यश का शिकंजा -यशवन्त कोठारी (पिछले अंक से जारी…) लोकसभा के उपचुनाव निकट से निकटतर आ रहे थे। सत्ताधारी पक्ष में निरन्तर ब...
यश का शिकंजा
-यशवन्त कोठारी
लोकसभा के उपचुनाव निकट से निकटतर आ रहे थे। सत्ताधारी पक्ष में निरन्तर बढ़ती फूट, गुटों की राजनीति और सबसे उपर राव साहब की कम होती शक्ति । रानाडे लम्बे समय से ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे। अभी नहीं ंतो फिर कभी नहीं ! वे इस अवसर का भरपूर फायदा उठाना चाहते थे।
अपने विश्वस्त सहयोगियों- रामेश्वर दयाल, सेठ रामलाल और कुछ अन्य नेताओं को लेकर वे विश्राम हेतु राजधानी के पास के पर्यटक-स्थल में भूमिगत हो गए। विचार-विमर्श चलने लगा।
‘‘ शायद अब यह सरकार ज्यादा समय नहीं चलेगी। '' -रामेश्वर दयाल बोल पड़े।
‘‘ सवाल सरकार के चलने या रूकने का नहीं है , सवाल हम सबको सामूहिक हित का है। ''
‘‘ सेठजी, सुनाइए आपका काम कैसा चल रहा है ? ''
‘‘ आपकी कृपा है, साहब ! जब से पिछला लाइसेन्स मिला है, मैं बहुत व्यस्त हो गया हूं। पड़ोसी राज्य में एक बड़ा उद्योग अमरीकी तकनीकी सहायता से लगाने वाला हूं। अभी कल ही अमेरिकी डेलीगेशन को साइट दिखाई थी। ''
‘‘ तो अड़चन क्या है ? ''
‘‘ हुजूर, स्थानीय सरकार जमीन का मुआवजा बहुत ज्यादा मांग रही है। कुछ असामाजिक तत्वों ने स्थानीय निवासियों को उल्टा-सीधा सिखा दिया है। वे लोग आन्दोलन पर उतारू हैं। ''
‘‘ हूं......। '' रानाडे ने खामोशी साध ली। कुछ समय बाद बोले-
‘‘ तुमने पहले क्यों नहीं बताया ? सेक्रेटरी, जरा मुख्यमंत्री को फोन करके पूछो।''
‘‘ हां सर, सी.एम.ने कहा है- वे आज रात को राजधानी ही आ रहे हैं, वहीं बात हो जाएगी। ''
सेठजी, आप पार्टी-फण्ड में दस लाख रूपये दीजिए ; इसके एवज में सरकार आपकी कम्पनी के चालीस प्रतिशत श्ोयर तथा उत्पादित माल का पचास प्रतिशत भाग खरीदेगी। इस आशय का समझौता उद्योग मंत्री से मिलकर कर लें। ''
‘‘ जी, ठीक है ......''
‘‘ और सुनो ''- रानाडे ने कहा, ‘‘ राजधानी में जाकर यह समाचार प्रसारित कराओ कि कुछ विशेष कारणों से रानाडे यहां आ गए हैं, और शीघ्र ही नया गुल खिलने वाला है। ''
‘‘ अभी मैं आयंगार को फोन करके यह काम करा देता हूं। ''
इधर राजधानी में रानाडे के समर्थकों और राव साहब के बीच तेज-तर्रार वार्ताएं हुई। राव साहब परेशान हो गए- क्या करें, कुछ समझ में नहीं आता।
मदनजी और कुछ अन्य वरिष्ठ विश्वासपात्र मन्त्रियों के साथ वे अपने कार्यालय में बैठे हैं।
‘‘ क्या करें ? रानाडे रूठकर कोप-भवन में बैठे हैं। ''
‘‘ इधर संसद का सत्र शीघ्र होने वाला है। ''
‘‘ उपचुनाव भी नजदीक हैं। ''
‘‘ ऐसे नाजुक मौके पर रानाडे का यह व्यवहार ठीक नहीं है ; लेकिन क्या करें।''
‘‘ दल की ओर से अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाए '' - मदन जी के इस सुझाव पर कोई सहमत नहीं हुआ। अनुशासनात्मक कार्यवाही का मतलब दल का विघटन। दल का विघटन याने सत्ताच्युत होना ! गांधी, नेहरू के अनुयायी सत्ता कैसे छोड़ सकते थे।
अतः यह तय हुआ कि मदनजी और एक वरिष्ठ मंत्री पर्यटक विश्राम-स्थल तक जाएं और रानाडे से बात करें ।
मदनजी को आते देखकर रानाडे समझ गये, जरूर कोई विश्ेप समाचार या संधि-संदेश लेकर आये हैं। रानाडे को मदनजी ने समझाना शुरू किया-
‘‘ दल का विघटन रोका जाना चाहिए। गांधी की समाधि पर ली गयी शपथ को याद करो, कदमकुआं के संत को याद करो ; यह समय ऐसा नहीं है। उपचुनाव, संसद -सत्र सर पर है। .....''
‘‘ लेकिन हम भी कब तक झुके रहेंगे। राव साहब तो अड़ गये हैं- ये नहीं होगा, वो नहीं होगा। तुम चले जाओ। रानाडे यह सब सुनने का आदी नहीं है। ''
‘‘ ठीक है, भाई ''- मदनजी फिर भी शान्त रहे, ‘‘ हमें मिल-बैठकर कुछ तो हल निकालना ही होगा। पहले सुराणा और मनसुखानी अड़ गये, अब तुम। सरकार है या कोई पुराना टक, जो जब चाहे , जहां चाहे रूक जाए ! ''
‘‘ आखिर इस सबमें आप हमसे क्या चाहते हैं ? ''
अब मदनजी सीधी सौदेबाजी पर आ गये। राव साहब ने उन्हें इस कार्य हेतु अधिकृत भी किया था।
‘‘ चलिये, आप उप-प्रधानमंत्री हो जाइये ! ''
‘‘ क्या यह प्रस्ताव राव साहब का है ? ''
‘‘ आप ऐसा ही समझिये। राव साहब को मनाने की जिम्मेदारी मेरी ! ''
‘‘ और वह होटल-काण्ड ? ''
‘‘ चलिये, उस पर भी धूल डालते हैं। ''
‘‘ और कुछ ? ''
टेलिफोन पर यह समाचार राव साहब को दिया गया। रानाडे राजधानी वापस आये।
राष्ट्रपति भवन से रानाडे को उप-प्रधानमंत्री बनाये जाने की विज्ञप्ति जारी की गयी। अन्तर्मन में राव साहब इस सौदेबाजी से सुखी नहीं थे। सत्ता के ताबूत में सिर्फ कुछ कीलें और ठुक गयीं।
रानाडे - समर्थक नये जोश-खरोश के साथ अपने पांव मजबूत करने लगे। हरनाथ, सेठरामलाल, शशि, एस.सिंह - सभी खुश थे।
उस दिन रानाडे की कोठी पर खुशियां मनायी गयीं। और राजधानी के गंवार देखते रह गये ।
6
अभी सुबह हुई है। सूरज ने धूप के कुछ टुकड़े राव साहब की खिड़की से अन्दर फेंके। राव साहब को बुरा लगा- यह हिम्मत किसने की है। जब आंखें पूरी खुलीं, खुमारी कम हुई तो धूप को देखकर चुप्पी साध गये। समझ गये, इस धूप का वे कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
प्रातः कालीन अखबार, जरूरी रिपोर्टें उनके पास पहुंचायी गयीं। चाय की चुस्कियों के साथ उन्होंने पारायण शुरू किया। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था, ये सब क्या हो रहा है ? उन्हें रानाडे को उपप्रधानमंत्री बनाना पड़ा। सुराणा और मनसुखानी को वरिष्ठ विभाग देने पड़े। ऐसा क्यों और कब तक ? .....
आखिर क्यों ? क्या वे इतने शक्तिहीन हो गये ? राज्यों में सरकारें गिराई जा रही हैं। दल में किसी भी समय विभाजन हो सकता है। तमाम प्रयासों के बावजूद वे शायद दलीय विघटन को नहीं रोक सकेंगे। .........
प्रदेशों में अकाल और भूख से लोगों के मरने के समाचार हैं। खुद उन्के ही क्षेत्र में लगभग 100 लोग भूख से मर गये। एक विदेशी समाचार-एजेन्सी के अनुसार, आदिवासियों में और ज्यादा लोगों के मरने के समाचार हैं।
विदेशों से लगातार दबाव आ रहा है, विदेशों से आयातित सामान निरन्तर कम आ रहा है। पेट्रोलियम और कच्चा तेल निर्यातक देशों की सरकारों के दबाव के कारण केन्द्रीय सरकार और राव साहब परेशान हैं।
इधर विद्यार्थियों ने देशव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया-‘‘ डिग्री नहीं, रोजगार चाहिए। ''
‘‘ नारे नहीं, रोटी चाहिए। ''
कुछ विरोधी दलों के नेता भी इन छात्रों के साथ थे। रामास्वामी ने तो खुलकर इन छात्रों का साथ देना शुरू कर दिया। विश्वविद्यालयों में घिनौनी राजनीति के कारण कुलपतियों ने इस्तीफा दे दिया। कुछ विश्वविद्यालयों को पूरे सत्र के लिए बन्द करना पड़ा।
छात्रों और युवा वर्ग के लोगों की बन आयी। पुलिस-आन्दोलन के कारण पुलिस से सरकार और जनता दोनों का भरोसा उठ गया।
अब हर काम में लोग छात्रों की मदद लेते। राशन नहीं मिला-छात्रों ने जिलाधीश को घेर लिया। ऐसी घटनाएं आम हो गयीं। राह चलते डाके, नकबजनी, बलात्कार आदि की घटनाएं होने लगीं। भ्रष्टाचार तेजी से पनपने लगा। इससे क्रुद्ध होकर छात्रों और युवा संगठनों ने भ्रष्ट व्यक्तियों का सिर मुण्डा कर नागरिक अभिनन्दन करना श्ाुरू किया। ऐसा लगता ही नहीं कि कानून और व्यवस्था नाम की कोई चीज है।
समाज में तरह-तरह के प्रतिष्ठित और नैतिक दृष्टि से उच्च वर्ग के लोगों ने अपने संगठन बनाने शुरू कर दिये।
अगर कहीं छात्रों और युवा वर्ग पर लाठी चार्ज, अश्रुगैस ये गाली-प्रहार होता तो सामूहिक निन्दा होने लगी। सरकार की भर्त्सना की जाने लगी।
राव साहब सोच-सोचकर परेशान होने लगे। पसीने को पोंछा, कूलर आन किया और पसर गये।
अजीब स्थिति हो गयी थी। एक भ्रष्टाचारी को राज्यस्तरीय पुरस्कार और एक हत्यारे को अलंकरण दे दिया गया। इस बात को लेकर बड़ा बखेड़ा मचाया गया। बुद्धिजीवियों , लेखकों, कलाकारों ने निराश होकर सरकार का साथ छोड़ने की ठानी। मगर इस सरकार से वे भी कुछ करा सकने में असमर्थ रहे।
सरकारी तौर पर रोज घोषणा होती-‘स्थिति सामान्य है'-‘सब कुछ ठीक है'- ‘महगाई पर काबू पा लिया जायगा '-‘ गरीबी दस वर्ष में और बेरोजगारी बीस वर्ष में मिटा दी जाएगी। ' लेकिन आश्वासनों की सरकार लड़खड़ाने लगी। पैबन्द लगे कपड़े की तरह अब सरकार दिखाई देने लगी थी।
राव साहब ने चारों तरफ देखा- कहीं से कोई प्रकाश की किरण नहीं आ रही है। वे भी क्या करें ! सत्ता है तो उसे भोगें।
अपने साथियों के साथ विचार-विमर्श करने पर भी वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाते। एक विश्वविद्यालय ने एक सजायाफ्ता व्यक्ति को डी. लिट्. दे दी - सुन-सुनकर राव साहब की परेशानियां और ज्यादा बढ़ती। सभी राजरोग उन्हें वैसे भी परेशान रखते ।
कई बार सोचते-अब सब छोड़ दें ; लेकिन इतना आसान है क्या छोड़ना !
ये सत्ता, ये मद, ये आनन्द फिर कहां ! खाओ और खाने दो ' की राजनीति में भी वे पिछड़ रहे थे।
रोज कोई-न-कोई नया सिरदर्द उनकी जान को लगा रहता। कल ही विरोधी दल के नेता रामास्वामी के नेतृत्व में छात्रों ने प्रदर्शन किया। उन्होंने राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया-
‘‘संसद सदस्य क्या कर रहे हैं ? ''
‘‘ हमें सफेद हाथी नहीं, सेवक चाहिए। ''
अपने क्षेत्र में राव साहब काफी समय से नहीं जा पाये थे, इसलिए विरोधियों ने पोस्टर बंटवाये थे। एक पोस्टर पर लिखा था-
‘‘ इस क्षेत्र के एम.पी. पिछले 4 वर्षों से लापता हैं। रंग गेहुंआ, उम्र 75 वर्ष , सफेद कपड़े और टोपी लगाते हैं, लम्बाई 5 फीट 8 इंच, मधुमेह और रक्तचाप के रोगी हैं। लानेवाले या पता बताने वाले को उचित इनाम दिया जाएगा।
- जनता ''
इस पोस्टर को पढ़कर राव साहब के आग लग गयी ; लेकिन क्या कर सकते थे ! खून का घूंट पीकर रह गये।
‘‘ एक वोट क्या दे दिया, मुझे अपने बाप का नौकर समझते हैं, स्साले ! ''
‘‘ और भी तो कई काम हैं। ''
‘‘ यहां विदेशी डेलीगेशनों से मिलूं या पार्टी-संगठन सम्भालूं, या क्षेत्र में मर रही जनता से मिलूं। एक बार हेलीकाप्टर से देख आया। और क्या कर सकता हूं ! मरने वालों के साथ तो मरा नहीं जा सकता ! ओर फिर अमर कौन है ? आज नहीं तो कल, सभी मरेंगे ! मेरे राज्य में नहीं तो किसी ओर के राज्य में मरेंगे। फिर दुखी होकर भी क्या होगा ? लेकिन नहीं, फेटे-साफेवाले मोटी बुद्धि के छोटे लोगों की समझ में ये सब बातें कहां आती हैं ! झट से पोस्टर छापा और चिपका दिया ! अरे उस क्षेत्र में बांध,नहर,बिजली,सड़क किसने लगवाई ? सब भूल गये ! ''
‘‘ हूं..........''
उनका आत्मालाप भंग हुआ, सचिव ने आकर कहा-
‘‘ सर, इरानी डेलीगेशन के आने का समय हो गया है......''
‘‘ अच्छा, उन्हें बाहर बिठाओ, मैं अभी आता हूं । ''
इरानी डेलीगेशन से बात कर उन्होंने कुछ विदेशी संवाददाताओं को इन्टरव्यू दिया।
इस कार्य से निपटकर राव साहब ने कुछ प्रमुख विरोधी नेताओं, कुछ विरोधी मंत्रियों की सूची बनाई और इन्टेलीजेन्स विभाग को इन लोगों की फाइलें तैयार करने को कहा।
‘‘ हर गुप्तचर के पीछे एक और गुप्तचर लगा दो, ताकि रपट साफ और सच्ची आए। ''
राव साहब अब कुछ संतोष से आराम करने लगे।
7
स्वामी असुरानन्द के आश्रम को राजधानी में लाने और जमाने में रानाडे का विशेष योगदान रहा है। एक प्रान्तीय कस्बे में रानाडे साधारण कार्यकर्ता थे, और असुरानन्द ने नयी-नयी अपनी दुकान लगाई थी। लेकिन अजीब विलक्षण व्यक्तित्व था स्वामी असुरानन्द का, लम्बा-छरहरा व्यक्तित्व, विशाल भुजाएं, उन्नत ललाट और भारी शोिण्ात नयन। उपर से लम्बी केशराशि और दाढ़ी। दूर से ही किसी सिद्ध पुरूष का भ्रम हो जाता। और इस भ्रम को उनकी वाक्पटुता बनाए रखती। रानाडे को उन्होंने अपनी तिकड़म से विधानसभा का टिकट दिला दिया, विपक्ष में जान-बूझकर एक कमजोर उम्मीदवार खड़ा किया गया। रानाडे का विस्तार मुख्यमंत्री और राज्यपाल तक कर लिया। यदा-कदा वे लोग उनके आश्रम में पधारते और आश्रम तथा वहां की बालाओं को कृतार्थ करते। अपने बढ़ते प्रभाव के कारण ही स्वामी असुरानन्द ने रानाडे को तीन वर्षों में ही उपमंत्री बनवा दिया। समय का चक्र चलता रहा। असुरानन्द और रानाडे की मित्रता बढ़ती गयी। रानाडे ने अपने विभाग की ओर से आश्रम हेतु योग की कक्षाएं खुलवाई। योग सीखने हेतु प्रत्येक जिले में योग-केन्द्र स्थापित कराये ।इन केन्द्रों का प्रान्तीय संचालक स्वामी असुरानन्द को बनाया गया।
धीरे-धीरे रानाडे ने असुरानन्द की और असुरानन्द ने रानाडे की महत्ता को स्वीकार कर लिया, और एक उपचुनाव की गाड़ी में बैठाकर रानाडे को असुरानन्द राजधानी पहुंचा आए।
लगे हाथ वे भी राजधानी आ गए। देर सवेर यहीं आना था।
अब असुरानन्द ने अपने पूरे पंख पसारे और घेरे में प्रधानमंत्री, विदेशी राजदूतों और अन्य संस्थाओं को लिया।
राजधानी में विदेश से जो भी ‘आता, उसे भारतीय दर्शन, योग और सम्बन्धित क्रियाओं हेतु असुरानन्द का आश्रम दिखाया जाता।
आश्रम की छटा ही निराली होती। सर्वत्र हरी दूब, प्रकृति की शुद्ध हवा, वातानुकूलित कमरे और योग्य आंग्ल भाषा प्रवीणाएं, जो देशी-विदेशी साहबों को मोह लेतीं। असुरानन्द ने आश्रम के लिए एक बड़ी बिल्डिंग खड़ी कर ली ; सरकारी, गैर-सरकारी और विदेशी पैसा ले लिया और अच्छी तरह से जम गए।
अपने प्रभाव से स्वामी असुरानन्द ने शीघ्र ही रानाडे को मंत्री बनवा दिया। रानाडे ने संसद में अक्सर आश्रम पर होनेवाली बहसों और चर्चाओं के अवसर पर स्वामीजी को बचाया है।
रात्रि के आठ बजे हैं। रानाडे ने अपनी कार का मुंह स्वामीजी के आश्रम की ओर किया।
उनकी कार को आता देख द्वारपाल अदब से हटा। एक बाला ने तेजी से आगे बढ़कर कार का दरवाजा खोला और रानाडे को बाहर निकलने में मदद दी। एक अन्य बाला ने अन्दर जाकर स्वामीजी को ध्यानावस्था में ही सुचित किया। स्वामीजी ने ध्यान भंग कर उन्हें भीतर ही लाने को कहा। रानाडे कई गलियारे, छोटे-बड़े कमरे पार करके एक बड़े हाल में दाखिल हुए। वहां से एक छोटे, वातानुकूलित, साउंडप्रूफ कमरे में गए। स्वामीजी ने स्वागत किया-
‘‘ बधाई ! स्वागत !! अब तो आप उपप्रधानमंत्री हो। ''
रानाडे ने चरण स्पर्श कर कृतज्ञता ज्ञापित की-
‘‘ सब आपका आशीर्वाद है, प्रभू ! .... आपकी सलाह से ही सब कुछ सम्पन्न हुआ है। ''
‘‘ वो तो ठीक है, लेकिन अब आगे क्या प्रोग्राम है ? ''
‘‘आप सुझाइये ! हम तो अनुयायी हैं। ''
‘‘ अब तुम शक्ति और संगठन का पुनर्गठन करो ताकि यथा समय तुम अंतिम सीढ़ी चढ़ सको। '' स्वामी बोले, ‘‘याद रखो रानाडे, सत्ता केवल ताकत से आती है। गीता में भगवान कृष्ण ने , रामायण में राम ने, सभी ने सत्ता को बाहुबल से ही माना है। ''
‘‘ जी हां......''
‘‘ अच्छा बोलो, क्या लोगे ? आज बहुत दिनों बाद तुम आए हो, तुम्हारा स्वागत तो होना ही चाहिए ? ''
‘‘ कुछ भी चलेगा- विदेशी शराब और सुन्दरी। '' रानाडे बोले।
‘‘ वो तो खैर है ही ! हम तुम्हारी आदतें जानते हैं। '' और स्वामी तथा रानाडे ने सम्मिलित ठहाका लगाया।
‘‘ इस बार विदेश से शानदार ब्लू फिल्म आई है ; कहो तो दिखाएं। ''
‘‘ नेकी और पूछ-पूछ ? अवश्य ? स्वामीजी ने एक बटन दबाया और पर्दे पर फिल्म चलने लगी। आठ मिलीमीटर की फिल्म के दृश्यों को देखकर रानाडे की तबियत खुश हो गयी। फिल्म की समाप्ति पर रानाडे बोले-
‘‘हां, विपक्ष के नेता रामास्वामी यहां आए थे ? ''
‘‘ पिछले शनिवार रात यहीं रूके, ओर जैसा तुमने कहा था, उनके फोटो फिल्म वगैरा बनवा लिये हैं। कहो तो दिखाएं ! ''
‘‘ नहीं, फिर कभी देख लेंगे। ''
‘‘ हां भाई, वह अनुदान की रकम अभी तक नहीं मिली । ''
‘‘ कितनी थी ? ''
‘‘ पचास लाख। ''
‘‘ ठीक है, मैं कल ही सम्बन्धित विभाग को आदेश दे दूंगा। वैसे भी वित्त-वर्ष समाप्ति पर है। ''
‘‘ अच्छा तो फिर तय रहा ! '' स्वामीजी मुस्कराये, ‘‘ तुम कमरा नं.12 में आराम करो। वहां सब व्यवस्था हो जाएगी। ''
रानाडे चल पड़े।
जब से रामास्वामी को अनुचरों ने यह बताया कि स्वामी असुरानन्द ने उनके भी फोटो प्राप्त कर लिये हैं, तब से वे कसमसा रहे थे ; लेकिन करें क्या ? एक दो बार स्वामी से फोन पर बात करने की कोशिश की तो स्वामी असुरानन्द मिले नहीं ।
रामास्वामी किसी मौके की तलाश में थे, ताकि आश्रम और असुरानन्द के खिलाफ बवंडर फैलाया जा सके।
अचानक आज उसे एक आइडिया सूझा। उसने कु. बाला को इस कायर हेतु तैयार कर लिया, और एक प्रेस-कान्फरेंस में स्वामी असुरानन्द द्वारा बाला से किये गए कथित बलात्कार की एक काल्पनिक कहानी गढ़कर सुना दी।
दूसरे दिन रानाडे के विपक्षी अखबारों ने नमक-मिर्च लगाकर बाला और स्वामी तथा आश्रम के विवरण फोटो सहित छापे। कुछ अखबारों ने राजधानी में व्याप्त सेक्स के व्यापार पर सम्पादकीय भी लिख दिए। वास्तव में बाला कुछ समय तक आश्रम में काम भी कर चुकी थी। अतः घटना को सत्य बनते ज्यादा देर नहीं लगी।
रानाडे इस आक्षेप से बौखला गये। लेकिन स्वामी असुरानन्द वैसे ही शान्त रहे, उन्हें कोई दुःख या ग्लानि नहीं हुई। शान्त मन से उन्होंने अपने ध्यान-कक्ष में ध्यान का आयोजन किया।
लम्बे समय तक वे समाधिस्थ रहे। आश्रम का कार्य उन्होंने यथावत् चालू रखा। पुलिस और प्रेस को उन्होंने सभी प्रकार का सहयोग दिया ; लेकिन पुलिस कोई सुराग नहीं पा सकी, लौट गयी। आश्रम में जो कुछ भी अनुचित था, सभी रात को ही हटा दिया गया था। इस कारण स्वामी निश्चित थे।
शाम हुई, रात हुई। आश्रम में आज उदासी अवश्य थी, लेकिन कार्य सब चल रहे थे।
वीरानी के इस माहौल में स्वामी असुरानन्द ने अपने कुछ अनुचरों को गोपनीय आदेश दिए। दूसरे दिन अखबारों में सुर्खियां थीं-
‘रामास्वामी की कोठी के बाहर बाला की रहस्यपूर्ण मृत्यु। '
‘ मृत्यु से पूर्व बाला ने असुरानन्द को निर्दोष साबित कर दिया था। '
रामास्वामी इस घटना से बेहोश-से हो गए। आश्रम और स्वामी असुरानन्द पूर्ववत् जमे रहे।
8
राजधानी में राजनीतिक गतिविधियां तेजी से चल रही थीं। अपने-अपने खेमों में, अपने-अपने गुटों में सभी अपने-अपने ढंग से शतरंज की चालें खेल रहे थे। आज शतरंज के प्यादे भी अपनी शान दिखा रहे थे। जब से रानाडे उप-प्रधानमंत्री बन गये, उनकी ही सत्ताधारी पार्टी का एक गुट,जो उनके खिलाफ था, बहुत ज्यादा परेशान था। इधर इस गुट के नेताओं ने मिलकर सुराणा और मनसुखानी को अपनी ओर कर लिया था। अब सत्ताधारी पक्ष में अलग से सभी गुटों की पहचान बन गयी थी।
रानाडे तथा उनका गुट सबसे शक्तिशाली था, बहुत से महत्वपूर्ण विभाग इस गुट के पास थे। दूसरा शक्तिशाली गुट सुराणा व उन असंतुष्टों का था, जो सत्ता में तो थे, लेकिन महत्वाकांक्षी बहुत अधिक थे। राव साहब उपरी तौर पर पार्टी में एकता दिखा रहे थे। संवाददाताओं, अखबारों, विदेशी संवाद-एजेन्सियों को अक्सर यही कहते कि पार्टी में कोई मतभेद नहीं है, सब कुछ सामान्य और ठीक चल रहा है लेकिन पार्टी की आंतरिक स्थिति विस्फोटक थी। लोकसभा उप-चुनावों के निकट आ जाने के बाद भी पार्टी की ओर से कोई सामूहिक प्रयास नहीं किये जा रहे थे। जिन्हें टिकट मिला था, वे पार्टी-फंड से अधिक-से-अधिक रूपया प्राप्त करने के चक्कर में थे।
प्राप्त रूपयों से ही चुनाव लड़ा जाना था, अतः रानाडे और उसके साथियों का महत्व और भी ज्यादा बढ़ गया। जो रैली उन लोगों ने पिछले दिनों आयोजित की थी, उसकी सफलता से उनके हौसले और भी ज्यादा बुलन्द हो गये थे। इस रैली में आस-पास के राज्यों से लगभग दस लाख व्यक्तियों ने भाग लिया। गैर-सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग एक करोड़ रूपयों का व्यय किया गया। इस अपव्यय के कारण राव साहब दुखी थे, लेकिन क्या करते ! अब उनकी पकड़ पार्टी और सरकार दोनों से ही छूटती जा रही थी। ऐसे अवसर पर राव साहब ने केबिनेट की मीटिंग का आयोजन अपने निवास स्थल पर किया।
अपने प्रारम्भिक भाषण में राव साहब ने रानाडे को उप-प्रधानमंत्री बनाये जाने की पुष्टि करते हुए उनको कार्यो की प्रशंसा की, लेकिन बीच में सुराणा व मनसुखानी ने दखल दिया-
‘‘ क्या इस नियुक्ति के पीछे किसी विदेशी शक्ति का हाथ है ? ''
‘‘ तो फिर एक उप-प्रधानमंत्री हमारे गुट का भी हो, ताकि संतुलन बराबर रहे।
‘‘ ऐसा कैसे हो सकता है ! ''
‘‘क्यों नहीं हो सकता ? '' जब एक उप-प्रधानमंत्री हो सकता है तो दो भी हो सकते हैं। पार्टी को विघटन से बचाने के लिए यह आवश्यक भी है। '' मनसुखानी ने सुराणा की बात पर बल दिया।
राव साहब के बोलने से पहले ही रानाडे कहने लगे-
‘‘ देखिये, इस तरह सरकारें नहीं चलती। क्या आप चाहते हैं कि सभी को बारी-बारी से प्रधानमंत्री या उप- प्रधानमंत्री बना दिया जाए। यह सम्भव नहीं है। ''
‘‘ क्यों सम्भव नहीं है ? आप विश्रामस्थल में भूमिगत हो गए, जब वापस आये तो उप-प्रधानमंत्री थे। ''
‘‘ अगर ऐसा नहीं हुआ,'' मनसुखानी ने कहा, ‘‘ तो हमारे गुट के सभी सदस्य त्यागपत्र दे देंगे। '' इस बात से सभी चुप्पी साध गये।
राव साहब ने वापस बात छेड़ी।
‘‘ बात-बात पर इस्तीफे और सत्ता से अलग हो जाने की बातें मैं पिछले काफी समय से सुन रहा हूं ; लेकिन कोई अलग नहीं होता, हर कोई अपनी महत्वाकांक्षा की एक और सीढ़ी चढ़ जाना चाहता है। ताकि वे भी जब हटें तो शायद सत्ता के सर्वोच्च श्खिर से हटें । ''
राव साहब के कथ्य में सत्य था, अतः सभी सिर झुकाकर सुनने लगे ; कोई भी बोलने की स्थिति में नहीं था।
‘‘ तो फिर क्या किया जाए ? '' राव साहब शायद फैसला करना चाहते थे।
‘‘ अगर मेरे हटने से बात बन सकती हो, तो मैं हट जाउं। ''
‘‘ नहीं-नहीं, आपके हटते ही तो पार्टी डूब जाएगी ! '' रानाडे ने जोर से कहा।
रानाडे की बात को कैसे इनकार करते राव साहब , अतः जमे रहे।
‘‘ अगर रानाडे चाहें तो एक उप-प्रधानमंत्री का पद और बना दें.......''
‘‘ मुझे क्या एतराज हो सकता है ! '' रानाडे ने निराश भाव से कहा। सांयकाल राष्ट्रपति भवन से एक विज्ञप्ति जारी हुई, जिसमें सुराणा को भी उप-प्रधानमंत्री बनाने का समाचार था।
आज सुराणा के समर्थक खुश थे। उनकी कोठी पर अन्दर के कमरे में वार्तालाप जारी था-
‘‘ अपने से पहले ही गलती हो गयी ! '' सुराणा कह रहे थे, ‘‘ अगर उस वक्त प्रधानमंत्री के चुनाव में खड़ा हो सकता तो आज मैं ही प्रधानमंत्री होता ! ''
‘‘ हां, ये तो है ! '' मनसुखानी बोले।
‘‘ खैर, देर आयद दुरूस्त आयद ! '' सुराणा ने पांव सोफे पर पसारे और आंखें मूंद लीं।
‘‘ अब विधान सभा चुनावों में अपने गुट को जितवाना है, ताकि राज्यों में शक्ति का विकास होता रहे। ''
‘‘ हां, इसके लिए कुछ कदम उठाने चाहिए। '' मनसुखानी बोले।
‘‘ तो आप बताइए क्या करें ? ''
‘‘ करना क्या है, हमें चुनाव-फण्ड में से ज्यादा पैसा अपने उम्मीदवारों को दिलाना है। चन्दा भी उन्हें ज्यादा मिलना चाहिए, ताकि वे अधिक विश्वास के साथ चुनाव लड़ सकें और जीतकर आ सकें। ''
‘‘लेकिन चन्दे और चुनाव-फण्ड पर तो रानाडे का कब्जा है। '' हरिसिंह बोल पड़े।
‘‘ वो तो ठीक है ! लेकिन पार्टी में फण्ड कम ही है। जो अपने उद्योगपति और कम्पनियां हैं, उनसे कहकर सीधा पैसा ले लो। ''
‘‘ वो कैसे ? '' मनसुखानी बोले।
‘‘ अरे भाई, वैसे भी चुनाव के बाद कम-से-कम तीन राज्यों में अपने ग्रुप की सरकार होगी-यह बात उद्योगपतियों को अभी से समझा दो, और क्या ! ''
‘‘ हां, उनसे सीधा पैसा हमें मिल सकता है। ''
‘‘ लेकिन सभा उप-चुनाव भी आ रहे है। ''
‘‘ इसमें हमें कुछ नहीं करना है। जिन्हें टिकट मिला है, वे रानाडे या राव साहब के आदमी हैं, जीतें या हारें !'' सुराणा बोले।
‘‘ अगर हार जाते हैं तो रानाडे की बदनामी ज्यादा होगी, क्योंकि वे ही इस चुनाव के प्रभारी हैं। हमें चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है।''
(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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