राकेश कुमार पाण्डेय की कहानी : प्रतिशोध

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  उं ची-उंची अट्‌टालिकाओं की चकाचौंध के बीच एक अबला की भावनाएं खून के आंसू रोती है, महलों की नींव पर सैकड़ों असहायों की हाय दफन होती है, स...

 

उंची-उंची अट्‌टालिकाओं की चकाचौंध के बीच एक अबला की भावनाएं खून के आंसू रोती है, महलों की नींव पर सैकड़ों असहायों की हाय दफन होती है, सागर की उंची लहरों के बीच तैराक पानी के लिये प्‍यासा तरसता है और दिये की जगमगाती रोशनी के नीचे धना अंधेरा होता है। स्‍वयं को शिक्षित और सभ्‍य समझने तथा अधिक प्रगतिशील होने का दंभ भरने वाले लोगों की मानसिकता स्‍त्री को भोग और विलास की वस्‍तु समझने की औरों से कुछ ज्‍यादा होती है, ऐसे घरों में एक औरत की महत्‍वाकांक्षा को कुचलने में एक पुरूष का अहम्‌ सर्वाधिक संतुष्‍ट होता है। अनपढ़ और जाहिल लोगों के बीच स्‍त्रियां पूजी जाती है पर तथाकथित विद्वानों की देहरी पर नारी अपने अधिकारों के लिये आज भी संघर्ष करती है, बेटियां बोझ समझी जाती हैं और पत्‍नी के पर उड़ने से पहले ही कतर दिये जाते हैं।

आज फिर से शहर के एक सुशिक्षित और कथित रूप से सभ्‍य एक परिवार में चारों ओर उदासी का मंजर था, अभी-अभी गर्भ से जन्‍मी नवजात शिशु अपनी किलकारियों से उस परिवार की सभ्‍यता के पाखंड पर अट्‌टहास कर रही थी, जिसके गुणगान करते हुये पड़ोसी कभी अघाते नहीं थे। सभी लोग सिंर औंधाए ऐसे बैठे हुये थे जैसे किसी तूफान ने घर में तबाही मचा दी हो और जिंदगी वीरान हो गयी हो, घर की छत से लेकर देहरी तक की स्‍तब्‍धता को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे किसी घोर संकट ने घर में दस्‍तक दी हो और उस संकट से उबरने उधेड़बुन के बीच उदासी ने सभी के चेहरे से मुस्‍कुराहट छीन ली हो।

परिवार के सभी सदस्‍यों के चेहरे पर छायी उदासी की पीड़ा से आरूषि मर्माहत थी, उसे शिशु को जन्‍म के समय होने वाले कष्‍ट आज अपने घर के सदस्‍यों के उदास चेहरे से टपकती असह्‌य पीड़ा के समक्ष बहुत थोड़े प्रतीत हो रहे थे।वह बिस्‍तर पर कराहती सभी की शारीरिक प्रतिक्रिया से उत्‍पन्‍न भावों को पढ़ने का प्रयास कर रही थी। उसके एक उफ पर अपना सर्वस्‍व कुर्बान करने का स्‍वांग रचने वाला समीर आज एक बार भी उसके समक्ष फटका नहीं था। एक औरत घर के सभी सदस्‍यों की उलाहनाएं तो हंसते-हंसते झेल लेती है पर पति की बेरूखी उसे कतई बर्दाश्‍त नहीं होती। वैसे भी अपनों की दी पीड़ा मनुष्‍य को हदय तक बेधती है।

पहली बार मां बनने की खुशी एक औरत को एक अजीब सा सुकुन देती है लेकिन आज उसे वह भी सब कुछ फीकी-फीकी सी लग रही थी। किसी तोतली बोली से अपने लिये मां शब्‍द सुनने का स्‍वप्‍न आज पहली बार साकार हुआ था, उस खुशी को शब्‍दों में बयां कर पाना आरूषि के लिये काफी कठिन था, बस वह स्‍वयं पर इतराती हुई होंठों पर मंद-मंद मुस्‍कुराहट बिखेर रही थी किंतु उसकी मुस्‍कान बिना तेल की बाती की तरह फफकती सी लग रही थी। आखिर उससे रहा नहीं गया, उसने समीर की ओर देखते हुये कहा -

समीर, आओ मेरे पास। इस तरह उदास नहीं हुआ करते, बेटियां बरकत देती हैं, वे लक्ष्‍मी का रूप हुआ करती हैं। सोंचों जरा, मां न होती,तो क्‍या तुम होते, मैं न होती, तो क्‍या तुम मेरे प्‍यार पर गर्व कर सकते थे।समीर, बेटियां भगवान का रूप होती हैं, उसके जन्‍म पर एक पिता को इस तरह उदास नहीं होना चाहिये।

आरूषि ने समीर को पास बुलाने का इशारा करते हुये जब यह कहा, तो समीर भी दो कदम चल आरूषि के पास आ गया, अपनी पत्‍नी के सिरहाने पर बैठ वह उसके आंचल में लिपटे हुये एक तिनके को दूर हटाने का प्रयास करने लगा ।

बताओ ना समीर, क्‍या मैंने गलत कहा ?

समीर बड़ी देर से अपनी पत्‍नी की बातें सुन रहा था, उसने अपनी खामोशी तोड़ते हुये कहा- आरूषि मैंने तुम्‍हें कितनी बार कहा कि एक बार भ्रुण परीक्षण करा लो, पर तुमने मेरी एक ना मानी, किसी ना किसी बहाने टालमटोल करती रही और परिणाम एक भयावह रूप में सामने है ।

समीर तुम कैसी बात करते हो ? क्‍या बेटियां कभी भयावह होती हैं ? बेटियों के बिना सारा संसार सूना है। बेटियां पारस होती हैं, वह अपने स्‍पर्श मात्र से एक पुरूष को स्‍वर्णिम आभा से आलोकित कर देती हैं। एक पिता को बुढ़ापे में बेटे की नहीं, बेटी की हमदर्दी चाहिये होती है, और हम भी जब बूढ़े हो जायेंगे ना समीर, तो ये बेटी हमारी देखभाल किया करेगी। आरूषि नवजात शिशु के माथे को चूमती हुये समीर को प्रसन्‍न करने की चेष्‍टा करने लगी। वास्‍तव में वह अपने पति के मन में पल रही कुण्‍ठा को हर तरह की समझाइश और उपदेशों से निकालने का यत्‍न कर रही थी, किंतु समीर पर इसका कोई असर नहीं हो रहा था, वह मुंह लटकाए बैठा हुआ था।

ऐसे खुशी के मौके पर एक पिता की उदासी आरूषि को बहुत खल रही थी, उससे रहा नहीं जा रहा था, उसने फिर अपने पति से अनुरोध भरे स्‍वर में कहा-समीर, एक बार मुस्‍कुरा दो प्‍लीज ! मेरे लिये, इस बेटी के लिये। देखो, कभी ऐसे भाव दोबारा मन में मत लाना, वरना जब यह बडी हो जायेगी तो कहीं, इसके मन में एक पिता और पुरूष के प्रति नफरत के भाव पैदा ना हो जाये। देखना, एक दिन, तुम खुद भी इसके बिना नहीं रह पाओगे, पिता का आकर्षण बेटियों के प्रति कुछ ज्‍यादा होता है ।

समीर अपने लटकाए हुये उदास चेहरे को उपर ही नहीं उठा रहा था, वह अपनी पत्‍नी के जुल्‍फों को उंगलियों से खेलने लगा। एक पत्‍नी अपने पति के हर हाव भाव को बिना कुछ कहे शारीरिक प्रतिक्रिया मात्र से ही समझ लेती है, आरूषि को यह समझते देर ना लगी कि समीर उससे कुछ कहना चाह रहा है।

उसने अपने पति के हाथों को, अपने कोमल गालों का स्‍पर्श प्रदान करते हुये कहा - क्‍या हुआ समीर? तुम कुछ कहना चाह रहे हो, बोलो ना! मैं जानती हूं, कि मेरा पति बहुत अच्‍छा इंसान है, वह उन लोगों की तरह नहीं, जो बेटियों को बोझ समझते हैं। आरूषि ने इस तरह समीर के मन में नैतिकता का बोध कराने का प्रयास किया था, वैसे भी मनोवैज्ञानिक रूप से यह कहा ही जाता है कि जब किसी गंदे इंसान को भी बार-बार अच्‍छा कहा जाये तो उसके अंदर की नैतिकता कभी ना कभी जाग जाती है और उसके व्‍यवहार में बदलाव देखा जाता है आरूषि भी शायद यही कोशिश कर रही थी ।

आरूषि, एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगे ? समीर ने अपनी पत्‍नी के पलकों को हाथों का स्‍पर्श देते हुये कहा।

अरे बोलो ना, तुम बोलो और मैं बुरा मान जाउं, ऐसा कभी हुआ है ? तुम जानते हो समीर, शादी में जब मैं तुमसे सात वचन मांग रही थी तभी एक वचन मैंने तुम्‍हें अपने मन से दिया था, कि मैं जीवन भर तुम्‍हारी हर बात मानूंगी और तुम्‍हारी किसी बात का कभी बुरा नहीं मानूंगी। और ऐसा कहते हुये आरूषि खिलखिलाकर हंस पड़ी इस उम्‍मीद के साथ कि समीर भी उसकी ठहाकों के साथ खिलखिला पड़ेगा ।

समीर हंसा तो नहीं, लेकिन उसके चेहरे की हल्‍की मुस्‍कुराहट ने ही आरूषि को एक सुकून सा जरूर दिया।

आरूषि तुम बुरा मान जाओगी, खैर ․․․ छोड़ो ।

देखो समीर, दिल की बात जुबां तक नहीं ला पा रहे हो यानि तुम्‍हें मुझ पर यकीन नहीं है । क्‍या शादी के एक वर्ष के बाद भी मैं तुम्‍हारा विश्‍वास अर्जित नहीं कर सकी ? क्‍या मैंने तुम्‍हें अपना सर्वस्‍व नहीं माना? क्‍या मैंने अपना घर-बार सब कुछ त्‍याग तुम्‍हारे कदमों में जीवन व्‍यतीत करने का जो निर्णय लिया वह पर्याप्‍त नहीं है ? देखो समीर जो मन में है, बोलो । मैं जानती हूं, तुम यही कहना चाह रहे होगे, कि अब की बार भ्रूण परीक्षण जरूर करा लेना, मैं मान लेती हूं, बाबा बस, अब की बार पक्‍का कराउंगी, वादा रहा। अब तो मुस्‍कुरा दो ।

आरूषि के इतना कहने पर भी समीर के चेहरे की उदासी जा ही नहीं रही थी ।

देखो समीर, तुम नहीं कहोगे, तो मैं जरूर बुरा मान जाउंगी, ।

आरूषि तुम पक्‍का बुरा नहीं मानोगी । समीर ने आरूषि की बालों पर हाथ फेरते हुये कहा ।

हां बोले ।

देखो आरूषि, मैं लड़कियों का विरोधी नहीं हूं, लेकिन तुम जानती हो जिंदगी भर की गाढ़ी कमाई पढ़ाई के रूप में लड़कियों पर खर्च करने के बाद भी दहेज के रूप में जो मोटी रकम देनी होगी, उसका जुगाड़ आखिर हम कहां से करेंगे और उपर से सुरक्षा का दायित्‍व हमेशा मुंहबाएं खड़ा होगा। जमाना बहुत बुरा है, हम हर पल उसकी सुरक्षा करते आखिर कहां तक फिरेंगे ? ष्‍

तुम कैसी बात करते हो समीर, अगर हर पिता तुम्‍हारी तरह सोचने लगे तो दुनिया खत्‍म हो जायेगी, मानव जीवन का निरंतर प्रवाह समाप्‍त हो जायेगा। इंसानों के हंसते खेलते चेहरे के रूप में लहलहाती धरती पूरी तरह वीरान हो जायेगी। समूची पृथ्‍वी बंजर हो जायेगी समीर, और फिर इस दुनिया में न तुम रहोगे और तुम्‍हारी कोई पीढ़ियां बच पायेगी ।

देखो आरूषि, समूची दुनिया का ठेका हमने ही लेकर नहीं रखा है और लोग है ना लड़की पैदा करने और इस दुनिया को प्रवाहमान रखने के लिये ।

तो तुम क्‍या चाहते हो समीर, मैं अपने इस कलेजे के टुकड़े को मार डालूं ? आरूषि ने तमतमाते हुये कहा ।

मैंने तुम्‍हें ऐसा तो नहीं कहा, मैं तो सिर्फ यह चाहता हूं कि हम दोनो रात के अंधेरे में जब समूचा शहर सो रहा हो तब इसे किसी पहाड़ी पर छोड़ आते हैं, ईश्‍वर की मर्जी रहेगी तो इसे कोई उठा ले जायेगा और पाल पोस लेगा, तुमने देखा होगा कि फिल्‍मों में बहुधा यह दिखाया जाता है और कोई ना कोई उसे उठाकर ले ही जाता है ।

आरूषि के होश उड़ गये, मुंह खुले के खुले रह गये, आंखे फटी रह गयी, वह घोर आश्‍चर्य से अपने पति को देखने लगीं ।

समीर, एक पति के रूप में तुम्‍हारे उज्‍जवल चरित्र को देखकर मुझे फक्र होता था किंतु आज वहीं एक पिता के रूप में तुम्‍हारे कायर चेहरे ने मुझे शर्मिंदा कर दिया है। मैं लज्‍जित हूं, और पहली बार मुझे तुम जैसे पति पाने पर अफसोस हो रहा है। एक स्‍त्री को बेहतर पति ही नहीं बल्‍कि अपने संतानों का एक श्रेष्‍ठ पिता भी चाहिये होता है, और यदि इन दोनो में से कोई भी एक न हो ,तो जिंदगी भर औरत को एक अधूरापन सा सालता है। नहीं समीर, मैं ऐसा नहीं कर पाउंगी । तुम मेरा पहले गला घोंट दो, फिर उसके बाद तुम्‍हें जो करना हो करते रहना, तुम्‍हें रोकने वाला कोई ना होगा ।

अभी-अभी तो कह रही थी कि तुम सब कुछ कुर्बान कर सकती हो, क्‍या हुआ ? हवा निकल गयी तुम्‍हारे पतिव्रत धर्म की?उन वचनों की कलई खुल गई, जिसकी तुम अभी-अभी चर्चा कर रहे थे ।

आरूषि खामोश थी ।

बोलो ना, समीर ने आरूषि को जब झकझोरते हुये कहा, तब उसकी आंखे लाल हो चुकी थी । उसके खामोश चेहरे से निकले हुये भाव उन शब्‍दों को बयां कर रहे थे जिसके अर्थ कदाचित समीर के शब्‍द कोष में नहीं थे। वह ठगी सी एक अबला स्‍त्री की भांति समीर को अपलक निहार रही थी। वह महसूस कर रही थी, कि एक पुरूष किस तरह पिता और पति के रूप में दो अलग अलग चेहरों को जीता है और पत्‍नी असहाय तथा निरीह हो देखते रह जाती है। स्‍त्री के आजीवन सान्‍निध्‍य के परिणामस्‍वरूप सफलता की उंचाईयां नापता पुरूष किस तरह अपने ही घर में उस अजन्‍मी बालिका का विरोधी हो जाता है जो किसी की पत्‍नी और मां के रूप में एक विशाल वृक्ष को स्‍वयं में समेटे एक अंकुर के रूप में जन्‍म लेने की आकांक्षा रखती है। क्‍यों उसके इस धरती पर जन्‍म लेने की याचना एक पुरूष किसी भिखारन की तरह ठुकरा देता है ?

बोलो ना क्‍या हुआ ? समीर ने फिर से आरूषि कहा।

नहीं समीर, मैं ऐसा नहीं कर सकती।

तो ठीक है आरूषि, मैं ही मर जाता हूं, तुम्‍हें मेरी मौत या फिर इस शिशु के त्‍याग दोनो में से किसी एक विकल्‍प को चुनना होगा ।

देखों समीर, तुम मुझे ब्‍लेकमेल कर रहे हो ।

नहीं आरूषि, यदि यही तुम्‍हारा हठ है तो आज की रात मेरी अंतिम रात होगी ।

ऐसे क्षण किसी औरत के लिये बड़े कठिन होते हैं जब उसे संतान और पति दोनों में से किसी एक विकल्‍प को चुनना होता है।नौ माह गर्भ में शिशु को अपने रक्‍त का पान कराते हुये वह उसकी ममता से ऐसे बंध जाती है, कि उसके बिना पल भर भी जीना गंवारा नहीं होता, वहीं वह समाज के दोगले चरित्र के बारे में जानती है उसे इस बात का भलीभांति ज्ञान होता है कि पति के बिना दुनिया की सारी कठिनाईयां पहाड़ का रूप धर लेती हैं, उसे यह भी मालूम होता है, कि एक पुरूष के रूप में पति के बिना दुनिया सूनी हो जाती है, अपने बेगाने हो जाते हैं, समाज के दरिंदे चैन से जीने नहीं देते ।

आरूषि को ना चाहते हुये भी समीर की बातों में हामी भरनी पड़ी, और वे दोनों रात के अंधेरे में उस नवजात शिशु को छोड़ने निकल पड़े। भादों की तेज बारिश और अंधड़ से पूरा सड़क वीरान था, घनघोर बारिश हो रही थी, लग रहा था जैसे आसमान फट गया है, ऐसे में सड़क से ज्‍यादा दूर तक जा पाना कठिन था, सो समीर उसे एक टीले पर छोड़ आया, जहां से आते जाते लोगों की नजर उस पर आसानी से पड़ जाये। बच्‍ची बारिश में भीगती हुई किलकारियां मार-मारकर रोने लगी और इधर आरूषि के कलेजे से निकली हुई रक्‍त की बूंदें, आंसू बनकर लगातार आंखों से बाहर निकलने लगी। आंखों और अधरों के बीच अश्रु का अविरल प्रवाह थमने का नाम नहीं ले रहा था। बारिश की फुहारें आंसू की गुनगुनी बूंदों को क्षण भर के लिये भी अपनी ठण्‍डक से तृप्‍त नहीं कर पा रही थी।

समीर ने लौटते हुये अपनी पत्‍नी को बांहों में समेट लिया, किंतु आरूषि तो उस क्षण पाषाण प्रतिमा के रूप में परिवर्तित हो चुकी थी, वैसे भी किसी मां के लिये संसार में इससे बड़ा दुख कदाचित्‌ ही होता हो। समीर उसे सांत्‍वना देने का यद्यपि लगातार प्रयत्‍न कर रहा था, किंतु उसकी किसी संवेदना अथवा सहानुभूति का उस पर कोई असर नहीं हो रहा था। सच तो यह था कि संसार के किसी भी मां के उस घाव पर किसी मरहम का भला क्‍या असर हो सकता था, जिसने अपने रक्‍त के टुकड़े के साथ अपना सर्वस्‍व खो दिया हो, जिसने एक पुरूष छल की संतुष्‍टि के लिये अपने अरमानों और ख्‍वाबों की बलि चढ़ा दी हो और जिसकी बरसों से अपने कानों में मां शब्‍द सुनने की संजोयी हुई ख्‍वाईश एक ही झटके में तार-तार हो चुकी हो। आरूषि पत्‍थर हदय को अपने बेजान देह में समेटी लड़खड़ाती हुई समीर की बांहों के सहारे हौले-हौले पग धर रही थी।

देखो आरूषि, इस तरह निराश मत होओ-सोच लो, भगवान की यही मर्जी थी, वैसे भी उसकी मर्जी के बिना पत्‍ता भी नहीं हिलता, अच्‍छे बुरे सभी कार्यो में उसकी सहभागिता से तो बड़े-बड़े विद्वान भी इंकार नहीं करते। एक बार मुस्‍कुरा दो प्‍लीज! समीर उसके गालों पर बह आयें आंसुओं की बूंदों को उंगलियों की पोरों से पोंछते हुये चिकनी चुपड़ी बातों से उस असहय पीड़ा से उसे निजात दिलाने का प्रयत्‍न करने लगा।

किंतु आरूषि खामोश थी, उसने अपने पति का यह स्‍वरूप पहली बार देखा था, विवाह के पहले जब कभी वह संगी साथियों के मध्‍य यह सुना करती कि पति का विविध स्‍वरूप जीवन में किस रूप में कब प्रगट होगा, कहना कठिन होता है, तो उसे सहसा विश्‍वास नहीं होता था, वह इन तर्कों का पुरजोर विरोध किया करती और कभी-कभी तो रूठकर सबसे अलग भी हो जाया करती थी।

घर आकर वह समीर के बांयी ओर बिस्‍तर पर लेटी हुई छटपटा रही थी, उसका व्‍यथित मन उसे बार-बार धिक्‍कार रहा था। समीर जहां चैन की नींद सो थोड़ी देर में ही खर्राटे भरने लगा वहीं आरूषि घण्‍टों करवटें बदलती रही, वह बार-बार पश्‍चाताप कर रही थी, उसकी ममता उसके मातृत्‍व पर तमाम तरह के लांछन लगा रही थी, वह अपराध बोध से ग्रसित इन पलों में मौत के तुल्‍य कष्‍ट को महसूस कर रही थी। वह उसके परिमार्जन के उपाय ढूढ़ने लगी और इसी उहापोह, अनिर्णय और किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्‍थिति में रात के अंधेरे में उस शिशु को फिर से कलेजे से लगा लेने की चाह में घर से निकल भागी। अमावश की काली रात के घनाघोर अंधेरे में वह बदहवास सी सड़कों पर दौड़ने लगी । जिन सड़कों पर शाम ढलते ही निकलते हुये वह सहम सी जाती, डर से कांप जाती आज उन्‍ही सड़कों पर भयमुक्‍त होकर दौड़ रही थी, तमाम तरह के टोने टोटके, भूत-प्रेत और गुण्‍डे बदमाशों के डर से वह उपर उठ चुकी थी । संकट के समय ईश्‍वर व्‍यक्‍ति में अद्‌भुत साहस का सृजन करता है, समूची शक्‍ति किसी एक स्‍थान पर केंद्रीकृत होकर जैसे इकट्‌ठी हो जाती हैं और मनुष्‍य में अपूर्व शक्‍ति का संचार होता है।आरूषि में भी आज कुदरत ने समूची शक्‍तियों को संचयी रूप में प्रदान कर उसके देह को एक कोमल स्‍त्री से नारी शक्‍ति के विलक्षण मर्दानी स्‍वरूप में परिवर्तित कर दिया था और वह पुरूषों की भांति बेखौफ सड़कों पर दौड़ रही थी ।

तूफानों की रफ्‍तार और तेज हो गयी थी, बादलों की गड़गड़ाहट से समूचा शहर रह-रहकर सन्‍न सा हुआ जा रहा था, बिजली की तेज चमक और आकाश के क्रोधित चीत्‍कार से क्षण भर को ऐसा लगता जैसे बिजली बस अभी-अभी यहीं-कहीं गिरी हो। जिस तरह एक पिता के क्रोधित स्‍वरूप को देखकर एक परिवार और मां की मनोदशा निस्‍सहाय, निस्‍तब्‍ध और निरीह सी हो जाती है, ठीक उसी तरह गगन के इस क्रूर स्‍वरूप से पूरी धरती में सन्‍नाटा पसरा हुआ था, समूची धरा के समक्ष इस विपदा में मौन और लाचारी के सिवाय करने को कुछ शेष भी नहीं था। घनघोर बारिश से ऐसा लग रहा था, जैसे आसमान मे लंबी चौड़ी दरार हो गयी हो और पूरी धरती जैसे आसमान के कोप में समाने को आतुर हो, उपर से तूफानों के कहर से एक-एक कदम मीलों की तरह लग रहे थे। कुछ क्षणों के लिये तो आरूषि इस प्रतिकूल संकट की घड़ी में थककर हार सी जाती और वहीं सड़कों पर विक्षिप्‍त सी लेट जाती, किंतु जैसे ही बारिश के झोंके थोड़ी देर के लिये थमती और गगन का कुपित स्‍वरूप एक सहृदय पिता के रूप में परिवर्तित होता, वैसे हीं रात्रि के सन्‍नाटे में शिशु की किलकारी तूफानों को चीरती हुई उसके कानों तक पहुंचती और उसमें एक ऐसी उर्जा का संचार होता जो उसे फिर से उठने और उसी वेग से सड़कों पर दौड़ने को विवश कर देती। उसके पैरों के तलुए का शायद ही कोई ऐसा भाग हो जहां कांटे ना चुभे हों, लेकिन इसका उसे तनिक भी आभास नहीं हो रहा था, उसकी छलकती हुई ममता के समक्ष सारे कष्‍ट बहुत थोड़े प्रतीत हो रहे थे। तूफानों के वेग से सड़कों पर बिखरे हुये कांटे जब उसके पैरों पर चुभती तो उसे ऐसा प्रतीत होता जैसे गुलाब की भांति शिशु के कोमल देह के बीच उसके छोटे-छोटे नाखून, वात्‍सल्‍य में मानो चिकोटी कर रही हो ।

धीरे-धीरे शिशु की किलकारी से उत्‍पन्‍न ध्‍वनि और स्‍पष्‍ट होने लगी और उसे लगने लगा कि अब उसके हृदय का टुकड़ा उससे ज्‍यादा दूर नहीं है, किंतु रात्रि के अंधेरे में उसे देख पाना काफी कठिन था, इसी बीच बिजली की तेज चमक से उत्‍पन्‍न रोशनी ने जब शिशु के वीभत्‍स स्‍वरूप के दर्शन कराये तो वह जैसे स्‍तब्‍ध हो क्षण भर को पाषाण स्‍वरूप में परिवर्तित हो गयी, उसने देखा कि शिशु को एक आदमखोर कुत्‍ता, हाथ को अपने दांतों से चबा खींचता हुआ टीले से पेड़ की ओट तक ले गया है और उसे चबा रहा है और वह नन्‍हीं सी जान दहाड़ मार-मारकर रो रही है। यह एक ऐसा दृश्‍य था जिसकी ना तो उसने कभी कल्‍पना की थी और ना ही ऐसा कभी अतीत में देखा या सुना था, मौत बस उससे केवल दो कदम दूर थी और वह आदमखोर कुत्‍ते के पंजे से बस अगले ही क्षण काल के गाल में समाने वाली थी कि इसी बीच मां की ममता काल के उस केनवास पर भारी पड़ गयी।

ऐसे वीभत्‍स दृश्‍य किसी मां के लिये कितने करूण और दुखद हो सकते हैं यह तो सिर्फ वही औरत कल्‍पना कर सकती है जिसकी छाती ने धरती की माटी को अपने दूध से नहलाया हो। एक औरत का संतान के प्रति अटूट मोह होता है, वह सदैव ईश्‍वर से अपने संतान के जीवन के बदले मौत मांगती है, उसके ताज के लिये कांटो से भरा सेज बर्दाश्‍त कर सकती है, यही नहीं, संतान के क्षण भर की खुशी के लिये पहाड़ सा दुख वह हंसते-हंसते झेल लेती है और कभी उफ भी नहीं करती। अद्‌भुत साहस का परिचय देते हुये वह टीले से सीधे पेड़ के नीचे तड़पती शिशु की ओर लपक गयी और फिसलकर गिरने से उसके कुहनी और घुटने कई जगहों से छील गये, उसके शरीर का कोई भी ऐसा हिस्‍सा नहीं बचा था जहां घावों ने दस्‍तक ना दी हो ।

उसने, नवजात शिशु को अपनी छाती में समेट ली, शिशु अपने वीभत्‍स स्‍वरूप में उसके हाथों में थी, मांस के लोथड़े हाथों से लटक रहे थे, कहीं-कहीं हाथों की उंगलियां और हड्‌डियां भी गायब थी, किंतु आश्‍चर्य तो इस बात पर था कि ऐसे में भी वह जिंदा थी, उसने अपने आंचल का एक हिस्‍सा फाड़ भुजा पर एक गांठ लगा रक्‍त के प्रवाह को रोकने की कोशिश की और बारिश थमने के इंतजार में पेड़ के नीचे दुबक कर बैठ गयी।

वर्षा समाप्‍त होते ही भोर होने से पहले वह शिशु को लेकर शहर के अस्‍पताल की ओर निकल पड़ी, डॉक्‍टरों के आने के पश्‍चात शिशु का इलाज तो प्रारंभ किया गया किंतु आरूषि शक के दायरे में आ गयी और उससे गहन पूछताछ की जाने लगी । उससे नवजात शिशु के साथ संबंधों के बारे में जब पूछा गया तो उसने झूठ कह दिया कि वह उसे रास्‍ते में लावारिस पड़ी हुई मिली थी। सच बोलते हुये उसे इस बात का डर था कि कहीं इससे उसके पति और परिवार की इज्‍जत अखबारों की सुर्खियां न बन जाये और उसके पति का सम्‍मान कौड़ियों के भाव समाचार के पन्‍नों में कहीं नीलाम ना हो जाये। लेकिन कहते हैं एक सत्‍य को छुपाने के लिये व्‍यक्‍ति को कई झूठ बोलने पड़ते हैं और इस तरह आरूषि झूठ पर झूठ बोलती गयी और अपने ही बयानों में उलझती फंसती गयी । इस तरह उस पर एक शिशु की हत्‍या के प्रयास का आरोप लगा े 6 वर्ष कारावास की न्‍यायालय द्वारा सजा सुना दी गयी ।

हवालात के 6 वर्ष बड़ी कठिनाई से गुजरे, एक-एक पल बरसों की तरह बीता,अपनी बेटी से मिलने की व्‍याकुलता ने उसे अर्द्ध विक्षिप्‍त सा बना दिया था। जेल की बंद दीवारों में कैद उसकी ममता जब कभी व्‍याकुल हो उठती, सुरक्षा में लगी महिला सिपाहियों से ही वह भिड़ जाती और दो चार चपत खा अपनी वेदना शांत कर लिया करती। वह बंद कोठरी की दीवारों से बतियाते सोचा करती कि सारे कष्‍टों को सहने का ठेका आखिर भगवान ने स्‍त्रियों को ही क्‍यों दे रखा है, एक शिशु के रूप में जन्‍म लेने से लेकर मृत्‍यु की शैय्‍या तक कष्‍ट से जैसे उसका चोली दामन का साथ होता है। रूसो ने वैसे तो हरेक के लिये कहा है कि -मनुष्‍य स्‍वतंत्र जन्‍म लेता है किंतु सदैव जंजीरों में जकड़ा रहता है, यह बात पुरूषों के लिये भले ही पूरी तरह सहीं ना हो किंतु औरतों के लिये तो सोलह आने और सौ फीसदी सच है।

जेल की कोठरी से जब खुली हवा में उसने सांस ली, तो पल भर भी देर किये बिना उस अस्‍पताल के चौखट की ओर भागी जहां छः बरस पहले वह अपने कलेजे के टुकड़े को छोड़ आयी थी। अस्‍पताल के चौकीदार से डॉक्‍टर तक हरेक से पता ठिकाना पूछते हुये वह सांझ तक हार सी गयी, वहां तो पूरे का पूरा अमला ही बदल चुका था और फिर किसी को इतनी फुर्सत कहां थी जो 6 साल पुराने रिकार्ड पलटकर देख उसके बारे में वे कुछ बता पाते। वह भागती हुई थाने पहुची लेकिन वहां भी स्‍थिति कुछ ज्‍यादा भिन्‍न नहीं थी। हाथ जोड़ी, मिन्‍न्‍ते की तो एक अधेड़ से दिखने वाले हवलदार की संवेदना जागी और उस पर दया आयी । उसने रिकार्ड देखकर बताया कि वह लड़की तो दिल्‍ली के फुलबाग कालोनी में एक दंपत्‍ति को उसी समय गोद दे दी गयी थी, पिता का नाम रमेश चंद्र मेहता था।

विपत्‍ति के कोख में सदैव निराशा के फूल खिला करते हैं। आपत्‍ति के समय आशा की किरणें झरोखों में ही अटक कर रह जाती है। जब आदमी के सिर पर कठिनाई आती है तो अपने बेगाने हो जाते हैं, ओले गिरते हैं तो सूरज की किरणों को बादल ढक लेती है। तरह-तरह के रोग वहीं पनपते हैं जहां मनुष्‍य स्‍वयं को सर्वाधिक कमजोर पाता है और विपत्‍तियां भी वहीं अपना घर बसाती हैं जहां उसे सर्वाधिक असहाय और निरीह प्राणी नजर आते हैं। आरूषि जब उस बताये पते ठिकाने पर पहुंची, तो वहां उसे पता लगा कि उस दंपत्‍ति का दो साल पहले ही एक कार एक्‍सीडेंट में निधन हो गया था। पड़ोसियों ने बताया कि उसकी एक लूली लड़की थी जिसका एक हाथ नहीं था, वह उसी समय किसी अनाथालय में दे दी गयी ।

दिन गुजरते गये, लेकिन बेटी की तलाश में उसने कभी कोताही नहीं बरती, वह हर गलियों चौराहों में बने अनाथालयों में भटकती रही, उसे विश्‍वास था कि वह उसे लाखों में ढूंढ़ लेगी, चूंकि उसके एक हाथ नहीं था सो स्‍वाभाविक रूप से उसे पहचानने में ज्‍यादा दिक्‍कत भी नहीं होती किंतु उसकी यह आस कभी पूरी ना हो सकी और इसी तलाश में कब वह एक सुंदर युवती से उम्रदराज हो गयी, पता ही ना चला। जब कभी चेहरे की झुर्रियों वा बालों की सफेदी को आईने में देखती तब उसे अपने उम्र का आभास होता।

साल बीतते गये लेकिन इस तरह भटकते हुये अधिक दिनों तक जिंदगी गुजारना संभव ना हो सका और थक हार एक भले से दिखने वाले आदमी के घर उसने नौकरी कर ली। पेट की आग जो ना कराये कम है, उसके पास ना तो कागज की कोई डिग्री थी और ना ही इस विक्षिप्‍तता के दौर में उसमें ऐसी कोई प्रतिभा शेष बची थी जिसके दम पर वह स्‍वयं को एक पढ़ी लिखी पोस्‍ट ग्रेजुएट महिला के रूप में प्रोजेक्‍ट कर सके। फलतः जो सहज उपाय पेट भरने के हो सकते थे वह केवल यही था, कि वह अपना जीवन यापन एक काम वाली बाई के रूप में शुरू करे। वैसे भी यदि किसी जगह पर कोई पहचानने वाला ना हो तो मनुष्‍य को किसी भी काम में कभी संकोच नहीं होता, वह तो आदमी की मजबूरी होती है कि लोगों के बीच अपनी प्रतिष्‍ठा और धाँस बनाने के लिये उसे अपनी डींगे हांकनी पड़ती है ।

इस तरह लगन से काम करने से उसे केवल यही फायदा हुआ कि एक झाड़ू पोंछे से खाना बनाने वाली बाई के रूप में उसे उसी घर में पदोन्‍नति मिल गयी, लेकिन यहां रहते हुये भी उसने कभी हार नहीं मानी, जब कभी समय मिलता दिल्‍ली के चांदनी चौंक पर खड़ी हो हर उस युवती में अपने बेटी की तलाश करती जो उसे 20-25 साल उम्र की नजर आती । कभी-कभी करोलबाग की भीड़ भरी बाजारों में चली जाती और वहां खरीददारी में व्‍यस्‍त युवतियों के बांए हाथ पर नजर घुमा उसमें अपनी ममता और वात्‍सल्‍य ढूढ़ने का प्रयत्‍न करती ।

समय का प्रवाह अपने गति से चलता रहा , आरूषि बुढ़ापे की ओर एक-एक वर्ष कर खिसकती रही और इस तरह धीरे-धीरे उसकी बेटी की तलाश दम तोड़ने लगी। उसका मालिक हरीश बाबू एक निहायत ही सभ्‍य इंसान था जो हर पल आरूषि का ख्‍याल रखा करता और उसे पुत्री सा स्‍नेह प्रदान किया करता। एक दिन हरीश बाबू ने अपने पास बिठा उससे पूछते हुये कहा - आरूषि, क्‍या तुम कहीं और काम करना चाहोगी ? जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है और फिर आड़े वक्‍त पर पैसे ही काम आते हैं। वैसे भी इस घर में काम के बाद कुछ वक्‍त शेष बच ही जाता है क्‍यों ना तुम कहीं और काम कर लो? दो पैसे जुड़ जायेंगे तो बुढ़ापे में काम आयेंगे ।

आरूषि ने सर हिलाते हुये तत्‍काल मना कर दिया, कहने लगी - साहब ! मैं पैसे का क्‍या करूंगी? मेरा कोई अपना तो है नहीं, जिसके लिये कुछ जोड़ने की तमन्‍ना हो, बस जीने के लिये दो वक्‍त की रोटी चाहिये होती है वह तो आपके घर काम की बदौलत मिल ही जाती है और जब मालिक इतने बरस घर में काम की है तो मरने पर दो गज कफन के कपड़े तो मिल ही जायेंगे ना। बस इसके अलावा और मुझे कुछ चाहिये भी नहीं ।

ठीक है आरूषि, तुम्‍हारी जैसी मर्जी, पर मेरा विचार था कि उसके घर काम करने से तुम्‍हें पैसे के अलावा कुछ पुण्‍य भी मिलता, उस बेचारी का एक हाथ नहीं है, काम करने में बड़ी तकलीफ होती है। अभी-अभी हमारे संस्‍थान में एक नये डॉकटर के रूप में नौकरी लगी है, बड़ी मिलनसार है, तुम मिलोगी तो खुश हो जाओगी।

आरूषि कौतूहल भरी नजरों से हरीश बाबू की ओर देखने लगी - कौन सा हाथ नहीं है साहब?

अरे, बता रही थी कि उसने अपना बायां हाथ बचपन में किसी दुर्घटना में खो दिया ।

आरूषि व्‍याकुल हो उठी, उसे अपनी उस खोयी हुई नन्‍हीं सी जान अचानक याद आ गयी उसे पक्‍का भरोसा हो गया कि हो ना हो वही उसकी बेटी है, उसने झट से हां कहते हुये कहा- साहब मैं वहां जरूर काम करूंगी, मुझे वहां ले चलो ।

नहीं आरूषि आज ना बन सकेगा, हम कल वहां चलेंगे? हरीश बाबू ने अखबार के पन्‍ने को उलटते हुये कहा ।

आज क्‍यों नहीं ?

अरे वह सुबह ड्‌यूटी जाती है, ठीक से बात ना हो सकेगी । क्‍यों? अभी-अभी तो तुम काम करने को ही राजी नहीं हो रही थी और अब तो ऐसे तड़प रही हो जैसे तुम्‍हारे उससे जन्‍मों के रिश्‍ते हों।

नहीं साब। आपकी बात मुझे समझ में आयी। पता नहीं कितने जन्‍मों का पाप है, जो मुझे सुभागन से अभागन बना गलियों और चौराहों में इस तरह भटकने को मजबूर कर दिया। पता नहीं कितने देहरी की ठोकरें खायी, तब कहीं आपका पनाह मिला और दो वक्‍त की रोटी नसीब हो सकी। रास्‍ते में पड़े धूल की तरह हरेक ने मुझे अपने कदमों में जगह देने के पहले ही पैरों को पटककर पल्‍ला झाड़ लिया। जिससे जिंदगी मांगी वही मौत का सौदागर निकला। जिसके हाथों अपने आबरू की हिफाजत की भीख मांगी वही दरिंदों और गिद्धों की तरह भक्षण के लिये मेरी ओर झपट पड़ा । ये दुनिया बड़ी निराली है साब ! यह हम जैसे गरीबों के लिये नहीं है, यह तो उन पापी नरभक्षी भेड़ियों का चारागाह है जहां हम जैसे मेमिये हर रोज मूक और बधिर सामाजिक व्‍यवस्‍था की बलि चढ़ जाते हैं और सारा समाज असहाय हो देखता रह जाता है। मैं चाहती हूं कि मेरा अगला जन्‍म ऐसे लोगों की सेवा से मिले पुण्‍यों से बेहतर बन जावे और दोबारा ऐसे कष्‍ट ना झेलना पड़े । बस इसीलिये मन अधीर हो उठा था और कोई बात नहीं थी। आरूषि ने अपनी व्‍याकुल ममता को शब्‍दों के आवरण से ढकने का प्रयास करते हुये कहा ।

आरूषि तुम्‍हारी बातों से ऐसा बिल्‍कुल नहीं लगता, कि तुम पढ़ी लिखी नही हो । लेकिन तुम्‍हें बताना चाहूंगा कि जिंदगी दुखों और संघर्षों का ही पर्याय है। ठीक है, अगले जन्‍म में यह कष्‍ट नहीं होगा तो कोई दूसरा होगा, कष्‍ट तो हरेक के सामने किसी ना किसी रूप में हर समय खड़े ही रहता है । मार्क्‍स ने कहा भी है, ”नो बडी केन बी हैप्‍पी अनटिल ही डाइज यानि आदमी तब तक सुखी नहीं कहा जा सकता जब तक उसकी मौत ना हो जाये।

आरूषि खामोश थी, वह अपनी बेटी की यादों में खोयी हुई कल की प्रतीक्षा करने लगी, लेकिन इंतजार की घड़ियां बड़ी लंबी होती है। अपने बरसों पहले बिछड़े हुये कलेजे के टुकड़े से मिलन की प्रतीक्षा में बेकरारी भरे पल उसे युगों की तरह लग रहे थे। एक-एक पल काटना उसे दूभर हो रहा था। सूर्य डूबने की प्रतीक्षा में दिन जैसे तैसे गुजरे तो रात्रि का हर एक पल सूर्योदय की बेला में शेष बची घड़ियों को गिनते हुये बड़ी कठिनाई से बीता। उसे पक्‍का यकीन हो चला था कि हो ना हो वही उसकी बेटी होगी ।

शाम के वक्‍त जब वह तैयार होकर अपने मालिक के साथ मिलने जा रही थी तो रास्‍ते भर वह कल्‍पना की गहराईयों में गोते लगाने लगी। वह सोंच रही थी कि जब वह मिलेगी तो उसे सीने से लगा लेगी, उसे वह रो-रोकर बतायेगी कि किस तरह वह उससे मिलने की आस लगाये गलियों चौराहों में भटकती रही, जिंदगी बद्‌ से बदतर हो गयी, क्‍या-क्‍या कष्‍ट नहीं सहे उसे पाने के लिये लेकिन उसने हार ना मानी ।

जैसे, ही वे दोनों उसके घर पहुंचे उस युवती ने दरवाजा खोला और हरीश बाबू का अभिवादन कर सीधे उसे ड्राइंग रूम की ओर ले गयी । आरूषि वहीं दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षा करने लगी कि शायद उसे भी बुलाने को कहा जायेगा किंतु आधे घण्‍टे तक कोई नहीं आया । हां निकलते हुये हरीश बाबू ने आरूषि का परिचय कराते हुये जरूर कहा - देखो आरूषि ये मेम साब हैं, तुम्‍हें इनके घर ही काम करना है, ठीक है, तुम काम निपटाकर शाम तक घर चले आना। ऐसा कहते हुये वे निकल गये ।

उस युवती ने परिचय लेते हुये कहा- ओह ! तो तुम्‍हारा नाम आरूषि है ?

जी ।

बड़ा प्‍यारा नाम है । वैसे सच कहूं, तो मैंने दिल्‍ली में काम वाली बाईयों के इतने सुंदर नाम कभी नहीं सुने । वैसे तुम्‍हारा घर कहां है ? और घर पर कौन-कौन हैं?

जी, मेरा कोई नहीं है । आरूषि ने उदास चेहरे से मुंह लटकाते हुये कहा ।

ओह ! तुम भी बड़ी दुखियारी लगती हो। ठीक है कभी तुम्‍हारी भी दुख भरी दास्‍तां सुनेंगे । वैसे मेरा नाम अनामिका है, मैं यहीं अखिल भारतीय पुन्‍ना लाल विज्ञान संस्‍थान में डॉक्‍टर हूं, नयी-नयी नौकरी लगी है। वैसे मुझे लगता है कि अ नाम में कुछ गड़बड़ जरूर है, ऐसा कहते हुये आरूषि खिलखिलाकर हंस पड़ी ।

जी, एक बात पूंछूं ? क्‍या आपका यह हाथ नकली है ?

हां, बचपन की बड़ी दुखभरी कहानी है ।मुझे गोद लेने वाले एक देवता स्‍वरूप इंसान ने पांच साल की उम्र में वो दर्द भरी दास्‍तां सुनायी थी, पर वे भी जल्‍दी ही चल बसे। बस फिर क्‍या था, जिंदगी भर रास्‍ते के पत्‍थर की तरह ठोकरें खाती रही और इधर से उधर भटकती रही। खैर․․․․ फिर कभी बात करेंगे। वैसे तुम्‍हें मेरे भोजन से लेकर कपड़े धोने तक सारे काम करने होंगे। पगार क्‍या लोगी ?

जी, मुझे पगार नहीं चाहिये ।

अरे! तो क्‍या तुम मुफ्‍त में काम करोगी ? यदि ऐसा ही है, तो दिल्‍ली में तो तुम्‍हें बहुत लोग काम पर रख लेंगे - और ऐसा कहते हुये अनामिका ठहाके लगाकर हंस पड़ी ।

तुम्‍हारा नाम लेते हुये मुझे अच्‍छा नहीं लगेगा और शायद बाई कहते हुये भी टीस सी हो, क्‍योंकि तुम्‍हें देखकर ऐसा लगता है कि तुम ठीक ठाक घराने से हो किंतु परिस्‍थितियों ने तुम्‍हें यह सब करने को जैसे विवश सा कर दिया है ।

आरूषि ने तपाक से उत्‍सुकता में कहा -बेटी, तुम मुझे मां कह लेना, मेरी भी एक बिटिया थी, लेकिन वह अब नहीं है ।

आरूषि ने गुस्‍से से झिड़कते हुये कहा - देखों, तुम दोबारा ऐसे शब्‍दों का प्रयोग कभी नहीं करोगी। मुझे सख्‍त चिढ़ है मां और पिता शब्‍द से, मैं इस शब्‍द को तुमसे फिर कभी नहीं सुनना चाहूंगी और फिर पुरूष के रूप में एक पिता शब्‍द से तो मुझे नफरत सी है । ये मां और पिता शब्‍द मेरे लिये गंदी नालियों में पनपने वाले बदबूदार कीड़ों से भी ज्‍यादा गंदे है।

आरूषि, अनामिका के चेहरे पर उत्‍पन्‍न धृणा के भाव को देखकर सहम सी गयी । उसने संयत होते हुये कहा-तो ठीक है, मुझे काकी कह लेना बेटी ।

हां, यह ठीक रहेगा, बचपन में राजेश खन्‍ना की खूब फिल्‍में देखा करती, उनकी फिल्‍मों में दीनू काका या फिर कोई काकी जरूर होती। मुझे भी बड़ी इच्‍छा होती कि मेरे घर में भी एक भरोसे वाली बाई होती जिसे मैं काकी कहा करती। वैसे भी काकी शब्‍द में बड़ी मिठास है ,ठीक है, आज से मैं तुम्‍हें यही कहा करूंगी ।

और इस तरह, आरूषि अपनी ही बेटी के घर एक अन्‍जान काम वाली बाई के रूप में बिना उसे कुछ आभास कराये अपनी सारी ममता उड़ेलती रही। कुछ सालों में ही वह उसकी विश्‍वस्‍त नौकरानी के रूप में घर का पूरा कामकाज संभालने लगी। उसकी सेवा करते हुये उसे आत्‍मिक संतोष मिलता। जब कभी अकेली होती, बैठकर पश्‍चाताप के आंसू रोती और भगवान से उसे अपनी बेटी के मिलाने और इस रूप में पश्‍चाताप बतौर सेवा का अवसर प्रदान करने के लिये शुक्रिया अदा किया करती । कभी-कभी तो उसे मन भी करता कि वह अनामिका से सब कुछ सच-सच कह दे, लेकिन डर सी जाती कि कहीं उसका गुस्‍सा ज्‍वालामुखी की तरह फूट पड़ा तो वह सब कुछ एक ही झटके में बह ना जाये और सहज रूप से मिलने वाले पुत्री के अप्रत्‍यक्ष प्‍यार से कहीं वह सदा के लिये वंचित ना हो जाये।

पिछले कुछ दिनों से अखिल भारतीय पुन्‍ना लाल विज्ञान संस्‍थान के निदेशक और सरकार के बीच कुछ मसलों पर मतभेद सतह पर उभर कर आ गये और सभी डॉक्‍टर हड़ताल पर चले गये। ओ․पी․डी․बंद कर दिये गये, केवल उन डॉक्‍टरों के इलाज के लिये जूनियर डॉक्‍टर तैनात कर दिये गये जो पहले से भर्ती थे और इमरजेंसी चिकित्‍सा भी इन्‍ही जूनियर डॉक्‍टरों की मदद से चालू रखी गयी ।

अनामिका ने सुबह-सुबह नहा धो तौलिये से अपने चेहरे को पोंछते हुये कहा - काकी आज मेरी प्रथम पाली में ड्‌यूटी है थोड़ा जल्‍दी निकलना है, तुम फटाफट नाश्‍ता लगा दो ।

अनामिका मेज पर खाते हुये अपने स्‍टॉफ और अस्‍पताल के किस्‍से प्रायः सुनाया करती, आरूषि को भी इसमे खूब मजा आया करता।

अरे काकी! मेरे वार्ड में पिछले तीन दिनों से एक बीमार बूढ़ा आदमी लावारिस पड़ा है, कुछ लोग उसे लेकर यहां भर्ती कर दिये और अब वे चले गये । पता नहीं, आजकल की संतानों को क्‍या हो गया है ? कोई सेवा ही नहीं करना चाहता। तुम्‍हें पता काकी! पिछले दो दिनों से उसकी दवाई से लेकर अस्‍पताल तक के सारे खर्च मैं उठा रही हूं। तबियत उसकी लगातार बिगड़ते जा रही है, मर गया तो दो गज कफन के कपड़े भी उसको नसीब नहीं हो सकेंगे। इस दुनिया में सब दुखी हैं, वो नानक जी कहते थे ना, नानक दुखिया सब संसारा, एकदम ठीक कहते थे।

आरूषि ने एक ब्रेड अनामिका के प्‍लेट पर डालते हुये कहा- ऐसे लोगों की सेवा करनी चाहिये बेटी, पुण्‍य मिलता है और यही पुण्‍य मनुष्‍य के आड़े समय में बहुत काम आता है। कहते हैं विपत्‍ति के समय घनी निराशा के बीच यदि कोई आशा की कोई एक किरण आती है तो वही अतीत में किये गये पुण्‍यों के परिणामस्‍वरूप प्रतिफल के रूप में हमारे सामने होता है।

अरे वाह! तुम तो बड़ी दार्शनिक की तरह बोल लेती हो, कितना पढ़ी हो ?

बस थोड़ा बहुत पढ़ी है बेटा ।

चाहे जो भी हो, तुम कभी-कभी बात बड़े पते की करती हो । अरे हां !एक काम करो तुम मेरे साथ चलो, आज मेरी चार बजे छुट्‌टी हो जायेगी, फिर हम करोल बाग चलेंगे और वहां कुठ शापिंग करेंगे। हाथ की वजह से सामान उठाने में तकलीफ होगी ।

अनामिका आरूषि को लेकर अस्‍पताल को चली गयी, वहां उसे हर वार्ड में मरीजों के साथ मीठी-मीठी बातें करते उनका हालचाल लेते देखते हुये बड़ा अच्‍छा लगता। वह भी साथ ही साथ घूम रही थी, कहने लगी- बेटी डॉक्‍टरों की नौकरी कितनी अच्‍छी है ना, लोगों से बड़ी दुआ भी मिलती है ।

हां, सो तो ठीक है, लेकिन इस नौकरी में चैन नहीं है, ऐसा कहते हुये अनामिका दूसरे मरीज का हालचाल पूछने लगी। आरूषि एक किनारे पर खड़ी उसकी मीठी-मीठी बातों से आह्लादित मरीजों को देख प्रसन्‍न हो रही थी ।

अनामिका ने एक वृद्ध से दिखने वाले मरीज का हालचाल पूछते हुये कहा-हां, समीर कैसी है, तुम्‍हारी तबियत ?

समीर का नाम सुनते ही आरूषि के होश उड़ गये। वह तुरंत उस बेड की ओर लपक गयी जहां वह पड़ा हुआ कराह रहा था। उसके दाढ़ी पके हुये थें, गालों पर असमय झुर्रियों ने दस्‍तक दे दी थी। लंबे सफेद बालों और बढ़ी हुई मूछों के बीच यदि कुछ उसके चेहरे पर स्‍पष्‍ट नजर आ रहा था तो वह एक बड़ा सा मस्‍सा था जिससे उसे पहचान पाना सहज हो जा रहा था। वह दर्द से कराह रहा था ।

आरूषि उसे देखते ही पहचान गयी, उसके आंखों से आंसू किसी झरने की तरह बहने लगे। समीर की दुर्दशा देख वह क्षण भर को पाषाण की मूर्ति सी अवाक्‌ खड़ी रही गयी । उसने समीर को झकझोरते हुये कहा-समीर, मैं तुम्‍हारी आरूषि! मेरी ओर देखो। क्‍या हाल बना रखा है, तुमने अपना। तुम तो अच्‍छे खासे थे, ये सब क्‍या से क्‍या हो गया ?

समीर को भी आरूषि को पहचानने में देर ना लगी, उसकी आंखों में आंसू भर आये। उसने अपनी दुखभरी दास्‍तां बताते हुये कहा- आरूषि तुम्‍हारे जाने के बाद घर वालों की जिद्‌द के चलते मैंने दूसरी शादी कर ली । उससे मेरा एक बेटा हुआ, उसे पढ़ाने लिखाने में मेरे जीवन भर की जमा पूंजी खर्च हो गयी, पढ़ा-लिखा इंजीनियर बना शादी कर दी, किंतु उन लोगों ने मुझे मेरे ही घर से बेदखल कर दिया । रिटायरमेंट से जो पैसे मिले थे उसे भी फ्‍लेट खरीदने के नाम पर वे मुझसे छीन ले गये ।

कहां रहते हैं वे अब ?

पुणे में इंजीनियर हैं ।

क्‍या तुमने उन्‍हे खबर दी? कि तुम्‍हारी हालत बहुत खराब है ।

खबर देने का क्‍या फायदा, वे जानते हैं, पिछले दो साल से ढाबे में नौकरी कर रहा हूं, कितनी बार कुछ पैसे के लिये लिखा, पर ना कोई जवाब आया और ना ही वे देखने आये । फेफड़े में सूजन आ गयी थी,ढाबे वालों ने यहां भर्ती करा दिया । मेरे पिछले दस महीने की तनख्‍वाह ढाबे में जमा थी, लेकिन लगता है, वे भी खत्‍म हो गये । बस अब तो केवल मौत का इंतजार है ।

देखो समीर! ऐसे ना कहो । मैं हूं ना तुम्‍हारी आरूषि, ये डॉक्‍टरनी जो तुम्‍हारी देखभाल कर रही है ना, मैं इसी के यहां काम करती हूं ।

तभी अनामिका ने आरूषि को आवाज देते हुये कहा- चलो, देर हो रही है, दूसरे वार्ड में भी देखना है । क्‍या हुआ? तुम रो रही हो । कौन है यह? क्‍या कोई पहचान का है?

आरूषि ने रूंधे गले से कहा- बेटी, यही मेरा पति है जिससे चालीस बरस पहले मैं बिछुड़ गयी थी।

अरे, मैं तो घर में इसी की बात कर रही थी, इसके तो सारे सिस्‍टम फेल हो चुके हैं, सीनियर डॉक्‍टर हड़ताल पर हैं, इसकी हालत सुधारना किसी चुनौती से कम नहीं है। अॉपरेशन करने पड़ेंगे और यह हड़ताल खत्‍म होने के बाद ही संभव हो सकेगा। तुम चिन्‍ता ना करो, तब तक इसकी हालत स्‍थिर बनाये रखने के लिये मुझसे जो बन पड़ेगा, मैं सब कुछ करूंगी। फिर तो ठीक है, आज हम कहीं नहीं जायेंगे, मैं पूरे दिन इसकी देखभाल करती हूं । भगवान ने चाहा तो यह जल्‍दी ठीक हो जायेगा।

बेटी, इनके इलाज में जो खर्च आयेगा, उसकी चिंता मत करना ।

ठीक है ना,मैं तुम्‍हारे पगार से काट लूंगी ।

आरूषि उन क्षणों में भावुक हो गयी, अनामिका की सहृदयता ने उसे आह्लादित कर दिया और उसके मन में विचार आने लगा, कि क्‍यों ना उसे आज सब कुछ सच-सच बता दे । हो सकता है, ऐसी हालत में उसके मन में संवेदना जागे और वह अधिक बेहतर ढंग से अपने पिता का इलाज करने लगे । उसने पास आकर कहा-बेटी, एक बात कहूं ।

हां बोलो - स्‍टेथेस्‍कोप को कान में लगाते हुये अनामिका ने कहा ।

बेटी․․․․

हां-हां बोलो ना, मुझे सुनायी दे रहा है, हां․․․बोलो क्‍या कर रही थी ․․․

बेटी, ये तुम्‍हारे पिता है, हम दोनो ही वे अभागे हैं, जिन्‍होंने तुम्‍हें जन्‍म दिया था । आज से चालीस बरस पहले दुर्भाग्‍य ने हमारी देहरी पर दस्‍तक दी थी और हम सब बिछुड़ गये। हमारा भरा- पूरा परिवार तबाही के रास्‍ते निकल पड़ा और तुम्‍हें उस मेहता परिवार ने गोद ले ली जिसके बारे में तुमने बताया था कि उनकी कार एक्‍सीडेंट में मौत हो गयी थी। उन्‍होने ठीक बताया था कि हम गलती से तुम्‍हें टीले पर छोड़ गये थे ।

अनामिका मौन स्‍तब्‍ध खड़ी रह गयी, स्‍टेथेस्‍कोप का एक हिस्‍सा उसके हाथ से छूट गया, उसकी आंखों से मानो खून टपकने लगा, उसके दोनो भौंहे आपस में क्रोध से जुड़ से गये, उसने गुस्‍से से तमतमाते हुये कहा- ओह! तो तुम्‍ही दोनो वे कायर, निर्ल्‍लज और डरपोक माता-पिता हो जिन्‍होंने मुझे दर-दर भटकने को मजबूर कर दिया। तुम्‍ही लोग वे क्रुर पापी हो जिसने मुझे सुनसान जंगल में जानवरों के खाने को छोड़ दिया और मेरे इस हाथ को कुत्‍ते खा गये। मैं तुम दोनो को आखिर कैसे इंसान समझ लूं ? और तुम ․․․ अरे, तुम्‍हें तो मैं घर में एक सदस्‍य की तरह पालती रही, मुझे मालूम ही ना था कि मैं उस नागिन को दुध पिला रही हूं जिसके दंश को मैं अपाहिज बनकर आज तक झेल रही हूं। अरे, तुम दोनो को तो फांसी की सजा भी हो तो कम है।

बेटी, ये भाग्‍य का दोष था, हममें से कोई सुखी नही रहा, हमें माफ कर दो।

तुम जैसे मां बाप को क्‍या कोई बेटी कभी माफ कर देगी ? अरे, तुम लोग तो जानवरों से भी गये बीते हो। एक जानवर अपने संतानों को सीने से लगाकर रखता है, हवा के हल्‍के झोंके भी कभी उसे स्‍पर्श कर दे तो वह अपनी पूरी ताकत उस बच्‍चे को बचाने में झोंक देती है। मैं तो तुम्‍हें जानवर भी नहीं कह सकती ।

और मै․․․․ जानवरों से गये बीते इंसानों का इलाज नहीं करती । तुम अपने पति को लेकर यहां से चले जाओ, मैं तुरंत उसे डिस्‍चार्ज करती हूं ।

नहीं बेटी, ऐसा मत करो , वो मर जायेगा ।

मैं जानती हूं, कि वो बरामदे से बाहर निकलते ही दम तोड़ देगा, मर जायेगा परंतु यही उसकी सजा भी होगी।

उसने नर्स को आवाज देते हुये कहा- सिस्‍टर, बारह नम्‍बर बेड वाले मरीज को तुरंत डिस्‍चार्ज करो, उसके पास इलाज के लिये पैसे नहीं है और तुम उसके सारे पेपर्स मेरे पास हस्‍ताक्षर के लिये लेकर आओ।

आरूषि अपने पति की पीड़ा से रोती बिलखती उसके सामने हाथ जोड़ गिड़गिड़ाती रही लेकिन इन सबका अनामिका पर कोई असर नहीं हुआ।

वह बरामदे में अपने पति के सीने से लिपट लोगों से सहायता की गुहार करती रही, पर कोई फायदा आखिर क्‍या हो सकता था ? थोड़ी देर में ही समीर ने दम तोड़ दिया। आरूषि उसके सीने से लिपट भूखी प्‍यासी घंटों बिलखती रही और सदमें तथा अपने पति से विरह की वेदना में झुलसती हुई अंततः दम तोड़ अनंत यात्रा को प्रस्‍थान कर गयी ।

अनामिका घर आयी, आज वह काफी व्‍यथित थी, अपने चिकित्‍सकीय पेशे के इतने सालों में पहली बार वह इतनी निष्‍ठुर बनी थी। यद्यपि प्रतिशोध की आग ने उसे पहली बार आज विवेकीय रूप से अंधा बना दिया था किंतु आज वह एक ऐसे अपराधबोध से ग्रसित थी जो उसे रह-रहकर पीड़ा पहुंचा रही थी। उसने आखिरकार एक पत्र पुलिस कमिश्‍नर नई दिल्‍ली के नाम लिखते हुये कहा-आज, मैंने चिकित्‍सकीय पद की गरिमा के विरूद्ध कार्य करते हुये घोर अकर्मण्‍यता और निष्‍ठुरता से दो व्‍यक्‍तियों की सीधे तौर पर हत्‍या की है। यह मानवीय भूल नहीं अपितु मेरे द्वारा इरादतन की गयी हत्‍या है, जिसके परिणाम के बारे में मैं पहले से जानती थी, और सच कहूं तो मैंने कानून अपने हाथ में लेकर उन संवेदनहीन हत्‍यारों को सजा देने की कोशिश की है जिन्‍होंने चालीस बरस पहले एक शिशु के रूप में मेरी हत्‍या की कोशिश की थी। हो सकता है कानून की नजर में यह अपराध हो, लेकिन इसे मुझे आत्‍मसंतोष हुआ है। मैं समझती हूं, दुनिया की कोई भी बेटी वही करती जो आज मैंने किया है, लेकिन मुझे इस अमानवीय कार्य जो कि मेरे पेशे की निष्‍ठा और गरिमा के विरूद्ध है और साथ ही गैरकानूनी भी, से गहरा आघात लगा है अतः मैं निवेदन करूंगी कि दो व्‍यक्‍तियों की इरादतन हत्‍या के आरोप में मुझे गिरफ्‍तार कर लिया जावे और फांसी की सजा दी जावे।

अनामिका को पुलिस द्वारा गिरफ्‍तार कर न्‍यायालय में पेश किया गया और उस पर मुकदमा चलाया गया। करीब एक वर्ष तक चले मुकदमें में सरकारी पक्ष के वकील द्वारा एक चिकित्‍सक के रूप में उसके द्वारा बरते गये घोर अकर्मण्‍यता, लापरवाही के परिणामस्‍वरूप दो व्‍यक्‍तियों की मौत का इल्‍जाम लगाया गया। मानवीय संवेदनाओं को ताक में रख उस पर सफेदपोश किंतु जघन्‍य तरीके से इरादतन हत्‍या का आरोप लगाया गया और जानबूझकर किये गये इस दोहरे हत्‍या के लिये फांसी की सजा की मांग की गयी। स्‍वयं अनामिका ने भी अपराध बोध से ग्रसित हो स्‍वयं के लिये मृत्‍यु दण्‍ड की मांग की। बचाव पक्ष के वकील की दलीलें तो सिर्फ औपचारिकताएं ही थी क्‍योंकि अनामिका स्‍वयं भी अपने लिये कठोर सजा चाहती थीं । बहस के दौरान, न्‍यायालय के रूख से भी यह स्‍पष्‍ट हो गया था कि अनामिका को मृत्‍युदण्‍ड दिया ही जावेगा। प्रतीक्षा की घड़ियां समाप्‍त हुई, फैसले के बारे में लगभग सभी को पूर्वानुमान हो चुका था। सबको बस आज के इस औपचारिक क्षणों की ही केवल प्रतीक्षा थी, न्‍यायालय अनामिका के सहयोगी डॉक्‍टरों, प्रतिष्‍ठित पत्रकारों और उनके परिचितों से खचाखच भरा था।

विद्वान न्‍यायाधीश ने अपना फैसला सुनाते हुये कहा -समस्‍त तथ्‍यों और साक्ष्‍यजन्‍य परिस्‍थितियों के विश्‍लेषण के पश्‍चात न्‍यायालय यह मानती है कि डॉ․ अनामिका मेहता द्वारा किया गया यह अमानवीय कार्य एक चिकित्‍सकीय पेशे की गरिमा के नितांत विरूद्ध है और वह इस घोर अमानवीय कृत्‍य की कड़े शब्‍दों में निंदा करता है। सरकारी पक्ष की दलीलों से न्‍यायालय अपनी पूर्ण सहमति व्‍यक्‍त करते हुये भी वह इस बात से इत्‍तफाक नहीं रखता कि इसके लिये मुवक्‍किल को मृत्‍युदण्‍ड दिया जावे यद्यपि न्‍यायालय सदैव यह मानती है कि किसी भी व्‍यक्‍ति को एक सरकारी ओहदे में कार्य करते हुये अपने कार्य के प्रति उपेक्षा व लापरवाही कतई नहीं बरतनी चाहिये। अनामिका मेहता द्वारा भावनाओं में बहकर इस तरह का कृत्‍य करना निंदनीय है जिससे दो व्‍यक्‍तियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। यदि अनामिका मेहता द्वारा किये गये इस कार्य को रेयरेस्‍ट अॉफ दि रेयर केस मानते हुये मृत्‍युदण्‍ड की सजा दी जाती है तो यह संदर्भ के रूप में भविष्‍य में उपयोग किया जाने लगेगा जो कि चिकित्‍सकीय पेशे के लिये ठीक नहीं होगा क्‍योंकि गाहे बगाहे मानवीय भूल भी उनसे होती रहती है । न्‍यायालय यह सदैव मानती है कि किसी भी अपराधी को सुधरने और उसे प्रायश्‍चित का अवसर भी दिया जाना चाहिये अतः डॉ अनामिका मेहता को न्‍यायालय इस अपराध से बरी कर उसे दोष मुक्‍त करार देती है और इसे महज भावनाओं में बहकर की गयी एक मानवीय भूल मानती है । अतः न्‍यायालय अनामिका मेहता को बाइज्‍जत रिहा करने का आदेश देती है ।

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राकेश कुमार पाण्‍डेय

ईमेल : rakesh.hirrimine@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बहुत सुन्दर कहानी, समाज की दरिन्दगी को प्रदर्शित करती बेहतरीन कहानी, समाज मे निश्चित तौर पर ऐसा हो रहा है, ऐसी घटनाये समाज मे कुछ दिनो के अन्तराल मे घटते ही रहती है हा लेकिन लेखक ने जैसे वीभत्स स्वरूप की कल्पना कर समाज को एक आईना दिखाने की कोशिश की है वह वाकई भयानक है , ऐसा कभी मत हो, हा अनामिका का रुख एकदम सही था.

    राकेश जी की एक और कहानी अस्तित्व मैने इसके पहले पढी थी वह भी बेहतरीन कहानी थी , जिसमे समाज को एक प्रेरक सन्देश था.हा एक भावना प्रधान कहानी और भी आपकी पढी थी वह नाम मुझे याद नही आ रहा.

    बधाई हो,

    वैसे आपकी कहानी मे बडे प्रेरक और सुन्दर विचार भी होते है, पढकर मन प्रफुल्लित हो जाता है.

    और बेहतरीन लिखिये, हमारी ढेरो शुभकामनाये

    बिरेन्द्र

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: राकेश कुमार पाण्डेय की कहानी : प्रतिशोध
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