15 अगस्त 1947 को विश्व इतिहास के क्षितिज पर "भारत' नाम के इस उदित तारे का यह जितना बड़ा सौभाग्य रहा है कि उसने "हिन्दी' ...
15 अगस्त 1947 को विश्व इतिहास के क्षितिज पर "भारत' नाम के इस उदित तारे का यह जितना बड़ा सौभाग्य रहा है कि उसने "हिन्दी' जैसे अत्यंत परिष्कृत भाषा को अपने संविधान में राष्ट्रभाषा के रूप में अंगीकृत किया, वही यह इस देश का उतना ही बड़ा दुर्भाग्य रहा है कि विधि-निर्माण में लगे इसके विधाताओं ने, अँग्रेज़ समर्थित अफ़सरशाही के आगे झुकते हुए, इसी संविधान में हिन्दी के कार्यान्वयन में बाधा पहुँचाने वाली अनेक धाराओं का निर्माण कर हिन्दी के साथ छलकपट का व्यवहार किया ।
हमारे अपने संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 29 व 30 में प्रत्येक नागरिकों को अपनी भाषा के स्कूल/कॉलेज आदि श्ौक्षिक संस्थाओं को खोलने का मौलिक अधिकार प्रदान कर, देश में भाषा की स्थिति को जान बूझकर जटिल बना दिया । इससे देश में अँग्रेज़ी साम्राज्यवाद की नींव ही मज़बूत हुई है । अत: अगर हम हिन्दी को सही अर्थों में राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठापित करना चाहते हैं तो हमें अपने संविधान की इस धारा को बदलकर इस तरह लिखना होगा कि : "कोई भी व्यक्ति या संस्था अपनी भाषा व संस्कृति को जीवित रखने के लिए स्कूल व कॉलेज तो खोल सकती है किन्तु ऐसे स्कूलों में वह भाषा एक विषय के रूप में ही पढ़ाई जानी चाहिए तथा शिक्षा का माध्यम अनिवार्य रूप से हिन्दी ही होना चाहिए' ।
संविधान में इस तरह के परिवर्तन से देश में हिन्दी के सही अर्थों में राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठापित होने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा क्योंकि आज विभिन्न सरकारी कार्यालयों में अँग्रेज़ी अपने मुक़ाबले किसी अन्य भाषा को सरकारी आश्रय न मिलने की वजह से ही जीवित है । इसका सबसे बड़ा परिणाम यह होगा कि देश में अन्य भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषा अँग्रेज़ी के पॉब्लिक/कान्वेन्ट स्कूल भी पूर्णत: बन्द हो जाएँगे और इस तरह हमारे सभी सरकारी कामकाज आज से दस साल बाद बिना किसी प्रयास के हिन्दी में होने लगेंगे ।
हमें इस बात को समझ लेना होगा कि अगर आज इस देश में अँग्रेज़ी जीवित है तो इसका बहुत बड़ा कारण इन पब्लिक/कान्वेन्ट स्कूलों द्वारा तथाकथित अँग्रेज़ अफ़सरों की आपूर्ति को बराबर जारी रखना है, अत: अगर हम अपनी हिन्दी को इस देश में लाना चाहते हैं तो हमें अँग्रेज़-अफ़सरों की इस आपूर्ति के मार्ग को बन्द करना होगा, जो कि संविधान के अनुच्छेद 29 व 30 में दिए गए पाँचवें मूलभूत अधिकार में परिवर्तन के द्वारा ही संभव है ।
संभव है कि हमारे बहुत से पाठकगण मेरे इन विचारों को पढ़कर यह कहने लगे कि हमारे चिकित्सा व विधि से सम्बन्धित सभी उच्चस्तरीय पाठ्यक्रमों में हिन्दी भाषा के पुस्तकों का पूर्णत: अभाव है इसलिए, सभी पाठ्यक्रमों के हिन्दी में सम्पन्न होने से इसके विद्यार्थी मुश्किल में पड़ जाएँगे । इस सम्बन्ध में मैं यह कहना चाहूँगा कि हमें इस बात को मानना होगा कि "आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है' इसलिए हिन्दी माध्यम से इन पाठ्यक्रमों के सम्पन्न होना शुरू होने पर, इन पाठ्यक्रमों की हिन्दी माध्यम की अच्छी व श्रेष्ठ पुस्तकें भी बाज़ार में उपलब्ध हो जाएँगी । यह इस प्रकार से कि किसी जमाने में हमारे देश की सभी प्रतियोगी परीक्षाएँ केवल अँग्रेज़ी में ही सम्पन्न होती थी, तब इन प्रतियोगी परीक्षाओं से सम्बन्धित पुस्तकें भी बाज़ार में अँग्रेज़ी में ही उपलब्ध थी, किन्तु बाद में इनके हिन्दी में भी सम्पन्न होने पर आज देश में प्रतियोगी परीक्षाओं से सम्बन्धित अच्छी व श्रेष्ठ हिन्दी पुस्तकें भी बाज़ार में उपलब्ध है । अत: इन पाठ्यक्रमों के हिन्दी में सम्पन्न कराने के हमारे निर्णय मात्र से ही, हिन्दी भाषा के प्रकाशक बड़ी संख्या में बाज़ार में उपलब्ध हो जाएँगे । वस्तुत: मेरे अपने विचार से पुस्तकों के अभाव में हिन्दी भाषा में इन पाठ्यक्रमों को सम्पन्न कराने की हमारी असमर्थता अँग्रेज़ी को अपने देश में अनन्त काल तक जारी रखने की मानसिकता को ही उजागृत करती हैं ।
संविधान में इस छोटे से परिवर्तन के फलस्वरूप आज से दस साल बाद हमारे देश की शालाओं रूपी कारख़ानों में बच्चे हिन्दी माध्यम से शिक्षित व प्रशिक्षित होकर ही निकलेंगे, जिसकी वजह से हमारे सरकारी कार्यालयों को ही नहीं वरन सार्वजनिक व निजी संस्थानों को भी अपना कार्य सुचारु ढंग से चलाने के लिए हिन्दी को अपनाने के लिए विवश होना पड़ेगा । इस तरह स्वतंत्रता के इकसठ वर्षों बाद भी अपने लिए सही स्थान व सम्मान को तलाशती राष्ट्रभाषा हिन्दी को मात्र दस सालों में ही उचित स्थान व सम्मान प्राप्त हो जाएगा ।
हो सकता है कि हमारे बहुत से प्रबुद्ध पाठकगण इसे पढ़कर यह कह उठे कि इससे तो देश में अँग्रेज़ी के समर्थक बुरी तरह से चिढ़ उठेंगे तथा वे देश के अन्य क्षेत्रीय भाषा के लोगों को भड़काकर, उन्हें उग्र आंदोलन के लिए उकसाएँगे । ऐसी स्थिति में हमें देश की शालाओं को यह छूट प्रदान करनी होगी कि वे चाहे तो क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से स्कूलों को चला सकते हैं किन्तु उन्हें ऐसे स्कूलों में हिन्दी को एक विषय के रूप में अनिवार्य रूप से पढ़ाना होगा । विषय के रूप में पढ़ाई जाने वाली हिन्दी भाषा का पाठ्यक्रम हमें थोड़ा स्तरीय रखना चाहिए, जिससे इसमें शिक्षित व्यक्ति आगे चलकर हिन्दी में आसानी से काम कर सके । इतना ही नहीं आंदोलन की उग्रता तथा लोगों की कठिनाइयों को समझते हुए, सरकार हिन्दी भाषा में शिक्षा के माध्यम की अनिवार्यता को तथा हिन्दी को एक विषय के रूप में पढ़ाए जाने के नियम को, वर्तमान में पहली कक्षा में पढ़ रहे बच्चों पर ही लागू कर सकती हैं और वह इसे दर साल एक-एक कक्षा आगे बढ़ा सकती हैं । इससे सरकार को भी जहाँ हिन्दी की पाठ्य-पुस्तकें उपलब्ध कराने व शिक्षकों को नियुक्त करने का पर्याप्त अवसर मिल जाएगा, वहीं इससे देश में भी आगामी दस सालों में बिना किसी प्रयास के राजभाषा हिन्दी सरकारी कामकाज की भाषा सही रूप में बन जाएगी ।
हमें उपर्युक्त तथ्यों को अपने सरकार के ध्यान में लाना होगा तथा देश हित में इसे अपनाने की सरकार से प्रार्थना करनी होगी । अगर इसके बावजूद हमारी सरकार इसे टाल जाती है तो यह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा क्योंकि इस तरह राजभाषा हिन्दी के विकास की योजना को बनाने से वर्तमान में अँग्रेज़ी भाषा में शिक्षित हो रहे बच्चों व अँग्रेज़ी में काम कर रहे लोगों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा । अत:, इसके बाद भी अगर वे लोग इसका विरोध करते हैं तो मेरे विचार से हमें उनकी देशीय निष्ठा को संदेहास्पद मानते हुए, उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने जैसा सख़्त कदम उठाना चाहिए ।
ऐसी स्थिति में हमारे हिन्दी से जुड़े स्वयंसेवी संगठन भी मेरे विचार से राजभाषा हिन्दी को उसका हक़ दिलाने के लिए निम्नलिखित कार्य कर सकते हैं :-
1. सबसे पहले हिन्दी को वास्तविक हक़ दिलाने के लिए संघर्षरत सभी स्वयंसेवी संगठनों को एक ही मंच पर एकत्रित होकर, एक नया मंच राजधानी दिल्ली में स्थापित करना चाहिए ।
2. इसके पश्चात् इन स्वयंसेवी संगठनों को अपने यहाँ अधिकाधिक बुद्धिजीवियों जैसे पत्रकार, लेखकों, सम्पादकों व मीडिया से जुड़े अन्य लोगों को शामिल करना चाहिए, जिससे वे संस्था की गतिविधियों की रिपोर्टिंग को आकर्षक ढंग से व प्रमुखता के साथ प्रकाशित कर, हिन्दी के विषय में अधिकाधिक लोगों को सोचने पर मजबूर करेंगे तथा सही अर्थों में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठापित करने में अपनी अहम भूमिका अदा करेंगे ।
3. संगठन को आकर्षक धुनों व गीतों से युक्त हिन्दी के बारे में एक आकर्षक विज्ञापन तैयारकर कर उसे यदा-कदा टेलीविज़न में प्रदर्शित करना चाहिए, जिससे देश में हिन्दी के प्रति एक नई लहर निर्मित होगी ।
4. चूँकि इन सब कार्यों के लिए असीम धन की आवश्यकता होती है और इसकी थोड़ी बहुत पूर्ति सभी संगठनों के आपस में मिल जाने के फलस्वरूप, बढ़ी हुई उनकी निधि की मात्रा द्वारा हो जाएगी । इसके अलावा भी इन्हें इस हेतु लोगों से चंदे एकत्रित कर, "फ़िल्म स्टार नाइट' तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों को आयोजित कर धन जुटाना चाहिए ।
मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि यदि हम इस तरह से हिन्दी को उसका वास्तविक हक़ दिलाने के लिए तथा उसे सही अर्थों में राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठापित करने की योजनाएँ बनाते हैं तो हमारे देश में हिंदी आने वाले दस वर्षों में बिना किसी कठिनाई के आ जाएगी । अन्यथा नेताओं व अफ़सरों की अपनी मिलीभगत के परिणामस्वरुप हिन्दी के साथ छल-कपट की यह नीति अनन्त काल तक जारी रहेगी । अत: आइए हम सब इस हेतु नि:स्वार्थ भाव से प्रयास करें ।
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