रचनाकार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है हिन्दी समांतर कोश के रचयिता अरविंद कुमार का एक समीचीन, बेहतरीन और विचारोत्तेजक आलेख. हिंदी की परिशुद्धत...
रचनाकार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है हिन्दी समांतर कोश के रचयिता अरविंद कुमार का एक समीचीन, बेहतरीन और विचारोत्तेजक आलेख. हिंदी की परिशुद्धता का रोना रोने वालों की सदा सर्वदा के लिए आँखें खोल देने वाला आलेख. अत्यंत पठनीय, उद्धरणीय व संग्रहणीय. अपने तमाम मित्रों को, फ़ोरमों पर मुक्त-हस्त, अधिक से अधिक फॉरवर्ड करें.
अरविंद कुमार आजकल एक अनूठे English--Hindi--Roman Hindi कंप्यूटर प्रोग्राम पर काम कर रहे हैं... यह कोश थिसारस और लैंग्वेज ऐक्सप्लोरर होगा--संसार में अपनी तरह का एकमात्र विशाल शब्द भंडार जिस के द्वारा हर लेखक अनुवादक किसी भी भाव से किसी भी भाव तक, शब्द समूहों तक जा सकेगा. जो लोग देवनागरी नहीं जानते लेकिन हिंदी सीखना चाहते हैं...रोमन लिपि उन की सहायता करेगी, चाहे वे बंगाली हों, तेलुगु या विदेशी.इसी प्रकार हिंदी भाषियों को यह इंग्लिश शब्द संपदा बढ़ाने में सहायक होगा.
--अरविंद कुमार
24 अप्रैल 2007 के हिंदुस्तान (दिल्ली) के मुखपृष्ठ पर छपे एक चित्र का कैप्शन--
"पीऐसऐलवी सी-8 से इटली के उपग्रह एजाइल को कक्षा में स्थापित कर भारत ने ग्लोबल स्पेस मार्केट में प्रवेश किया. इसरो की यह उड़ान पहली व्यावसायिक उडान थी. इसरो दुनिया की अग्रणी एजेसियों की श्रेणी में आया. (श्रीहरिकोटा से) लांचिंग के दौरान सतीश धवन केंद्र के इसरो प्रमुख जी. माधवन व वरिष्ठ वैज्ञानिक मौजूद थे."
यह है आजादी के साठवें वर्ष में नौजवान हिंदुस्तान, और नौजवान हिंदी -- संसार से बराबरी के स्तर पर होड़ करने के लिए उतावला हिंदुस्तान. और पूर्वग्रहों से मुक्त हर भाषा से आवश्यक शब्द समो कर अपने को समृद्ध करने को तैयार हिंदी, जो इसी वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय नगर न्यू यार्क में विश्व सम्मेलन कर रही है, और अपने लिए अधिकारपूर्वक जगह माँग रही है.
कहाँ 1947 का वह देश जहाँ एक सूई भी नहीं बनती थी, जहाँ चमड़ा कमा कर बाहर भेजा जाता था, और जूते इंपोर्ट किए जाते थे. जहाँ साल दो साल बाद भारी अकाल पड़ते थे. बंगाल के अकाल के बारे में आजकल के लोग नहीं जानते, पर अँगरेजी राज के हिंदुस्तान की वही सच्ची तसवीर है--भूखा नेगा किसान, बेरोज़गार नौजवान. कहाँ आज अपनी धरती से देशी राकेट में अंतरिक्ष की व्यवासायिक उड़ान भरने वाला, चाँद तक अपने राकेट भेजने के सपने देखने वाला देश!
आज़ादी में हिंदी का पहला मतलब...
ऐसे में मेरा मन साठ बासठ साल पीछे चला जाता है. होश सँभालने पर मैं ने आजादी की लड़ाई के अंतिम दो तीन वर्ष ही देखे--1945 से 1947 तक. 15 अगस्त की झूूमती गाती मस्ती और उत्साह से रात भर सो न सकने वाली दिल्ली मुझे याद है. मुझे यह भी याद है कि किस प्रकार सितंबर से सांप्रदायिक दंगों से घिरी दिल्ली में हमारा स्वयंसेवकों का दस्ता दिन भर करौल बाग़ के आसपास के उन मकानों का जायजा लेता था जिन के निवासी पाकिस्तान जाने वाले शिविरों में चले गए थे (ऐसे ही एक घर में मैं ने तवे पर अधपकी रोटी देखी थी, और किसी कमरे में किताबों से भरे आले अल्मारियाँ देखे थे, जिन में से मैं प्रसिद्ध अँगरेजी उपन्यास वैस्टवर्ड हो उठा लाया था), और रात को रेलवे स्टोशन पर उतरने वाले रोते बिलखते या सहमे बच्चों वाले परिवारों को ट्रकों में लाद कर उन घरों में छोड़ आता था. आजादी के पहले दिनों की याद आए और वे दिन याद न आएँ ऐसा हो नहीं सकता.
मुझे याद है आम आदमी की तरह हमारे मनों में भाषा को ले कर कोई एक बात थी तो थी अँगरेजी से मुक्त होने की ललक. (मैं मैट्रिक पास कर चुका था, कोई भाषाविद नहीं था, पर भाषा प्रेम तो कूट कूट कर भरा था.) चाहते थे कि जल्दी से जल्दी अँगरेजी की सफ़ाई बिदाई के बाद हिंदी की ताजपोशी हो, सत्ताभिषेक--जल्दी से जल्दी, तत्काल, फौरन. उन दिनों जनता के स्तर पर ब्रिटिश इंडिया में हिंदी कहीं नहीं थी. कोर्ट कचहरी थाने तहसील में काररवाई अँगरेजी के बाद उर्दू में होती थी. कारण ऐतिहासिक थे. लेकिन हिंदी वालों के मन में उर्दू का विरोध भी गहरे बसा था. उसे सांप्रदायिक रंग भी दिया जाता था, जिस के पीछे एक भ्रामक नारा था -- हिंदी, हिंदु, हिंदुस्तान. जैसे देश मलयालम, तमिल, गुजराती, बांग्ला आदि भाषाएँ हों ही नहीं! उत्तर भारत के बहुत सारे लोगों को वह नारा मोहक लगता था.
आज़ाद होते ही हर क्षेत्र की तरह भाषा के क्षेत्र में भी देश ने दूरगामी क़दम उठाने शुरू कर दिए. तरह तरह के वैज्ञानिक संस्थान और शिक्षा के लिए अच्छे से अच्छे तकनीकी विद्यालयों की योजनाएं बनाई जाने लगीं. छलाँग लगा कर पचास सालों में तेज दौड़ती दुनिया के निकट पहुँचने के पंचवर्षीय योजनाएँ बनीं. आकलन किया गया था कि 1984 के आसपास हम लक्ष्य के कहीं क़रीब होंगे. 84 तक हिंदुस्तान की उन्नति का लांचिंग पैड तैयार हो चुका था, अब उडानें नज़र आ रही हैं.
इसी प्रकार हिंदी की उन्नति के लिए आयोग बने, नई शब्दावली का निर्माण आरंभ हुआ. तरह तरह के कोशों के लिए अनुदान दिए गए. डाक्टर रघुवीर की कंप्रीहैंसिव इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी और पंडित सुंदर लाल का विवादित हिंदुस्तानी कोश उन्हीं अनुदानों का परिणाम थे. हिंदी के सामने चुनौती थी उस अँगरेजी तक पहुँचने की जो औद्योगिक क्रांति के समय से ही तकनीकी शब्द बनाती आगे बढ़ रही थी. वहाँ शब्दों का बनना और प्रचिलत होना एक ऐसी प्रक्रिया थी, जैसे सही जलवायु में किसी बीज का विशाल पेड़ बन जाना. हिंदी के पास यह सुविधा नहीं थी, या कहें कि इस का समय नहीं था. रास्ते में उसे ग़लतियाँ करनी ही थीं. ऊपर वाले दोनों कोश वैसी ही ग़लतियाँ कहे जा सकते हैं. (रघुवीरी कोश को भी ग़लती मान कर मैं ने कोई कुफ़्र तो नहीं कर दिया? लेकिन मैदाने जंग में शहसवार ही गिरते हैं, घुटनों के बल चलने वाले बच्चे नहीं. डाक्टर रघुवीर हमारे कुशलतम घुड़सवार थे, इस में कोई शक नहीं.)
आज़ादी के बाद हिंदी का मतलब पंडिताऊ हिंदी से बचती हुई लेकिन संस्कृत शब्दों से प्रेरित नवसंस्कृत शब्दों वाली भाषा हो गया था. अचानक राष्ट्रभाषा और राज्यभाषा पद पर बैठने वाली भाषा को अँगरेजी की सदियों में बनी वौकेबुलैरी के नज़दीक पहुँचना था. हिंदी के लिए तकनीकी शब्दावली बनाने का महाभियान या आपरेशन शुरू किया गया. यह ज़रूरी भी था. नई स्वतंत्र राष्ट्रीयता के जोश में वैज्ञानिकों के साथ बैठ कर हिंदी विद्वान शब्द बनाने बैठे. जैसा चीन में हुआ वैसा ही भारत में भी. तकनीकी शब्दों के अनुवाद, कई जगहों पर अनगढ़ अप्रिय अनुवाद, किए जाने लगे. जो भाषा बनी वह रेडियो समाचारों और हिंदी दैनिकों पर कई दशक छाई रही. लेकिन लोकप्रिय न हो पाई. कारण: यह फ़ैक्ट ओवरलुक कर दिया गया कि तकनीकी शब्द वे लोग बनाते हैं जो किसी उपकरण को यूज़ करते हैं या इनवैंट करते हैं. यह भी नज़रंदाज कर दिया गया कि उन्नीसवीं सदी वाली आधी-ऊँघती आधी-जागती दुनिया इक्कीसवीं सदी की तरफ़ दौड़ रही है. अब इनफ़ौर्मेशन क्रांति के युग में हर रोज़ इतनी सारी नई चीज़ें बन रही हैं कि उन के नामो का अनुवाद करते करते और अनुवाद को लोकप्रिय करते करते संसार हमें पीछे छोड़ जाएगा.
जो भी हो पिछले सौ सालों में हिंदी में जो तीव्र विकास हुआ है, एक आधुनिक संपन्न भाषा उभर कर आई है, वह संसार भर में भाषाई विकास का अनुपम उदाहरण है. लैटिन से आक्रांत इंग्लैंड में अँगरेजी को जहाँ तक पहुँचने में पाँच सौ से ऊपर साल लगे, वहाँ तक पहुँचने में हिंदी को मेरी राय में कुल मिला कर डेढ़ सौ साल लगेंगे--2050 तक वह संसार की समृद्धतम भाषाओं में होगी-- सिवाए एक बात के. वह यह कि आज अँगरेजी संसार में संपर्क की प्रमुख भाषा है. इस स्थान तक हिंदी शायद कभी न पहुँचे, या पहुँचे तो तब जब भारत दुनिया का सर्वप्रमुख देश बन पाएगा. दुरदिल्ली! संख्या की दृष्टि से हिंदी बोलने वाले आज दुनिया में चौथे स्थान पर हैं. वे धरती के हर कोने में मिलते हैं. कई देशों में वे इनफ़ौर्मेशन तकनीक में मार्गदर्शक ही नहीं नेता का काम कर रहे हैं, जब कि भारत में यह तकनीक काफ़ी बाद में पहुँची. इस सब के पीछे है वह आंतरिक ऊर्जा जो हर भारतवासी के मन में है. वह ललक जो हमें किसी से पीछे न रहने के लिए उकसाती है. अँगरेजी राज के दौरान भी यह भावना हम में सजग थी. कुछ सत्ता सुख भोगी या सत्ताश्रित वर्गों के अलावा आम आदमी ने विदेशी राज को कभी स्वीकार नहीं किया.
इतिहास गवाह है...
लेकिन इतिहास गवाह है कि किसी भी प्रकार और स्तर पर अंतरसांस्कृतिक संपर्क परिवर्तन और विकास का प्रेरक रहा है. भारत के आधुनिकीककरण के पीछे अँगरेजी शासन और यूरोपीय संस्कृतियों से संपर्क के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता. राजा राम मोहन राय के ज़माने से ही समाज को बदलने की मुहिम भीतर तक व्यापने को उतावली हो गई थी. सुधारों के सतही विरोध के बावजूद ऊपरी तौर पर दक़ियानूसी दिखाई देने वाले लोग भी एक अनदेखी सांस्कृतिक प्रणाली से साबक़ा पड़ने पर मन ही मन अपने को बदलाव के लिए तैयार कर रहे थे. ब्रह्म समाज और आर्य समाज जैसे आंदोलन यूरोप, सत्ता द्वारा प्रचारित ईसाइयत और विदेशी शासन कं ख़िलाफ़ और अपने आप को उस से बेहतर साबित करने के तेजी से लोकप्रिय होते तरीक़े थे. इंग्लिश थोप कर भारतीयों को देसी अँगरेज बनाने की मैकाले की नीति उलटी पड़ चुकी थी. वह केवल कुछ काले साहब बना पाई, आम जनता जिन का मज़ाक़ उड़ाती रही. मैकाल की मनोकल्पना के विपरीत अँगरेजी शिक्षा ने विरोधी विचारकों और नेताओं की एक पूरी फ़ौज ज़रूर तैयार कर दी जो यूरोप में प्रचलित नवीनतम बौद्धिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना को समझ कर अँगेरजी शासन के ख़िलाफ़ जन जागरण का बिगुल फूँकने लगे. इस परिप्रेक्ष्य में कई बार विचार जागता है कि अगर मैकाले न होता, उस ने अँगरेजी न थोपी होती, तो क्या हमारा देश आज भी अफ़गानिस्तान ईरान और अनेक अरब देशों जैसा मध्यकाल में रहने वाला देश न रह जाता!
आज जापान दुनिया में हम से भी बहुत आगे है. जापान में सम्राट मेजी का जो सुधार अभियान (चुने नौजवानों को अमेरिका भेज कर अँगरेजी सिखाना, नवीनतम तकनीक सीख कर देश को आधुनिक बनाना, और कुरीतियों को मिटा कर समाज सुधार करना) 19वी सदी के अंतिम दो दशकों में आरंभ हुआ, भारत में उस की नीवं मैकाले ने अँगरेजी शिक्षा का माध्यम बना कर अनजाने ही लगभग पचास साल पहले रख दी थी. तकनीकी विकास पर ज़ोर हमारे यहाँ नदारद था, क्यों कि वह शासकों के हित में नहीं था. लेकिन तकनीकी विकास और भारत की पुरानी तकनीकी अग्रस्थिति को फिर से पाने की तमन्ना भारत में आज़ादी की पहली लड़ाई से पहले ही जाग उठी थी. अँगरेजो से लड़ाई के लिए टीपू सुल्तान ने फ़्रांस से संपर्क किया था, कई नौजवान वहाँ भेजे थे, नवीनतम तकनीक सीखने. टीपू की हार ने वह सब स्ामाप्त कर दिया. ढाके की मलमल का और किस प्रकार उसे बनाने वाले कारीगरों के अँगूठे कटवाए गए--इस बात का जिक्र बीसवीं सदी के स्वतंत्रता आंदोलनों पर लगातार छाया रहा. 1857 से कुछ वर्ष पहले ही सेठ रणछोड़ ने अहमदाबाद में पहली सूती मिल खोल दी थी. जमशेदजी नसरवानजी टाटा ने इस्पात संयंत्र की स्थापना बीसवीं सदी के मुख पर 1907 में कर दी थी. स्वदेशी आंदोलन इस से पहले शुरू हो चुके थे.
समाज सुधार और आजादी के संघर्ष की भाषा के तौर पर हिंदी को अखिल भारतीय समर्थन आरंभ से ही मिल रहा था. हिंदी राजनीतिक संवाद की भाषा और जनता की पुकार बनी. पत्रकारों ने इसे माँजा, साहित्यकारों ने सँवारा. उन दिनों सभी भाषाओं के अख़बारों में तार द्वारा और टैलिप्रिंटर पर दुनिया भर के समाचार अँगरेजी में आते थे. इन में होती थी एक नए, और कई बार अपरिचित, विश्व की अनजान अनोखी तकनीकी, राजनीतिक, सांस्कृतिक शब्दावली जिस का अनुवाद तत्काल किया जाना होता था ताकि सुबह सबेरे पाठकों तक पहुँच सके. कई दशक तक हज़ारों अनाम पत्रकारों ने इस चुनौती को झेला और हिंदी की शब्द संपदा को नया रंगरूप देने का महान काम कर दिखाया. पत्रकारों ने ही हिंदी की वर्तनी को एकरूप करने के प्रयास किए. वाराणसी का ज्ञान मंडल का कोश दैनिक आज के संपादन विभागाों से उपजे विचारों और उसके प्रकाशकों की ही देन है. मुझ जैसे हिंदी प्रेमियों के लिए यह वर्तनी का वेद है. तीसादि दशक में फ़िल्मों को आवाज़ मिली. बोलपट या टाकी मूवी का युग शुरू हुआ. अब फ़िल्मों ने हिंदी को देश के कोने कोने में और देश के बाहर भी फैलाया. संसार भर में भारतीयों को जोड़े रखने का काम बीसवीं सदी में सुधारकों, स्वतंत्रता सेनानियों, पत्रकारों, साहित्यकारों और फ़िल्मकारों ने बड़ी ख़ूबी से किया...
आज कुछ वर्गों में ग्लोबलाइज़ेशन का विरोध फ़ैशन बन गया है. ग्लोबलाइज़ेशन या ग्लोबलन या फिर सुधीश पचौरी के बनाए शब्द ग्लोकुल के आधार पर ग्लोकुलन है क्या? व्यापारिक, सांस्कृतिक और संप्रेषण के स्तर पर दुनिया का एक गाँव भर बना जाना, या ऐसा परस्पर-संपृक्त कुल बन जाना जो परस्पर तत्काल व्यवहार कर रहा हो, एक दूसरे से आदान प्रदान कर रहा हो. आज आज़ाद हिंदुस्तान इस दुनिया में अपनी जगह सुदृढ़ करने के लिए उतावला है. हिंदी का विकास और प्रसार इस में सबल भूमिका निभा रहा है. परिणामस्वरूप भाषाई स्तर पर जो उलटफेर हो रहा है, उस से कुछ हिंदी वाले कई तरह की आशंकाओं, दुश्चिंताओं और भयों से त्रस्त हैं. कई प्रतिक्रियाएँ तो ऐसी हैं जो इस वैश्विक परिवर्तन के युग में, अंतरराष्ट्रीय (विशेषकर इंग्लिश) शब्दावली की तीखी भरमार के कारण देखने को मिलती हैं.
ग्लोकुलन कोई नई प्रक्रिया नहीं है. बड़ी संख्या में मानविकी, नृवंशिकी, भाषाविज्ञानी मानते हैं कि कोई दो हज़ार संख्या वाले एक मानव वंश ने पेचीदा भाषा रचना का गुर पा लिया. भाषा के हथियार के सहारे यह वंश सुनियंत्रित सुगठित दलों की रचना कर के वे भयानक जीवों पर विजय पा सकने में सफल हो गया. उस का वंश तेजी से बढ़ने फैलने लगा. तकरीबन 50 हज़ार साल पहले इस के वंशजों को नौपरिवहन के गुर पता चल गए तो अरब सागर (पुरानी शब्दावली में वरुण सागर) पार कर के वे भारत भूखंड के उत्तर पश्चिम तट पर कहीं गुजरात के आसपास पहुँचे. यहाँ से वे सारी दिशाओं में बढ़ते चले गए. यह था पहला ग्लोकुलन अभियान. अफ़्रीका में टिके रहे साथी पूरे महाद्वीप में फैलते रहे. जो लोग भारत आ गए थे, वे देश में तो फैले ही, साथ साथ अफ़ग़ानिस्तान-इराक़-ईरान के रास्ते एक तरफ़ यूरोप, दूसरी तरफ़ चीन, मंगोलिया, जापान और एशिया के उत्र पूर्वी छोर से अलास्का के रास्ते अमरीकी महाद्वीपों पर छा गए. मानव वंश बढ़ता बँटता रहा, बदलते देश, भूगोल और आवश्यकताओं के अनुसार भाषाएँ बनती बदलती रहीं. अब दुनिया विविध जातियों और 5,000 से अधिक भाषाओं में बँटी है. उन की मूल भाषा का कोई रूप अब नहीं मिलता. इसी ग्लोकुलन के सहारे मानव सभ्यता आगे बढ़ी है.
पिछली तीन चार सदियों में विज्ञान और औद्योगिक क्रांति ने बिखरी जातियों और भाषाओं को बड़े पैमाने पर नजदीक लाना शुरू कर दिया था. कभी साम्राज्यों के द्वारा, कभी विचारों के द्वारा. आज हम लोग ग्लोकुलन की नवीनतम और सबलतम धारा के बीच है. दुनिया तेजी से छोटी हो रही है. ग्लोब का कोई कोना आवागमन की तेज धारा से बचा नहीं है. स्वयं हिंदुस्तान के लोग किस कोने में नहीं हैं? उन पर सूरज कभी नहीं डूबता. पिछले दशकों में सूचना तकनीक में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की हुई है. इस में हम भारतीयों का योगदान कम नहीं है, तो इस लिए भी कि हम अँगरेजी भाषा में पारंगत हैं. संप्रेषण के क्षेत्र में व्यापकता और तात्कालिकता आई है. सारी दुनिया हर ख़बर साथ साथ अपनी आँखों देखती है. लिखित समाचार के ऊपर बोला गया वाचिक रिपोर्ताज हावी होता जा रहा है. मुम्ाकिन नहीं था कि इस सब का असर समाज और भाषा पर न पड़े. सारी भाषाएँ बदलाव की तेज रौ में बह रही हैं. नई तकनीकें नए विचार, नए शब्द, ला रही हैं.
विश्व के परस्पर संलग्नन का सब से ज़्यादा असर जीवन स्तर और शैली पर और भी ज़्यादा हुआ है. हर साल नए से नया परिवर्तन. नई समृद्धि का संदेश, नई आशा! नए से नया बेहतरीन माल! हिंदुस्तान अब वह नहीं है जो 1907 में था, या 1947 में या 1957 में था. आज का नौजवान हिंदुस्तान वह नहीं है जो 1991 में था. 2001 से 2007 तक भी इंडिया बदल गया है. 1947 में बीए ऐमए पढ़े लिखे युवक के सामने रोज़गार के गिने चुने पेशे थे. पहला क्लर्की, टाइपिंग, शार्टहैंड, अध्यापकी. वह भी सिफ़ारिश हो तो. कोई कोई प्रबंधन में भी पहुँच जाता था. मैनेजमैंट के स्कूल नहीं थे. कामर्स वाले अकाउंटैंट बन सकते थे. साइंस पढ़ने पर भी कुछ ख़ास अवसर नहीं थे. हाँ, इंजीनियरिंग वालों के लिए संभावनाएँ थीं. पर कितनी? इंजीनियरिंग सिखाने के संस्थान ही कितने थे! आज हर तरफ़ उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए मारामारी. नए से नए कालिज खुल रहे हैं. मैनेजमैंट, इंजीनियरिंग, कंप्यूटर छात्रों को अंतिम वर्ष पार करने से पहले ही दुनिया के इंडस्ट्रियलिस्ट मुँहमाँगे इनकम पैकेज पर रखने को मुँह फाड़े खड़े रहते हैं. इस के पीछे देश में अँगरेजी जानने पढ़ने और लिखने वालों की बेहद बड़ी संख्या होना है. मध्य वर्ग की संख्या और ख़रीद शक्ति का विस्तार हुआ है. सब से पहले मोबाइल उस के पास आए, एक से एक बढ़िया माल उसे मिल सकता है. कंप्यूटर, इंटरनैट जीवन का आवश्यक अंग है. बहुत सारी ख़रीद फ़रोख्त वह आनलाइन करता है. हवाई जहाज़ का टिकट ख़रीदता, न्यू यार्क में होटल बुक करता है. नई से नई कारों के माडल उस के पास हैं. क्रैडिट कार्ड, एटीऐम.
सब का असर भाषा पर न पड़े यह संभव नहीं था. आजादी के बाद हिंदुस्तान ने और हिंदी ने कट्टर अंगरेजी विरोध का युग देखा. हम चाहते थे अँगरेजी का कोई शब्द हमारी भाषा में न हो. ऐसी हिंदी बने जिम में किसी और बोली का पुट न हो. लेकिन दुनिया में ऐसा कभी होता नहीं है कि कोई भाषा दूसरी भाषाओं से अछूती रहे. अँगरेजी का पहला आधुनिक कोश बनाने वाले जानसन का सपना थी कि अपनी भाषा को इतना शुद्ध और सुस्थिर कर दे कि उस में कोई विकार न हो. यही सपना अमेरिका में कोशकार वैब्स्टर ने भी देखा था. उन की अँगरेजी आज हर साल लाखों नए शब्द दुनिया भर से लेती है!
आज हिंदी रघुवीरी युग से निकल कर नए आयाम तलाश रही है. अँगरेजी शब्दों का होलसेल आयात कर रही है, बस यही परेशानी है जो शुुद्धतावादियों की पेशानी को परेशान को परेशान कर रही है. कहा जा रहा है, हिंदी पत्रकारिता भाषा को भ्रष्ट रही है. टीवी चैनलों ने तो हद कर दी है! कुछ का कहना है कि यह विकृत भाषा मानवीय संवेदनाओं को छिछले रूप में ही प्रकट कर सकने की क्षमता रखती है, इस से अधिक नहीं. उन्हें डर है हिंदी घोर पतन की कगार पर है. वह अब फिसली, अब फिसली... और... उन्हें लगता है कि वह दिन जल्दी आएगा, जब कह सकेंगे-- लो फिसल ही गई!
वे लोग भूल जाते हैं कि हिंदी लगातार बढ़ती रही है तो इस लिए कि वह पिछली दस सदियों से अपने आप को हर बदलते समय के साँचे में ढालती रही, नए समाज की नई ज़रूरतों के अनुसार नई शब्दावली बना कर या उधार ले कर समृद्ध होती रही है. आजादी के बाद नए से नए सृजन आंदोलनों से यह समृद्ध हुई, सजीव बहसों से गुज़री. इन बहसों में जो गरिष्ठ हिंदी तथाकथित विद्वान लिखते थे, वह कठिनतम भाषाओं के उदाहरण के रूप में पेश की जा सकती है. इसी रुझान में रेडियो के समाचारों में जो हिंदी सुनने को वह सब के सिर से उतर जाती थी. भाषाई आयोगों और रघुबीरी कोशों को आर्थिक सहायता देने वाले पंडित नेहरु शिकायत करते सुने जाते थे कि यह हिंदी वह नहीं समझ पा रहे. पर विद्वज्जन (!) यह कह कर टाल देते कि परिवर्तन के दौर में ऐसा तो होता ही है. एक दिन आम आदमी यही भाषा बोलने लिखने लगेगा. ऐसा हुआ नहीं.
हिंदी को विश्वनाथ जी का योगदान...
मेरा सौभाग्य है कि पिछले बासठ सालों से (1945 से) मैं मुद्रण, पत्रकारिता (सरिता, कैरेवान, मुक्ता, माधुरी, सर्वोत्तम रीडर्स डाइजैस्ट) से जुड़ा रहा हूँ. पत्रकार, लेखक, अनुवादक, कला-नाटक-फ़िल्म समीक्षक होने के नाते अनेक क्षेत्रों से मेरा साबक़ा पड़ा. दिल्ली में रंगमंच से सक्रिय संपर्क रहा, और मुंबई में फ़िल्मों की दुनिया को निकट से देखने का मौक़ा मिला. इस का लाभ हुआ भिन्न विधाओं की भाषा समस्याओं को नज़दीक से देखना समझना. चाहे तो कोई भाषा को कितना ही गरिष्ठ बना सकता है. लेकिन पाठक को दिमाग़ी बदहज़मी करा के न लेखक का कोई लाभ होता है, न पाठक लेखक की बात पचा पाता है--यह पाठ मुझे पत्रकारिता और लेखन में मेरे गुरु सरिता-कैरेवान संपादक विश्वनाथ जी ने शुरू में ही अच्छी तरह समझा दी थी.
हिंदी साहित्यिक दुनिया में विश्वनाथ जी का नाम कभी कोई नहीं लेता. सच यह है कि 1945 में सरिता का पहला अंक छपने से ले कर अपने अंतिम समय तक उन्हों ने हिंदी को, समाज को, देश को जो कुछ दिया वह अप्रशंसित भले ही रह जाए, नकारा नहीं जा सकता. उन्हों ने भाषा का जो गुर मुझे सिखाया, वह अनायास मिला वरदान था.
सरिता के संपादन विभाग तक मैं 1950 के आसपास पहुँचा. उपसंपादक के रूप में मैं हर अंक में बहुत कुछ लिखता था. विश्वनाथ जी मेरे लिखे से ख़ुश रहते थे. मेरे सीधे सादे वाक्य उन्हें बहुत अच्छे लगते थै. लेकिन कई शब्द? एक दिन उन्हों ने मुझे अपने कमरे में बुलाया, पूछा, "क्या तेली, मोची, पनवाड़ी, ये ही क्यों क्या आम आदमी, विद्वानों की भाषा समझ पाएगा? क्या यह विद्यादंभी विद्वान तेली आदि की भाषा समझ लेगा?" स्पष्ट है मेरे पास एक ही उत्तर हो सकता था: विद्वान की भाषा तो केवल विद्वान ही समझेंगे, आम आदमी की भाषा समझने में विद्वानों को कोई कठिनाई नही होगी. थोड़े से शब्दों में विश्वनाथ जी ने मुझे संप्रेषण का मूल मंत्र सिखा दिया था. जिस से हम मुख़ातिब हैं, जो हमारा पाठक श्रोता दर्शक आडिएंस है, हमें उस की भाषा में बात करनी होगी.
मुझ से उस संवाद का परिणाम था कि विश्वनाथ जी ने सरिता में नया स्थायी स्तंभ जोड़ दिया: यह किस देश प्रदेश की भाषा है? इस में तथाकथित महापंडितों की गरिष्ठ, दुर्बोध और दुरूह वाक्यों से भरपूर हिंदी के चुने उद्धरण छापे जाते थे. उन पर कोई कमैंट नहीं किया जाता था. इस शीर्षक के नीचे उन का छपना ही मारक कमैंट था.
जीवंत समाज और भाषा बदलते रहते हैं. हिंदुस्तान बहुत बदला है, बदल रहा है. हिंदी बदली है, बदल रही है, बदलेगी. मैं समझता हूँ न बदलना संभव नहीं है. न बदलेगी तो इस की गिनती संस्कृत जैसी मृत भाषाओं में होगी, जिस से विद्रोह कर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना 'भाषा' में की. मैं संस्कृत भाषा की समृद्धता के विरुद्ध कुछ नहीं कह रहा हूँ. संस्कृत न होती तो हमारी हिंदी भी न होती. हमारे अधिकतर शब्द वहीं से आए हैं, कभी तत्सम रूप में, तो कभी तद्भव रूप में. संस्कृत जैसे शब्दों की हमारी एक बिल्कुल नई कोटि भी है. वे अनगिनत शब्द जो हम ने बनाए हैं, लेकिन जो प्राचीन संस्कृत भाषा और साहित्य में नहीं हैं. यदि हैं तो भिन्न अर्थों में हैं. इन नए शब्दों का आधार तो संस्कृत है पर इन की रचना बिल्कुल नए भावों को प्रकट करने के लिए की गई है. इन्हें संस्कृत शब्द कहना ग़लत होगा. ये आज की हिंदी की पहचान बन गए हैं. उदाहरण के लिए अंगरेजी के कोऐग्ज़िटैंस का हिंदी अनुवाद सहअस्तित्व . यह किसी भी प्रकार संस्कृत शब्द नहीं है. संस्कृत में इसे सहास्तित्व लिखा जाता. इस शब्द के पीछे जो भाव है वह भी संस्कृत में इस विशिष्ट संदर्भ में नहीं मिलेगा. इन शब्दों को हम नवसंस्कृत कह सकते हैं.
इंडिया में न्यू हिंदी: रघुबीरी को ढूँढ़ते रह जाओगे!
ख़ुशी की बात यह है कि अब हिंदी शुद्धताऊ प्रभावों से मुक्त होती जा रही है, और रघुबीरी युग को बहुत पीछे छोड़ चुकी है. पत्रकार अब हर अँगरेजी शब्द का अनुवाद करने की मुसीबत से छूट चुके हैं. वे एक जीवंत हिंदी की रचना में लगे हैं. आतंकवादी के स्थान पर अब वे आतंकी जैसे छोटे और सार्थक शब्द बनाने लगे हैं. उन्हों ने बिल्कुल व्याकरण असंगत शब्द चयनित गढ़ा है, लेकिन वह पूरी तरह काम दे रहा है. आरोप लगाने वाले आरोपी का प्रयोग वे आरोपित व्यक्ति के लिए कर रहे हैं. अगर पाठक उन का मतलब सही समझ लेता है, यह भी क्षम्य माना जा सकता है. तकनीकी शब्दों या चीज़ों या नई प्रवृत्तियों के नामों के अनुवाद में सब से बड़ी समस्या एकरूपता की होती है. कोई रेडियो को दूरवाणी लिखेगा, कोई आकाश वाणी, कोई नभवाणी, तो कोई विकीर्ण ध्वनि... मेरी राय में नए अन्वेषणों का अनुवाद अनुपयुक्त प्रथा है. स्पूतनिक का अनुवाद नहीं किया जा सकता. गाँधी चरखे या अंबर चरख़े को अँगरेजी में इन्हीं नामों से पुकारा जाएगा. इंग्लैंड में आविष्कृत कताई मशीन स्पिनिंग जैनी को हिंदी में कतनी छोकरी नहीं कहा जा सकता. ख़ुशी है कि रेलगाड़ी को लौहपथगामिनी लिखने वाले अब नहीं बचे.
दैनिक पत्रों के मुक़ाबले टीवी की तात्कालिकता निपट तात्कालिक होती है, विशेषकर समाचार टीवी में. यह तात्कालिकता ही हमारी भाषा के नए सबल साँचे में ढलने की गारंटी है. नई भाषा की एक ख़ूबी है कि वह नई जीवन शैली जीने को उत्सुक नवयुवा पीढ़ी की भाषा है. यह पीढ़ी 1947 के भारत की हमारी जैसी पीढ़ी नहीं है. पर मुझ जैसे अनेक लोग हैं जो इस बदलाव के साथ बदलते आए हैं और बदलते ज़माने के साथ बदलते रहे हैं औ अपने आप को उस के निकट पाते हैं.
मैं नहीं समझता कि हिंदी पत्रकारिता की भाषा भ्रष्ट हो गई है. मैं तो कहूँगा कि वह हर दिन समृद्ध हो रही है. नए समाज में नौजवानों की अपनी भाषा बदल गई है. एक ज़माना था जब हिंदी समाचार पत्र दुकानदारों, नौकरों और कम पढ़ेलिखे लोगों के अख़बार माने जाते थे. आज हिंदी पत्रकार नई नौजवान पीढ़ी के लिए अख़बार निकाल रहे हैं. उन में शिक्षा के, रोज़गार के नए अवसरों की जानकारी होती है. नई बाइकों कारों की जानकारी होती है. कभी देखा था इन्हें हिंदी दैनिकों में.
नए ज़माने के नए शब्द बेहिचक, बेखटके, बेधड़क, निश्शंक, पूरे साहस के साथ ला रही है. दो तीन दिन के हिंदुस्तान और दैनिक जागरण से कुछ शब्द देता हूँ: हॉट शॉट, बॉलीवुड, ट्रेलर, चैनल, किरदार, समलैंगिक..., एसजीपीसी (शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति), दिल्ली विवि (विश्वविद्यालय), रजिस्ट्रार, फ़्लाईओवर, स्टेडियम, पासवर्ड, इनफ़ोटेनमैंट, सब्स्क्राइबर, नैटवर्किंग, डायरैक्ट टु होम (डीटीएच). सेंट्रल लाइब्रेरी, ओपन स्कूल, हाईवे, इन्वेस्टमैंट मूड, प्रॉपर्टी, लिविंग स्टाइल, लोकेशन, शॉपिंग सेंटर...
21वीं सदी के हिंदुस्तान ने ग़ुलामी के दिनों के अंधे अँगरेजी विरोध वाली मैंटलिटी से छुट्टी पा ली. नई सोसाइटी में रीडर बदल रहे हैं, भाषा बदल रही है. परिवर्तन को सब से पहले पहचाना मीडिया ने. उस की शैली बदल गई, भाषा बदल गई, नीति बदल गई. टीवी वाले तात्कालिकता के साथ नई सरपट ज़बान में भड़भड़ गाड़ी दौड़ाते हैं.
पेश हैं हिंदी न्यूज़पेपर अब जो छाप रहें हैं, उस के कुछ नमूने--
हाई कोर्ट का आयोग से जवाबतलब (कहाँ गया उच्च न्यायालय?).
कोर्ट ने औबीसी की पहचान का आधार पूछा... जस्टिस अरिजीत पसायत...
आंबेडकर यूनिवर्सिटी के वीसी हटाए गए
गुजरात के दंगों में बीजेपी के दो पार्षदों को सज़ा (भाजपा नहीं)
पेट्रोल में सॉल्वेंट की मात्रा इतनी अधिक मिला देते हैं कि हाईटेक कार भी...
हॉबवुड सर्फ़िंग सेशन के विनर रहे (विजेता नहीं)
वज़ीराबाद वाटर ट्रीटमैंट प्लांट... 2 पीपीएम बढ़ जाएगी.
एडमिशन शुरू होने से पहले (प्रवेश या दाखिला नहीं)... डीयू (दिल्ली विश्वविद्यालय) के अंडरग्रेजुएट कोर्सों में ... प्री-एडमिशन फ़ॉर्म व इनर्फ़मेशन बुलेटिन... स्टूडैंट्स को... (छात्र अब कितने लोग बोलते हैं?)
लेटेस्ट इंस्ट्रूमेंट रोकेगा पानी की बरबादी
एमसीडी व मेट्रो में विवाद
इन्फ़्रास्ट्रकचर तैयार करने में जुटा, 1 सबस्टेशन अगले महीने शुरू
रणपाल के एनकाउंटर से उठे कई सवाल
ऑटो पेंट की फ़ैक्ट्री में आग
इंटैग्रेेटिड टाउनशिप प्रोजेक्ट
इंटरनेट सर्फ़िंग आसान होगी पाकिट सर्फ़र से... पाकिट सर्फ़र लॉन्च किया... कस्टमर बिना किसी सेल्यूलर या लैंडलाइन मोडेम से जोड़े ... इंटरनेट सर्फ़िग कर सकता है...
चेन्नै में मैन्यूफ़ैक्चरिंग यूनिट लगा सकती है मोटोरोला...
SBI को कलाम ने दिया 7 सूत्रीय मिशन
बेहतर ट्रेनिग के लिए NIIT से हाथ मिलाया
अक्रॉस दे बॉर्डर
विंडो शॉपिंग
रीडर्स मेल (पाठकों के पत्र नहीं)
फ़ुटबॉल पॉपुलर खेल ही नही रहा, यह ग्लोबल रिलीजन बन गया है... मेरा कर्मा तू मेरा धर्मा तू...
POLIO रविवार
सर्विकल कैंसर वैक्सीन
बुक ऑफ़ लाइफ़ में जुड़ा बड़ा अध्याय... वर्णावली सीक्वेंसिंग का काम पूरा कर लिया है.
युवाओं का आइकॉन (आदर्श पुरुष नहीं, युवा हृदय सम्राट नहीं)
आरक्षित आग्रहों का कवरेज (मीडिया में रिपोर्ट)
अवार्ड की लाइन में
बात थोड़ी सीरियस हुई ... मेरी हैक्टिक लाइफ़...तबीयत ख़राब होने के बाद रिकवरी...
कैसे ऑर्गनाइज़ करें परफ़ेक्ट पार्टी
ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ -- डबल ऑफ़र
बीएसए ने किया इनकार, डीएम ने माँगा जवाब... वीआईपी का इंतज़ार बच्चों पर मार
मोबाइल क्लोनिंग में चार दबोचे
Jodee No* 1 copy -- Rs* 144 per month
ताश के पत्तों की तरह गिरे पोल (खंभे नहीं)
लाइफ़ में लाओ चेंज पुराना टीवी करो एक्सचेंज
मास्को में दिल्ली फ़ेस्टिवल शुरू (समारोह या उत्सव नहीं)
स्टूडेंट्स फ़ंडिग के लिए कॉरपोरेट स्पॉन्सरशिप
एनबीटी कमबोला के लिए... बहुमूल्य वस्तु... डायमंड हो या प्लाज़्मा कलर टीवी... 108 लकी प्रतियोगियों के लिए art d' enox के फ़्री गिफ़्ट मिलते हैं... पिछले 3 कॉन्टेस्ट ... के टोटल... डियर रीडर्स...*
सर्च इंजन (वर्गीकृत विज्ञापन नहीं.)
- डाक्टर लड़का अवधिया कुर्मी (MBBS) 33/5'6'' (सरकारी सेवारत झारखंड सरकार) हेतु डा. वधु (MBBS/BDS) चाहिए... पिता सरकारी सेवारत (MS OBST & GYNAE) अपना नर्सिंग होम.
- अंबष्ठ गोरी लंबी ख़ूबसूरत MBA, MCA, BE प्रतिष्ठित परिवार की लड़की मांगलिक 29/5'6" Sr* Software Engineer, Satyam Computer, Pune में कार्यरत लड़की के लिए
कुछ इसे महापतन मानते हैं. लेकिन नई पीढ़ी को इस की ज़रा भी चिंता नहीं है. वे लोग भाषा कोश देख कर नहीं बोलते, न उन्हें अपने आप को विद्वानी हिंदी का दिग्गज साहबित करना है.
ऐसा भी नहीं है कि हिंदी में अपने नए शब्द नहीं बन रहे. सच यह है कि भाषा विद्वान नहीं बनाते, भाषा बनाते हैं भाषा का उपयोग करने वाले... आम आदमी, मिस्तरी, करख़नदार या फिर लिखने वाले. घुड़चढ़ी शब्द डाक्टर रघुवीर नहीं बना सकते थे, न ही वे मुँहनोंचवा बना सकते हैं. कार मेकेनिकों ने अपने शब्द बनाए हैं, पहलवानों ने कुश्ती की जो शब्दावली बनाई है (कुछ उदाहरण: मरोड़ी कुंदा, मलाई घिस्सा, भीतरली टाँग, बैठी जनेऊ) वह कोई भी भाषा आयोग नहीं बना सकता था. विद्वानों का काम होता है भाषा का अध्ययन, विश्लेषण... अख़बारों में नई देशज हिंदी शब्दावली भी बन रही है. नए ठेठ हिंदी शब्द विद्वान नहीं बना रहे. हिंदी लिखने वाले बना रहे हैं--जैसे कबूतरबाजी. अँगरेजी ह्यूमैन ट्रैफ़िकिंग के लिए पूरी तरह देशी शब्द. ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से, पासपोर्ट वीजा नियमों को तोड़ते हुए हिंदुस्तानियों को पश्चिमी देशों तक पहुँचाने का धंधा. या फिर ब्लौगिया या चिट्ठाकार, और चिट्ठाकारिता. इंटरनेट की दुनिया से आम आदमी द्वारा उपजे शब्द. अँगरेजी में इंटरनेट पर लिखने और परस्पर विचारविमर्श बहसाबहसी की प्रथा को पहले वैबलौगिंग कहा गया, बाद में उस से बना ब्लौगिंग. उसी से दुनिया भर में फैले आम हिंदी प्रेमी ने य शब्द बनाए हैं, ब्लौगिंग करने वाला ब्लौगिया, ब्लौग (यानी लिखा गया कोई विचार) चिट्ठा, पुराने चिट्ठा और चिट्ठी को दिया गया बिल्कुल नया अर्थ. क्या कोई विद्वान ये शब्द बना पाता?
इंग्लिश में कहीं हिंग्लिश, कहीं पूरी हिंदी
अगर हिंदी वाले अँगरेजी शब्द भारी मात्रा में आयातित कर रहे हैं, तो अँगरेजी तो बहुत पहले से ही हिंदी शब्द खुले दिल से लेती रही है...pucca kutcha (पक्का कच्चा) आदि शब्द पुराने उदाहरण हैं. आजकल भारतीय अँगरेजी में स्थानीय शब्दों और मुहावरों का प्रयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है. जो नई भाषा बन रही है, उसे लोग हिंग्लिश कहने लगे हैं. हिंग्लिश तब होती है जब कहीं कोई एक शब्द लिखा जाए जैसें fake gajra, desi chick. अब पूरे के पूरे हिंदी वाक्य आप को रोमन लिपि में लिखे मिल जाएँगे, और कहीं कहीं तो सीधे देवनागरी में. दोनों भाषाओं में यह सब बाज़ार और आडिएँस करवा रही है. पेश हैं कुछ नमूने--
India ka naya TASHAN... Ab jeeyo poore tashan se! Presenting the Samsung C130...
masaala maar ke... रविवार को फ़िल्मो की जानकारी के साथ...
dil se... Mujhe hai apni har khata manzoor, bhool ho jati hai insano se* I'm really sorry* Please forgive me...
Boss ko patana...Mummy ko samjhana...Girlfriend ko manana...*AB SAB 50 PAISE mein* (Tata Indicom)
PHIR LOOT HI LOOT...*Buyanu Microtek Inverter...
2ka mazaa 1 mein... Buy one and get one free... सब कुछ सब के लिए... salasar mega store
Ab Dilli Dur Nahin... Parklands Faridabad...
Kal kare so aaj kar...ICICI Prudential
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शब्दावली से जुड़ा एक और पहलू है बोलने की हिंदी और लिखित हिंदी में बढते जाते भेद का. हमारी बोली में ऐसे स्थानों पर अकार को लोप होता जा रहा है जहाँ उच्चारण में यति आती है या अंतिम अक्षर अकारांत अक्षर होता है. हम लिखते हैं कृपया . यह सही भी है. लेकिन बोलते हैं कृप्या . अनेक स्थानों पर आप को यह लिखा मिलेगा. समाचार पत्रों की कृपा है कि वे कृप्या नहीं लिखते... कृपया ही लिख रहे हैं. उत्तराखंड के एक सरकारी विज्ञापन में किसी भ्रमित कापीराइटर ने लिखा-- शहीदों को शत् शत् प्रणाम. अगर यह दावा मान लिया जाए कि हिंदी में हमें वैसा ही लिखते हैं, जैसा बोलते हैं, तो शत् प्रतिशत् सही!
और अंत में...
तो आइए चेंजिंग भारत की लाइवली वाइब्रैंट बोली और भाषा का हार्टी वैेलकम करें, सैलिब्रेट करें, जश्न मनाएँ. उन जर्नलिस्टों पत्रकारों विज्ञापकों के गुण गाएँ जिन्होंने दुनिया में अपनी जगह तलाशते हिंदुस्तान को पहचाना, नई रीडरशिप को टटोला, नब्ज़ को पकड़ा, जो अख़बार कभी दुकानदारों, नौकरों और हिंदी-प्रमियों के ही लिए थे, उन्हें नई जनरेशन के नौजवानों तक पहुँचाया. नारों को भूल कर यथार्थ को समझा.
अरविंद कुमार, सी-18 चंद्र नगर, ग़ाजियाबाद 201011
9312760129 - 0120 4110655
और अंत में...
क्या हैं ये सब?
आंद्या, इंदिज्स्की, ऐंत्क्सग, खिंदी, चिंदी, चिंद्ज़ी, खिंदी, तिएंग हिन-दी, यिन दी यू, हिंदिह्श्चिना, ह्योनद्विसफ़्...
जी हाँ हिंदी!
हिंदू शब्द की ही तरह हिंदी शब्द भारत में नहीं बना. यह ईरान से आया है. यूँ कभी ईरान भी भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र का अभिन्न अंग था. कहने को हिंदी मुख्यतः उत्तर भारत के भारी पापुलेशन वाले राज्यों में बोली जाती है, कई राज्यों और पूरे देश की राज्यभाषा है, लेकिन उसे लिखने पढ़ने और बोलने वाले पूरे देश में मिलते हैं. विदेशों में हिंदी बोलने वाले लोग गायना, सुरिनाम, त्रिनिदाद और टबैगो, फीजी, मारीशस, क़तार, कुवैत, बह्रीन, संयुक्त अरब अमीरात, कनाडा, संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, रूस, सिंगापुर, दक्षिण अफ़्रीका आदि में पाए जाते हैं.
आज जो हिंदी हम जानते हैं, वह हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों की भाषा हुआ करती थी, जिसे खड़ी बोली कहते हैं. संभवतः खड़ी बोली शब्द कौरवी बोली का बदला रूप है यानी वह भाषा जो कुरु (कौरव और पांडव) क्षेत्र में बोली जाती थी. सदियों से हिंदी के नाम बदलते रहे हैं. कुछ नाम रहे हैं-- भाखा, भाषा, रेख़ता, हिंदवी, हिंदी, हिंदुस्तानी. जिसे आज हम उर्दू कहते हैं वह वास्तव में हिंदी ही है. पिछली दो सदी में अनेक राजनीतिक कारणों से वह अरबी-फ़ारसी मिश्रित शब्दों वाली अलग शैली और फिर अलग भाषा बन गई. खड़ी बोली के अतिरिक्त ब्रजभाषा, भोजपुरी, राजस्थानी, हरियाणवी आदि हिंदी की अनेक उपभाषाएँ मानी जाती हैं, जो धीरे धीरे शायद स्वतंत्र आधुनिक भाषाएँ बन जाएँ.
दुनिया भर में लोग विदेशी शब्दों का उच्चारण अपनी जीभ के अनुसार करते हैं, और कई बार उन के लिए अलग नाम भी देते हैं. कुछ विदेशी भाषाओं में लोग हिंदी को इन नामों से जानते हैं:
अफ़्रीकांस: हिंदी; अम्हारी: आंद्या; अरबी: हिंदीया; आइसलैंडी: हिंदी; आजेरी: हिंद; आयरलैंडी: ह्योनद्विसफ़्; आरमीनियाई: हिंदी; इंदोनेशियाई: हिंदी; उत्तरी सामी: खिंदी; ऐस्तोनियाई: हिंदी; ऐस्पेरांतो: हिंद; औकितान: इंदी; कातलान: हिंदी; कोरियाई: हिंदी'इयो; क्रोशियाई: इंदिज्स्की; क्षोसा: इसिहिंदी; ग्रीक (आधुनिक): चिंदी; चीनी: यिन दी यू; चैक: हिंदिस्की; जरमन: हिंदी'न; जापानी: हिंदीई-गो; जुलू: इसिहिंदी; ज्योर्जियाई: हिंदी; डच: हिंदी'न; डेनिश: हिंदी; तातारी: खिंदी; तुर्की: हिंत्सी/हिंदू; थाई: फाशा-हिंदू; नार्वेजियाई: हिंदी; पुर्तगाली: हिंदी; पोलैंडी: हिंदी; फ़ारसी: हेंदी; फिनिश: हिंदी; फ़्रांसीसी: हिंदी; बल्गेरियाई: खिंदी; बास्क: हिंदी; बेलोरूसियाई: चिंद्ज़ी; मलय: हिंदी; मालटाई: हिंदी; मोक्सा: हिंदी; मंगोलियाई: ऐंत्क्सग; यूक्रेनियाई: खिंदी; रूसी: खिंदी; रोमानियाई: हिंदुसा; लिथुआनियाई: हिंदी; लैटवियाई: हिंदी; लोहबान: क्षिंदो; वालून: हिंदी; वियतनामी: तिएंग हिन-दी; वैल्श: हिंदी; सोर्बियाई: हिंदिह्श्चिना; स्पेनी: हिंदी'म; स्लोवीन: हिंदिह्श्चिना; स्वाहिली: किहिंदी; स्वीडिश: हिंदी; हंगेरियाई: हिंदी; हिब्रू: हिंदिथ.
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पढ़ा ,गुनने में वक्त लगेगा ! लेख में प्रूफ़ की गलतियां प्रवाह को रोकती हैं ! यह स्पष्ट है कि अरविन्द कुमार जी भी एक खेमें की ही नुमाईंदगी कर रहे हैं -वे उदारतावादी हैं ! किसी भी कीमत पर ! उन्होंने रघुवंशीय कृति की जम कर खिल्ली उडाई है -सहमत हूँ ! मगर सकाराकात्मक उल्लेखों को न जाने किस सोच के तहत छोड़ गए -कामिल बुल्के की चर्चा तक नहीं की ! डॉ. हरदेव बाहरी के अवदानों की चर्चा तक नहीं है !
जवाब देंहटाएंनिश्चय ही अरविन्द कुमार जी के इस लेख को वे लोग ढाल के तौर पर इस्तेमाल करना चाहेंगें जो ब्लॉग जगत में जैसी तैसी हिंदी लिख कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेने में लगे हैं . ठीक है हिन्दी नित नूतन शब्दों को ग्रहण कर रही है मगर भाषा की एक न्यूनतम शुचिता तो होती है भाई -उसके साथ बलान्नयन भला कौन भाषा प्रेमी चाहेगा ? अरे मित्रों परिश्रम से क्यों भागते हो ? यदि नरसिम्हा राव या सुब्रम्हणयम साहब अच्छी हिन्दी लिख लेते हैं तो आप क्यों भाग रहे हो ? वैसे भी आप में से अधिकाँश लोगों की हिन्दी बहुत ही प्रांजल है -गुमराह न हों !
हिन्दी भाषा की प्रवृत्तियों पर अरविन्द कुमार जी का यह लेख संदर्भणीय बन भी भी पाया है या नहीं यह तो विद्वतजन ही तय करेगें -एक पाठकीय भाईचारे का अनुरोध है कि इससे कोई प्रेरणा न ले बैठें ! रतलामी जी ने कुछ ज्यादा ही तारीफ के पुल बांध दिए हैं !
हिंदी को किसी बाहरी विद्वान ने नहीं अपितु अपने लोंगों ने नंगा किया है वर्ना इस भाषा के उन्नयन के लिए जिस देश में अनगिनत संघर्ष हुए हों वहां आजकल हिन्दी लेखन हिन्गलिस की ओर उन्मुख है .यह हमारे उत्तरोत्तर ज्ञान एवं अध्ययन की की कमी की ओर ही इशारा करता है .विचारणीय है कि हम आज हिन्दी शब्दकोष से कितनी दूर जा चुकें हैं .
जवाब देंहटाएंविद्वान लेखक ने हिन्दी के विद्वानों द्वारा शब्द गढ़ने को इस प्रकार प्रस्तुत किया है मानो वे कोई पाप कर रहे हों। लेख से ऐसा भी आभास मिलता है कि हिन्दी में विज्ञान का पठन-पाठन केवल इस कारण से नहीं हो रहा है क्योंकि हिन्दी की वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली असहज, बनावटी और क्लिष्ट है। मेरे विचार से यह बार-बार कहा जाने वाला सफेद-झूठ है। सत्य यह है कि वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा रचित शब्दावली पूरे जोर-शोर से बिना किसी परेशानी के प्रयोग हो रही थी कि इसी बीच अंग्रेजी को अनन्त काल तक जारी रखने का फरमान पारित हो गया - और सारा खेल जानबूझकर बिगाड़ दिया गया। अत: हिन्दी की दुर्दशा के पीछे किसी हिन्दी वाले का हाथ कहना बेमानी है। हिन्दी की दुर्दशा के पीछे काले अंग्रेज हैं ; नेहरू थे; अन्नादुरै थे और सम्भवत: ब्रिटिश और अमेरिकन गुप्तचर संस्थाएँ थीं।
जवाब देंहटाएंमजाक में 'लौह पथ गामिनी' जैसे शब्द उद्धृत किये जाते हैं। किन्तु सत्य यह है कि यह तथाकथित 'कठिन' शब्द शायद सबसे अधिक प्रचलित शब्दों में से हो सकता है।
कुछ और कहने की इच्छा को नहीं रोक पा रहा हूँ।
जवाब देंहटाएं१) "सच यह है कि भाषा विद्वान नहीं बनाते, भाषा बनाते हैं भाषा का उपयोग करने वाले ।"
कोई विकाशशील देश बताइये जहाँ वैज्ञानिक शब्दावली गढ़ने के लिये कोई संस्था न हो बल्कि यह काम 'आम आदमी' की 'रचनाशीलता' के भरोसे छोड़ दिया गया हो। चीन, कोरिया, रूस, पोलैण्ड, इज्राइल, इन्डोनेशिया, मलेशिया, बियतनाम, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि के लोग ऐसा क्यों नहीं सोचते/करते?
२) हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग को लेकर आप बहुत आनन्द अनुभव कर रहे हैं। इसको आप यह कहकर निपटा दे रहे हैं कि "अंग्रेजी भी हिन्दी के शब्द लेती है।"
क्या आपके इस तर्क में दम है? अंग्रेजी ने हिन्दी से जितने शब्द लिये हैं और हिन्दी ने अंग्रेजी से जितने शब्द लिये हैं उनकी कोई तुलना हो सकती है?
यह वैसे ही है जैसे एक कुम्हड़े और एक मटर को मिलाकर शब्जी बनायी जाय और इसे 'आधा मटर, आधा कद्दू' की शब्जी कहा जाय।
३) विदेशी भाषा के शब्दों को लेने के उपर मेरे दो प्रश्न हैं-
(क) अंग्रेजी ने विदेशी शब्द तब अपनाये थे जब उन पर जर्मनों या फ्रांसीसी लोगों का अधिकार था। क्या किसी बड़े आकार के स्वतंत्र देश द्वारा इतनी भारी मात्रा में विदेशी शब्दों को अपनाने का उदाहरण है?
(ख) ब्रिटिश लोग अपनी अलग स्पेलिंग, अलग ग्रामर लेकर क्यों चिपके हुए हैं जबकि अमेरिका में इस बारे में थोड़ा-बहुत खुलापन है। बड़े-बड़े विद्वानो द्वारा अंग्रेजी वर्णमाला में सुधार, अंग्रेजी वर्तनी का सरलीकरण एवं 'सिम्पल इंग्लिश' आदि का अनुमोदन ब्रिटेन ने कहाँ स्वीकार किया है?
(ग) यदि भाषा आम जनता द्वारा विकसित की जाती है तो 'ब्रिटिश काउन्सिल' की क्या जरूरत है? इतने दिनों से यह क्या कर रही है? परतन्त्र भारत में मैकाले को अंग्रेजी अनिवार्य क्यों करनी पड़ी? अंग्रेजी अखबारों को विशेष सुविधा देने की क्या जरूरत थी?
(घ) प्रौद्योगिकी के विकास में भी बहुत से अशिक्षित/अल्पशिक्षित/स्वयंशिक्षित लोगों का योगदान रहा है। इन लोगों ने ऐसे-ऐसे काम किये हैं जो बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के 'स्कालर' नहीं कर पाये। तब इन 'रॉयल सोसायटियों', विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेजों, बिजिनेस स्कूलों, प्रबन्धन संस्थानों और 'रिसर्च ऐण्ड डेवलपमेन्ट सेब्टरों' की क्या जरूरत है?