कुमारेन्द्र सिंह सेंगर : बुन्देली लोक कलाएँ

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संस्‍कृति की अभिव्‍यक्‍ति हैं बुन्‍देली लोक कलाएँ डॉ0 कुमारेन्‍द्र सिंह सेंगर   लोक कलाएँ भारतीय समाज की अनुपम विरासत हैं जो स्...

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संस्‍कृति की अभिव्‍यक्‍ति हैं बुन्‍देली लोक कलाएँ

डॉ0 कुमारेन्‍द्र सिंह सेंगर

 

लोक कलाएँ भारतीय समाज की अनुपम विरासत हैं जो स्‍वतः एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्‍तांतरित होती हुईं आज भी सुरक्षित रूप में हमारे बीच उपस्‍थित हैं। लोक कलाओं में जन जीवन की सर्जनात्‍मकता सुरक्षित-संरक्षित है, साथ ही युगीन परम्‍पराएँ भी समाहित हैं। लोक कलाओं को जन जीवन की झाँकी स्‍वीकारा गया है पर जो लोग ‘लोक' को अंगे्रजी शब्‍द ‘फोक' का पर्याय मान कर लोक की व्‍याख्‍या करते हैं वे लोक-कलाओं का भी महत्व नहीं समझ पाते। लोक शब्‍द भारतीय समाज की प्राचीनता की तरह प्राचीन तथा भारतीय संस्‍कृति की पावनता की तरह पावन है। ‘लोक' को अंग्रेजी के ‘फोक' के पर्याय के रूप में स्‍वीकार कर उसको ग्रामीण, गँवारू रूप का सिद्ध करना अथवा समझना ‘लोक' शब्‍द की विशालता के साथ अन्‍याय है।

प्राचीन भारतीय संस्‍कृति, साहित्‍य और धर्म-ग्रन्‍थों में लोक को विशिष्‍ट एवं व्‍यापक अर्थ में परिभाषित किया गया है। यहाँ लोक को सम्‍पूर्ण संसार, भुवन अथवा जगत्‌ के अर्थ में प्रयुक्‍त किया गया है। यहाँ वर्णित त्रिलोक के अन्‍तर्गत ‘पृथ्‍वी लोक' ‘पाताल लोक' ‘आकाश लोक' किसी भी स्‍थिति में गँवारू अथवा ग्रामीण संस्‍कृति के परिचायक नहीं हैं। संस्‍कृत में लोक शब्‍द स्‍थानवाची के साथ-साथ जीववाची भी है। ऋग्‍वेद में एक स्‍थान पर ऐसा मिलता है -

नाम्‍या आसीदंतरिवं शीर्ष्‍णा द्यौ समवर्तत

पदभ्‍यां भूमिदि्‌दशः श्रोत्रान्‍तथा लोकां अकल्‍पयन्‌। (ऋ0 10/90/94)

श्रीमद्‌भगवत्‌ गीता में ‘लोक' शब्‍द को स्‍थान, समुदाय, मानव शरीर आदि के अर्थों में प्रयुक्‍त किया गया है -

विप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा। (गी/8/92)

अनित्‍यमंसुखं लोकमिमं प्राप्‍य भजस्‍व माम्‌। (गी/9/33)

वेदों, पुराणों से निकल कर आये लोक शब्‍द में समय-समय पर परिवर्तन भी होते रहे। लोक, लोकायत, लोकाचार, लोक-कथा, लोक-गाथा, लोक-कला, लोक-व्‍यवहार जैसे शब्‍दों का प्रयोग जब हमारे द्वारा होता है तो मन-मस्तिष्क में जन-समूह से सम्‍बन्‍धित क्रिया-कलाप ही चित्रित होते हैं।

लोक कला में जितना प्राचीन इतिहास लोक का है उतना प्राचीन इतिहास कला का है। विशिष्‍ट संवेदनाओं, भावनाओं और अनुभूतियों से प्रेरित सजीव सर्जनात्‍मकता ही कला है। कला ही मनुष्‍य और पशु के मध्‍य अन्‍तर को स्‍पष्‍ट करती है। लोक कला साँस्‍कृतिकता के प्रवाह को भी दर्शाती है। लोक कला का सम्‍बन्‍ध मानव मन की आनन्‍दित अवस्‍था से है। आनन्‍ददायी स्‍थिति से सम्‍बद्ध होने के कारण उत्‍सव, पर्व, त्‍योहार, मेले आदि के समय आनन्‍द की अभिव्‍यक्‍ति लोक कला के माध्‍यम से होती है। भारतीय लोकजन व्रत, उत्‍सव, त्‍योहार आदि को हर्षोल्‍लास से मनाता है। इसी कारण क्षेत्र विशेष की पारम्‍परिकता को अपने में सहेजे, समेटे लोक कला का रूप सभी क्षेत्रों में अलग-अलग होने के बाद भी सुरम्‍य, सुसंस्‍कृत, मनमोहक लगता है। आँचलिक विशेषताओं से परिपूर्ण होकर लोक कला हर्षोल्‍लास के अवसरों को और जीवन्‍त बना देती है।

बुन्‍देली संस्‍कृति भी क्षत्रीय विभिन्‍नताओं के कारण विभिन्‍नता से भरी हुई है। इसी विविधता के कारण यहाँ की लोक कलाओं में सतरंगी बहार देखने को मिलती है। बुन्‍देली लोक कला की समृद्धता और मोहकता को यहाँ सम्‍पन्न होने वाले विविध पर्व-त्‍योहार, व्रत, उत्‍सव आदि के अवसर पर देखा जा सकता है। बुन्‍देली लोक समृद्धि के वैविध्‍य - लोक गीत, लोक नृत्‍य, लोक कथा, लोक गाथा, लोकोक्‍ति, लोक देवता, लोक कला, लोकाचार, लोक क्रीड़ाओं, लोक सभ्‍यता - में मनमोहकता के दर्शन आसानी से परिलक्षित होते हैं। लोक कलाओं में भूमि-भित्ति अलंकरण, मूर्तिकला, काष्‍ठकला, वेशभूषा आदि को स्‍वीकारा गया है।

बुन्‍देलखण्‍ड क्षत्र में त्‍योहारों, पर्वों, व्रतों, उत्‍सवों आदि के अवसर पर बनाये जाने वाले आलेखन, भित्तिचित्र, भूमि चौक, मांगलिक चिन्‍हों के द्वारा लोक कलाओं के दर्शन होते हैं। इन आलेखनों और मांगलिक चिन्‍हों में सर्वशक्‍तिमान स्‍वीकारे गये श्री गणेश के अतिरिक्‍त स्‍वास्‍तिक, सूर्य, चन्‍द्र, कलश, दीपक, वृक्ष, नाग, महिलाएँ, नदी, मछली आदि के साथ-साथ अन्‍य पशु-पक्षी भी बनाये जाते हैं। इन मांगलिक चिन्‍हों को स्‍वतन्‍त्र रूप से तो बनाया जाता है साथ ही इस क्षत्र के विविध पर्वों, व्रतों के अवसर पर महिलाओं द्वारा इन्‍हें सम्‍मिलित रूप से बना कर लोक कला की समृद्धता और पावनता को उकेरा जाता है। कुनघुसू पूनौं अथवा गुरुपूनौं, नागपंचमी, हरछठ, सुआटा, अघोई आठें, दिवारी, गोधन, करवा चौथ आदि अवसरों पर लोक कलाओं की झाँकी मन को मोहती है। इन अवसरों पर चित्रण, आलेखन करने के लिए गोबर, जौ, चावल, गेरू, आटा आदि सामान्‍य घरेलू सामान की आवश्‍यकता होती है।

श्री गणेश, स्‍वास्‍तिक अथवा चक्राकार सतिया को भारतीय संस्‍कृति में पूज्‍य स्‍थान प्राप्‍त है। भारतीय हिन्‍दू संस्‍कृति के अनुसार श्री गणेश को आराध्‍य, प्रथम पूज्‍य देव के रूप में स्‍थान प्राप्‍त है। कार्यक्रम सम्‍पन्न होने के स्‍थान पर, पूजन वाले स्‍थान पर, दरवाजे के ऊपर श्री गणेश का चित्रांकन शुभकारी दृष्‍टि से किया जाता है। इसी तरह स्‍वास्‍तिक को भी भारतीय संस्‍कृति में देवतुल्‍य स्‍थान प्राप्‍त है। यह गतिशीलता का परिचायक समझा जाता है। अनुष्‍ठान आदि के अवसर पर स्‍वास्‍तिक निर्माण के पश्‍चात ही गणेश पूजन को प्रारम्‍भ किया जाता है। चक्राकार सतिया स्‍वास्‍तिक का ही रूप समझा जाता है। इसे शिशु जन्‍म पर गोबर के द्वारा बनाया जाता है, जिस पर जौ के दाने चिपकाये जाते हैं। शिशु जन्‍म के अवसर पर गतिशीलता, दुःखनाशक और सम्‍पन्नता का द्योतक मान कर इसे बनाया जाता है।

लोक कलाओं में इन प्रतीकों का अपना विशेष महत्व है। ये प्रतीक मात्र रेखांकन, चित्रांकन को पूरा ही नहीं करते अपितु भारतीय संस्‍कारों, संस्‍कृति के मूल्‍यों आदि को भी प्रसारित करते हैं। इन्‍हीं प्रतीकों के माध्‍यम से, लोक कलाओं के द्वारा हमारे संस्‍कार, जीवन मूल्‍य स्‍वतः ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्‍तांतरित होते रहते हैं। नर-नारी को भारतीय संस्‍कृति में विशेष रूप से स्‍वीकार कर संस्‍कृति-सभ्‍यता के निर्माण-हस्‍तांतरण के लिए पूरक समझा गया है। सृष्‍टि की रचना भी इन्‍हीं दोनो से मानी गई है। इस पावन चिन्‍तन के कारण ही बुन्‍देली लोक कला अंकन में नर-नारियों को भी स्‍थान दिया जाता है। एक दूसरे की आकांक्षा और पूरक भावों को सामने लाते नर-नारियों के चित्रों में अधिकांशतः संख्‍या को भी महत्व दिया जाता है। विविध चित्रांकनों में सात की संख्‍या में नर-नारियों को दिखाया जाता है। सात की संख्‍या भारतीय संस्‍कृति में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण स्‍वीकारी गयी है। सप्‍तमातृकाओं की अवधारणा के साथ यहाँ सप्‍तऋषियों की भी मान्‍यता है। इसके साथ ही सात समुद्र के अतिरिक्‍त सात सोपान, सात काण्‍ड, सात पोर, सात गाँठ आदि को भी स्‍थान प्राप्‍त है। विवाह में भी सप्‍तपदी, सात भाँवरों की पावनता को माना गया है। इसी सांस्‍कृतिक महत्ता को बुन्‍देली लोक कला में चित्रित कर उसकी पावनता को भी स्‍थापित किया जाता है।

स्‍त्री के रूप में कलशधारिणी स्‍त्री का लोक कलाओं में विशेष महत्व है। ऐसा माना जाता है कि सम्‍पन्‍नता, समृद्धता का प्रतीक कलश मनुष्‍य के लिए कल्‍याण लेकर आयेगा। इसके अतिरिक्‍त कलशधारिणी स्‍त्री को दही की दहेंड़ी लिए हुई ग्‍वालिन भी बताया जाता है। चूँकि दही की महत्ता संस्‍कृति का अंग होकर हमारी लोक कला का महत्त्वपूर्ण भाग हो गया है; शुभ कार्य से बाहर जरने पर; नववधू के प्रथमागमन पर सर्वप्रथम दही का सेवन करवाना शुभ संकेत समझा जाता है। इसके पीछे सम्‍भवतः मनुष्‍य की आन्‍तरिक शक्‍ति अथवा उसके आन्‍तरिक सौन्‍दर्य को निखारने का भाव रहा होगा क्‍योंकि दही दूध की आन्‍तरिक शक्‍ति अथवा सौन्‍दर्य माना जा सकता है। इस शुभ का भान और समृद्धता की पहचान कलश मातृशक्‍ति नारी के साथ लोक कला की शोभा बनता है।

लोक कलाओं के अंकन में प्रायः सूर्य, चन्‍द्र आदि को भी दर्शाया जाता है। इसके पीछे देवत्‍व का भाव छिपा होने के साथ-साथ भारतीय चिन्‍तन भी समाहित रहता है। सूर्य, चन्‍द्र दोनों को प्रकाशवान मान कर जीवन में उज्‍ज्‍वलता लाने की अवधारणा निर्धारित की जाती है। इसके अतिरिक्‍त चन्‍द्रमा, सूर्य को मन की एवं बाह्य जगत की आँखें स्‍वीकार कर मनुष्‍य को अपने भीतर तथा बाहर का अवलोकन करने की शिक्षा भी दी जाती है। इसी प्रकार का संदेश दीपक के माध्‍यम से भी दिया जाता है। अंधकार दूर कर प्रकाश फैलाने की शिक्षा देते दीपक बुन्‍देली लोक कलाओं में विशेष रूप से चित्रित किये जाते हैं।

प्रकृति के अंग सूर्य, चन्‍द्र के अतिरिक्‍त वृक्ष, मछली, नाग, मोर आदि का चित्रण इनकी महत्ता को देखते हुए किया जाता है। वृक्षों का चित्रण इनकी फलदार स्‍थिति को देख कर विशेष रूप से किया जाता है। फलयुक्‍त जीवन की कामना इन वृक्षों के माध्‍यम से दर्शा कर इस तथ्‍य को सामने लाने का प्रयास होता है।

कि अपने घर में तथा आसपास समृद्धता का वास बना रहे। इसी तरह नाग (सर्प) का चित्रण लोक कलाओं में नागपंचमी के अतिरिक्‍त अन्‍य चित्रांकनों में भी होता है। नाग को शेषनाग का स्‍वरूप मानने के साथ-साथ काल का भी रूप स्‍वीकारा गया है। इससे प्रदर्शित होता है कि मानव को अपने क्रिया-कलापों के मध्‍य शाश्‍वत्‌ सत्‍य के प्रतीक मृत्‍यु को नहीं भूलना चाहिए। नाग का अंकन समय का सदुपयोग करने की सीख भी देता है। मृत्‍यु का परिचायक नाग के साथ-साथ मछली को मनुष्‍य की आत्‍मा रूप में दर्शा कर मानव-मानव में प्रेम की धारणा को पुष्‍ट करने की दृष्‍टि से बनाया जाता है। भावों का अमूर्त रूप इन्‍हीं विविध प्रतीकों के द्वारा लोक कलाओं में प्रदर्शित किया जाता है, जो मनमोहकता, सजीवता धारण करने के साथ-साथ संस्‍कृति-परम्‍परा ज्ञान से परिचित भी कराते हैं। संस्‍कृति, परम्‍परा का ज्ञान देने के लिए प्रतीकों का प्रयोग लोक कलाओं में करने के साथ-साथ यह हमारी सोच का भी प्रतिनिधित्‍व करते हैं।

पारम्‍परिक विवाह कार्यक्रमों में यही प्रतीक हमारी खुशी, हर्ष, उमंग को प्रदर्शित करते नजर आते हैं। विवाह संस्‍कारों और विविध पर्वों के अवसर पर चित्रित लोक कलाओं में हथेलियों की छाप बुन्‍देलखण्‍ड में विशेष रूप से घर की महिलाओं, बच्‍चियों द्वारा लगायी जाती है। दो हथेलियों की युगल छाप हमारी पारिवारिक एकता, सहयोग तथा पंच तत्वों का प्रतीक है। लोक कलाओं में चित्रित ये प्रतीक सौन्‍दर्य के साथ हमारे सुकुमार और ललित भावों के स्‍त्रोत हैं। लोक कलाएँ हमारे मन की गहराइयों में समा कर हमारी संवेदनाओं को व्‍यक्‍त करतीं हैं, इसी कारण हमारे पर्व, त्‍योहार, व्रत आदि पर लोक कलाओं की उपस्‍थिति पाई जाती है।

बुन्‍देलखण्‍ड के प्रमुख त्‍योहार और उन पावन अवसरों पर निर्मित चित्रांकनों को संक्षेप में समझा जा सकता है।

(1) कुनघुसू पूनौं अथवा गुरु पूनौं

यह पर्व आषाढ़ शुक्‍ल की पूर्णिमा को मनाया जाता है। घर परिवार में पूजन-अनुष्‍ठान का कार्य घर की वरिष्‍ठ महिलाओं द्वारा किया जाता है। दीवार पर गोबर-मिट्‌टी की पुताई कर उस पर हल्‍दी से आकृति बना कर उसकी पूजा की जाती है। इस पर्व के चित्रांकन में स्‍वास्‍तिक को विशेष रूप से दर्शाया जाता है।

(2) नाग पंचमी

ष्रावण शुक्‍ला पंचमी को महिलाओं द्वारा नागों की पूजा का प्रचलन है। इस अवसर पर घर के मुख्‍य द्वार पर दोनों ओर आलेखन रूप में पाँच नागों की आकृति बना कर महिलाओं द्वारा पूजा की जाती है। यह पर्व परिवार को नुकसान न होने की कामना से मनाया जाता है।

(3) हरछठ

बुन्‍देलखण्‍ड में यह पर्व उन महिलाओं द्वारा सम्‍पन्‍न किया जाता है जो पुत्रवती होती हैं। पुत्रों की दीर्घायु की कामना करती हुईं माताएँ इस व्रत को भाद्रपद कृष्‍ण षष्‍ठी को मनाती हैं। इस अवसर पर दीवार पर चित्रांकन कर उसका पूजन किया जाता है। हरछठ के चित्रांकन में लोक कलाओं के लगभग सभी प्रतीकों का प्रयोग होता है।

(4) सुआटा

बुन्‍देली बालक-बालिकाओं द्वारा मनाया जाने वाला यह एक प्रकार का क्रीड़ात्‍मक विधान पर्व है। यह अनुष्‍ठानिक कार्यक्रम भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्‍विन पूर्णिमा तक चलता है। दीवार पर सुआटा नामक दैत्‍य का चित्रांकन गोबर आदि से किया जाता है। इसके समापन पर टेसू वीर का विवाह झिंझिया से होता है। इस आयोजन के पश्‍चात सुआटा के अंग-प्रत्‍यंगों को तोड़ कर फेंक दिया जाता है। बुन्‍देलखण्‍ड के इस विशेष लोकोत्‍सव में सुआटा का चित्रांकन बालिकाओं द्वारा किया जाता है।

(5) अघोई आठें

कार्तिक अष्‍टमी को मनाये जाने वाले इस पर्व में भी कलात्‍मक चित्रांकन किया जाता है। भित्ति-अलंकरणों के रूप में आठ पात्रों, आठ मानवाकृतियों की रचना की जाती है। दीवार पर अंकित अलंकरण के सामने आठ पात्रों में मिष्‍ठान रख कर पूजा की जाती है।

(6) दिवारी

दीपावली का पर्व पूरे देश भर में मनाया जाता है। बुन्‍देलखण्‍ड में इसे दिवारी के नाम से सम्‍बोधित किया जाता है। इस पर्व की पारम्‍परिक पूजा में भूमि को गोबर अथवा मिट्‌टी से लीप कर ‘सुरौती' का चित्रांकन किया जाता है। इस भूमि अंकन के सामने आटे से चौक पूर कर घी से भरे सोलह दिये जला कर विधिपूर्वक पूजन किया जाता है।

(7) गोधन

गोबरधन पूजा को गोधन नाम से जाना जाता है। यह कार्तिक शुक्‍ल प्रतिपदा को मनाया जाता है। मकान के आँगन में गोबर से गोबर्धन पर्वत बना कर उसी पर अन्‍य प्रतीकों को बनाया जाता है। भूमि अलंकरण के इस रूप में सारा चित्रांकन गोबर से ही किया जाता है। पूजागृह से जोड़े रखने की दृष्‍टि से गोधन के चित्र से लेकर पूजागृह तक खड़िया अथवा गेरू से दो समानान्‍तर रेखाओं को खींचा जाता है।

(8) करवाचौथ

कार्तिक कृष्‍ण चतुर्थी को यह पर्व विवाहित स्‍त्रियों द्वारा मनाया जाता है। पति की दीर्घायु की कामना से सम्‍पन्‍न होने वाले इस व्रत में भूमि पर अथवा दीवार पर आलेखन किया जाता है। इस आलेखन में समस्‍त प्रतीकों की उपस्‍थिति दिखायी देती है। रात्रि को महिलाओं द्वारा पूजन के समय प्रयुक्‍त पात्र (करवा) को विविध प्रतीकों, बेलों आदि से अलंकृत करती हैं।

लोक कलाएँ हमारे अन्‍तर्मन से जुड़ी हैं। आज भले ही युवा पीढ़ी इससे अनजान हो, इसके अंकन-पूजन को ढकोसला बताती हो पर इन प्रतीकों द्वारा समय-समय पर विविध पर्वों, त्‍योहारों पर विविध संदेशों और हमारी भावनाओं की पवित्र अभिव्‍यक्‍ति होती है। माँ की ममता, पति की दीर्घायु की कामना, कुमारी कन्‍यायों द्वारा उपयुक्त वर की याचना आदि भाव हमारी संस्‍कृति, संस्‍कारों के द्योतक हैं। लोक कलाएँ मनुष्‍य को समाज से जुड़े रहने का बोध कराती हैं और समाज हित का संकल्‍प कराती हैं। अक्षत ऊर्जा और माधुर्य के स्‍त्रोत, शिक्षा और ज्ञान के भण्‍डार ये प्रतीक लोक कलाओं की जीवन्‍तता को हमारे जीवन में भरते हैं। इनके द्वारा व्‍यक्‍ति खुशियां पाता है, जीने की दृष्‍टि एवं विश्‍वास पाता है। लोक कलाओं के नाम पर होते चित्रांकन भव्‍य, समृद्ध बुन्‍देली संस्‍कृति को, परम्‍परा को और समृद्ध, और पुष्‍ट, और भव्‍यता प्रदान करते हैं। अतः कह सकते हैं कि जितना आवश्‍यक हमारे लिए जीवन है, उतनी ही आवश्‍यक लोक कलाएँ भी हैं।

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डॉ0 कुमारेन्‍द्र सिंह सेंगर

सम्‍पादक - स्‍पंदन (साहित्‍यिक पत्रिका)

प्रवक्‍ता हिन्‍दी विभाग,

गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन) उ0प्र0 285001

पत्राचार का पता-

110 रामनगर,

सत्‍कार के पास, उरई (जालौन)

ई-मेल- dr.kumarendra एट gmail.com

दिनांक-31.01.2009

बसंत पंचमी

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. कुमारेन्द्र जी,

    अपनी मिट्टी से जोड़ने की कोशिश के लिये धन्यवाद. आज के बाजारु दौर में गुम हो आती परंपराओं / रीतियों / रिवाजों / त्योहारों को बडी ही अच्छी तरह से याद दिलाया.

    मुकेश कुमार तिवारी

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कुमारेन्द्र सिंह सेंगर : बुन्देली लोक कलाएँ
कुमारेन्द्र सिंह सेंगर : बुन्देली लोक कलाएँ
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