अहिंसा ही मनुष्यत्व है ! यशवन्त कोठारी प्राचीन भारतीय दर्शन व संस्कृति में अहिंसा को सर्वोपरि स्थान दिया गया है । जैन धर्म का यह ...
अहिंसा ही मनुष्यत्व है!
यशवन्त कोठारी
प्राचीन भारतीय दर्शन व संस्कृति में अहिंसा को सर्वोपरि स्थान दिया गया है । जैन धर्म का यह मुख्य सिद्धान्त है । जैन साहित्य में 108 प्रकार की हिंसा बताई गई है । हिंसा को अहिंसा में बदलने की प्रक्रिया को मानवता कहा गया है । बौद्ध धर्म में भी अहिंसा को सदाचार का प्रथम व प्रमुख आधार माना गया है । अहिंसा परमो धर्मः कहा गया है । रमण महर्षि ने अहिंसा को सर्वप्रथम धर्म माना है । अहिंसा को अल्बर्ट आइन्सटीन, जार्जबर्नांड शा, टाल्स्टाय, शैली तथा अरस्तू तक ने अपने विचारों में उचित और महत्वपूर्ण स्थान दिया है । भारतीय विचारकों कपिल, पातंजलि, शंकराचार्य, इस्लाम के सूफी सन्त तथा गुरुनानक, महात्मा गांधी तक का प्रमुख अस्त्र अहिंसा ही था ।
आज विश्व में सर्वत्र हाहाकार है । हिंसा है । मानव-मानव का और जीव-जीव का शोषण कर रहा है । आतंकवाद का बोलबाला है, ऐसी स्थिति में हमें त्राण का एक मात्र मार्ग अहिंसा में नजर आता है । आज व्यक्ति, समुदाय, समाज, राष्ट्र, विश्व सब विघटनकारी महाविनाश के मुहाने पर खड़े हैं ।
हर तरफ अराजकता, अनुशासनहीनता, शोषण और जातिवादी, सम्प्रदायवादी ताकतों का बोलबाला है । ऐसी स्थिति में वैचारिक दृष्टि से बुद्धिजीवियों का ध्यान अहिंसा जैसे अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धान्त की ओर जा रहा है । अहिंसा से ही प्रतिकार हो सकता है । सुधार और समन्वय हो सकता है । अहिंसा से सामाजिक समरसता हो सकती है । वैचारिक न्याय प्राप्त हो सकता है । ऊंच-नीच का भेदभाव मिट सकता है । परिग्रह से बचना, क्रोध से बचना, तृष्णा और एषणा से बचना हो तो अहिंसा की शरण में जाना चाहिए । अहिंसा हमें धनेषणा, यशएषणा तथा पुत्रेषणा तक से बचने की प्रेरणा देती है । हिंसा, बलात्कार, आतंकवाद, शोषण सबका कारण परिग्रह और एषणा है और एषणा से बचाव के लिए मानव के पास केवल एक अस्त्र है - अहिंसा । हिंसा केवल जीवों की हत्या ही नहीं हैं । किसी का हक मारना, किसी के प्रति अन्याय करना भी हिंसा है और अन्याय का प्रतिकार अहिंसा ही है । बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, ज्ञानी-तपस्वी, विचारकों, दार्शनिकों ने हिंसा को नरक का द्वार कहा है । परिग्रह और संग्रह में आसक्ति है, दुःख है, करुणा नहीं है, दया नहीं है । अतः असंतोष है और असंतोष के कारण हिंसा उत्पन्न होती है, असहिष्णुता पैदा होती है, व्यक्ति सामंजस्य नहीं करता है, उग्र हो जाता है, उग्रता में हिंसा करता है और समूल नष्ट हो जाता है । निवृत्ति मार्ग की ओर ले जाने वाला प्रमुख अस्त्र है अहिंसा । वेदों से लेकर आज तक प्रकाशित साहित्य हमें सत्कर्म की ओर प्रेरित करता है । जीवन में अहिंसा को स्थान देने वाला कभी असफल नहीं होता । ईश्वर उससे कभी विमुख नहीं होता । लोकहित को सर्वोपरि माना जाना चाहिए । कटु वचनों तक से परहेज रखना चाहिए । जैन धर्म में अहिंसा और उसके परिपालन के निर्देश बड़ी सूक्ष्मता और विचारशीलता से दिए गए हैं । अज्ञानी धर्म को नहीं मानता है । ज्ञानी के वचनों की अवहेलना करता है और परिणाम स्वरूप स्वयं भी दुःख पाता है, घर-परिवार, समाज और राष्ट्र को भी परेशान और दुःखी करता है ।
आत्मा के तीन खण्ड हैं- बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । जो इन तीनों खण्डों से गुजर जाता है वही मोक्ष को प्राप्त करता है । नैतिकता से जीवन जीने वाला ही बहिरात्मा से परमात्मा तक पहुंच सकता है । हम भी सुखी रहें, दूसरे भी सुखी रहें । जीओ और जीने दो । लेकिन अन्याय को सहन करना भी हिंसा मानी गई है । मानवीय मर्यादाएं, सीमाएं नष्ट हो रही हैं । छोटे बड़े का भेद मिट रहा है और व्यक्ति-व्यक्ति का मांस नोचने को आतुर है, यहीं आकर अहिंसा का महत्व स्पष्ट हो जाता है ।
परिग्रह हिंसा है और निवृत्ति अहिंसा है । गांधी जी ने पूरा जीवन एक वस्त्र में बिता दिया जबकि आज गांधी जी के नाम पर अरबों के घोटाले हो रहे हैं, हिंसा का ताण्डव सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है । संग्रह करने से हिंसा को दीर्घ जीवन मिलता है, जबकि हमें अहिंसा की आवश्यकता है । व्यक्ति को पेट भरना चाहिए पेटी नहीं । अधिक भोजन अनीति है, झूठन छोड़ना गलत है, हिंसा है । अधिक संग्रह से व्यक्ति के उपयोग करने की शक्ति कम हो जाती है । संग्रहित सामान व्यर्थ ही जाता है । न खुद के काम आता है और ना ही दूसरों के काम आता है।
अहिंसा से मानव निर्भर रहता है । उसे किसी प्रकार का डर या आतंक का सामना नहीं करना पड़ता महावीर ने कहा है-
प्राणी मात्र के प्रति संयमित व्यवहार ही अहिंसा है । अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना अहिंसा है । असंयत नियम विरुद्ध आचरण भी हिंसा है । जीवन-मरण की आकांक्षा रखना हिंसा है । अहिंसा, करुणा, दया, अनुकम्पा का आचरण रखने के प्रयास होने चाहिए । मगर स्वयं पर हिंसा नहीं करनी चाहिए । अनैतिकता को सहन भी नहीं करना चाहिए । हिंसा पर आधारित परोपकार, दान, करुणा, हिंसा के ही पक्ष हैं अतः इनसे बचना चाहिए । हिंसा सामने आने पर व्यक्ति या तो धर्म की बात करे या चुप रहे या वहां से उठ कर चला जाए । हिंसा से पलायन भी अहिंसा ही है ।
अहिंसा व्यक्ति के अन्तर्मन में पैदा होती है । यह एक आत्मिक भाव है। अहिंसा के पालन में समझौता नहीं हो सकता । अन्तर्मन में उपजे भाव को ही मुखरित कर अहिंसा की चर्चा करना चाहिए ।
निर्भय बनो । अहिंसक बनो।
गांधीवादी अहिंसा ने न केवल हमें अंग्रेजों से आजादी दिलाई, वरन् अन्य देशों का भी मार्ग दर्शन किया ।
गांधी धर्म अहिंसा पर आधारित है । महावीर की निवृति अहिंसा, गौतम बुद्ध की करुणामय अहिंसा, ईसामसीह की सेवा, शंकराचार्य का ज्ञान मार्ग, गीता की योगवादी अहिंसा, कर्मयोग और सत्य अहिंसा के गांधी वादी प्रयोग सभी अहिंसा के रूप हैं । अहिंसा मानव मात्र के ह्रदय में प्रतिष्ठित हो तो सभी जीवों का कल्याण हो सकता है । अहिंसा से असुरी वृत्ति का नाश होता है । मनुष्य स्वयं जिये साथ-ही-साथ दूसरों को भी जीने दे । यह पृथ्वी और अन्तरिक्ष, मनुष्य मात्र का ही नहीं है, वह तो सभी का है । सभी को इस पृथ्वी के उपभोग की स्वतंत्रता है । हिंसा से केवल कुछ ही लोग इसका उपभोग करें यह उचित नहीं है ।
अहिंसा के जागरण से व्यक्ति के मन में मानवता और सामाजिक भावना जाग्रत होती है ।
अहिंसा व्यक्ति के समग्र चिन्तन में बदलाव लाती है । विचार का रास्ता हिंसा से नहीं अहिंसा से तय किया जाना चाहिए । अहिंसा के पालन से पूरा विश्व एक परिवार बन सकता है राष्ट्र की सीमाएं टूट सकती हैं । वसुधैव कुटुम्बकम् की धारणा पुष्ट हो सकती है । विश्व एक नीड़ बन सकता है । जहां पर सुख, शांति, परोपकार, दया और करुणा का वास हो सकता है । आइये, हम ऐसे ही विश्व के निर्माण में योगदान करने का विनम्र एवं दृढ़ संकल्प करें ।
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करुणा : जीवन का अमृत
यशवन्त कोठारी
अहिंसा और करुणा भारतीय संस्कृति एवं वागंमय के प्रमुख आधार रहे हैं। बिना करुणा के भारतीय चिन्तन धारा का विकास संभव नहीं था। वास्तव में करुणा जीवन का अमृत है। साधना का प्रकाश है। जिस व्यक्ति के मन में करुणा नहीं है, वह नर हो ही नहीं सकता । जीव मात्र के प्रति करुणा मानव जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है । प्राचीन भारतीय ऋषियों, मुनियों, ज्ञानियों, तपस्वियों ने परम-पिता को करुणा-निधान कहा है । साहित्य, संस्कृति, कला सभी में करुणा-रस को प्रधानता दी गई है।
जैन साहित्य में तथा वैदिक साहित्य में क्षमा, करुणा को विशेष स्थान दिया गया है । अहिंसा, करुणा ओर क्षमा ये तीन गुण मिलकर किसी भी साधारण मानव को महामानव या ईश्वर के समकक्ष स्थापित करने वाले गुण हैं । जनकल्याण के लिए करुणा की सर्व प्रथम आवश्यकता है । करुणाहीन व्यक्ति, अफसर, नेता या समाज सुधारक जनकल्याण नहीं कर सकता है । करुणा को एक मानवीय गुण के रूप में विकसित किये जाने की आवश्यकता है । दुर्बल जन में करुणा का वास होता है, आवश्यकता दिखाई पड़ने पर भी करुणा नहीं उत्पन्न हो तो समझो कि हृदय पत्थर है और पत्थर के समान हृदय से प्रशासन तो हो सकता है, मन नहीं जीते जा सकते । देशों को जीता जा सकता है, मगर लोगों के दिलों पर राज नहीं किया जा सकता ।
संत अक्सर कहते हैं कि अहिंसा से संसार का सुधार संभव है । इससे आत्मा का शुद्धिकरण होता है । अहिंसा से करुणा का विस्तार होता है । कृपा करने से मन में फूल खिलते हैं । प्राणी मात्र की सेवा करने की भावना जागृत होती है । भारतीय संस्कृति तथा प्राचीन संस्कृत साहित्य में अहिंसा का पर्याप्त वर्णन है, अहिंसा का आधार करुणा है । करुणा और दया ही अहिंसा को जन्म देते हैं । दया, करुणा, कृपा, मदद आदि का स्वरूप समान हो सकता हैं मगर करुणा सर्वश्रेष्ठ है । भगवान महावीर कहते हैं-'दया धम्मस्य जणणी'।
भगवान बुद्ध एक कदम आगे जाकर कहते हैं-
पर दुःखे सति साधुन ह्रदय, कर्मन करोतिति करुणा।
किवामी मा पर दुःख हिंसाति, बिना सेती इति करुणा ।।
गीता में भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं, परम योगी करुणा निधान वही है जो सभी जीवों को समान समझता है और परदुःख कातर होता है । वास्तव में करुणा समस्त जीवों के प्रति मित्रता का भाव सिखाने का गुरुतर भार वहन करती है । दया या क्षमा यह भार नहीं सहन कर सकती ।
पैगम्बर मुहम्मद करते हैं-'जिसमें रहम है, उसमें ईमान है और जिसमें रहम नहीं, उसमें ईमान नहीं है।' बाइबल में लिखा है- दुःखी के प्रति दया दिखाना मानवता का सर्वोच्च गुण है, किन्तु दुःखी के दुःख को मिटाना ईश्वरीय गुण है । वेदों में भी परोपकार को धर्म का अभिप्राय माना है । तुलसी कहते हैं-दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान ।
कबीर कहते हैं-
भावे जाओ द्वारिका, भावे जाओ गया ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सब में मारी दया ।।
अतः महावीर की वाणी पुनः सच्ची सिद्ध होती है कि दया या करुणा धर्म का मूल स्वरूप है । यह धर्म की माता है, मरना कौन चाहता है, सब जीना चाहते हैं । अतः समस्त प्राणियों के प्रति करुणा का विकास ही धर्म है । जीओ और जीने दो कि भावना के विकास का कारण करुणा ही है । दान, सेवा, आश्वासन, मदद, रहम, सांत्वना, संतोष आदि करुणा के ही रूप हैं ।
मनुष्य मात्र में करुणा का स्पन्दन आवश्यक है । हृदय की हर धड़कन में करुणा, क्षमा, अनुकम्पा, अहिंसा, दया, मैत्री आदि का समावेश होता है । आवश्यकता इस बात की है कि हृदय में उपजती करुणा, कृपा को होंठों तथा मस्तिष्क तक लाया जाए और आवश्यकता होने पर इसे व्यावहारिक बनाया जाए । भगवान महावीर में विराट करुणा का साकार दर्शन होता है । विराट स्वरूप केवल कृष्ण में ही नहीं, हर जीवित जीव में है, यदि करुणा को आधार मानकर सोचा जाए तो सम्पूर्ण विश्व में शांति, आदर, समरसता स्थापित हो सकती है । हमारे सामाजिक सरोकारों का प्रमुख आधार ही करुणा या दया होनी चाहिए ।
इसलिए कहा गया है -
आत्मवत् सर्व भूतेषु यः पश्चयति स पंडितः।
तथा
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
भारतीय जीवन दर्शन के शिखर पर करुणा, प्रेम, दया, स्नेह, ममता विराजमान है। भूख से बिलखते छोटे शिशु को देखकर यदि महिला के आंचल से दूध झरने लग जाये तो सम्पूर्ण विश्व की करुणा प्रकट हो जाती है। महावीर का सम्पूर्ण जीवन इस तरह से संचालित होता है कि पग-पग पर करुणा बोध होता है। तपस्या से, मोह को बांधा जा सकता है। क्रोध और तृष्णा को जीता जा सकता है। बड़े-बड़े सन्तों में यश, एषणा बची रह जाती है, क्योंकि करुणा के भाव पक्ष का विकास नहीं हो पाता है, यदि तृष्णा और क्रोध को जीत लिया जाये तो सम्पूर्ण विश्व करुणा का सागर बन सकता है, यश एषणा से मुक्ति मिल जाये तो फिर पाने को क्या बच जाता है। फिर न कोई मित्र रहता है और न कोई शत्रु। एक यौगिक भाव का विकास हो जाता है। सब में मैं और मेरे में सब। चारों तरफ समता, समानता, आत्मतुल्यता की भावना का प्रादुर्भाव हो जाता है।
वास्तव में करुणा तो कलकल बहती नदी की शीतल धारा है जो मानवता के सर्वोच्च शिखर से चलकर करुणा बीज को वृक्ष का आकार मिल जाने के बाद वट वृक्ष के नीचे सब कुछ समा सकता है। हृदय परिवर्तन बिना करुणा, दया, क्षमा, अहिंसा संभव नहीं है। धर्म परिवर्तन से कुछ नहीं होता दानवता तो हृदय परिवर्तन से नष्ट होती है और हृदय परिवर्तन के लिए सभी धर्मों में दया और करुणा को आधार माना गया है। विश्व शांति के मसीहा बनने के लिए अहिंसा और करुणा का परचम फहराना पड़ता है। वास्तव में एक संत ने ठीक ही कहा है :-
'सत्संग की आधी घड़ी, सुमिरन बरस पचास।'
किसी भी प्राणी का परिग्रह मत करो। किसी भी प्राणी को परितप्त मत करो। किसी भी प्राणी के प्राणों का वियोजन मत करो। आचार्य भिक्षु के अनुसार -
'जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हिंसा मत जाण।
मारण वाले हिंसा कहीं, नहीं मारे ते दया गुण खान।।''
मानवीय चेतना के विकास का आधार और धरातल करुणा ही है। करुणा की धरती पर ही मानवता के वृक्ष फलते-फूलते हैं और आगे जाकर अहिंसा, मैत्री, क्षमा आदि के फल लगते हैं। यह शाश्वत सत्य है। करुणा की साधना से ही वसुधैव कुटुम्बकम् की धारणा विकास पाती है। पूरा विश्व एक नीड़ है और हम सभी समान है। यही स्वर भारतीय मनीषा के चिन्तन का उद्घोष है।
दुःख के मूल कारणों का निवारण करुणा का प्रमुख पाथेय है। ध्येय यह है कि समाज, देश, राष्ट्र, दुःखी जीव सबको शांति मिले। भगवान कृष्ण ने गीता में अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा देते समय स्पष्ट कहा मोह में मत पड़, युद्ध कर। क्योंकि युद्ध ही तेरा ध्येय है, करुणा में राग-द्वेष या मोह की उपस्थिति विचारणीय है। यदि मानव में राग-द्वेष की मात्रा नहीं है या अत्यंत अल्प है तो करुणा शुद्ध होगी और शुद्ध करुणा सभी के लिए संरक्षण का काम करेगी। करुणा का मूल ध्येय तो 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' ही है। वास्तव में सब एक-दूसरे के पूरक हैं, सभी को सभी की मदद की आवश्यकता पड़ती है, इसी कारण फिर कहा गया है -
'परस्परोपग्रह : जीवानाम्।'
आखिर करुणा का जन्म कहां से होता है ? वास्तव में करुणा का जन्म परदुःखकातरता से होता है। मानव मन में अनेक रस हैं, भाव हैं, भावनाएं हैं और इन्हीं में से करुणा है। 'बिन करुणा सब सून।' मार्मिक घटना, दारुण प्रसंग, के कारण करुणा उत्पन्न होती है और सबसे महत्वपूर्ण स्थिति है कि करुणा हमेशा शोषित, उपेक्षित, दुःखी, दीन, गरीब, असहाय, प्रताड़ित, कमजोर, अक्षम के प्रति उपजती है। क्यों ? क्योंकि यही तबका है जिसे सब कुछ की जरूरत है। जबकि जो ताकतवर है, सबल है, या जो शोषक है, उसके प्रति घृणा उपजती है। करुणा द्रवित होती है और द्रवण भाव के विकास से करुणा उपजती है। करुणा के जन्म के हेतु अलग-अलग हो सकते हैं। लेकिन मुख्य भाव दया, मदद, रहम का ही रहता है। करुणा मनुष्य के अलावा जीव-जन्तुओं, यहां तक कि पेड़-पौधों के प्रति जागृत होती है। हरे वृक्ष को कटते देख कर दुःखी मन कातर हो उठता है और करुणा की उत्पत्ति हो जाती है। करुणा करने वाला त्याग करता है। समय, धन, श्रम, आकांक्षा, आयोजन सभी का त्याग करने पर ही करुणा करना संभव है। जो करुणा करना चाहता है उसे सब कुछ सहज नहीं मिल पाता है। उसे सप्रयास सब कुछ पाकर उसे दूसरों के लिए छोड़ना पड़ता है। वाल्मीकि ऋषि में शिकारी द्वारा क्रोंच पक्षी के वध को देख कर ऐसी करुणा उपजी कि रामायण जैसे अमर महाकाव्य की रचना हुई। पार्वती के व्रत अनुष्ठान से शिवजी सन्यासी से गृहस्थ बन गये। स़िद्धार्थ बुद्ध बन गये। त्रिशलान्दन महावीर हो गये। मोहनदास करमचन्द महात्मा गांधी बन गये। आखिर करुणा की यह कैसी स्थिति आती है। वास्तव में भगवान राम भी तो करुणा के सागर थे। वे रावण के अनुज विभीषण के प्रति भी करुणा से ओत-प्रोत थे। रावण के गुप्तचरों को भी राम ने हंसकर छुड़वा दिया। इन्द्र के प़ुत्र जयन्त को भगवान राम ने माफ कर दिया क्योंकि शरणागत की रक्षा में करुणा भाव का जागृत होना आवश्यक है। सीता को खोजते-खोजते राम ने जब मरणासन्न जटायु को देखा तो करुणासागर द्रवित होकर बोल पड़े :
कर सरोज सिर पर सेऊ कृपा सिन्धु रघुवीर।
निरखि राम छवि धाम मुख विगत भई सब पीर।।
वास्तव में करुणा का सहारा समस्त प्राणियों की समस्त पीड़ाओं को हर लेता है। करुणा का परिणाम हमेशा कल्याणकारी ही होता है। युद्ध के अन्त में भगवान राम ने सभी राक्षसों को परमधाम भेज दिया ताकि वे जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जायें। करुणामय व्यक्ति मित्र और शत्रु में भेद किये बिना सब पर करुणा की कृपा करता है। व्यक्ति की संवेदनशीलता, दूसरों के दुःख को अपना समझने की प्रवृत्ति ही उसे करुणा के निकट ले जाती है जो एक मरते हुए पक्षी तक के प्राणों को बचाने में स्वयं को समर्पित कर देता है। निःस्वार्थ समर्पण करुणा की पहली शर्त है। जो निःस्वार्थ भाव से जीव मात्र की सेवा कर सकता है वही महावीर बुद्ध, ईसा या पैगम्बर मोहम्मद बन सकता है। किसी शायर ने क्या खूब कहा है -
हद तपे तो ओलिया, बेहद तपे तो पीर।
हद बेहद दोनों तपे उसका नाम फकीर।।
अतः फकीर ही दया का सागर हो सकता है, राजा नहीं। आज सर्वत्र भौतिकता की अन्धी दौड़ है और मनुष्य को स्वयं की भौतिक समृद्धि के अलावा कुछ नहीं दिखता है। सुई से हवाई जहाज खरीदने की दौड़ में व्यस्त है आज का मनुष्य, गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में मानव जीवन को एक नये क्षितिज के लिए करुणा को स्वीकार करना चाहिए। मानव मात्र के कल्याण के लिए करुणा अवश्यम्भावी है। तभी तो राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की वाणी सच होगी :
यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप-आप ही चरे,
वही मनुष्य है जो कि मनुष्य के लिए मरे।,
मानव जीवन में सत्य, प्रेम, करुणा, अहिंसा ही मूल आवश्यकताएं हैं। मानव सत्यनिष्ठा हो यही जरूरी है। अहिंसा परमोधर्म हैः। रामकृष्ण परमहंस की करुणा के क्या कहने और सुदामा की दीन दशा देखकर कृष्ण की स्थिति ? सब कुछ करुणा से सराबोर।
देखि सुदामा की दीनदशा करुणा करिके करुणा निधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहीं नैनन के जलसांे पग धोये।।'
और नरसिंह मेहता का यह अमर गान -
वैष्णव जण तो तेणे कहिये जो पीड़ पराई जाणे रे।
दुःख उपकार करे तो ये, मन अभिमान न आणे रे।।
महात्मा गांधी केवल करुणा से बंधे थे और एक वस्त्रहीन महिला को स्नान करते देख ऐसी करुणा उपजी की जिन्दगी भर वस्त्र धारण नहीं किया। गांधीजी ने किसानों की पीड़ा को अपना दुःख समझा और एक ऐसी लड़ाई का शंखनाद किया जिसमें करुणा और अहिंसा के सहारे पूरे राष्ट्र को स्वतंत्रता के आलोक से भर दिया। सत्य का आग्रह ही गांधी का हथियार था। बिना करुणा के सत्य नहीं और बिना सत्य के आग्रह के स्वतंत्रता नहीं। साधुत्व, श्रावकत्व, ज्ञान, मोक्ष, सब का आधार करुणा है। मानव मूल्यों का ह्रास का मूल कारण ही करुणाविहीन जीवन है। आवश्यकता है करुणा के इस महासागर में डूब कर जीवन को करुणामय और सफल बनाने की। अपने पराये के भेद भाव को मिटाकर भौतिकता से ऊपर उठकर सोचने की। तब न कहीं य़ुद्ध होगा न होगा तनाव। सब बराबर होंगे और विश्वबन्धुत्व का नारा सफल होगा।
करुणा का सागर है - नारी। मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं -
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आचंल में है दूध और आंखों में पानी।।
नारी की करुणा पुरुष की करुणा से बड़ी है, ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि सृजन का कार्य केवल माता कर सकती है, वह प्रणम्य है ।
करुणा पाश्चात्य जीवन में भी अपना असर दिखा रही है। वहां भी करुणा के महत्व को स्वीकार किया जा रहा है।
विश्व युद्धों से आक्रांत और तीसरे विश्व युद्ध की संभावना से डरे-डरे पश्चिमी मानव बार-बार पूर्व की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं। सम्राट अशोक का हृदय परिवर्तन भी कलिंग युद्ध के बाद हो गया था, आज सम्पूर्ण विश्व युद्ध से आक्रांत है और हृदय परिवर्तन की ओर अग्रसर है और परिवर्तन से मिलेगी करुणा, जीव मात्र के प्रति दया। तुलसी कहते हैं -
'तू दयालु दीन हों, तू दानि हो भिखारी'
मलूकदास कहते हैं :-
तेरो हो आसरो एक मलूक नहीं कोऊ जानत और जसी है।
ऐ हो मुरारी पुकारी कहां या मैं मेरी हंसी नहिं तेरी हंसी है।।
और अन्त में एक अत्यन्त करुणामय दोहा -
कागा सब तन खाईयो चुन-चुन खाईयो मांस।
दुई अंखियां मत खाईयो पिया मिलन की आस।।
तो आईये सम्पूर्ण विश्व में करुणा का विस्तार हो इस आशा के साथ समापन करते हैं।
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क्षमा : मानवता का सर्वोच्च धर्म
यशवन्त कोठारी
भारतीय संस्कृति में क्षमा-दान को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है । प्राचीन वैदिक साहित्य, पौराणिक साहित्य में क्षमा कर देना सबसे बड़ा भूषण माना गया है। जो क्षमा नहीं कर सकता उसमें मानवता की कमी है । क्षमा मांगना कठिन हो सकता है, मगर क्षमा करना उससे भी कठिन होता है । लेकिन क्षमा कर देने पर जो आत्मिक सुख, मानसिक संतोष मिलता है, वह अनिर्वचनीय है, अनन्त है । क्षमा सभी धर्मों में महत्वपूर्ण मानी गई है । यदि धरती से क्षमा हट जाए तो क्या होगा ? सर्वत्र, जीवन रक्तरंजित हो जाएगा । पृथ्वी हिंसा का दूसरा नाम हो जाएगा । सब जगह जंगलराज हो जाएगा । व्यक्ति एक-दूसरे को मारने पर उतारू हो जाएगा और मानवता नष्ट हो जाएगी । जीवन के प्रति मोह का त्याग है क्षमा । मनुष्यता जिन गुणों से विभूषित होकर प्रतिष्ठा पाती है, उनमें क्षमा सबसे ऊपर है । क्षमा के बिना जीवन अधूरा और अहंकार युक्त हो जाता है । अंग्रेजों में भी 'सारी' शब्द का बड़ा प्रचलन है, जो क्षमा या प्रार्थना का ही एक रूप है । एक प्रसिद्ध विचारक के अनुसार मनुष्य जानवर है, यदि उसमें क्षमा का गुण नहीं है । वास्तव में क्षमा मनुष्य को सच्चा मानव बनाती है ।
सभी धर्मों में क्षमा को सर्वोपरि स्थान दिया गया है । क्षमा को न केवल सभी धर्मों में स्वीकार किया गया है बल्कि उसे आम व्यवहार में लाने के लिए धर्माचार्यों, संतों, संन्यासियों, महाराजाओं ने अपने-अपने तरीके से प्रयास किए हैं।
पर्यूषण पर्व पर क्षमा का विशेष महत्व है । इस पर्व काल में क्षमा को आचरण में उतारा जाता है । व्यवहार में लाया जाता हैं । हर जीव से क्षमा मांगी जाती है । चौरासी लाख जीवों से क्षमा याचना, यहां तक कि पेड़-पौधों से भी क्षमा याचना की जाती है । क्षमा मांगने से कोई छोटा नहीं हो जाता ।
सब 'जियो और जीने दो' की महान् परम्परा के वाहक बन जाते हैं । जैन धर्म में क्षमा वाणी को एक पर्व, उत्सव के रूप में मनाया जाता है । क्षमा के महत्व का वैज्ञानिक अनुशीलन किया गया है । क्रोध, दुःख एक ऊर्जा है जो जीव को जलाती है और यदि क्षमा का सहारा हो तो ऊर्जा सकारात्मक काम में बदल जाती है । वास्तव में जैन समाज में क्षमा अपने आचरण, सम्यक् जीवन दर्शन, सम्यक् चारित्रिक व्यवहार से अपने भीतर पैदा की जाती है । एक स्व का विकास होता है जो निजता में क्षमा का एक विराट संसार पैदा करता है । और सम्पूर्ण विश्व उसमें क्षमा पाता है, क्षमा देता है, क्षमा को महसूस करता है । क्षमा दान महादान है, लेकिन अहंकारी, घमंडी तथा नीच को क्षमा का फल नहीं मिलता है । जो अहंकार क्षमा याचना नहीं करने देता, उसे क्षमा का अधिकार नहीं दिया जा सकता । उसे तो उसका अहंकार नष्ट कर देगा । कभी-न-कभी उसे नष्ट होना है, क्षमा उसके लिए कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाएगी, अतः अहंकारी को क्षमा नहीं दंड और अन्त में क्षमा । क्षमा शाश्वत धर्म है । क्षमा को जैन धर्मों की तरह ही अन्य धर्मों में भी महत्व दिया गया है । सनातन हिन्दू धर्म में भगवान् आशुतोष महान् क्षमा देने वाले हैं । वे संसार के गरल को स्वयं पीने वाले हैं और क्षमा के साथ-साथ अहंकार को नष्ट करने की शक्ति भी रखते हैं । धर्म में अपने पापों की स्वीकृति भी क्षमा का ही एक रूप है, ईश्वर के सामने अपनी गलतियों को स्वीकार करके क्षमा मांगना । यहूदी धर्म, इस्लाम धर्म तथा ईसाई धर्म सभी में क्षमा को पर्याप्त महत्व दिया गया है । ईसा मसीह ने तो अपने हत्यारों तक को क्षमा किया ।
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यशवन्त कोठारी
86,लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर जयपुर 302002 फोन 2670596
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