मन्द मन्द वायु बह रही है। वायु का एक झोंका केश ललाट पर बिखेर जाता है। मैं एक हाथ से साइकिल का हेण्डल पकड़े अपरिचित पथ पर चला जा रहा हूँ। ...
मन्द मन्द वायु बह रही है। वायु का एक झोंका केश ललाट पर बिखेर जाता है। मैं एक हाथ से साइकिल का हेण्डल पकड़े अपरिचित पथ पर चला जा रहा हूँ। सुनसान पथ है। सड़क के दोनों किनारों पर लंबे- लंबे वृक्ष हैं। सूर्योदय हो चुका है। सूर्य रश्मियाँ दरक्षों से छन- छन कर सड़क पर रुपहले धब्बे बना रही है। मैं पूर्व दिशा में चला जा रहा हूँ। पूर्व का सूर्य ही तो मुझे नित्य निमंत्रण देता है,इंगित कर अपने पास बुलाता है। मैं भी तो उसके बाहुपाश में बन्द होना चाहता हूँ।
कई चौराहे गुजर गये हैं। व्योम पर श्वेत मेघों का आच्छादन पहले से कम हो गया है। पक्षियों का कलरव मद्धिम पड़ गया है। कान ,नाक व अँगुलियाँ शीत वायु के लगने से ठंडी पड़ गई हैं, परंतु शरीर में उष्मा है और मैं गर्म उसासें भर रहा हूँ।
_जिन्दगी की सैर लंबी है। मैं सोचता हूँ।
_ मैं पंख कटे पक्षी की तरह फुदक लेता हूँ।
मन में पीड़ा है। हृदय में बेचैनी है। प्रकृति सौन्दर्य मुझसे सबकुछ भुलवा देता है। लगता है, डालियाँ झुक कर अंतःकरण से वेदना उठाकर हवा में उड़ेल देती हैं। मानस का क्रन्दन हिलते हुये पल्लवों के क्रन्दन में बँट गया है। मैं चला जा रहा हूँ।
हृदय पूछता है –कहाँ है तुम्हारी मंजिल?
फिर चिल्लाती चील से पूछता हूँ- ए चील! बता जा क्या है तेरी कोई मंजिल ?
चील की आवाज में वेदना का स्वर है।
मैं अवसन्नमना आकाश की ओर अवलोकता हूँ- उत्सुक - प्रत्युत्तर पाने को। प्रकृति निरुत्तर है।
सड़क आगे दो रास्तों में विभक्त हो जाती है। एक रास्ते की ढाल 10 डिग्री है और गंगा नदी की ओर जाता है । मैं अपनी साइकिल को उसी ओर मोड़ लेता हूँ। केसरिया रंग के परिधानों से सज्जित साधुओं को देख कर मुझको रोमांच हो आता है। जीवन के कटु अनुभवों से गुजरने वाले सांसारिक व्यक्ति के लिये साधु वैराग्य का मुखौटा लगाये छ्द्मवेशी की तरह लगते हैं। भागीरथी के दर्शन के पहले दोनों किनारों पर बैठे अंधे ,लंगड़े अपाहिज भिखारियों की लंबी पाँति के बीच गुजरना होता है । उनको देखकर मैं सोचता हूँ प्राणों का मोह विचित्र है। मैं अधिक नहीं सोचना चाहता कहीं विचारों का हथौड़ा मेरे ही ऊपर न आ गिरे।
कितना सौन्दर्य है? कितना व्यग्र है अनुदैर्घ्य तरंगो पर उठता हुआ शीतल जल? नीलाकाश जल की गहराइओं में उतर आया है। रुपहली धूप में बालू के टीले पर बैठ कर मैं प्रकृति से क्रीड़ा करता हूँ। नदी ने अपने मादक उरोजों को अनावृत कर दिया है। कगार पर उगा नव पल्लवित पौधा बाहें फैला कर कमर को स्पर्श करने की कुचेष्टा कर रहा है ,नदी शरमा कर आत्म समर्पण कर देती है। मैं नदी से पूछ बैठता हूँ –क्या यही है तेरा मस्त प्रेमी?नदी उल्लसित हो उठती है। पौधा शरमाकर अपना मुख नदी के आँचल में छिपा लेता है। मैं धीरे से कहता हूँ- प्रकृति तुम लज्जाहीन हो । प्रकृति सस्मित होती है।
नदी की लहरों की गति के साथ गतिमय हो मेरा अंतःकरण सौरभ से अभिभूत हो बहने लगता है। दीर्घ आकाश के नीले में मेरा मन हिल्लोरें लेता है। मधुर समीर आ- आ मुझे मुग्ध करती है। तब मुक्त हृदय से नदी मुझको देखकर विहँसने लगती है। धूप में बालू के ढेर उठ- उठ कर असंख्य सितारों से अपना पुलकना प्रदर्शित करते हैं। गीली भुरभुरी मिट्टी पर प्रकृतिष्ठ मैं किसी बड़ी चमकती मछली के चीरते हुये जल से छिटकती हुई मोतियों के समान लघु बूदों से निर्मित अनगिनत नीले विश्वों को निहारता हूँ और शून्य में उनको विलीन होते हुये देखता हूँ।
नीरव विशद नभ के अवलोकन से मुझे आनन्दानुभूति होती है। मैं आत्मविभोर हो उठता हूँ। मेरा सूनापन स्पंदन कर ,रेंग कर मारुति के झोंके के साथ बालू पर चलता हुआ नदी के कगार से उतर कर ,जल तरंगो के साथ क्षुद्र पतवार में लिपट जाता है। मैं अत्यंत सूक्ष्म हो प्रकृतिमय हो उठता हूँ। मुझे लगता है-अस्तित्व शून्य होकर दिव्यरूप में प्रस्फुटित हो ,विशालता में विकसित हो रहा है,संभावनायें अनंत में विस्तरित हो गईं हैं। नेत्र गहनता से अबतक ओझल रहे हैं। मैं मायावी नेत्रों से विशालता का अनुभव कर रहा हूँ।
वेगवती धूप पूर्ण है, निरुपम व निर्भेध्य । श्वेत दुग्ध वर्णा चाँदनी सी धूप चिमनी से निकली कालिख से सने मेरे मलिन शरीर के प्रत्यगों को मल- मल कर नहला रही है। सारा शरीर जल रहा है और ओठ सूख रहे हैं जैसे कि किसी मदान्ध नारी ने स्पर्श किया हो!
मैं पूछता हूँ; कुरूप हूँ न मैं?
-कुरूपता पर सौन्दर्य की दोहरी पर्त्त चढ़ी होती है। मैं एक पर्त्त की प्राचीर को पारदर्शक बना रही हूँ जिससे अनंग सौन्दर्य में झाँक सकूँ। वह पुलक उठती है।
ए प्रकाश! सबसे वेगवान प्रकाश तू लहरों में आता है या लघुकणों में। कैसे आता है? कौन जानता है? तू शक्ति है ,ऊर्जा है,तूने समस्त भूमण्डल पर साम्राज्य स्थापित कर लिया है।
परंतु तेरा हृदय कितना विशाल है। तूने अपनी समस्त दौलत प्राणी सेवा के लिये लुटा दी है। तू अगोचर है परंतु सर्वव्यापी है। तेरे इस रूप को देख कर मन विह्वल हो उठा है।
कितना शांत है ,कितना हलचल पूर्ण है यह ऊपर उठता हुआ ब्रह्माण्ड। मधुर शब्द में श्राव्य संगीत चल रहा है। लहरें कल- कल करती हैं। समीरण मर- मर करती है। निर्मल नभ पर धवल ससोष्ठव पक्षी सरसर करते उड़ते हैं। कितना एक लय है संगीत ! तिनकों के टकराने से हलकी ध्वनि निकलती है; कितनी आकर्षक व कितनी सस्वर । अज्ञात समीर थपेड़ों में आ कान के परदों से टकराती है। हा हा कर हँसने की आवाज से उसका मुख स्वयं ही मुखर हो उठता है।
कहाँ है तुम्हारे मस्तिष्क का संत्रास ?मैं स्वयं से पूछता हूँ?
प्रकृति ने अपने ऊपर ओढ़ लिया है।
प्रकृति ने अंतर व बाह्य के समस्त अश्रु सोख लिये हैं तभी तो वातावररण नम है।
वह व्यथा ,वेदना ,क्रूरता ,चीख ,कराह व आहों को अपनी गोदी में गुड़िया की तरह
बिठाकर निर्बोध बाला सी थिरक- थिरक कर क्रीड़ाकर ,सुखानुभूति दे मन को मोहती है। मृत्यु भी जीवन लगता है। कंकाल जीवित हो हो बात करने की कोशिश करते हैं। भय नहीं लगता । घृणोत्पादक नहीं। वह प्राकृतिक विषमताओं को जोड़कर एक कलाकार की भांति विषमता बढ़ाकर उच्चकोटि के सौन्दर्य को दर्शाती है। नीले के समायोजन हरा ,सुनहला पीला,श्वेत व काले रंग प्रयोग कर सीधी,वक्र,आड़ी,तिरछी,मँडलाकार व त्रिभुजाकार आकृतियाँ, प्राकृतिक तूलिकायें,बालू के ऊपर उठते हुए कण व वायु के हाथों द्वारा उठाये गये घास व पतवार ,जल व बालू से कटती हुई रचनायें अद्वितीय सृष्टि है।
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D P Jain
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UP- 201014
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