीदेगा कौन- कौन बेचेगा 
दूसरा    
कुछ नहीं पढ़ता     
न कुछ लिखता है     
परीक्षायें और डिग्रियाँ तो खैर जाने दें     
किताबों से रहा नहीं कभी उसका वास्ता     
पर तय वही करता है     
कि कौन पढ़ेगा- क्या पढ़ेगा- कैसे पढ़ेगा     
पास कौन होगा- कौन फेल 
तीसरा    
कुछ नहीं खेलता     
जोर से चल दे भर     
तो बढ़ जाता है रक्तचाप     
धूल तक से बचना होता है उसे     
पर तय वही करता है     
कि कौन खेलेगा- क्या खेलेगा- कब खेलेगा     
जीतेगा कौन- कौन हारेगा 
चौथा    
किसी से नहीं लड़ता     
दरअसल ’शुद्ध ’शाकाहारी है     
बंदूक की ट्रिगर चलाना तो दूर की बात है     
गुलेल तक चलाने में कांप जाता है     
पर तय वही करता है     
कि कौन लड़ेगा -किससे लड़ेगा - कब लड़ेगा     
मारेगा कौन - कौन मरेगा 
और    
पाँचवां     
सिर्फ चारों का नाम तय करता है। 
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मैं चाहता हूं
मैं चाहता हूं    
एक दिन आओ तुम     
इस तरह     
कि जैसे यूं ही आ जाती है ओस की बूंद     
किसी उदास पीले पत्ते पर     
और थिरकती रहती है देर तक 
मैं चाहता हूं    
एक दिन आओ तुम     
जैसे यूं ही     
किसी सुबह की पहली अंगड़ाइ के साथ     
होठों पर आ जाता है     
वर्षों पहले सुना कोई सादा सा गीत     
और पहले चुम्बन के स्वाद सा 
मैं चाहता हूं    
एक दिन यूं ही     
पुकारो तुम मेरा नाम     
जैसे शब्दों से खेलते-खेलते     
कोई बच्चा रच देता है पहली कविता     
और फिर     
गुनगुनाता रहता है बेखयाली में 
मैं चाहता हूं    
यूं ही किसी दिन     
ढूंढते हुए कुछ और तुम ढूंढ लो मेरे कोई पुराना सा ख़त     
और उदास होने से पहले देर तक मुस्कराती रहो 
मै चाहता हूँ यूँ ही कभी आ बैठो तुम    
उस पुराने रेस्तरां की पुरानी वाली सीट पर     
और सिर्फ एक काफी मंगाकर     
दोनों हाथों से पियो बारी बारी 
मैं चाहता हूँ इस तेजी से भागती समय की गाड़ी के लिए कुछ मासूम से    
कस्बाई स्टेशन   
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अशोक कुमार पाण्डेय की अन्य रचनाएँ उनके ब्लॉग पर यहाँ पढ़ें:
							    
							    
							    
							    
'जबकि जानता हूँ की तुम्हे याद करना
जवाब देंहटाएंअपनी आत्मा को केंचुलों से निकल लाना है'
मुझे अंदाज़ा नहीं था कि खालिस ब्लॉगर लोग इतनी अच्छी कवितायें लिखते है. भाई अशोक पाण्डेय तो बहुत उम्दा कवि हैं. अगर एकाध कविता बहुत अच्छी न होना कहने की इजाजत चाहूँ तो दावे से कहना चाहूंगा कि उनमें एक समझ और गहरी संवेदना है. बधाई और रवि तकनीकी गुरु को धन्यवाद!
शुक्रिया…।
जवाब देंहटाएंवैसे खालिस ब्लागर तो नही है हम
भगत सिह वाली कविता उदभावना के विशेषान्क मे छ्पी थी,वैश्विक गाव वसुधा मे,जगन की अम्मा कथन,एक सैनिक की मॉत परिकथा और शेष साक्षात्कार मे।