“शब्द समाज” में मेरा सम्मान कुछ कम नहीं है। मेरा इतना आदर है कि वक्ता और लेखक लोग मुझे जबरदस्ती घसीट ले जाते हैं। दिन भर में मेरे पास न जाने...
“शब्द समाज” में मेरा सम्मान कुछ कम नहीं है। मेरा इतना आदर है कि वक्ता और लेखक लोग मुझे जबरदस्ती घसीट ले जाते हैं। दिन भर में मेरे पास न जाने कितने बुलावे आते हैं। सभा सोसाइटियों में जाते आते मुझे नींद भर सोने की भी छुट्टी नहीं मिलती। यदि मैं बिना बुलाये भी कहीं जा पहुँचता हूँ तो भी सम्मान के साथ स्थान पाता हूँ। सच पूछिए तो “शब्द समाज” में यदि मैं, “इत्यादि” न रहता तो लेखकों और वक्ताओं की न जाने क्या दुर्दशा होती। पर हा! इतना सम्मान पाने पर भी किसी ने आज तक मेरे जीवन की कहानी नहीं कही। संसार में जो जरा भी काम करता है उसके लिए लेखक लोग खूब नमक मिर्च लगा कर पोथे के पोथे रँग डालते हैं पर मेरे लिए एक सतर भी किसी की लेखनी से आज तक नहीं निकली। पाठक, इसमें एक भेद है।
यदि लेखक लोग सर्वसाधारण पर मेरे गुण प्रकाश करते तो उनकी कोई योग्यता की कलई जरूर खुल जाती क्योंकि उनकी शब्द दरिद्रता की दशा में मैं ही उनका एकमात्र अवलंब हूँ। अच्छा तो आज मैं चारों ओर से निराश होकर आप ही अपनी कहानी कहने और गुणावली गाने बैठा हूँ। पाठक आप मुझे, ”अपने मुँह मियाँ मिटठू” बनने का दोष न लगावें। मैं इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।
अपने जन्म का सन-संवत-मिति दिन मुझे कुछ भी याद नहीं। याद है इतना ही की जिस समय “शब्द का महा अकाल” पड़ा था उसी समय मेरा जन्म हुआ था। मेरी माता का नाम “ इति” और पिता का “आदि” है। मेरी माता अविकृत “अव्यय” घराने की है। मेरे लिए यह थोड़े गौरव की बात नहीं है क्योंकि भगवान् फणीन्द्र की कृपा से “अव्यय” वंश वाले प्रतापी महाराज “प्रत्यय” के कभी अधीन नहीं हुए। वे सदा स्वाधीनता से विचरते आये हैं।
मैं जब लड़का था तब माँ बाप ने एक ज्योतिषी से मेरे अदृष्ट का फल पूछा था। उन्होंने कहा था कि यह लड़का विख्यात और परोपकारी होगा अपने समाज में यह सबका प्यारा बनेगा पर दोष है तो बस इतना ही कि यह कुँवारा ही रहेगा। विवाह न होने से इसके बालबच्चे न होंगे। यह सुनकर माँ बाप के मन में पहले तो थोड़ा दु:ख हुआ पर क्या किया जाय 1 होनहार ही यह था। इसलिए सोच छोड़कर उन्हें संतोष करना पड़ा। उन दोनों ने अपना नाम चिरस्मरणीय करने के लिए (मुझसे ही उनके वंश की इतिश्री थी) मेरा नाम कुछ और नहीं रखा। अपने ही नामों को मिलाकर ये मुझे पुकारने लगे। इससे मैं इत्यादि कहलाया।
पुराने जमाने में मेरा इतना नाम नहीं था। कारण यह तो लड़कपन में थोड़े लोगों से मेरी जान पहचान थी, दूसरे उस समय बुद्धिमानों के बुद्धि भंडार में शब्दों की दरिद्रता भी न थी। पर जैसे जैसे शब्द दारिद्र्य बढ़ता गया वैसे वैसे मेरा सम्मान भी बढ़ता गया। आज कल की बात मत पूछिए। आजकल मैं ही मैं हूं। मेरे समान सम्मान वाला इस समय मेरे समाज में कदाचित् बिरला ही कोई ठहरेगा। आदर की मात्रा के साथ मेरे नाम की संख्या भी बढ़ चली है। आजकल मेरे अनेक नाम हैं भिन्न भिन्न भाषाओं के “ शब्द समाज” में मेरा नाम भी भिन्न भिन्न है। मेरा पहनावां भी भिन्न भिन्न हैझ जैसा देश वैसा ही भेष बनाकर मैं सर्वत्र विचरता हूँ। आप तो जानते ही होंगे कि सर्वेश्वर ने हम ”शब्दों” को सर्वव्यापक बनाया है। इसी से मैं एक ही समय अनेक ठौर काम करता हूँ। इस समय विलायत की पार्लियामेंट महासभा में डटा हूँ और इसी घड़ी भारत की पंडित मंडली में भी विराजमान हूँ। जहाँ देखिए वही परोपकार के लिए उपस्थित हूँ।
मुझमें यह एक भारी गुण है कि क्या राजा, क्या रंक, क्या पंडित, क्या मूर्ख, किसी के घर आने जाने में मैं संकोच नहीं करता और अपनी मानहानि नहीं समझता। अन्य “शब्दों” में यह गुण नहीं। वे बुलाने पर भी कहीं जाने आने में बड़ा गर्व करते हैं बहुत आदर चाहते हैं। जाने पर सम्मान का स्थान न पाने पर रूठ कर उठ भागते हैं। मुझमें यह बात नहीं। इसी से मैं सबका प्यारा हूँ।
परोपकार और दूसरे की मान रक्षा तो मानों मेरा धंधा ही है। यह किये बिना मुझे एक पल भी कल नहीं पड़ती। संसार में ऐसा कौन है जिसके अवसर पड़ने पर मैं काम नहीं आता। निर्धन लोग जैसे भाड़े पर कपड़ा लत्ता पहनकर बड़े बड़े समाजों में बड़ाई पाते हैं, कोई उन्हें निर्धन नहीं समझता वैसे ही मैं भी छोटे छोटे वक्ताओं और लेखकों की दरिद्रता झटपट दूर कर देता हूँ। अब दो एक दृष्टान्त लीजिए।
वक्ता महाशय वक्तृता देने को उठ खड़े हुए हैं। अपनी पंडिताई दिखाने के लिए सब शास्त्रों की बात थोड़ी बहुत कहनी चाहिए। पर शास्त्र का जानना तो अलग रहा उन्हें किसी शास्त्र का पन्ना भी उलटने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ। इधर उधर से सुनकर दो एक शास्त्रों और शास्त्रकारों का नाम भर जान लिया है। कहने को तो खड़े हुए हैं, पर कहें क्या? अब लगे चिता के समुद्र में डूबने उतराने; और मुँह पर रूमाल दिये खाँसते खूंसते इधर उधर ताकने लगे। दो चार बूंदें पानी भी उनके मुख मंडल पर झलकने लगा। जो मुख कमल पहले उत्साह सूर्य की किरणों से खिल उठा था अब ग्लानि और संकोच का पाला पड़ने से मुरझा गया। उसकी ऐसी दशा देख मेरा हृदय दया से उमड़ आया। उस समय मैं बिना बुलाये उनकी सहायता के लिए जा खड़ा हुआ; और मैंने उनके कानों में चुपके से कहा ”महाशय कुछ परवा नहीं, आपकी मदद के लिए मैं हूँ। आपके जी में जो आवे आरंभ कीजिए फिर तो मैं सब कुछ निबाह लूंगा” मेरे ढाढ़स बंधाने पर बेचारे वक्ताजी के जी में जी आया।
उनका मन फिर ज्यों का त्यों हरा-भरा हो उठा : थोड़ी देर के लिए जो उनके मुखड़े के आकाश मंडल में चिन्ता चिह्न का बादल देख पड़ा था वह मेरे ढ़ाढस झकोरे से एकबारगी फट गया; और उत्साह का सूर्य फिर निकल आया। अब लगे वे यों वक्तृता झाड़ने - ”महाशयो मनु इत्यादि धर्मशास्त्रकार, व्यास इत्यादि पुराणकार, कपिल इत्यादि दर्शनकारों ने कर्मवाद पुनर्जन्मवाद इत्यादि जिन जिन दार्शनिक तत्व रत्नों को भारत के भंडार में भरा है उन्हें देखकर मैक्समूलर इत्यादि पाश्चात्य पंडित लोग बड़े अचंभे में आकर चुप हो जाते हैं। इत्यादि-इत्यादि।“
यहाँ इतना कहने की जरूरत नहीं कि वक्ता महाशय धर्मशास्त्रकारों में केवल मनु, पुराणकारों में केवल व्यास, दर्शनकारों में केवल कपिल का नाम भर जानते हैं और उन्होंने कर्मवाद पुनर्जन्मवाद का नाम भर सुन लिया है। पर देखिए मैंने उनकी दरिद्रता दूर कर उन्हें ऊपर से कैसा पहनावा पहनाया कि भीतर के फटे पुराने और मैले चिथड़े को किसी ने नहीं देखा।
और सुनिए - किसी समालोचक महाशय का किसी ग्रंथकार के साथ बहुत दिनों से मनमुटाव चला आता था। जब ग्रंथकार की कोई पुस्तक समालोचना के लिए समालोचक साहब के आगे आई तब वे बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि यह दांव तो बहुत दिनों से ढूंढ रहे थे। पुस्तक को बहुत कुछ ध्यान देकर, उलटकर उन्होंने देखा। कहीं किसी प्रकार का विशेष दोष पुस्तक में उन्हें न मिला। दो एक साधारण छापे की भूलें निकलीं। पर इससे तो सर्वसाधारण की तृप्ति नहीं होती। ऐसी दशा में बेचारे समा लोचक महाशय के मन में याद आ गया। वे झटपट मेरी शरण आये। फिर क्या है। पौ बारह! उन्होंने उस पुस्तक की यों समालोचना कर डाली - पुस्तक में जितने दोष हैं उन सभों को दिखाकर हम ग्रंथकार की अयोग्यता का परिचय देना, तथा अपने पत्र का स्थान भरना और पाठकों का समय खोना नहीं चाहते। पर दो एक साधारण दोष हम दिखा देते हैं; जैसे इत्यादि इत्यादि।
पाठक देखा! समालोचक साहब का इस समय मैंने कितना बड़ा काम किया। यदि यह अवसर उनके हाथ से निकल जाता तो वे अपने मन मुटाव का बदला क्योंकर लेते? यह तो हुई बुरी समालोचना की बात। यदि भली समालोचना का काम पड़े तो मेरे ही सहारे वे बुरी पुस्तकों की भी ऐसी समालोचना कर डालते हैं कि वह पुस्तक सर्वसाधारण की आँखों में भली भासने लगती है और उसकी माँग चारों ओर से आने लगती है।
कहाँ तक कहूं। मैं मूर्ख को पंडित बनाता हूँ। जिसे युक्ति नहीं सूझती उसे युक्ति सुझाता हूँ। लेखक को यदि भाव प्रकाश करने की भाषा नहीं जुटती तो भाषा जुटाता हूँ। कवि को जब उपमा नहीं मिलती उपमा बताता हूँ। सच पूछिए तो मेरे पहुँचते ही अधूरा विषय भी पूरा हो जाता है। बस क्या इतने से मेरी महिमा प्रकट नहीं होती?
(रचनाकाल – 1904 ई.)
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