(माखनलाल चतुर्वेदी की मूल रचना ‘साहित्य देवता’ आज के ‘चिट्ठाकार देव’ उर्फ ‘ब्लॉगर देवता’ पर क्या सटीक नहीं बैठती? पढ़ें और मजे लें --) ...
(माखनलाल चतुर्वेदी की मूल रचना ‘साहित्य देवता’ आज के ‘चिट्ठाकार देव’ उर्फ ‘ब्लॉगर देवता’ पर क्या सटीक नहीं बैठती? पढ़ें और मजे लें --)
साहित्य देवता
माखनलाल चतुर्वेदी
मैं तुम्हारी एक तसवीर खींचना चाहता हूँ । “परन्तु भूल मत जाना कि मेरी तसवीर खींचते खींचते तुम्हारी भी एक तसवीर खिंचती चली आ रही है” अरे, मैं तो स्वयं ही अपने भावी जीवन की एक तसवीर अपने अटैची केस में रखे हुए हूँ । तुम्हारी बना चुकने के बाद मैं उसे प्रदर्शनी में रखने वाला हूँ । किन्तु मेरे मास्टर मैं यह पहले देख लेना चाहता हूँ_ कि मेरे भावी जीवन को किस तरह चित्रित कर तुमने अपनी जेब में रख छोड़ा है ।
“प्रदर्शनी में रखो तुम अपनी बनाई हुई, और मैं अपनी बनाई हुई रख दूँ केवल तुम्हारी तस्वीर।”
ना सेनानी मैं किसी भी आईने पर बिकने नहीं आया । मैं कैसा हूँ यह पतित होते समय खूब देख लेता हूँ । चढ़ते समय तो तुम्हीं केवल तुम्हीं दीख पड़ते हो ।
“क्या देखना है ?”
तुम्हें; और तुम कैसे हो यह कलम के घाट उतारने के समय यह हरगिज नहीं भूल जाना है कि तुम किसके हो ।
“आज चित्र खींचने की बेचैनी क्यों है ?”
कल तक मैं तुम्हारा मोल तोल कूता करता था । आज अपनी इस वेदना को लिखने के आनन्द का भार मुझसे नहीं सँभलता ।
“सचमुच पत्थर की कीमत बहुत थोड़ी होती है; वह बोझीला ही अधिक होता है।
बिना बोझ के छोटे पत्थर भी होते हैं; जिनमें से एक एक की कीमत पचासों हाथियों से नहीं कूती जाती । परन्तु...
“परन्तु क्या?”
मेरे प्रियतम तुम वह मूल्य नहीं हो जिसकी अभागे गाहक की अड़चनों को देख कर, अधिक से अधिक माँग की जाती है ।
हाँ, तो तुम्हारा चित्र खींचना चाहता हूं । मेरी कल्पना की जीभ को लिखने दो कलम की जीभ को बोल लेने दो । किन्तु, हृदय और मसिपात्र दोनों तो काले हैं । तब मेरा प्रयत्न, चातुर्य का अर्थ विराम, अल्हड़ता का अभिराम केवल धवलताका गर्व गिराने वाला श्याम मात्र होगा । परन्तु यह काली बूँदें अमृत बिंदुओं से भी अधिक मीठी अधिक आकर्षक और मेरे लिए अधिक मूल्यवान है । मैं उनसे आराध्य चित्र जो बना रहा हूँ।
***
कौन सा आकार दूँ ? मानव हृदय के मुग्ध संस्कार जो हो । चित्र खींचने की सुध कहाँ से लाऊँ । तुम अनन्त जाग्रत आत्माओं के ऊँचे और गहरे, -पर स्वप्न जो हो ! मेरी काली कलम का बल समेटे नहीं सिमटता । तुम कल्पनाओं के मन्दिर में बिजली की व्यापक चकाचौंध जो हो । मानव सुख के फूलों और लड़ाके सिपाही के रक्त बिन्दुओं के संग्रह तुम्हारी तसवीर खीचूँ मैं ? तुम तो वाणी के सरोवर में अन्तरात्मा के निवासी की जगमगाहट हो । लहरों से परे पर लहरों में खेलते हुए । रजत के बोझ और तपन से खाली पर पंछियों, वृक्ष राजियों और लताओं तक को रुपहलेपन में नहलाए हुए।
वेदनाओं के विकास के संग्रहालय तुम्हें किस नाम से पुकारूँ ? मानव जीवन की अब तक पनपी हुई महत्ता के मन्दिर, ध्वनि की सीढियों से उतरता हुआ ध्येय का माखनचोर, क्या तुम्हारी गोद के कोने में ‘राधे’ कहकर नहीं दौड़ा आ रहा है ? अहा, तब तो तुम जमीन को आसमान से मिलाने वाले जीने हो; गोपाल के चरण चिह्नों को साध साधकर चढ़ने के साधन ! ध्वनि की सीढियाँ जिस क्षण लचक रही हों और कल्पना की सुकोमल रेशम डोर जिस समय गोविन्द के पदारविन्द के पास पहुँच कर झूलने की मनुहार कर रही हो उस समय यदि वह झूल पड़ता होगा? आह, तुम कितने महान् हो ? इसीलिए लाँगफेलो बेचारा तुम्हारे चरण चिह्नों के मार्ग की कुञ्जी तुम्हारे ही द्वार पर लटका गया है, मेरे मास्टर । चिड़ियों की चहक का संगीत, मैं और मेरी अमृत निस्यंदिनी गाय ब्रज लता दोनों सुनते हैं । “सखि चलो सजन के देस, जोगन बन के धूनी •डालेंगे” - मैं और मेरा घोड़ा दोनों जहाँ थे वहीं “शम्भु” जी ने अपनी यह तान छेड़ी थी । परन्तु वह तो तुम्हीं थे, जिसने द्विपद और चतुष्पद का विश्व को निगूढ़ तत्त्व सिखाया । अरे, पर मैं तो भूल ही गया, मैं तो तुम्हारी तस्वीर खींचने वाला था न?
हाँ? तो अब मैं तुम्हारी तसवीर खींचना चाहता हूँ । पशुओं को कच्चा खाने वाली जबान और लज्जा ढकने के लिए लपेटी जाने वाली वृक्षों की छालें, वे इतिहास से भी परे खड़े हुए हैं और यह देखो श्रेणी बद्ध अनाज के अंकुर और शाहजादे कपास के वृक्ष बाकायदा अपने ऐश्वर्य को मस्तक पर रख कर भूपाल बनने के लिए वायु के साथ होड़ बद रहे हैं । इन दोनों जमानों के बीच की जंजीर तुम्हीं तो हो । विचारों के उत्थान और पतन तथा सीधे और टेढ़े पन को मार्ग दर्शक बना तुम्हीं न कपास के तंतुओं से झीने तार खींचकर विचार ही की तरह आचार के जगत् में कल्याणी पांचाली वाणी की लाज बचा रही हो ?
कितने दुःशासन आये और चले गये । तुम्हारी बीन से रात को तड़पा देने वाली सोरठ गाई थी और सबेरे विश्व संहारकों से जूझने जाते समय उसी बीन से युद्ध के नक्कारे पर डंके की चोट लगाई गई थी । नगाधिराजों के मस्तक पर से उतरने वाली निम्नगाथाओं की मस्ती भरी दौड़ पर और उनसे निकलने वाली लहरों की कुरबानी से हरियाली होने वाली भूमि पर लजीली पृथ्वी से लिपटे तरल नीलाम्बर महासागरों पर और उनकी लहरों को चीर कर गरीबों के रक्त से कीचड़ सान, साम्राज्यों का निर्माण करने के लिए दौड़ने वाले जहाजों के झंडों पर तुम्हीं केवल तुम्हीं लिखे दीखते हो ।
इंग्लैंड का प्रधान मन्त्री, इटली का •डिक्टेटर, अफगानिस्तान का पदच्युत, चीन का ऊंघ कर जागता हुआ और रूस का सिंहासन उलटने और क्रान्ति से शान्ति का पुण्याह्वान करने वाला गरीब यह तो तुम्हीं हो । यदि तुम स्वर्ग न उतारते तो मन्दिरों में किसकी आरती उतरती ? वहाँ चमगादड़ टँगे रहते, उलूक बोलते । मस्तिष्क के मन्दिर जहाँ भी तुमसे खाली हैं यही तो हो रहा है । कुतुबमीनारों और पिरामिडों के गुम्बज तुम्हारे ही आदेश से आसमान से बातें कर रहे हैं ।
आँखों की पुतलियों में यदि तुम कोई तसवीर न खींच देते तो वे बिना दाँतो के ही चोंथ डालतीं, बिना जीभ के ही रक्त चूस लेतीं ।
वैद्य कहते हैं धमनियों से रक्त की दौड़ का आधार हृदय है - क्या हृदय तुम्हारे सिवा किसी और का नाम है ?
व्यास का कृष्ण और वाल्मीकि का राम किसके पंखों पर चढ़ कर हजारों वर्षों की छाती छेदते हुए आज भी लोगों के हृदयों में विराज रहे हैं । वे चाहे कागज के बने हों चाहे भोज पत्रों के वे पंख तो तुम्हारे ही थे ।
रूठो नहीं, स्याही के शृंगार मेरी इस स्मृति पर तो पत्थर ही पड़ गये कि मैं तुम्हारा चित्र खींच रहा था ।
****.
परन्तु तुम सीधे कहाँ बैठते हो ? तुम्हारा चित्र ? बड़ी टेढ़ी खीर है । सिपहसालार तुम देवत्व को मानवत्व की चुनौती हो । हृदय से छन कर, धमनियों में दौड़ने वाले रक्त की दौड़ हो और हो उन्माद के अतिरेक के रक्त तर्पण भी ।
आह, कौन नहीं जानता कि तुम कितनों ही की बंसी की धुन हो; धुन वह, जो गोकुल से उठ कर विश्व पर अपनी मोहिनी का सेतु बनाये हुए है । काल की पीठ पर बना हुआ वह पुल मिटाये मिटता नहीं भुलाये भूलता नहीं ।
ऋषियों का राग, पैगम्बरों का पैगाम, अवतारों की आन युगों को चीरती किस लालटेन के सहारे हमारे पास तक आ पहुँची ? वह तो तुम हो । और आज भी कहाँ ठहर रहे हो ? सूरज और चांद को अपने रथ के पहिये बना, सूझ के घोड़ों पर बैठे बढे ही तो चले जा रहे हो प्यारे । उस समय हमारे सम्पूर्ण युग का मूल्य तो मेल ट्रेन में पड़ने वाले छोटे से स्टेशन का-सा भी नहीं होता ।
पर इस समय तो तुम मेरे पास बैठे हो !
तुम्हारी एक मुट्ठी में भूतकाल का देवत्व छटपटा रहा है - अपने समस्त समर्थकों समेत; दूसरी मुट्ठी में विश्व का विकसित पुरुषार्थ विराजमान है ।
धूल के नन्दन में परिवर्तित स्वरूप कुञ्जबिहारी आज तो कल्पना की फुलवारियाँ भी विश्व की स्मृतियों में तुम्हारी तर्जनी के इशारों पर लहलहा रही है ।
तुम नाथ नहीं हो, इसीलिए कि मैं अनाथ नहीं हू । किन्तु हे अनन्त पुरुष यदि तुम विश्व की कालिमा का बोझ सँभालने मेरे घर न आते तो ऊपर आकाश भी होता और नीचे जमीन भी; नदियाँ भी बहतीं, और सरोवर भी लहराते; परन्तु मैं और चिड़ियाँ, दोनों और छोटे मोटे जीव जन्तु स्वाभाविक लता पत्रों और अन्न कणों से अपना पेट भरते होते । मैं भर वैशाख में भी वृक्षों पर शाखा मृग बना होता । चीते सा गुर्राता, मोर सा कूकता, और कोयल सा गा भी देता ।
परन्तु मेरा और विश्व के हरियालेपन का उतना ही सम्बन्ध होता जितना नर्मदा के तट पर हरसिंगार की वृक्ष राशि में लगे हुए टेलिग्राफ के खम्भों का नर्मदा से कोई सम्बन्ध हो ।
उस दिन भगवान् ‘समय’ न जाने किसका, न जाने कब कान उमेठ कर चलते बनते ? मुझे कौन जानता ? विन्ध्य की जामुनों और अरावली की खिरनियों के उत्थान और पतन का इतिहास किसके पास लिखा है ! इसीलिए तो मैं तुमसे कहता हूँ -
“ऐसे ही बैठे रहो ऐसे ही मुसकाहु ।“
“क्यों?”
इसलिए कि अन्तरतट की तरल तूलिकायें समेट कर अराजक ! मैं तुम्हारा चित्र खींचना चाहता हूँ।
***.
क्या तुम अराजक नहीं हो ? कितनी गद्दियाँ तुमने चकनाचूर नहीं की ? कितने सिंहासन तुमने नहीं तोड़ डाले ? कितने मुकुटों को गला कर घोड़ों की सुनहली खोगीरें नहीं बना दी गईं ?
सोते हुए अखंड नरमुण्डों के जागरण, नाड़ी रोगी के ज्वर की माप बताने में चूक सकती है, किन्तु तुम मुग्ध होकर भी जमाने को गणित के अकों जैसा नपा तुला और दीपक जैसा स्पष्ट निर्माण करते चले आ रहे हो । आह, राज्य पर होने वाले आक्रमण को बरदाश्त किया जा सकता है, किन्तु मनोराज्य की लूट तो दूर, उस पर पड़ने वाली ठोकर कितने प्रलय नहीं कर डालती ।
सोने के सिहासनों पर विराजमानों की हत्याओं से जमाने के मनस्वियों के हाथ लाल हैं और नक्शे पर दिये जाने वाले रंग की तरह इस शक्ति की सीमा निश्चित है । परन्तु मनोराज्य की मृगछाला पर बैठे हुए बिना शस्त्र और बिना सेना के बृहस्पति के अधिकार को चुनौती कौन दे सके ?
मनोराज्य पर छूटने वाला तीर प्रलय की प्रथम चेतावनी लेकर लौटता है । म्रनोराध्य के मस्तक पर फहराता हुआ विजय-ध्वज जिस दिन धूलि धूसरित होने लगे उस दिन मनुष्यत्व दूरबीन से भी ढूंढे कहाँ मिलेगा ? उस दिन ज्वालामुखी फट पड़ा होगा, वज्र टूट पड़ा होगा ।
प्यारे, शून्य के अंक, गति के संकेत और विश्व के पतन पथ की तथा विस्मृति की गति की लाल झंडी तुम्हीं तो हो । तुम्हारा रंग उतरने पर वह आत्म तर्पण ही है जो फिर तुम पर लालिमा बरसा सके । जिस मन्दिर का झंडा लिपट जाय, वह डांवा डोल हो उठे उसमें नर नारायण नहीं रहते । उस देश को पराये चरण अभी धोने हैं, अपने मांस से पराये चूल्हे अभी सौभाग्यशील बनाये रखने हैं, पराई उतरन अभी पहननी हैं । मैं प्रियतम, तुम्हारी- “उतरन पहनी हुई तसवीर नहीं खींचूंगा।”
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उतरन - बुरी तरह स्मरण हो आया । बुरे समय, बुरे दिन । अपना कुछ न रहने वाला ही उतरन पहने । जो क्षिïतज के परे अपनी अँगुली पहुँचा पावे, जो प्रत्यक्ष् के उस ओर रखी हुई वस्तु को छू सके वह उतरन क्यों पहने ?
फ्रेंच और जर्मन जैसी भाषाओं का आपस का लेन देन उतरन नहीं, वह तो भाईचारे की भेंट है ।
एक भिखारिन माँ मेरी भी है । उसने भी रत्न प्रसव किये हैं । पत्थरों से बोझीले; ककड़ों से गिनती में अधिक; खाली अंतःकरण में मृदंग से अधिक आवाज करने वाले।
मातृ मन्दिर में उतरन एक दूसरे से होड़ ले रहा है । उतरन संग्रह की बहादुरी का इतिहास उसकी पीठ पर लदा हुआ है ।
गत वर्ष होने वाले विश्व परिवर्तनों के छपे पुराने अखबारों पर आज हम हवाई जहाज के नये आविष्कार की तरह बहस करते हैं ।
वीणा, बंसी और जल तरंग का सर्वनाश ही नहीं हो चुका, हारमोनियम और पियानो भी किस काम आएँगे ?
हमारा कोई गीत भी तो हो ? कला से नहलाया हुआ, हृदय तोड़ कर निकला हुआ।
वीणा में तार नहीं; दिल में गुबार नहीं ।
न जाने हम तुम्हारा जन्मोत्सव मनाते हैं या मरण त्योहार ? बैलगाड़ी पर बैठे बैठे हवाई जहाज देखा करते हैं । बिल्ली के रास्ता काट जाने पर हमारा अपशकुन होता है; किन्तु बेतार का तार स्विट्जरलैंड की खबर आस्ट्रेलिया पहुँचा कर भी हमारी श्रुतियों को नहीं छूता । तब हमारी सरस्वती से तो उसका सम्बन्ध ही कैसे हो सकता है ? एंजिन के रूप में धधकती हुई ज्वालामुखी का एक व्यापार हमारी छाती पर हो रहा है ।
प्यारे, इस समय ऊधोगति की ज्वाल मालाओं में से ऊँचा उठने के लिए आकर्षण चाहिए । कृषकों ने इसी लालच से तुम्हारा नाम कृष्ण रखा होगा ।
जरा तुम युग संदेशवाहिनी अपर्ना बांसुरी लेकर बैठ जाओ । रामायण में जहाँ बालकांड है वहाँ लंकाकांड भी तो है । तुम्हारी तान में भैरवी भी हो, कलिंगड़ा भी हो ।
जरा बंसी लेकर बैठ जाओ । मैं तुम्हारा चित्र मुरलीधर के रूप में चाहता हूँ ।
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“शिव संहार करते हैं” - कौन जाने ? किन्तु मेरे सखा तुम जरूर महलों के संहारक हो । झोपड़ियों ही से तुम्हारा दिव्य गान उठता है । किन्तु यह तुम्हारी पर्णकुटी देखो । जाले चढ़ गये हैं, वातायन बन्द हो गये हैं । सूर्य की नित्य नवीन प्राण-प्रेरक और प्राणपूरक किरणों की यहाँ गुजर कहाँ ? वे तो द्वार खटखटा कर लौट जाती हैं ।
द्वार पर चढ़ी हुई बेलें पानी की पुकार करती हुई बिना फलवती हुए ही अस्तित्व खो रही हैं । पितृ तर्पण करने वाले अल्हड़ों को लेकर मैं इस कुटी का कूड़ा साफ करने ही में लग जाना चाहता हूँ । कितने तप हुए किन्तु इस कुटिया में सूर्य दर्शन नहीं होते । मेरे देवता ! तुम्हारे मन्दिर की जब यह अवस्था किए हुए हूँ तब बिना प्रकाश बिना हरियालेपन, बिना पुष्प और बिना विश्व की नवीनता को तुम्हारे द्वार पर खड़ा किए, तुम्हारा चित्र ही कहाँ उतार पाऊँगा ?
विस्तृत नीले आसमान का पत्रक पाकर भी, देवता ! तुम्हारी तसवीर खींचने में शायद दैवी चितेरे इसीलिए असफल हुए, उन्होंने चन्द्र की रजतिमा की दावात में, कलम डुबोकर चित्रण की कल्पना पर चढने का प्रयत्न किया और प्रतीक्षा की उद्विग्नता में सारा आसमान धबीला कर चलते बने । इस बार मैं पुष्प लेकर नहीं, कलियाँ तोड़ कर आने की तैयारी करूँगा; और ऐ विश्व के प्रथम प्रभात के मन्दिर, उषा के तपोमय प्रकाश की चादर तुम्हें ओढ़ाकर, तुम्हारे उस अन्तरतट का चित्र खींचने आऊँगा जहाँ तुम अशेष संकटों पर अपने हृदय के टुकड़े बलि करते हुए, शेष के साथ खिलवाड़ कर रहे होगे ।
आज तो उदास पराजित और भविष्य की वेदनाओं की गठरी सिर पर लादे, बाग में उन कलियों के आने की उम्मीद में ठहरता हूँ, जिनके कोमल अन्तस्तल को छेद कर, उस समय जब तुम नगाधिराज का मुकुट पहने दोनों स्कंधों से आने वाले संदेशों पर मस्तक डुला रहे होगे, गंगी और जमुनी का हार पहने बंग के पास तरल चुनौती पहुँचा रहे होगे, नर्मदा और ताप्ती की करधनी पहने विन्ध्य को विश्व नापने का पैमाना बना रहे होगे, कृष्णा और कावेरी की कोरवाला नीलाम्बर पहने विजयनगर का संदेश पुण्य प्रदेश से गुजार कर सह्याद्रि और अरावली को सेनानी बना मेवाड़ में ज्वाला जगाते हुए देहली से पेशावर और भूटान चीर कर अपनी चिरकल्याणमयी वाणी से विश्व को न्योता पहुँचा रहे होगे; और हवा और पानी की बेड़ियाँ तोड़ने का निश्चय कर, हिन्द महासागर से अपने चरण धुलवा रहे होगे –
- ठीक उसी सन्निकट भविष्य में, हाँ सूजी से कलियों का अन्तःकरण छेद, मेरे प्रियतम मैं तुम्हारा चित्र खींचने आऊँगा । - तब तक चित्र खींचने योग्य अरुणिमा भी तो तैयार रखनी होगी ।
बिना मस्तकों को गिने और रक्त को मापे ही मैं तुम्हारा चित्र खींचने आ गया ।
देवता, वह दिन आने दो स्वर; स्वर सध जाने दो ।
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