रेखा श्रीवास्तव का आलेख : लोक कला

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लोक कला जनसाधारण की सहज अभिव्‍यक्‍ति का ही एक स्‍वरूप है। यह मानव सभ्‍यता के साथ प्रारंभ हुई और उसके साथ ही चलती चली आ रही है। यह मान...

लोक कला जनसाधारण की सहज अभिव्‍यक्‍ति का ही एक स्‍वरूप है। यह मानव सभ्‍यता के साथ प्रारंभ हुई और उसके साथ ही चलती चली आ रही है। यह मानव सभ्‍यता के धार्मिक विश्‍वासों और आस्‍थाओं के साथ पली बड़ी है।

प्रारंभ में एक स्‍वतंत्र विषय के रूप में लोक कला का अध्‍ययन नही होता था। गत शताब्‍दियों से इसका स्‍वतंत्र अध्‍ययन प्रारंभ हुआ। इसके स्‍वतंत्र विषय बनने के साथ ही इसकी सीमाओं परिभाषाओं के संबंध में विभिन्‍न विद्वानों के भिन्‍न भिन्‍न मत सामने आये ।

लोक कला का विकास आदिम कला से ही माना जाता है । आदिम कला मनुष्‍य की उस अवस्‍था की कला है जब मनुष्‍य घने जंगल में रहता था और संघर्षमय जीवन व्‍यतीत करता था। विपरीत परिस्थितियों से स्‍वयं को सुरक्षित रखने के प्रयत्‍न में पर्वत कन्‍दराओं में पनाह लेता था। इन विषमताओं से जूझते हुए भी अवकाश के क्षणों में उस सौन्‍दर्य भावना को व्‍यक्‍त करने का प्रयत्‍न किया जिसे उसने जीवन संघर्ष के विभिन्‍न अवसरों पर अनुभूत किया था। उसने अपने इसी सौंदर्यबोध का विकास अपने परिश्रम से निरन्‍तर करता चला आया। कला रूपों की यह विकास यात्रा किसी एक देश या जाति से संबंधित नहीं है, बल्कि समस्‍त मानव जाति से है। यह लोक मानस से प्रेरणा और पोषण पाती है और लोक मानस को ही प्रतिबिम्‍बित करती है। लोक कला आत्‍मिक शांति मर्यादा एवं मंगल की भावना से ओतप्रोत होकर विकासमान होती है।

लोक कला अपने परम्‍परागत विश्‍वासों धारणाओं आस्‍थाओं रहस्‍यात्‍मक संकेतों और अतीत की प्रेरणा पर आधारित होते हैं। इसका उदय समाज के रीति रिवाजों पर आधारित होता है। क्रमशः परम्‍परागत रीति रिवाजों में परिवर्तन के साथ इसका रूप भी क्रमशः बदलता जाता है।

लोक का अर्थ-- लोक कला को जानने से पहले लोक का अर्थ समझना होगा। प्राचीन भारतीय शास्‍त्रों के अनुसार लोक शब्‍द का अर्थ वेद से भिन्‍न अथवा संसार से है। वैसे लोक का अर्थ है ''देखना'' है, अवलोकन शब्‍द इसी आधार पर बना है। हम पहली बार इसी लोक में आँख खोलते हैं, यहीं आँख बंद करते हैं और इस अवधि में मानव कई अनुभवों से गुजरता है और उन्‍ही अनुभवों के आधार पर ताना बाना बुनता है वही लोक है। लोक का सामान्‍य अभिप्राय 'सामान्‍य जीवन' भी है ।लोक का रूढ़ अर्थ संसार भी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ''लोक शब्‍द का अर्थ जनपद या ग्राम नहीं है बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्‍यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं है। लोक में भूत भविष्‍य और वर्तमान का सहचर्य होता है। सभी व्‍यक्ति लोक की किसी न किसी परम्‍परा से पूर्ण या आशिक रूप से, प्रत्‍यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ा होता है। लोक में जन्‍म से लेकर मृत्‍यु तक की सभी गतिविधियां आ जाती है।

लोक के लिये अंग्रेजी शब्‍द 'फोक' का प्रयोग किया जाता है। लोक मनुष्‍य के हजारों विश्‍वासों रीतियों रूढियों व्‍यवहारों परम्‍पराओं और संकल्‍पों से बनता है। लोक अनंत है, असीम है, जहां जहां तक मनुष्‍य की कल्‍पना पहुंचती है वहां वहां तक लोक की सीमा मानी जा सकती है ।

लोक कला--- पुस्‍तकीय ज्ञान से भिन्‍न व्‍यवहारिक ज्ञान पर आधारित सामान्‍य जनसमुदाय की अनुभूति की अभिव्‍यक्ति ही लोक कला है, जिसकी उत्‍पत्ति धार्मिक भावनाओं , अन्‍धविश्‍वासों, भय निवारण, अलंकरण प्रवृति एवं जातिगत भावनाओं की रक्षा के विचार से हुई है। जैसे जैसे मानव सभ्‍यता का विकास होता गया लोक कलाएं भी विकसित होती गई। शैलेन्‍द्रनाथ सामंत के अनुसार लोक कला जन सामान्‍य विशेषकर ग्रामीण जनों की सामूहिक अनुभूति की अभिव्‍यक्ति है। इसे कुछ विद्वानों ने कृषकों की कला भी माना है।

लोक कलाएं अपनी सौदर्य दृष्टि में नहीं बल्कि मंगल का बड़ा गहरा भाव भी अपने में रखने के कारण बहुत महत्‍वपूर्ण है। यही लोककलाओं का सबसे महत्‍वपूर्ण तत्‍व भी है। डॉ स्‍वामीनाथन के अनुसार भी मंगल भाव के न रहते कोई कला सार्थक नहीं हो सकती। अर्थात सुन्‍दर भी वही लगता है जिसमें मंगल भाव नीहित होता है।

भारत में सांस्‍कृतिक कलाओं का लोककला से बड़ा गहरा रिश्‍ता है इसी रिश्‍ते के कारण लोक कलाएं आज तक परम्‍परागत रूप से विकसित होती आयी है। जो लोककथाओं, लोकगाथाओं, लोकनाट्यों, लोकगीतों, लोकनृत्‍यों, लोक वाद्यों, लोक संगीत, लोकचित्रों और मिथकों के रूप में युगों युगों से चली आ रही है। जिनका मूल कभी नहीं बदलता हां समय के साथ परिस्थियां विशेष पर अति आंशिक परिवर्तन हो सकता है।

लोक चित्रों का प्रचलन परम्‍परागत रहा है। एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को उपहार स्‍वरूप इन लोक चित्रों को देती रही है। इन चित्रों की उपादेयता यह है कि इनके माध्‍यम से नई पीढ़ी कलात्‍मकता की समझ विकसित कर सके । लोक चित्रों के माध्‍यम से कितनी ही लोक कथाओं लोकगाथाओं, लोकगीतों और आख्‍यानों आदि का सहज ही ज्ञान हो जाता है। इसके अतिरिक्‍त लोक नायकों की शक्ति गाथा सदैव विद्यमान रही है हर काल में सामाजिक उत्‍थान हेतु महानायकों का उदय हुआ है। अत:लोक कलाओं में उन महानायकों की गाथाओं का लोकधर्मी समावेश रहा है। उनके कार्यो को लोक में भिन्‍न भिन्‍न शैलियों में अभिव्‍यक्ति मिली है। ये महानायक लोक के प्रेरणा पुरूष होते हैं। जैसे रानीजी का मायरा, पाबूजी की फड ।

लोक कला का अध्‍ययन करने पर निम्‍न तथ्‍य उजागर होते हैं--

1- लोक कला परम्‍परागत है।

2- लोक कला जनसाधारण के लिये शुभ और मंगलदायक है।

3- लोककला समग्र रूप से ज्‍यामितीय एवं अलंकारिक होती है।

4- लोक में जो अभिप्राय एक बार प्रचलित हो जाता है। वह शताब्दियों तक चलता है। अतः लोककला की किसी भी आकृति की कोई तिथि निश्चित करना संभव नहीं है।

5- लोक कला सार्वभौमिक है। जिसके सूक्ष्‍म रूप तथा अभिप्राय सम्‍पूर्ण जगत में प्राप्‍त होते हैं।

6- लोककला के अर्न्‍तगत रीतिरिवाजों , परम्‍पराओं, विभिन्‍न सामाजिक संस्‍कारों, एवं धार्मिक विश्वासों का चित्रण किया जाता है।

7- लोककला नैसर्गिक एवं अकृत्रिम होता है। अतः सरल एवं हृदयग्राह्‌य होता हैं।

8- लोककला में गंभीरता के साथ हास्‍य, विनोद, रसिकता का भी पुट होता है।

9- लोककला में मनुष्य की प्रतिभा, कलाभावना, कल्‍पना, सर्जक दृष्टि और रंगों को खुलकर अभिव्‍यक्‍ति मिली है। यह जीवन के प्रत्‍येक पहलू में समाई है।

10- लोककला में सृष्टा और उपभोक्‍ता के बीच कोई व्‍यवधान नहीं होता ।

11- लोककलाकार महत्‍वाकांक्षी नहीं होता, उसकी कृति उसकी भावनाओं से संबंधित रहती है।

12- लोककला लोक व्‍यवहार का अभिन्‍न अंग है।

13- लोककला जीवन की स्‍वाभाविक प्रणाली और आत्‍म चैतन्‍य से संबंधित है इसी से यह जनजन में व्‍याप्‍त है।

14- लोककला प्राचीनता और आधुनिकता के बीच की कड़ी है।

म.प्र.के निमाड़ जनपद में भी ऐसे बहुरंगी कलाओं के दर्शन होते हैं। खासकर यहां की लोक चित्रकला अपनी अलंकारिकता, पारम्‍परिक वैभव से सराबोर है। निमाड. के जनजीवन का शायद कोई भी ऐसा पर्व त्‍योहार नही जब चित्रकला से महिला पुरूषों का सरोकार न जुड़ता हो । सदियों से लोक में प्रचलित चित्रांकन की विधियों श्‍ौलियों में पौराणिक धार्मिक मिथकों लोककथाओं आचार विचारों और आस्‍था विश्‍वास की झलक विद्यमान रही है। निमाड़ की जिरोती नाग हो अथवा मांडना या गोदना हर प्रक्षेपण में जीवनगत विश्‍वास समाया है।

निमाड़ भौगोलिक एवं सांस्‍कृतिक दृष्‍टि से अत्‍यधिक सम्‍पन्‍न अंचल रहा है। भारत के नक्‍श्‍ो में विंध्‍य और सतपुड़ा के बीच का जो भू-भाग बसा हुआ है, वह निमाड़ के नाम से प्रसिद्ध है। शासन व्‍यवस्‍था की दृष्‍टि से निमाड़ दो भागों में बंटा हुआ है। पूर्वी-पश्‍चिमी निमाड़- इस क्षेत्र का पुरातात्‍विक महत्‍व इसलिए भी है कि क्‍योंकि नर्मदा घाटी के उत्‍खनन से पता चला कि यहां मनुष्‍य ढाई लाख वर्ष से भी अधिक पहले से आबाद हो चुका था । ऐतिहासिक दृष्‍टि से भी निमाड़ अपने आप में बहुत समृद्ध रहा है। यह इक्ष्‍वाकु वंश के राजा मानधाता, हैहयी वंश के राजा सहस्‍त्रार्जुन से लगाकर होल्‍कर वंशीय देवी अहिल्‍या तक जुड़ा हुआ है। सम्‍पूर्ण निमाड़ का अतीत माहिष्‍मति इतिहास के इर्द गिर्द धूमता है। संक्षिप्‍त में सम्‍पूर्ण निमाड़ का इतिहास रामायण काल महाभारतकाल, खरदूषणकाल दंडकारण्‍य, शुंग सातवाहन, कनिष्‍क, अभिसारों,चालुक्‍यों, भोज, नासिरखान होल्‍कर, मुगलों ब्रिटिश शासन से जुड़ा हुआ है। जिस क्षेत्र का इतिहास इतना प्राचीन और भव्‍य रहा हो वहां की लोककलाएं भी अवश्‍य पुरातन व सर्वमान्‍य रही होगी । जो आज तक परम्‍परा के रूप में हमारे जीवन मे आत्‍मसात हो गई है। निमाड़ के लोकचित्र, रीतिरिवाजों मंगल भावनाओं, पूजा, श्रद्धा एवं आस्‍था के परिचायक है। कोई भी मांगलिया कार्य हो बिना पारम्‍परिक चित्रों के पूर्ण नही होता है। वर्ष भर कोई न कोई त्‍योहार और उन पर चित्रों का अकन का सिलसिला होता रहता है।

भिन्‍न भिन्‍न विसंगतियों के बावजूद निमाड़ की चित्र परम्‍परा अपने आंतरिक सत्‍य सौन्‍दर्य के बल पर समूचे विश्‍व की संवेदनाओं को स्‍पर्श करने की ताकत रखती है।

लोकचित्र परम्‍पराः--निमाड़ की धरती आदिकाल से मानव संस्‍कृति के निवास की कथा कहती आई है। यहां की धरती का इतिहास प्राचीन अनुप जनपद और पौराणिक नगरी महिष्‍मति के इर्द गिर्द घूमता है। निमाड़ अंचल की कला परम्‍परा का मूलाधार वहां के जीवन मे रची बसी प्रकृति धरती और संस्‍कृति है। निमाड़ी लोकचित्र निमाड़ की जातीय स्‍मृति और संस्‍कृति के अनुंभव का सार है। निमाड़ में लोकचित्रों की लम्‍बी परम्‍परा है। पूरे वर्ष कोई न कोई त्‍योहार से संबंधित भूमि और भित्‍ति चित्र अलंकरणों का अंकन पूजा-प्रतिष्‍ठान चर्चा अथवा उनसे संबंधित कथा वार्ता गीत गाथा आदि जारी रहते हैं।

हरियाली अमावस्‍या को जिरोती, नागपंचमी को नाग भित्‍ति चित्र, क्वांर मास में सांजा फूली नवरात्रि में नरवत दशहरे के दिन का भूमि चित्रण दीवाली पर होते या थापा, मांडणे, दीवाली पड़वा पर गोबर के गोरधन, दीवाली दूज पर भाई दूज का भित्‍तिचित्र दिवाली पर ही व्‍यापारियों द्वारा शुभ मुहूर्त में गणपति और सरस्‍वती का हल्‍दी कुमकुम से रेखांकन देव प्रबोधनी, ग्‍यारस पर जुवार के जड़ों की खोपड़ी पूजन विवाह में कुलदेवी का भित्‍तिचित्र दरवाजों पर सातीपाना, दुल्‍हा-दुल्‍हन के मस्‍तक पर कंवेली भरना, पुत्र जन्‍म पर पगल्‍या का शुभ संदेश रेखांकन गणगौैर पर्व पर गणगौर की मूर्ति , सातिया, चौक, कलस, मांण्‍डना आदि तथा शरीर पर विभिन्‍न गुदना आकृतियों का उकेनरा निमाड़ की लोकचित्र परम्‍परा है। निमाड़ के लोकचित्रों में कहीं न कहीं प्रागैतिहासिक चित्रकला की रंगारेखाएं और आकृतियां उस काल के गुहा चित्रों से बहुत कुछ मिलती है। निमाड़ी लोक चित्र निमाड़ी लोक जीवन के मिथकीय अभिव्‍यक्‍ति है। जिसमें मनुष्‍य की मांगलियत की प्रबल इच्‍छा भी समाहित है।

निमाड़ की लोक संस्‍कृतिः- लोक संस्‍कृति नगरों ओर गांवों में फैली हुई जनता के संस्‍कार है। इसमें शाश्‍वत सत्‍य प्रवाहमान है। आध्‍यात्‍मिक विकास है। संसार के समस्‍त प्राणियों को आत्‍मवत मानकर उनके प्रति प्रेम, करूणा, उपकार, क्षमा, अहिंसा एवं सहिष्‍णुता का भाव है। अंतःकरण की पवित्रता की ओर बढ़ना है। मनुष्‍य की पशुता को समाप्‍त कर उसे मानव बना ईश्‍वर की ओर उन्‍मुख करना है। संस्‍कार परम्‍परागत होता है। तथा आनंद उसका स्‍त्रोत होता है एवं मंगल भावना प्राण है। निमाड़ की संस्‍कृति समष्‍टिगत संस्‍कृति है। एवं निमाड़ साहित्‍य ने सम्‍प्रदायवाद, जातिवाद, तथा असमानता की जड़े खोदकर विश्‍व एकता स्‍थापन की दिशा में उल्‍लेखनीय कार्य किया है।

निमाड़ की लोककला परम्‍परागत विश्‍वासों, रहस्‍यात्‍मक संकेतों एवं अतीत के संस्‍कारों पर आधारित है। निमाड़ी जन-जीवन में एकरस होकर हृदय को छूकर यह कला बिना किसी अवलम्‍ब, आश्रय, प्रोत्‍साहन तथा प्रलोभन के स्‍वतंत्र एवं सौम्‍य गति से संस्‍कृति की सुरक्षा करती आ रही है।

मांगलिक कार्य पूजापाठ पर्व, त्‍योहार उत्‍सव आदि में लोकचित्रों का विशिष्‍ठ स्‍थान है। संझा निमाड़ी कन्‍याओं का अनोखा त्‍योहार है। अंतिम दिन के संझा लोककला का भव्‍य भित्‍ति पर उतर आता है। इसी प्रकार यहां महिलाओं के मध्‍य मेहंदी, मांडने की प्रथा है। जिरोती नाग, दशहरा, गोवर्धन, भाईदूज, गोतरेज, माता, गोदने, मांडने आदि को निमाड़ सहज ही सहेजे हैं। लोक नाट्‌य, लोकनृत्‍य तथा लोक वाद्यों ने यहां की सांस्‍कृतिक सम्‍पदा को संवारा है। आनंद सहयोग, सौदर्य, यहां साकार हो जाते हैं। लोकआस्‍थाओं के प्रति देवी-देवताओं को निमाड़ी लोककलाओं ने रेखांकन एवं मिट्‌टी गोबर की बनी मूर्तियों के माध्‍यम से मूर्तरूप प्रदान किया। अतः यहां की लोककला शिवपरिवार से प्रभावित रही है। उसके अंकन में पार्वती का प्रभाव स्‍पष्‍ट परिलक्षित होता है। लोककथाओं पर भी उन्‍ही का प्रभाव है।

निमाड़ी लोककलाओं की सबसे बड़ी विश्‍ोषता उसका सर्वसुलभ साधनों का प्रयोग है। प्रकृति प्रदत्‍त वस्‍तुओं को वे अपनी कला का माध्‍यम बनाते हैं। कलाकार कभी भी अपने धर की भित्‍ति को सूना नही देख सकते । निमाड़ी लोककलाकार सदियों से भित्‍ति को केनवास बना अनेक सुन्‍दर चित्रों का सृजन करते आ रहे है। ब्रश के स्‍थान पर लकड़ी की पतली काड़ी में रूई लपेट कर प्रयोग में लेते हैं। कभी कभी रंगबिरंगी पन्‍नियां भी काम में लेते हैं। इसका यह अर्थ नहीं हैकि उन्‍हें रंग संयोजन का ज्ञान नहीं है।

चित्रों को प्रभावशाली बनाने के लिये धरा के शाश्‍वत आराध्‍य सूर्य एवं चन्‍द्रमा निमाड़ में प्रचुर संख्‍या में पाये जाने वाले नाग और बिच्‍छु शुभंकर चिन्‍ह स्‍वस्‍तिक और जन जीवन की प्रतीक हाथ पकड़कर फुगड़ी खेलती थिरकती नृत्‍यरत बालाएं भी चित्रित की जाती है। सर्वसि़द्धि के दाता गणेश की मूर्ति आटे द्वारा बनाया जाना अद्वितीय है। जिरोती निमाड़ की सर्वाधिक व्‍यापक लोक चित्रश्‍ौली है। जिरोती कला का मूल्‍यांकन करते हुए श्री रामनारायण उपाध्‍याय लिखते हैं। यदि निमाड़ में जिरोती त्‍योहार न होता तो निमाड़ के घरों की दीवारें चित्रों से सूनी रहती ।

नागपंचमी के पवित्र दिन जिरौती के भित्‍ति चित्र में गोबर लिपी भित्‍ति पर गेरू की लाल चटक पृष्‍ठभूमि बना पीले नीले हरे रंगों के चित्र उकेरे जाते हैं। तथा गोबर लिपि भित्‍ति पर श्‍वेत खड़िया मिट्‌टी की पृष्‍ठभूमि पर काले रंग से नागदेवता के अलंकारिक रूपों को चित्रित किया जाता है। चित्रपूजा के माध्‍यम से जनजन मे लोककला के सांस्‍कृतिक स्‍वरूप को निमाड़ जीवित रखता है। गोबर मिट्‌टी की कला का रूप दीपावली के भाई दूज एवं गोवर्धन पड़वा के दिन दृष्‍टिगोचर होता है। लोकजीवन इतना प्रगतिशील होता है। कि वह धर्म एव कला में नये प्रयोग करने में हिचकिचाता नहीं है। निमाड़ की लोककला सृजन की श्रेष्‍ठ प्रवृत्तियों को अभिव्‍यक्‍ति देती है। निमाड़ उत्‍सवधर्मी है। इस कारण समारोह पूर्वक वह अपनी कला का चित्रण करता है। परिवार का प्रत्‍ंयेक छोटे से बड़ा तक सभी सदस्‍य इस कला कला का सहभागी होता है। इस कारण कला के प्रति जीवनपर्यन्‍त प्रेम कायम रहता है।

· निमाड़ की शिल्‍प कलाएं --निमाड़ मे सभी जातियों का निवास है। निमाड़ का सांस्‍कृतिक इतिहास समृद्ध और गौरवशाली रहा है। पीढ़ी दर पीढ़ी इन जातियों में शिल्‍पकला का सिलसिला चलता आया है। उनमें मिट्‌टी के बर्तन, मूर्तियों के लिये शिल्‍पकार ,लकड़ी की कलात्‍मक वस्‍तुओं के लिये सुतार लोहे की वस्‍तुओं के लिये लोहार, बांस की वस्‍तुओं के लिये सिलायर, वस्‍त्रों के लिये खटिक , मारू, मोमिन, कोष्‍ठाआदि, पत्‍थर के लिये सिलायर, साती डेलके लिये जिनर , ताम्‍बे पीतल के बरतन, गहने के लिये सुनार वस्‍त्र छापने वाले बंजारा छीपा झाडू बनाने वाले बरमुण्‍डा , लाख की वस्‍तुएं बनाने वाले लखारा, कांच की चूड़ियां बनाने व पहनाने वाले मणियार , कपड़ा बनाने व सीने वाले दर्जी गादी तकिया भरने वाले पींजाराख्‍ जूते वाध बनाने वाले चमार आदि अनेक जातियों के लोग अपने अपने पारम्‍परिक और कलात्‍मक शिल्‍पों के निर्माण संरक्षण ओर विस्‍तार में लगे हुए है।

· मिट्‌टी शिल्‍पः- मिट्‌टी की मूर्तियां बरतन आदि बनाने वाले को कुम्‍हार कहते हैं। कुम्‍हार जाति मिट्‌टी का कार्य पारम्‍परिक रूप से करती आई है। ग्रामीण समाज मे कुम्‍हारों के सृजन का माध्‍यम एवं केन्‍द्र भूमिका है। कुम्‍हार अनिवार्य उपयोगी वस्‍तुओं के अतिरिक्‍त खिलौने, मूर्तियों आदि कलात्‍मक मृणशिल्‍पों का निर्माण भी करते हैं। पर्व त्‍योहारों पर कुम्‍हार विभिन्‍न प्रकार के खिलौने आनुष्‍ठानिक कलश सिरोटे दिये आदि बनाते हैं। जन्‍म से लगाकर मृत्‍युपर्यन्‍त कुम्‍हार की बनायी गयी कोई न कोई चीज मनुष्‍य के काम आती है।

· काष्‍ठ शिल्‍पः--निमाड़ में काष्‍ठशिल्‍प का कार्य पारम्‍परिक रूप से सुतार जाति के लोग करते हैं। लकड़ी के खिलौने मुर्तियां कलात्‍मक दरवाजे , खिड़कियों , चौखटों बाजुट विवाह स्‍तम्‍भ ‘माणिकखंभ' लगुन चिड़िया सगोटी काल सन्‍दूरे लकड़ी की कंगण बैलगाड़ी खेती के औजार रथ सिहांसन कुर्सियां पलंग सोफा सेट अलमारियां आदि का निर्माण दक्ष शिल्‍पी काष्‍ठ शिल्‍पी करते हैं। इन पर सुन्‍दर नक्‍काशी करने की परिपाटी निमाड़ में बहुत पुरानी है। भवन के अन्‍दर काष्‍ठ स्‍तम्‍भों पाटो और कुम्‍बियो पर विभिन्‍न पशु पक्षियों मानवाकृतियों और बेलों फूलों का उद्रेखण उत्कृष्ट कला के अद्वितीय उदाहरण कहे जा सकते हैं। निमाड़ के गांवों और शहरों में ऐसे कई भवन मकान है। जो ग्रामीण स्‍थापत्‍य की श्रेष्‍ठ कृतियां हैं।

· लाख शिल्‍पः-लाख शिल्‍प के परम्‍परागत कलाकार लखारा जाति के लोग हैं लाख की काम करने के कारण इनका नाम लखारा पड़ा । इस कार्य में स्‍त्री एवं पुरूष दोनो ही पारंगत होते हैं। लाख को पिंगला के गोल रस्‍सी के समान डोरी बनाई जाती है। फिर उसे ठप्‍पे से चौकोर बनाकर चूड़ा बनाया जाता है। जिस पर कांच के सफेद नगीने लगाये जाते हैं। इसके अतिरिक्‍त लाख के खिलौने श्रृंगार पेटी, डब्‍बियां चूडे, पाटले अलंकृत पशुपक्षी आदि कलात्‍मक वस्‍तुएं बनाई जाती है।

· बांस शिल्‍पः-निमाड़ का कार्य करने वाले झमराल और बरगुण्‍डा होते हैं। बांस से बनी कलात्‍मक वस्‍तुऐं सौन्‍दर्यपरक और जीवनोपयोगी भी होते हैं। निमाड में दैनिक उपयोग की वस्‍तुओं जैसे टोकनी सूपा चटाई इत्‍यादि। इसके अतिरिक्‍त खिलौने, पंखे, पिचकारी आदि बांस के परम्‍परागत सामग्री भी बनाई जाती है। मांगलिक कार्यों में बांस की बनी सामग्री का होना अनिवार्य और पवित्र माना जाता है.

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· पत्ता शिल्प – पत्ता शिल्प के कलाकार मूलतः झाड़ू बनाने वाले होते हैं। घर के किसी भी कोने में झाड़ू अवश्य मिलेगी. सिनफड़े या छिंद वृक्ष के पत्तों का उपयोग पत्ता शिल्प में बहुत पुराना है. पत्तों से छोटे हिरण, गाय, बैल, बाघ, सर्प, बैलगाड़ी आदि खिलौने नयनाभिराम गूंथवा आकृति ग्रहण कर लेते हैं. मनुष्य जीवन के विवाह जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर पत्तों का मोढ़ सदियों से धारण करता आया है।

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· घास शिल्प – बांस भी एक तरह की घास की प्रजाति है. जंगल और खेत में प्राकृतिक रूप से उगने वाली सुनहरी और रुपहली घास से कई प्रकार के खिलौने बनाकर मनोरंजन करना, ग्वाला या चरवाहा संस्कृति की देन कही जाती है. बैगा जनजाति की लड़कियाँ नृत्य शृंगार में बीरन बांस की छल्लेदार स्वर्णमयी लटकनों का गुच्छा जूड़े में बांधती हैं. घास के आभूषण बनाकर पहनना ग्रामीण बालाओं का प्रिय शौक रहा है. पीली घास से मयूर, चिड़िया, कबूतर, हिरण, गाय, हाथी, ऊँट और घोड़ा आदि बनाए जाते हैं.

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· सन-सुतली-रस्सी शिल्प – निमाड़ में सन-सुतली बनाने का कार्य किसान के घर में होता है. यह बांस व केले के वृक्ष से बनाई जाती है. इस रस्सी से खटिया बुनी जाती है. लहरिया भात, सिगोड़ा भात, खजूर भात, चौखाना भात, फूल-पत्ती भात, बेल भात आदि तरह की खटियाएँ बुनी जाती हैं. कभी कभी रस्सी एवं सन सुतली में हरा लाल पीला गुलाबी रंग चढ़ाकर सन सुतली को खटिया पर भरा जाता है तो रंगों से भरी खाट जब दिन में आँगन में खड़ी रखी जाती है तो इन्द्र धनुषी छटा सबका ध्यान बंटाती है. ग्रामीण समाज में सौंदर्यबोध किसी शहरी व्यक्ति से कम नहीं है.

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· पत्थर शिल्प – निमाड़ में सिलावट जाति के लोग पत्थर की मूर्तियों और अन्य उपयोगी वस्तुओं को गढ़ने का काम परम्परा से करते हैं. उपयोगी वस्तुओं में पत्थर की कुंडी, ओखली, मूसली, कुंबी, दासे, खण्ड, घट्टी के पाट, सिल लोढ़ी आदि बनाई जाती है. मूर्तियों में गणेश, शिवलिंग, शिवमूर्ति, नंदी आदि प्रमुख हैं.

· वस्त्र शिल्प – निमाड़ में बुनकर जातियों में खटिक, कोष्ठी, साकी, मारू, मोमिन, पनिका, आल्या, बलाई प्रमुख हैं. जो परम्परा से उपयोगी कपड़ा बुनती हैं. खटिक, कोष्टी, बुल्या, बलाई मोटा सूती कपड़ा आनते हैं. जिनमें धोती, साड़ी, पंचा, खेस, कम्बल, डोरिया, लट्ठा इत्यादि हैं. साली, मारू, मोमिन, रेशमी, सूती और सादी कलात्मक साड़ियाँ बुनने वाली जातियाँ हैं. निमाड़ में बुरहानपुर और महेश्वर साड़ियों के पारम्परिक केन्द्र रहे हैं. मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के लोग बुरहानपुरी साड़ी के नाम से साड़ी क्रय करने बाजारों में सहज ही दिखायी दे सकते हैं.

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· कलात्मक महेश्वरी साड़ी – महेश्वर का नाम लेते ही एक प्राचीनता और पावनता का अनुभव होता है. यही महेश्वर कभी माहिष्वती के नाम से विख्यात रहा है. साड़ियों के कारण महेश्वर का नाम एक बार पुनः सारे भारत में चमका. यहाँ की बनी हुई सुन्दर टिकाऊ एवं पक्के रंग की सूती रेशमी साड़ियाँ न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी सराही जाती हैं.

· छीपा शिल्प: छपे सूती वस्त्र पहनने का रिवाज निमाड़ में बहुत पुराना है. निमाड़ में रँगाई छपाई का पारम्परिक व्यवसाय छापी, खत्री, रंगारा, नीलगर, भावसार जाति के लोग करते हैं. मुसलमान छीपा और हिन्दू छीपा जिन्हें रंगारा भी कहा जाता है, कहीं कहीं रंगरेज भी कहा जाता है. वनस्पति रंग इतने पक्के होते हैं कि जैसे जैसे कपड़ा धुलता है वैसे रंग अधिक गहरा और चटक होता जाता है. मध्यप्रदेश में मालवा और निमाड़ के आदिवासी अंचलों में छीपाओं के द्वारा छापे गए कपड़ों की सर्वाधिक मांग होती है.

निष्कर्ष : लोक कला युग युगान्तर से चली आ रही परम्परा है. जिसके माध्यम से अपने परिवार व समाज के लिए उत्पन्न कल्याणकारी भावों का आत्म स्पंदित मूक प्रदर्शन होता है. लोक कला के चित्र परम्परा और विश्वास का अनोखा संगम रखते हैं. लोकचित्रण परम्परा का स्थायित्व एवं ईश्वर के सान्निध्य का सरल मार्ग है. चित्रण से प्राप्त आत्म संतुष्टि तथा चित्रांकन की पूजा आत्मबल प्रदान करती है. जो सफलता का प्रथम सोपान है. ईश्वर के अस्तित्व को जड़ चेतन में स्वीकार करने पर ही लोक चित्रों, कथाओं, नृत्य गीतों की रचना सम्भव है.

परम्पराएँ पीढ़ी दर पीढ़ी किस तरह से हस्तांतरित होती हैं, लोकचित्र इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. प्रत्येक लोक चित्र धार्मिक, सामाजिक, नैतिक तथा पारम्परिक भावों का दर्शनीय रूप है. धनी हो या निर्धन, लोक-चित्र सभी के घरों की भूमि, भित्ति को एक सा सजाते संवारते हैं.

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  1. "पर्व त्‍योहारों पर कुम्‍हार विभिन्‍न प्रकार के खिलौने आनुष्‍ठानिक कलश सिरोटे दिये आदि बनाते हैं। जन्‍म से लगाकर मृत्‍युपर्यन्‍त कुम्‍हार की बनायी गयी कोई न कोई चीज मनुष्‍य के काम आती है।"

    सारगर्भित लेख के लिए,
    बधाई।

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  2. nimad ke bare me vistrat jankari padhakar bhut acha lga .is bhumuly
    jankari ke liye badhai.
    nimad ka sansrtik itihas jo ki padmshreeramnarayan upadhyayji dvara
    likhit hai usme bhi vistrat varnan hai.

    जवाब देंहटाएं
  3. आपका लेख बहुत ही सरल भाषा मे बहुत हि सुन्दर और ज्ञानवर्धक लगा | आपके लेख के लिए धन्यवाद ,
    आपसे मेरा एक सवाल हैं " लोककला और परम्पगतकला मे क्या अंतर हैं ?
    उम्मीद हैं कि मुझे जल्द हिज्वाब मिलेगा .....
    धन्यवाद
    श्वेता पाण्डेय

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  4. बेनामी2:19 am

    इस विषय की जानकारी देने हेतु आपको हृदय से धन्यवाद|

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: रेखा श्रीवास्तव का आलेख : लोक कला
रेखा श्रीवास्तव का आलेख : लोक कला
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