हरि भटनागर की कहानी : तलवार – हारजीत के लिए

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पा स के शहर में दंगे हुए थे। उन दिनों की बात है। बात तो बहुत छोटी है, किन्तु इसने मुझे बेचैन कर रखा है। दिन पर दिन गुज़रते जा रहे हैं. यह ...

पास के शहर में दंगे हुए थे। उन दिनों की बात है। बात तो बहुत छोटी है, किन्तु इसने मुझे बेचैन कर रखा है। दिन पर दिन गुज़रते जा रहे हैं. यह वैसी ही ताज़ा है जैसे पहले दिन थी। हमेशा दिमाग़ पर सवार रहती। एक पल को न बिसरती। क्या दिन, क्या रात!

मैंने कहा न कि दंगे मेरे शहर में नहीं, पास के शहर में हुए थे। दो सम्प्रदायों में ख़ूनी वारदात हुई थी। बहुत से लोग मारे गए थे। जगह-जगह आग लगी थी। धुआँ उठ रहा था। लोग चीख-चिल्ला रहे थे और शहर छोड़कर भाग रहे थे दूसरी जगह पनाह के लिए। मेरे शहर में ऐसा कुछ न था। था तो सिर्फ़ इस वारदात का आतंक। लोग चैकन्ने थे, अपने में सिमटे, भयभीत-से। ज़रा-भी कुछ होता या कोई बदहवास-सा भागता तो बाज़ार के शटर गिरने लगते। लोग घरों में घुसकर अन्दर से कुण्डी चढ़ा लेते। क्षण भर में गलियाँ-रास्ते सूने हो जाते। एक बार गश्ती पुलिस का घोड़ा बिदका कि भगदड़ मच गई इस सनसनी के साथ कि दंगा हो गया। पलभर में रास्ते वीरान हो गए। जहाँ शोर के मारे कुछ सुनाई नहीं पड़ता था, वहाँ कौवे की काँव-काँव गूँज रही थी। बाद में लोग इस अफवाह पर हँसे, पर सनसनी की धुकधुकी दिल में समाई थी। एक-दूसरे को लोग शक़ की निगाह में देखते और घर से बाहर बहुत ही मजबूरी में निकलते। डरते कि कहीं कुछ न हो जाए। ऐसी ही मजबूरी में एक शाम मैं बाज़ार के लिए निकला। किरासन लाना था। एक बूँद न था। पड़ोसियों से कई कट्टी उधार ले चुका था। अब हिम्मत न पड़ती थी माँगने की। सो निकला कट्टी लिए।

यह जो रास्ता है कमला पार्क से खिरनी मैदान की तरफ़ जाने वाला, उस तरफ बढ़ने पर ढाल, फिर लम्बा चढ़ाव आता है। चढ़ाव से पहले बाएँ हाथ पर बड़े तालाब का छोर है। छोर पर अमन होना चाहिए, किन्तु वहाँ हरहराहट है और उस हरहराहट की शिकार है एक पुरानी मस्जिद। पानी उसकी काई भरी दीवारों पर पछाड़ें खाता। वहाँ आप खड़े हों तो भीग जाएँ। पता नहीं क्यों, मुझे वहाँ खड़े होने में मज़ा आता। और वहाँ जाकर मुझे लगता कि मैं एक मचलती नाव पर सवार हूँ। बहरहाल, मस्जिद से थोड़ा हटकर यानी चढ़ाव की तरफ़ कई टूटे-फूटे मकान हैं जिन्हें देखकर लगता कि ये किसी पुरानी इमारत के खण्डहर हैं जिन्हें लोगों ने खपरैल, टीन-टप्पर डालकर रहने लायक बना लिया है। मैं इन मकानों की बात नहीं कर रहा हूँ, उस मकान के बारे में बता रहा हूँ जो इनसे थोड़ा हटकर है। बारिश में इसका रंग-रूप जख्मी है। ईंटों ने ऊपरी खाल छोड़ दी है और अन्दर का गूदा झाँकने लगा है। दरवाजे़ पर पर्दानुमा धुआँखाया टाट पड़ा है। टाट बीच-बीच में फटा है और ज़मीन पर लथरा है। मकान के पास ही स्कूटर मरम्मत करने की दो-चार दुकानें हैं जिनके बाहर चीकट, नम ज़मीन पर मैकेनिक स्कूटर दुरुस्त करने में मशगूल रहते। मकान के सामने एक बड़ा-सा पत्थर पड़ा है। पत्थर पर झुका आठ-दस साल का एक लड़का है।

वह लड़का जो पत्थर पर झुका है, फटीचर हालत में है। तन पर उसके एक फटी-सी कमीज़ है। शरीर काला मैल से फूला दीख रहा है कि मलने से बत्तियाँ झड़ने लगें। इसके बावजूद उसके चेहरे पर भोलापन और एक ऐसा सलोनापन है, जिससे वह सुन्दर लग रहा है। उसके हाथ में एक पुरानी ज़ंगखाई तलवार है और वह पत्थर पर रगड़कर उसमें धार रख रहा है।

जब मैं पास से गुज़रा, तो लड़का तलवार रगड़ते-रगड़ते रुका। उसने मेरी ओर देखा जैसे शिनाख़्त कर रहा हो।

मुझे बरबस हँसी आ गई। यकायक माहौल को देख मैं संजीदा हो गया।

इस बीच वह सीधा तनकर खड़ा हो गया। मेरे चेहरे में उसे कोई ऐसी चीज़ दिखी जिससे वह रोष में भर उठा। उसने तलवार नीचे से ऊपर इस तरह लहराकर तानी जैसे कुशल तलवारबाज़ी करता है।

मैं कुछ बोलता कि वह मुझे माँ की गाली देता ललकारने लगा - आ तुम्हाली अम्माँ ती .... वह तुतलाता है - तुमे माल दालेंदे छाले .....

मुझे गुुस्सा आया कि छटाँक भर का है, जमीन से उठा नहीं, और ऐसी बातें! माथे पर बल आया कि उस लड़के ने फिर गाली दी और तलवार लहराने लगा जैसे मार देगा! मैंने उसे ज़ोर से झिड़का और फिर शान्त लहजे में कहा - काहे मारोगे? मैंने क्या किया है? इस पर उसने तलवार ज़मीन पर रखी और दोनों पंजे मुँह के सामने कर उन पर थूका। पंजा रगड़ते हुए उसने बायाँ पंजा गले में पड़ी ताबीज छूते हुई बायीं जाँघ पर मारा और दायें से तलवार सँभालता मुझे एकटक देखता गाली देता बोला - तुम हमाली जात के नहीं! खूनी हो! हम तुमें माल दालेंदे! यह कहते-कहते उसने तलवार लहराई और ज़ोरों से पत्थर पर दे मारी - पत्थर पर रगड़ से चिनगी-सी छूटी।

- तुम्हारी ही जात का हूँ मैं ..... मुँह से यह बात फूट ही पड़ी बचकानी लगने के बावजूद। मुझे शर्म-सी लगी जब स्कूटर मैकेनिक उस पर ज़ोरों से हँस पड़े। हँसते-हँसते वे हाथ हिलाने लगे जैसे कह रहे हों कि काहे लौण्डे-लपाड़ी के मुँह लगते हो, चलते बनो!

इस बीच लड़का सपाटे से टाट वाले परदे को हटाता घर में घुसा तलवार लिए और हाथ में बड़ा-सा लट्ठ ले आया खींचता हुआ। लट्ठ उसने ज़मीन पर पटका जैसे तलवार के टूटने पर उसका इस्तेमाल करेगा। लट्ठ की झनक को पैर तले दबाता अब वह तैश में आ गया और क्रोध में बेतहाशा गालियाँ बकने लगा। तलवार पर सख़्त पकड़ की वजह से हाथ और गले की नसें तन गईं। उसके चेहरे पर से वह भोलापन और सलोनापन ग़ायब हो गए जो कुछ क्षण पहले थे। और उनके स्थान पर अब एक ऐसी क्रूरता आ जमी जो भयानक और वीभत्स लगती है।

सहसा कोई महिला हँसी। मैंने देखा- पर्देनुमा टाट को उठाए चीकट धोती पहने, उलझे बाल बेतरह खुजलाती एक औरत थी - शायद यह लड़के की माँ थी। लड़के के करतब पर निहाल थी। हँस रही थी। मैकेनिक भी ज़ोर-ज़ोर से हँसे जा रहे थे। अब वे ताली बजाने लगे जैसे किसी धुन पर समान ताल दे रहे हों। साथ ही आवाज़ें भी लगाने लगे - वह वाह!! वारे पेलवान! बकअप!! बकअप!!! यह आवाज़ तेज से तेजतर होती गई।

मेरा चेहरा सफे़द काग़ज़-सा हो गया। सहसा लड़के की हरकत और लोगों के इस रूप से घिन से भर उठा और ढेर-ढेर-सा थूकने लगा। यह घिन इतनी बढ़ी कि मेरा वहाँ रुकना दुश्वार हो गया। मैं आगे बढ़ा। पीछे हँसी गूँज रही थी और ललकार - वह वाह! वारे पेलवान! बकअप!! बकअप!!! और लड़के की यह आवाज़ भी - तुम हमाली जात के नहीं हो, हम तुमे जान से माल देंदे!!!

झटके के साथ तेज़ी से मुड़ने के कारण टीन की कट्टी मेरे घुटने से टकराई और दर्द भरी टीस उठी, लेकिन दर्द मैं पी गया और आगे बढ़ते-बढ़ते मैंने एक बार पलटकर पीछे देखा - दाँत भींचे लड़का तलवार लहरा रहा था उछल-उछलकर।

उसके चेहरे पर वही क्रूरता थी। लड़के की माँ के दाँत निकले थे और मैकेनिक ताली पीट-पीटकर हँसे जा रहे थे। मैं काफ़ी आगे निकल आया था। आवाज़ अब नहीं सुनाई पड़ रही थी। उनकी तालियों, लोट-पोट होने और बाहर निकले दाँतों से ऐसा लग रहा था।

नुक्कड़ पर आकर मैं खड़ा हो गया। मन हुआ पलटकर पीछे देखूँ लेकिन पीछे देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी। जान रहा था कि लड़का गाली बकता तलवार भाँज रहा होगा। माँ निहाल होगी। लोग आवाज़ें लगा-लगाकर तालियाँ बजा रहे होंगे।

उस वक्त़ काँप रहा था मैं!

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रचनाकार: हरि भटनागर की कहानी : तलवार – हारजीत के लिए
हरि भटनागर की कहानी : तलवार – हारजीत के लिए
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2009/03/blog-post_5775.html
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