व्यंग्य लेखन पुरस्कार आयोजन – महेश शर्मा का व्यंग्य : बड़ी मछली छोटी मछली

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(प्रविष्टि क्रमांक - 8) हाल ही में हमारे बुद्धिजीवी प्रधानमंत्री जी ने अपने मातहतों को सलाह दी कि छोटी मछली पकड़ने की बजाए बड़ी मछली पकड़क...

rachanakar-vyangya
(प्रविष्टि क्रमांक - 8)
हाल ही में हमारे बुद्धिजीवी प्रधानमंत्री जी ने अपने मातहतों को सलाह दी कि छोटी मछली पकड़ने की बजाए बड़ी मछली पकड़कर भ्रष्‍टाचार पर अंकुश लगाएं। जब प्रधानमंत्री स्‍तर का व्‍यक्‍ति ऐसी बात कहेे तो बात को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। लिहाज़ा गंभीरता का लबादा ओढ़े चिंतन-मनन करते हुए हमें अनायास ही याद आ गया कि एक दशक से कुछ अधिक ही हुआ होगा जब स्‍वतंत्रता की स्‍वर्ण जयंती पर एक और बुद्धिजीवी प्रधानमंत्री ने लालकिले से भाषण देते हुए कहा था कि भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध सत्‍याग्रह किया जाना चाहिए। शुरु से ही हम दोनों प्रधानमंत्रियों की बुद्धिजीविता के कायल रहे हैं। यद्यपि एक विदेश मामलों के धुरंधर पंडित रहे हैं जबकि दूसरे ने विदेश संबंधी कूटनीति में अपने को सिफ़र साबित किया है। फिर भी उनकी ईमानदार छवि और लब्‍ध प्रतिष्‍ठित अर्थशास्‍त्री होने के कारण उनके लिए अत्‍यधिक आदरभाव सदा से बना रहा है। बहरहाल भ्रष्‍टाचार संबंधी उनके कथन को गंभीरता से लिया जाना लाजिमी ही था इसीलिए सत्‍याग्रह का आह्वान भी याद आ गया। लगा जैसे हमने कोई गंभीर अपराध कर दिया। यदि बारह वर्ष पूर्व ही सत्‍याग्रह शुरु कर दिया होता तो संभवतः वर्तमान प्रधानमंत्री को बड़ी मछली पकड़ने की बात कहने की नौबत नहीं आती। खैर देर आयद दुरस्‍त आयद....भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध सत्‍याग्रह करने का संकल्‍प लेकर हमने गंभीरता का लबादा एक ओर रखा और काम पर चल दिए।
संयोग से अगले ही दिन ‘सत्‍याग्रह और असहयोग' का अवसर हाथ आ गया। उज्‍जैन से दिल्‍ली की यात्रा के लिए आरक्षण कराने स्‍टेशन पहुंचे। चूंकि रक्षा-बन्‍धन का पर्व बीता ही था और जन्‍माष्‍टमी,स्‍वतंत्रता दिवस और रविवार लगातार होने से तीन-चार दिन की छुट्‌टी एक साथ मिल रही थीं इसलिए आरक्षण कार्यालय में बहुत भीड़ थी और जैसा कि देखने में आता है टिकट दलाल भी सक्रिय थे। हमारे लिए यह सदा से ही अबूझ पहेली रही है कि जब टिकट खिड़की पर मौजूद कम्‍प्‍यूटर आरक्षण अनुपलब्‍ध बताता है तो ये दलाल कैसे आरक्षित टिकट लाकर दे देते हैं ? मन में विचार आया कि हमेशा की तरह एजेन्‍ट की सेवा कर टिकट मंगा लिया जाए परंतु प्रधानमंत्री जी के भ्रष्‍टाचार के खिलाफ तेवर याद आते ही उन्‍हें सहयोग करने तथा भ्रष्‍टाचार के खिलाफ ‘सत्‍याग्रह और असहयोग' करने की भावना प्रबल हो उठी। आखिर हम लोग ही तो अपनी सुविधा के लिए भ्रष्‍टाचार को बढ़ावा देते हैं। यदि सभी देशवासी भ्रष्‍टाचारियों से असहयोग करें तो उन्‍हें क्‍या हासिल हो सकेगा। खैर लगभग दो घण्‍टे लाईन में खड़े रहने के बाद टिकट हाथ में आया तो देखा प्रतीक्षा सूची में पच्‍चीसवां नम्‍बर था।
चिंतित मुद्रा में यात्रा के निर्धारित दिन स्‍टेशन पहुंचे और चार्ट देखा तो प्रतीक्षा सूची में कोई खास परिवर्तन नहीं दिखाई दिया। बगैर आरक्षण के लम्‍बा सफ़र करने के नाम पर घबराहट तो हो रही थी किन्‍तु ‘सत्‍याग्रह और असहयोग' का संकल्‍प याद आते ही मन में नया उत्‍साह आ गया। तभी पीछे की गली में रहने वाले वर्मा जी दिखाई दिए। उनसे मालूम हुआ कि जब आरक्षण कार्यालय मे हम लाईन में लगे थे तब उन्‍होंने एजेंट को अतिरिक्‍त पैसे देकर कन्‍फर्म टिकट हासिल कर लिया था। लिहाज़ा वे निश्‍चिंत थे और हम ईश्‍वर से प्रार्थना कर रहे थे कि इन्‍दौर से चलने वाली गाड़ी में कुछ बर्थ खाली हो तो परेशानी दूर हो जाए। बहरहाल इसके लिए गाड़ी आने का इंतजार था ताकि टिकट कंडक्‍टर से चिरौरी कर बर्थ मांगी जाए। गाड़ी आई और उसमें से कंडक्‍टर उतरे तो एकाएक स्‍टेशन पर छितराए लोग मधुमक्‍खी के झुंड समान एकत्रित होकर उनकी ओर लपके। उन्‍होंने कहा ‘‘ अभी देखते है....गाड़ी तो चलने दो। कुछ समय टिकट निरीक्षक कार्यालय में बिताकर और वहां से चार्ट लेकर कंडक्‍टर महोदय गाड़ी की ओर बढ़े। भीड़ पुनः उनके साथ हो गई। वह कुछ कदम एक ओर चलते,भीड़ उन्‍हें घेर कर चलती.....। फिर वे पलटकर कुछ कदम चलते तो भीड़ में चल रहे लोग भी उनका अनुसरण करते। इस तरह उनकी चहलकदमी स्‍टेशन के एक कोने से दूसरे कोने तक होती रही और भीड़ ‘एसपीजी' सुरक्षा की तरह उन्‍हें घेरे चलती रही। स्‍थान पाने की आशा में हम भी भीड़ का हिस्‍सा हो गए और दाएं से बाएं - बाएं से दाएं चलने लगे मानो धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग' के प्रहरी कर्तव्‍यपालन कर रहे हों।
अंततः कंडक्‍टर महोदय एक स्‍थान पर बैठ गए और चार्ट देखने लगे। आखिरकार खाली स्‍थान का आवंटन होने लगा। पूर्व नियोजित ढंग से वे पूछते ‘कितने हैं ?' और संतुष्‍ट होकर जेब में रखकर टिकट पर कोच तथा बर्थ नम्‍बर अंकित कर देते। असंतुष्‍ट होने पर ट्रेन में मिलने का कहकर टिकट वापस कर देते। हम सोचने लगे कि आजकल तो प्रतीक्षा सूची के टिकट के लिए भी शयनयान का पूरा पैसा लिया जाता है तो अब पैसे किस बात के दें। बहरहाल दो-तीन लोगों को बर्थ देकर वे उठ गए और ट्रेन में मिलने का कहकर एक ओर चल दिए। एक अनुभवी यात्री ने इसे भाव बढ़ाने की युक्‍ति बताया। भीड़ पुनः उनके पीछे चल दी। कुछ देर तक फिर चहलकदमी चलती रही...दाएं से बाएं- बाएं से दाएं। वे एक बार फिर बैठकर चार्ट देखने लगे। आरक्षण चाहने वालों की भीड़ और बर्थ की अल्‍प उपलब्‍धता के अनुमान से सत्‍याग्रह और असहयोग का संकल्‍प डिगने लगा किन्‍तु मन को स्‍थिर किया और कंडक्‍टर को टिकट थमाया। कोरा टिकट देखकर उन्‍होंने प्रश्‍नवाचक दृष्‍टि से हमें देखा। फिर भी हमने टिकट पर वज़न रखना मुनासिब नहीं समझा। वे मानो हमारी नज़रों को ताड़ गए और टिकट लौटाकर यह कहते हुए उठ गए कि ट्रेन चलने पर देखेंगे। तभी सिगनल हो गया और कंडक्‍टर के साथ ही आरक्षण चाहने वाले यात्री ट्रेन में जा समाए। गाड़ी चल दी और अब एक-दूसरे से जुड़े डिब्‍बों में चहलकदमी होने लगी। कभी किसी डिब्‍बे में टिकटों की जांच करते तो कभी किसी जगह बैठकर चार्ट देखने लगते।
फिर उठते और चहलकदमी शुरु हो जाती। आखिरकार एक बार फिर स्‍थान आवंटन होने लगा तब देखा सामान्‍य टिकट वाले भी स्‍थान पाने में सफल हो गए। हमने अपने वेटिंग के टिकट का हवाला देते हुए बर्थ मांगी कहने लगे ‘‘ नो रुम''। फिर वे उठ गए और दूसरे कोच की ओर बढ़े। भीड़ भी उनके साथ चली और हम भी भीड़ के साथ चले। एक स्‍थान पर बैठकर वे चार्ट देखने लगे और भीड़ में से झांक रही हमारी गर्दन पर लगे चेहरे को पहचान कर बोले ‘‘लम्‍बी यात्रा है, हम आपकी परेशानी का ख्‍याल रखेंगे तो आपको भी तो हमारा ख्‍याल रखना चाहिए।'' सत्‍याग्रह और असहयोग के संकल्‍प को ध्‍यान में रखकर हमने उनका ख्‍याल रखने से इनकार कर दिया और कुछ देर में ही सभी बर्थ आवंटित हो गई और हम रातभर दरवाजे के पास बैठे-बैठे कुढ़ते रहे। प्रधानमंत्री जी का आह्वान याद आने लगा और फिर लगा कि हम ही गलत हैं ये तो छोटी मछली है। प्रधानमंत्रीजी ने तो बड़ी मछली का कहा है, इस निर्दोष पर हमें गुस्‍सा नहीं करना चाहिए, आखिरकार इतनी व्‍यस्‍त गाड़ी में ड्‌यूटी के लिए बड़ी मछलियों को दाना देना होगा। बहरहाल दिल्‍ली पहुंचते तक सत्‍याग्रह और असहयोग का साहस चूक गया था और हम तय कर चुके थे कि वापसी के टिकट के लिए एजेंट की ही शरण लेनी है।
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महेश शर्मा
28, क्षपणक मार्ग फ्रीगंज उज्‍जैन

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. भ्रष्टाचार का एक जीवंत उदाहरण.
    समझौता कर सको तो करो वर्ना भुगतो.
    आखिर कहाँ तक भुगतें भाई.
    कहीं तो आवाज़ उठानी होगी.
    मेरी २५ जुलाई की पोस्ट कुछ ऐसी ही है.

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रचनाकार: व्यंग्य लेखन पुरस्कार आयोजन – महेश शर्मा का व्यंग्य : बड़ी मछली छोटी मछली
व्यंग्य लेखन पुरस्कार आयोजन – महेश शर्मा का व्यंग्य : बड़ी मछली छोटी मछली
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