लोकप्रिय राजनीति का यह लगभग सार्वभौमिक चरित्र है कि वह परिवर्तन की कामना को नारे के रूप में उछालती है. इसे हम उसकी विवशता माने अथवा धूर्तता,...
लोकप्रिय राजनीति का यह लगभग सार्वभौमिक चरित्र है कि वह परिवर्तन की कामना को नारे के रूप में उछालती है. इसे हम उसकी विवशता माने अथवा धूर्तता, वस्तुतः यही उसकी सीमा भी है. अतः वे सभी जो लोकप्रिय राजनीति के दरवाजे से सत्ता में आना चाहते हैं, आमजन की इच्छा-आकांक्षाओं को नया-नया रूप देकर उसे जनता के बीच उछालते रहते हैं. जनता का बहुलांश जो अपने लोकतंत्रीय अधिकारों की छांह तले परिवर्तन की उम्मीद थामे होता है, चाहे-अनचाहे वह उन नारों की ओर आकर्षित होता है. अपनी स्थिति में सुधार की कामना से वह उनके के आधार पर निर्णय भी लेता है. परंतु यह असंभव ही है कि समाज में सभी लोगों की इच्छा-आकांक्षाएं एक हों. विशेषकर भारत जैसे देशों के विकासशील समाजों में, जहां विभिन्न वर्गों की आय में बेहद असमानता है. ऊपर से सारा समाज भले ही एकसमान नजर आता हो, परंतु भिन्न संस्कृतियों और भौगोलिक परिस्थितियों के बीच जहां लोगों की जीवन-शैली में ढेर सारा अंतर तथा मत-वैभिन्न्य हो, यह फर्क समय-समय पर धर्म, जाति एवं क्षेत्रीयता के रूप में सामने भी आता रहता है, वहां लोगों की कामनाओं का बहुरंगी होना स्वाभाविक ही है. यह स्थिति सामाजिक अंतःसंघर्षों को जन्म देती है, जिन्हें राजनीति कहीं पाटती है तो कहीं निहित स्वार्थों के लिए उन्हें अल्पकालिक रूप में विस्तार भी देती है.
राजनीति में विचार चलते हैं. लेकिन वैचारिक प्रतिबद्धताओं को लोकप्रिय बनाने के लिए जिस त्याग एवं समर्पण की जरूरत पड़ती है, लंबे संघर्ष को साधना पड़ता है, उसकी उपलब्धता आसान नहीं होती. अपने सत्कर्मों से समाज को नैतिकता एवं सच्चरित्रता का पाठ पढ़ाने वाले नायक विरले ही होते हैं. प्रायः तो साधारण प्रतिभाओं से ही काम चलाना पड़ता है, उनमें भी अधिकांश ऐसे लोग होते हैं, जो स्वार्थसिद्धि के लिए ही राजनीति में आते हैं. उनमें इतना धैर्य भी नहीं होता कि अपनी आस्थाओं, दलगत नीतियों पर टिककर अपने राजनीतिक कार्यक्रम को आंदोलन का रूप दे सकें. फिर ये अभियान उन्हीं समाजों में सध पाते हैं, जहां प्रबुद्ध जनमानस हो. अशिक्षित समाजों में गंभीर विमर्श द्वारा जनता को लुभा पाना आसान नहीं होता. खासकर उन विकासशील समाजों में जहां पूंजीवादी ताकतें मीडिया, बाजार और उपभोक्ताकरण के अंतहीन साजो-सामान से लैस होकर समाज का दोहन करने पर जुटी हों, और उनका सीधा हमला मनुष्य के नैतिकतावादी सोच, उसके संयम पर हो, जो हमारे सामाजिकीकरण का मूलाधार हैं. ऐसे समाजों में लोकप्रिय राजनीति में अपनी जगह बनाने और वहां लंबे समय तक टिके रहने के लिए आवेशमय वैचारिक प्रतिबद्धताएं, यानी जब तक उनके लिए लंबे समय तक और धैर्यपूर्ण काम करने का संकल्प न हो, बहुत कारगर सिद्ध नहीं हो पातीं. ऐसी स्थिति में सत्ता-शिखर पर किसी भी बहाने सवार होने को लालायित लोग खुल्लमखुल्ला समाझौतावादी राजनीति करने लगते हैं, भारत के संदर्भ में देखें तो सरकार में बने रहने के लिए भाजपा की पिछली सरकार ने यही किया था. यही काम साम्यवादियों ने कांग्रेस का साथ देकर किया. हाल के विश्वासमत नाटक में कुछ ऐसा ही खेल मायावती को प्रधानमंत्री बनाने के नाम पर भाजपा समेत अन्य विपक्षी दल खेल रहे थे.
सत्ता पर काबिज होने और वहां लंबे समय तक टिके रहने के लिए अधिक से अधिक लोगों को अपनी ओर खींचे रखना आवश्यक होता है. जाति, धर्म एवं क्षेत्रीयता के आधार पर बंटे समाजों में तो यह कार्य अपेक्षाकृत कठिन भी होता है. लोकतंत्र में आमसहमति के अभाव में स्वार्थसिद्धि असंभव है, यही सोचकर लोकप्रिय राजनीति के चतुर खिलाड़ी समाज के विभिन्न, यहां तक कि परस्पर प्रतिद्वंद्वी वर्गों को भी अपने साथ जोड़ने के लिए समय-समय पर नारे उछालते रहते हैं. विभिन्न संस्कृतियों, जाति-धर्म वाले समाजों के आंतरिक संघर्ष भी प्रबल होते है. किसी विशिष्ट वर्ग को प्रसन्न या संतुष्ट करने के लिए नारे और उनके अनुरूप की गई शुरुआती कार्रवाहियां भी दूसरे वर्गों को अपने हितों पर हमला नजर आ सकती हैं. ऐसे हरेक नारे और उसके संभावित प्रभाव को लेकर समाज के परस्पर-स्पर्धी वर्गों के बीच स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है. जिसमें प्रभावित वर्ग आमने-सामने होते हैं. समाज के ये अंतःसंघर्ष स्वाभाविक रूप से मुखर न हों तो भी, लोकप्रिय राजनीति में अपनी जगह बनाए रखने के लिए स्पर्धी गुट इन्हें हवा देते रहते रहते हैं. दूसरे शब्दों में नारों की प्रतिक्रिया स्वरूप नारे उछालना भी लोकप्रिय राजनीति का प्रमुख लक्षण होता है. उससे आगे यानी टकराव की स्थिति को टाल पाना अथवा उन नारों के आधार पर अपने अभीष्ट को प्राप्त करना, उन वर्गों की नेतृत्वकारी शक्तियों की सूझबूझ तथा मुद्दों की गंभीरता पर निर्भर होता है. कई बार जनता दिन-प्रतिदिन उछाले जा रहे नारों की असलियत से परिचित होती है. वह जान जाती है कि ये नारे उसको फुसलाने का बहाना मात्रा हैं. तब वह अपने नेताओं से छिटकने लगती है. हालांकि उस स्थिति में भी समाज के कुछ वर्ग उन नारों और दलों से जुड़े रह सकते हैं. किंतु यह उन्हीं समाजों, स्थितियों में हो पाता है जब समाज अत्यधिक बंटा हुआ हो. और समाज के विभिन्न वर्गों के लिए परिवर्तनकारी राजनीति का मतलब अपने वर्गीय लाभ साधने से अधिक महत्त्वपूर्ण, प्रतिस्पर्धी वर्गों को लाभ न उठाने देने की कोशिश हो. स्पर्धा का यह नकारात्मक रूप उन्हें इस प्रकार के आत्मघाती निर्णय लेने के लिए उकसाता रहता है.
चूंकि लंबे संघर्ष अथवा बड़े टकराव की स्थितियां भी लोकप्रिय राजनीति को अपने अस्तित्व पर संकट नजर आती हैं, अतएव उन संभावनाओं को कम करने के लिए विरलीकरण की प्रक्रिया भी संघर्ष की संभावना के साथ ही आरंभ कर दी जाती है. कभी-कभी तो नारे का आगाज करने वाला नेता ही अपने अगले बयान द्वारा मुद्दों से पलायन का संकेत दे देता है. दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि यथास्थिति बनाए रखना लोकप्रिय राजनीति का पसंदीदा शगल होता है. इसलिए वहां कोई भी परिवर्तनकारी आंदोलन लंबे समय तक नहीं टिक पाता. जैसे 1922 में जाति तोड़क मंडल की स्थापना, उसका लक्ष्य एक जातिविहीन समाज की स्थापना करना था, जिसकी उस समय जाति, धर्म और संप्रदायों में बुरी तरह विभाजित भारतीय समाज को बेहद आवश्यकता थी. किंतु अपने नेताओं की दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में एक उपयोगी आंदोलन को असमय ही काल कवलित होना पड़ा. आजादी के पश्चात लोकतांत्रिक प्रणाली की मांग के अनुसार ऐसे किसी आंदोलन को पुनः जोर पकड़ना चाहिए था. किंतु उस ओर किसी का ध्यान तक नहीं गया. यहां तक कि वे लोग भी ऐसे प्रयासों के नाम पर चुप्पी साधे रहे जिनके पूर्वज शताब्दियों से जाति-आधारित शोषण, अन्याय एवं उत्पीड़न का शिकार होते आए थे. आगे चलकर तो खुद को स्थापित करने, सत्ता सुख भोगने की खातिर उन्होंने भी समाज के जाति-वर्ग आधारित स्तरीकरण का उसी तरह सहारा लिया, जैसे कि दूसरे वर्ग लेते आए थे. लोहिया ने अपनी पूरी ईमानदारी के साथ जातिविहीन समाज की स्थापना पर जोर दिया, मगर उनके साथ राजनीति करने वाले, खुद को उनका शिष्य, अनुयायी बताने वाले और उनके नाम के सहारे अपनी राजनीति की नींव रखने वाले मुलायम सिंह तथा उन्हीं की पृष्ठभूमि के लालू यादव जैसे नेता अंततः जातीय राजनीति के ही अलंबरदार बनकर उभरे. और तो और जातीय उत्पीड़न के सर्वाधिक शिकार रहे दलितों ने भी उसी को अपनी ताकत बनाने का प्रयास किया, परिणामस्वरूप मायावती, रामविलास पासवान आदि दलित नेता वैकल्पिक राजनीति को जन्म देने के बजाय दलगत राजनीति का शिकार होते चले गए. इसे हम लोकप्रिय राजनीति की विडंबना भी कह सकते हैं कि उसके प्रमुख राजनीतिज्ञ सामाजिक विघटन में ही अपनी सांगठनिक सफलता की परिकल्पना करते रहे. स्मरणीय है कि अनुसूचित जातिवर्ग और अन्य पिछड़ावर्ग की अभिकल्पना के पीछे एक परिकल्पना यह भी थी कि इनके गठन द्वारा समाज के उपेक्षित और आर्थिक आधार पर पिछड़े हुए लोग एकजुट होंगे, जातियों तथा उपजातियों में विभाजित समाज पहले बड़े वर्गों में संयोजित होगा, जिससे कालांतर में पर्याप्त आर्थिक-सामाजिक समानता की स्थिति आने पर, एक वर्गविहीन समरस समाज का सपना साकार हो सकेगा. यही स्वाधीनता संग्राम के दौरान हमारे अधिकांश महान नेताओं का सपना था. लेकिन जो हुआ, वह हमारी उस संकल्पना के लगभग विपरीत है. उन्हीं के कारण हमारे समाज में अवसरवादी ताकतों को लोगों की जातिगत और सांप्रदायिक पहचानों को उभारने का अवसर मिल सका है.
लोकतंत्र की मजबूरी कहें या कुछ ओर, लोकप्रिय बने रहना लोकतंत्रीय प्रणाली में सफलता के लिए जरूरी माना जाता है, बहुमत की राजनीति का निहितार्थ ही लोकप्रियता की राजनीति है. लेकिन क्या यह एकदम सरल है? सिद्धांतनिष्ठा अथवा वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ लोकप्रिय बने रहना क्या सर्वथा असंभव है? शायद नहीं, इतिहास बताता है कि ऐसा संभव है. बल्कि इतिहास में ऐसे अनेक महामानव हुए हैं, जिन्होंने अपने सिद्धांतों पर टिके रहकर भी लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाई. उनमें महात्मा गांधी पिछली शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं. उनके अतिरिक्त डॉ. आंबेडकर, विनोबा भावे, डॉ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण जैसे अनगिनत नाम हैं, जिन्होंने सिद्धांतनिष्ठ राजनीति को गति प्रदान की. और उसके लिए लोगों के दिलों में अपना स्थान भी सुरक्षित किया. उन्हीं की प्रेरणा से परिवर्तनकारी राजनीति का दौर आगे बढ़ा, लाखों की तादाद में लोग उनके अनुयायी बने. हालांकि कई को यह प्रतिष्ठा मृत्योपरांत उस समय हासिल हुई जब कम से कम उनके लिए तो उस लोकप्रियता का कोई अर्थ नहीं था.
दूसरी ओर यह भी सत्य है कि ऊपरोल्लिखित महामानवों ने अपनी वैचारिक मौलिकता से लोगों को प्रभावित तो किया, अपने सह अनुयायी भी पैदा किए. परंतु वे उतनी सफलता अर्जित करने में नाकाम रहे, जितनी बाद में उनके अनुयायियों को प्राप्त हुई. सत्ता पर पहुंचने के लिए पहले कांग्रेस ने गांधीजी के नाम का सहारा लिया, खुद को गांधी और गांधीवाद का एकमात्र उत्तराधिकारी माना. जवाहरलाल नेहरू को हालांकि सत्ता महात्मा गांधी के आशीर्वाद से ही प्राप्त हुई थी. मगर सभी जानते थे कि उनके और महात्मा गांधी के सोच में काफी अंतर है. प्रधानमंत्री बनने के पश्चात नेहरू ने गांधीवाद को अपनी नीतियों के बचाव के लिए एक ढाल के रूप में इस्तेमाल किया. प्रधानमंत्रित्व काल में ही उनके अनेक निर्णय ऐसे रहे, जो गांधीवाद और कांग्रेस की वैचारिक प्रतिबद्धताओं के विरुद्ध थे, और जिन्हें नारे के रूप में उपयोग करने उनके विरुद्ध सामाजिक चेतना लाने का काम गांधी और उनके अनुयायियों द्वारा किया गया था. गांधी के अनन्य भक्त विनोबा भावे के साथ भी यही हुआ था. उन्होंने सामाजिक-आर्थिक क्रांति के हथियार के रूप में भूदान का आवाह्न किया था. उस आंदोलन के दौरान अनेक नेता उनके साथ थे. किंतु उनमें से अधिकांश जैसे ही सत्ता-शिखर पर काबिज होने का अवसर मिला, व्यावहारिक नीति का अनुसरण करते हुए सक्रिय राजनीति में चले गए. जो अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण सत्ता से निश्चित दूरी बनाए रखने के पक्ष में थे, सौदेबाजी से बचते आए थे, उन्हें कालांतर में नकार दिया गया. स्वयं विनोबा भावे जिन्हें गांधीजी ने प्रथम सत्याग्रही होने का सम्मान दिया था, जिनकी गांधीवाद के प्रति निष्ठा स्वयं गांधीजी से भी अधिक थी, वे भी कांग्रेस के ही हाथों उपेक्षा का शिकार होते गए. गांधीजी के अपने परिवार की त्रासदी ने भी अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिबद्धता की राजनीति करने वालों को हतोत्साहित किया. इसी प्रकार डॉ. आंबेडकर के विचारों को लेकर अनेक दल बने, स्वयं उनका भी अपना एक राजनीतिक दल था, लेकिन सामाजिक स्तर पर सफल क्रांतिकारी आंदोलन का सूत्रपात करने वाले, अपनी विश्वसनीयता, सैद्धांतिक प्रतिबद्धता और विपुल अनुयायियों के बावजूद डॉ. आंबेडकर अपने दल को राजनीतिक स्तर पर बहुत कामयाबी नहीं दिला सके. उनकी पार्टी को कभी इतनी सीटें नहीं मिलीं कि वे सरकार पर दबाव बना सकें. इसका एक कारण उस समय जनता के मन में गांधी और उनके माध्यम से कांग्रेस के प्रति अतिरिक्त लगाव था. क्योंकि गांधी के कारण कांग्रेस आजादी का श्रेय लेने में कामयाब रही थी. और महात्मा गांधी, कांग्रेस जिनके विचारों की प्रतिनिधि पार्टी होने का दावा करती थी, आजादी मिलने के साथ ही अप्रासंगिक होते चले गए थे. डॉ. अंबेडकर के विचारों को लोकप्रिय राजनीति का रूप देकर राजनीति करने वाले मायावती जैसे नेता कामयाब तो हुए, मगर उनकी प्रतिबद्धता वैचारिक न होकर कुर्सी पर अटक चुकी है. और उदाहरण लेना चाहें तो हम जयप्रकाश नारायण का नाम भी ले सकते हैं, जिनके संपूर्ण क्रांति के नारे को लालू यादव जैसों की लोकप्रिय राजनीति की मजबूरियों ने गंदला कर दिया था.
अक्सर ऐसा भी होता है कि कोई महापुरुष जीवनभर किसी विचारधारा की स्थापना के लिए संघर्ष करता है. परंतु उसको वह मान-सम्मान और प्रतिष्ठा अपने पूरे जीवन में नहीं मिल पाती, जो उसको मृत्यु के उपरांत प्राप्त होती है, उस समय जब कम से कम उनके लिए तो उस लोकप्रियता का कोई अर्थ नहीं होता. इसका एक कारण तो यह होता है कि जीवन-भर अपनी रोजी-रोटी और सम्मान के लिए जूझने वाला जनसमाज किसी नए विचार को उतनी जल्दी और उतनी गहराई से आत्मसात नहीं कर पाता कि उसके आधार पर क्रांतिकारी निर्णय ले सके. कई बार महापुरुष स्वयं ही अपने और आमजन के बीच सामान्य दूसरी बनाकर चलता है. परिणामस्वरूप उसके विचार समय रहते उस वर्ग तक नहीं पहुंच पाते, जहां वे परिवर्तनकारी भूमिका निभा सकें. दूसरे शब्दों में विचारों को परिवर्तनकारी स्थिति तक पहुंचने के लिए किसी भी विचारक को अपने समर्पित अनुयायियों की आवश्यकता पड़ती है, जो उसके विचारों को लोकलुभावन अंदाज में जनसामान्य के बीच पहुंचाकर उन्हें आंदोलन का रूप दे सकें. किसी नए विचार को जन्मने में अनेक वर्ष और कभी-कभी तो शताब्दियां बीत जाती हैं, वैसे ही किसी स्थापित विचारधारा को समर्पित अनुयायी मिल पाना आसान नहीं होता. गौतम बुद्ध को अशोक जैसा अनुयायी लगभग तीन सौ वर्ष बाद मिल पाया था. कभी-कभी किसी नए विचार के समाज में आते-आते उसका कार्यक्षेत्र और भूमिका भी बदल जाती है. मसलन जर्मन दार्शनिक हीगेल(1770-1831) ने जब द्वंद्ववाद का प्रणयन किया, उस समय वह विशुद्ध दार्शनिक अवधारणा थी. मगर उसके आधार पर उनीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स (1818-1883) ने साम्यवाद का राजनीतिक दर्शन प्रस्तुत किया. और साम्यवादी अवधारणा के अनुरूप समाज की स्थापना करने के लिए फिर दशकों तक प्रतीक्षा करनी पड़ी, जो लेनिन (1870-1924) जैसे समर्पित साम्यवादी के कारण ही संभव हो पाया.
कहीं इसका यह अभिप्रायः यह तो नहीं कि शुद्ध विचार कुंदन की तरह होते हैं और निखालिस कुंदन से कुछ नहीं बनता. उसको आभूषण में ढालकर उपयोगी बनाने के लिए मिलावट आवश्यक होती है. यानी कुंदन का लोकोपयोगी होना, उसकी चमक-दमक मिलावट की मोहताज है. कुंदन में मिलावट का एक दार्शनिक पक्ष यह भी हो सकता है कि इस समाज में कुछ भी निरपेक्ष नहीं है. अगर किसी वस्तु या विचार की उपयोगिता उसकी सापेक्षिकता में निहित है. इसे आस्थावादियों के तर्क के आधार पर कहें तो आत्मा जब तक संसार में आकार मैली न हो, तब तक यह संसार-सृष्टि चल ही नहीं सकती. माया का आनंद लेने के लिए मोह-माया में फंसना आवश्यक है. मगर यह कह देने से ही कुंदन का महत्त्व कम नहीं हो जाता. इतना जरूर है कि उसे और आकर्षक बनाकर आभूषण में ढालने के लिए नई सृजनात्मकता की आवश्यकता होती है. इसका एक संदेश यह भी हो सकता है कि सत्ता-परिवर्तन अथवा सत्ताओं के गठन के लिए भले ही विचार की आवश्यकता पड़ती हो, परंतु उसपर सवारी गांठने के लिए कोरे विचार अर्थहीन होते हैं. विचार को कार्यक्षेत्र में उतरने के लिए सामाजिक अभियांत्रिकी का सहारा लेना ही पड़ता है. मगर विचार की भावनाओं के अनुरूप अभियांत्रिकी का निर्धारण एवं उसकी संरचना बहुत ही श्रमसाध्य कार्य है, जिसमें लंबे परिश्रम एवं धैर्य की आवश्यकता पड़ती है. जो ऐसा नहीं कर पाते वे कभी विचार के स्थान पर उसके बिजूका से काम चलाने का प्रयास करते हैं तो कभी गंभीर विचारों को नारे के रूप में उछालकर उनकी राजनीति करते हैं.
जीवन में व्यावहारिकता को महत्त्व देने वाले लोग अक्सर इस तर्क का सहारा लेते हैं कि मौलिक विचार के स्थान पर उसके बिजूका को आगे रखकर स्वार्थसिद्धि करने वाले लोग ही अपने मकसद में कामयाब सिद्ध होते हैं. शायद कुछ इस प्रकार जैसा खुद को बहुजन समाज की पैरोकार बताने वाली मायावती इन दिनों दलित राजनीति के नाम पर कर रही हैं. वैसे मायावती और उनके गुरु कांशीराम को यह श्रेय देना भी वाजिब है कि उन्होंने दलित आंदोलन को बहुजन राजनीति का रूप दिया है. मगर उसके पीछे एक वैचारिकी, एक प्रतिबद्धता थी, जिसके पीछे जातीय एवं सामाजिक शोषण का शिकार होते आ रहे बड़े वर्ग, जिसको चतुर राजनीतिज्ञों ने दलित एवं पिछड़े वर्गों में अलग-अलग तोड़ दिया था, को एक ही झंडे के नीचे लाने तथा उनके मान-सम्मान एवं अधिकार हेतु संघर्ष की भावना निहित थी. मगर भाजपा से अपने पहले गठबंधन के समय ही मायावती ने दर्शा दिया था कि वे किसी वैचारिकी से बंधी हुई नहीं हैं. फिर भी एक दशक तक वे दलित राजनीति को आगे बढ़ाने का काम करती रहीं. इसमें उनका साथ अतिपिछड़े वर्गों ने भी खूब दिया. अब वे और उनके कुछ सलाहकार उसको सर्वजन राजनीति का रूप देने के लिए तत्पर हैं. स्वयं मैडम भी इस सत्य को पहचान चुकी हैं कि दलित-ब्राह्मण गठजोड़ उन्हें प्रदेश के सत्ता-शिखर तक तो पहुंचा सकता है, प्रधानमंत्री पद तक अपने दम पर पहुंचने के लिए सर्वजनीन राजनीति अनिवार्य है. यह महत्त्वाकांक्षा उन्हें दलित राजनीति से एकदम परे भी ले जा सकती है.
क्या वह दलित राजनीति का अंत होगा? मुझे लगता है, यह संभव नहीं है. कम से कम उस समय तक तो संभव नहीं है, जब तक इस समाज में ऊंच-नीच का अंतर है. धर्म के आधार पर विभाजन, भारी जातीय असमानताएं एवं आर्थिक विसंगतियां हैं. तब तक दलित राजनीति का सर्वजन की राजनीति बन पाना असंभव है. फिर इन दिनों तो आधुनिक बाजार-व्यवस्था भी नए दलितवर्ग को जन्म देने पर उतारू है. उपभोग से वंचित, नगण्य क्रय-सामर्थ्य वाले नागरिक उसकी निगाह में दीन-हीन-श्रीविहीन ही हैं. उन्हीं को उलझाए रखने के लिए मीडिया नित नई नौटंकी करता है. लोकप्रिय राजनीति के भांड हर रोज नए नारे गढ़ते हैं. उन मठाधीशों को सिर-माथे बिठाते हैं, जो उन्हें स्वर्ग-नर्क-पाप-पुण्य की अवधारणाओं में उलझाए रखें. ताकि अपनी दुरवस्था और उसके कारणों की उनका ध्यान ही ना जा सके. ताकि उनका धर्म का धंधा जमा रहे. वे संभवतः भूल जाते हैं कि दलित एक वैचारिक अवधारणा है, जो समान मानवाधिकार की भावना से जन्मी है. लोकलुभावन राजनीति के लिए उसका सर्वजन रूप व्यावहारिकता का तकाजा हो सकता है, परंतु सर्वजनीन हो पाना उसके लिए वर्तमान स्थितियों में संभव नहीं है. दलित शब्द के संदर्भ बदलते रह सकते हैं. यह भी संभव है कि बहुजन की राजनीति करते-करते मायावती एक दिन सर्वजन की नेता बन जाएं, और उनके विरुद्ध एक प्रतिबद्ध दलित आंदोलन उठ खड़ा हो. इसलिए जो लोग दलित अवधारणा को सचमुच समाप्त करना चाहते हैं, वास्तव में सर्वजनीन राजनीति की ओर जाना चाहते हैं. तो उन्हें उन विभेदकारी नीतियों-स्थितियों पर हमला करना चाहिए जो दलित और दलित अवधारणाओं को जन्म देती हैं. लोगों को उत्पीड़क की चौखट तक ले जाती है. यहीं प्रतिबद्धताओं की असली परीक्षा भी हो जाती है.
सवाल है कि इस वैचारिक अवमूल्यन अथवा उनके लोकप्रिय राजनीतिकरण के विरुद्ध साहित्यकार और वुद्धिजीवियों की भूमिका क्या हो. इसका संकेत बिलकुल साफ है. वस्तुतः साहित्यकार और वुद्धिजीवी का सदा ही कर्तव्य रहा है कि वह लोकचेतना के हित में उसके उभार के लिए काम करे. तो ऐसा हर व्यक्ति जो विचार को सस्ती लोकप्रियता का माध्यम बनाना चाहता है, जो उसको बिजूका में ढालकर उसको अपनी स्वार्थसिद्धि से जोड़ना चाहता है, साहित्यकार और वुद्धिजीवी का धर्म है कि लोगों को उससे सचेत करे. ध्यान रहे कि टोटमवाद साहित्यकार और वुद्धिजीवी के अध्ययन का विषय हो सकता है, वह साहित्य का अभीष्ट हरगिज नहीं बन सकता, न उसके आधार पर किसी बड़े परिवर्तन की नींव रखी जा सकती है.
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संपर्क:
(ओमप्रकाश कश्यप)
जी-571, अभिधा, गोविंदपुरम्
गाजियाबाद-201013
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जवाब देंहटाएंएचटी मीडिया बनाम भड़ास4मीडिया : सुनवाई की अगली तारीख 24 जुलाई
शैलबाला-प्रमोद जोशी प्रकरण से संबंधित खबरें भारत के नंबर वन मीडिया न्यूज पोर्टल भड़ास4मीडिया पर पब्लिश किए जाने के खिलाफ एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी द्वारा दिल्ली हाईकोर्ट में दायर केस की पहली सुनवाई आज हुई। वादी एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी की तरफ से दायर केस में भड़ास4मीडिया के एडिटर यशवंत सिंह और तीन अन्य को प्रतिवादी बनाया गया है। हाईकोर्ट में दर्ज इस केस संख्या सीएस (ओएस) 332/2009 की सुनवाई हाईकोर्ट के कोर्ट नंबर 24 में विद्वान न्यायाधीश अनिल कुमार ने की।
इस दौरान एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी की तरफ से हाजिर हुए वकील ने केस निपटारे तक भड़ास4मीडिया पर एचटी मीडिया और इससे जुड़े लोगों से संबंधित खबरें प्रकाशित न करने देने का आदेश पारित करने का अनुरोध कोर्ट से किया। इस बाबत एचटी मीडिया और अन्य की तरफ से कोर्ट में अर्जी भी दी गई थी। कोर्ट ने इस अनुरोध को ठुकरा दिया। प्रतिवादियों की तरफ से दिल्ली हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील निलॉय दासगुप्ता ने कोर्ट को जानकारी दी कि कुछ प्रतिवादियों ने नोटिस 29 मार्च को रिसीव किया है और एक प्रतिवादी के पास अभी तक नोटिस सर्व नहीं हुआ है। इस पर कोर्ट ने वादी एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी के वकील को सभी प्रतिवादियों को नोटिस समेत सभी जरूरी दस्तावेज मुहैया कराने के आदेश दिए। प्रतिवादियों को अगले चार हफ्तों में जवाब दाखिल करने को कहा गया है। मामले की अगली सुनवाई की तारीख 24 जुलाई तय की गई है। प्रतिवादियों के वकील निलॉय दासगुप्ता ने बाद में बताया कि एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी की तरफ से जो केस दायर किया गया है, उससे संबंधित जो नोटिस प्रतिवादियों के पास भेजा गया है, उसमें कई चीजें मिसिंग हैं। उदाहरण के तौर पर नोटिस के पेज नंबर 117 पर जिस कांपैक्ट डिस्क के होने का उल्लेख किया गया है, वो नदारद है। साथ ही सभी प्रतिवादियों को अभी तक नोटिस सर्व नहीं हुआ है। ऐसे में कोर्ट ने वादियों के वकील को सभी दस्तावेज व कागजात प्रतिवादियों को उपलब्ध कराने के निर्देश दिए हैं। वेबसाइट पर वादियों से संबंधित कंटेंट पब्लिश न करने को लेकर जो अनुरोध कोर्ट से किया गया, उसे नामंजूर कर दिया गया।
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इस दौरान एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी की तरफ से हाजिर हुए वकील ने केस निपटारे तक भड़ास4मीडिया पर एचटी मीडिया और इससे जुड़े लोगों से संबंधित खबरें प्रकाशित न करने देने का आदेश पारित करने का अनुरोध कोर्ट से किया। इस बाबत एचटी मीडिया और अन्य की तरफ से कोर्ट में अर्जी भी दी गई थी। कोर्ट ने इस अनुरोध को ठुकरा दिया। प्रतिवादियों की तरफ से दिल्ली हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील निलॉय दासगुप्ता ने कोर्ट को जानकारी दी कि कुछ प्रतिवादियों ने नोटिस 29 मार्च को रिसीव किया है और एक प्रतिवादी के पास अभी तक नोटिस सर्व नहीं हुआ है। इस पर कोर्ट ने वादी एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी के वकील को सभी प्रतिवादियों को नोटिस समेत सभी जरूरी दस्तावेज मुहैया कराने के आदेश दिए। प्रतिवादियों को अगले चार हफ्तों में जवाब दाखिल करने को कहा गया है। मामले की अगली सुनवाई की तारीख 24 जुलाई तय की गई है। प्रतिवादियों के वकील निलॉय दासगुप्ता ने बाद में बताया कि एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी की तरफ से जो केस दायर किया गया है, उससे संबंधित जो नोटिस प्रतिवादियों के पास भेजा गया है, उसमें कई चीजें मिसिंग हैं। उदाहरण के तौर पर नोटिस के पेज नंबर 117 पर जिस कांपैक्ट डिस्क के होने का उल्लेख किया गया है, वो नदारद है। साथ ही सभी प्रतिवादियों को अभी तक नोटिस सर्व नहीं हुआ है। ऐसे में कोर्ट ने वादियों के वकील को सभी दस्तावेज व कागजात प्रतिवादियों को उपलब्ध कराने के निर्देश दिए हैं। वेबसाइट पर वादियों से संबंधित कंटेंट पब्लिश न करने को लेकर जो अनुरोध कोर्ट से किया गया, उसे नामंजूर कर दिया गया।
रचनाकार पर भाई ओम प्रकाश कश्यप का विद्वतापूर्ण लेख छापने के लिए
जवाब देंहटाएंरवि रतलामी बधाई के पात्र हैं।