सुनील गज्‍जाणी की कविताएँ

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आता है नजर संपेरा, मदारी खेल नट-नटनी का, बतलाओ जरा कहां आता है नजर ? खेल बच्‍चों का सिमटा कमरों में अब, बचपन को लगी कैसी ये नजर...

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आता है नजर

संपेरा, मदारी खेल नट-नटनी का,

बतलाओ जरा कहां आता है नजर ?

खेल बच्‍चों का सिमटा कमरों में अब,

बचपन को लगी कैसी ये नजर ।

वैदिक ज्ञान, पाटी तख्‍ती, गुरू शिष्‍य अब,

किस्‍सों में जाने सिमट गए इस कदर,

नैतिकता, सदाचार अब बसते धोरों मे,

फ्रेम में टंगा बस आदमी आता है नजर।

चाह कंगूरे की पहले होती अब क्‍यूं,

धैर्य, नींव का कद बढ़ने तक हो जरा,

बच्‍चा नाबालिग नहीं रहा इस युग में,

बाल कथाएं अब कही सुनता आया है नजर।

अपने ही विरूद्ध खड़े किए जा रहा,

प्रश्‍न पे प्रश्‍न निरुत्तर जाने मैं क्‍यूं,

सोच कर मुस्‍कुरा देती उसकी ओर

सच्‍च, मेरे लिए प्‍यार उसमें आता है नजर।

दिन बहुत गुजरे शहर सूना सा लगे

चलो फिर कोई दफन मुद्‌दा उठाया जाए,

तरसते दो वक्‍त रोटी को वे अक्‍सर

सेंकते रोटियां उन पे कुर्सियां रोज आती है नजर।

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मित्र! तुम्‍हें मेरे मन की बात बताऊं

किस नयन तुमको निहारूं,

किस कण्‍ठ तुमको पुकारूं,

रोम रोम में तुम्‍हीं हो मेरे,

फिर काहे ना तुम्‍हें दुलारूं,

मित्र! तुम्‍हें मेरे मन की बात बताऊं।

प्रतिबिम्‍ब मैं या काया तुम,

दोनो में अन्‍तर जानूं,

हाँ, हो कुछ पंचतत्‍वों से परे जग में,

फिर मैं धरा तुम्‍हें माटी क्‍यूं ना बतलाऊं,

सुनो! तुम तिलक मैं ललाट बन जाऊं,

मित्र! तुम्‍हें मेरे मन की बात बताऊं॥

बैर-भाव, राग द्वेष करूं मैं किससे,

मुझ में जीव तुझ में भी है आत्‍मा बसी,

पोखर पोखर सा क्‍यूं तू जीए रे जीवन,

जल पानी, जात-पात में मैं भेद ना जांनू,

हो चेतन, तुझे हिमालय, सागर का अर्थ समझाऊं,

मित्र! तुम्‍हें मेरे मन की बात बताऊ॥।

विलय कौन किसमें हो ये ना जानूं,

मेरी भावना तुझ में हो ये मैं मानूं,

बजाती मधुर बंशी पवन कानों में हमारे,

शान्‍त हम, हो फैली हर ओर शान्‍ति चाहूं,

मित्र! तुम्‍हें मेरे मन की बात बताऊं॥।

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वो नजरें

जाने कौन सा फलसफा ढूंढती

मेरे चेहरे में वो नजरे

जाने कौन सी रूबाई पढ़ती

मेरे तन पे वो नजरे

जाने क्‍यूं मुझे रूमानी गजल समझते वो

शायद मेरे औरत होने के कारण

जाने कौन सा ․․․․․․ नजरें।

नुक्‍ता और मिसरा दोनो मेरी आँखे शायद

लब बहर तय करते
जुल्‍फें अलफाजों को ढालती

चेहरा एक शेर बनता शायद

मेरे जज्‍बात उन नजरों से मीलों दूर

पलकें बेजान सी हो जाती मेरी

नजरे बींध देती जमीं को मेरी

वो मैली आँखे देख

जाने कौन सा ․․․․․․․․․․․․․․ नजरें॥

मैं आकाश को छूने निकली थी

मगर घरौंदे तक ही सिमट गई

एक लक्ष्‍मण रेखा सी खिंच गई

ठिठक गए कदम वो मैली नजरें देख

किसे दोष दूं

किसे दोष दूं, मैं ․․․․․․ औरत का होना

कैसे ना दोष दूं, औरत का ना होना

पल पल मरती मैं

कभी काया के भीतर

कभी काया लिए

मरती कभी तन से

कभी मन से

खिरते सपने

गिरते रिश्‍ते

जाने कौन सा अदब लिए

जाने कौन सा ․․․․․․․․․․․․․․․ वो नजरें॥

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एक लम्‍बी बारिश

झूमता,

गाता,

नाचता,

वो बूढ़ा लोगो की परवाह किए बिना

जनता घूर घूर देखती उसे

पगला गया,

मति मारी गई

गली मोहल्‍ले वाले उसे

बे-परवाह मस्‍त अपनी ही धुन में

सडकों पे भरे पानी में कागज की नाव चलाता

भरे खंडों में उछल-कूद

अठखेलिया करता

मानो, बचपना ले आयी उसका

एक लम्‍बी बारिश

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कचरे की ढेरी

कचरे की ढेरी पे,

मानो सिंहासन पे हो बैठा,

जाने किस उधेड़-बुन में,

अपने गालों पे हाथ धरे,

कचरे में पड़े एक आइने में,

अक्‍स देखता अपना,

निहारता अपने को,

एक भिखारी।

सभ्‍य कॉलोनी के घरों का,

नाकारा सामान,

कूड़ा करकट

कचरा पात्र में

कॉलोनी के बीचों बीच भरा पड़ा

बीनता ढूंढता,

जाने क्‍या

उस ढेर में

वो भिखारी।

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दो बून्द

दो बून्‍द,

चरणों में तेरे,

चढ़ा दी तो,

क्‍या हुआ,

आंखों का पानी

ही तो है।

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औरत

एक पुल

दो खानदानों के बीच।

मन,

मानो

कस्‍तूरी मृग हो।

मार्ग,

जीवन के भीतर,

मार्ग,

जीवन के बाहर भी।

रिश्‍ते,

सागर के भांति भी,

रिश्‍ते,

खडे के पानी ज्‍यूं भी।

रेखाएं,

जीवन और जीवन,

के बाहर का,

खास व्‍याकरण।

निरन्‍तर

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भीड़ फ्रेम से बाहर निकलती

खचाखच भरे मैदान में

रावण दहन देखते

मूर्तिवत लोग

रावण, मेघनाद, कुंभकरण के पुतले जलते

निरन्‍तर सम्‍पूर्ण वातावरण

सभी अपनी एक ही दिशा में जड़वत्‌

शान्‍ति ․․․․․․․․․․ एक दम शान्‍ति

मैं समाचार पत्र में चित्र देखता

तन्‍मयता से

मैं अखबार के पृष्‍ठ बदलता

सुर्खियां देख आश्‍चर्य हुआ

एक युवक ने नशे में वृद्धा का मान हरण किया

लिफ्‍ट के बहाने कार वाले को लूटा

नौकर ने अपने मालिक को छुरा घौंपा

किशोरों ने घर में डाका डाला

मैं असमंजस में

फूल से रिश्‍ते

शूल बनते

पावन रिश्‍ते

जाने अनजाने खिरते

मैं रावण दहन का पर्याय समाचार पत्र में ढूंढता।

कुछ दिनों बाद

राह पे एक दृश्‍य देखा

वृद्ध पिता

अपनी नव यौवना बिटिया के साथ

करतब दिखाता

तमाशबीन तन्‍मयता से देखते

कुछ टकटकी से देखते

फटे कपड़ों में झांकते बिटिया के

सुडौल सुन्‍दर तन को

तालियां बजाते

होठों पे कुछ कुटिल मुस्‍कान लिए

बिटिया के सराहनीय करतब पे

पैसे फैंकते

अपना दामन फैलाए वो

तमाशबीनो के पास जाती

वे कुछ लोग नोट उसका हाथ सहला

सहला कर थमाते

जाने क्‍या-क्‍या अभद्र कह उसके

कानों में बुदबुदाते

बिटिया फीकी सी मुस्‍कान लिए

आगे चल देती

वे अभद्र शब्‍द उसकी बधिरता

उसके मन मस्‍तिष्‍क तक पहुंचा नहीं पाते

वृद्ध पिता के घर के चूल्‍हे का

सन्‍तुलन बिटिया के ही रस्‍सी पे

पूरे सन्‍तुलन पे टिका

मैं सोचता

शायद उन लोगो में ही वे तीन

आत्‍माएं कहीं विद्यमान है

उनके सद्‌गुणों को छोड़

जाने किस होड़ में

जाने किस दौड़ में

अपना जीवन गिरवी रख

अन्‍धे कुएं में जाने क्‍या ढूंढ रहे है वे लोग

---

 

निरन्तर

हाँ निरन्‍तर

सिर्फ सृष्‍टि का चलना

बस थम सा रहा

आदमी बनना

शिखरों पे बैठी हिम का निरन्‍तर रहना

सेहरा का जंगल बनना

निरन्‍तर है

यथा, अनवरत ․․․․․․ अनवरत ․․․․․․․․․․ और अनवरत

सृष्‍टि पूर्व की भांति निरन्‍तर

इन्‍सान इन्‍सानियत खोता निरन्‍तर।

----

 

वो

(1)

वो अपना प्रेम पत्र लिखने के लिए

कई पन्‍ने रद्‌दी कर चुका

और, ये बीनता रहा चूल्‍हे की आगे के लिए।

(2)

वो मन्‍दिर के पथ की ओर हमेशा जाता है

मगर मूर्ति के दर्शन कभी नहीं करता

रूक जाता है परिसर में

भूखों को खाना खिलाने

वृद्धों की सेवा करने

असहायों की सेवा करने

वो, ईश्‍वर का प्रत्‍यक्ष दर्शन की चाह रखता है।

(3)

पण्‍डित जी

छूआछूत के पक्षधर है

अपने प्रवचन में कही ना कही

ऐसा प्रसंग अवश्‍य लाते है

मगर

मन्‍दिर हरिजन बस्‍ती से गुजर कर ही

आते है वो।

वो बूढा

अब भी अपना ठेला लिए आ

जाता है

मेरे शहर के एक लुप्‍त हो चुके ढूंढा मेले के दिन

मानो, श्रद्धांजलि देने आया हो।

पहाड़ियों से उतरती

जाड़ों की गुनगनी धूप

की किरणें

रोशनदान से मेरे सिरहाने

आकर अक्‍सर बैठ जाती थी

कभी गाल थपथपाती

कभी चेहरा चूमती

उसकी नर्म छुअन अच्‍छी भी

लगती मुझे

किसी प्रेयसी की तरह

मुझे जगाने की कोशिश करती

उस कोशिश के सामने

मैं उठ भी जाता

अपनी उनींदी आँखें मलता

झरोखे से बाहर झांकता

गुनगुनी धूप मुस्‍कुराती खडी मिलती

उनींदी आँख ․․․․․․․․․․․․․ कुछ र्फ्‍लांग दूरी पे खड़े

एक खूबसूरत दरख्‍त पे परिन्‍दे मीठी तान छेड़ते

मनो, दरख्‍त संगीत का रियाज कर रहा हो

वो तान उनींदी आँखें खोल देती

सुनता रहता उस दरख्‍त को आँखें मूंदे

हौले-हौले गुनगुनी धूप का टुकड़ा मेरे सिरहाने से

खिसकने लगती

जैसे कही ओर अपना कर्तव्‍य निभाना हो

मैं उसके चुलबुलेपन पे मुस्‍कुरा उठता

․․․․․․․․․․․․ अब सुबह बे-आवाज सी लगती

गुनगुनी धूप दबे पाव आती है

और यू ही चली जाती है

अब मैं विपरीत दिशा में सोता हूं

उसकी नर्म छूअन पांवों पे

सिहरन नहीं दौड़ा पाती

दिन कशमकश में निकलता

उस दरख्‍त बिना ․․․․․․․․․․․․․․ जो अब

तान नहीं छेड़ता

ना ही परिन्‍दे उस पे बसेरा करते

ठूंठ बना पड़ा, एक ओर अपने सूखे पत्‍तों के बीच

सुनो, मासूम दरख्‍त का घर हथिया लिया

एक काली-कलूटी पत्‍थर दिल, बेरहम

जे कही से किसी को जोड़ती भी ․․․․․․․․․․․․

और तोड़ती भी है

हाँ‌! हथिया भी कईयों के शह पे ․․․․․․․․․․․․․․․

मैं उनींदी आँखे लिए ही चल पड़ता हूं

बाथरूम की ओर अब।

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. किस नयन तुमको निहारूं,

    किस कण्‍ठ तुमको पुकारूं,

    रोम रोम में तुम्‍हीं हो मेरे,

    फिर काहे ना तुम्‍हें दुलारूं,

    " सुंदर भाव, बेजोड़ अभिव्यक्ति....इन पंक्तियों ने अनायस ही मन मोह लिया..."

    regards

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: सुनील गज्‍जाणी की कविताएँ
सुनील गज्‍जाणी की कविताएँ
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