डा0 राधाकृष्णन का कथन है -‘‘राष्ट्रीय एकता का निर्माण ईंट और पत्थर, छेनी और हथौड़े से नहीं हो सकता। यह तो मनुष्य के हृदय और मस्...
डा0 राधाकृष्णन का कथन है -‘‘राष्ट्रीय एकता का निर्माण ईंट और पत्थर, छेनी और हथौड़े से नहीं हो सकता। यह तो मनुष्य के हृदय और मस्तिष्क में चुपचाप उत्पन्न और विकसित होती है। इसकी एकमात्र प्रक्रिया है शिक्षा।''मनुष्य में मूल्यों के प्राप्ति हेतु शिक्षा की आवश्यकता होती है शिक्षा ही मनुष्य में मानव मूल्यों के प्रति सजगता और सचेष्टता लाने का एक सशक्त साधन है। इसके माध्यम से ही कोई भी राष्ट्र अपने नागरिकों में, नई पीढ़ी में संस्कृत के प्रति रागात्मक अनुराग, अनुशासन की भावना और राष्ट्रीय चेतना के भाव जागृत करने में सक्षम हो सकता है।
व्यक्ति, समाज व राज्य का अपरिहार्य उत्तरदायित्व है कि वह सभी व्यक्तियों के लिए ईमानदारी व सुव्यवस्थित ढंग से शिक्षा की व्यवस्था करें। किसी भी राष्ट्र अथवा समाज के विकास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन मानव है। वस्तुतः मानव जाति के विकास का आधार शिक्षा-प्रणाली ही है। शिक्षा के द्वारा ही व्यक्ति को सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाकर उसे समाज व राष्ट्र का एक उपयोगी नागरिक बनाया जा सकता है। शिक्षा की यह प्रक्रिया जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त लगातार किसी न किसी रूप में एक सतत् प्रक्रिया के रूप में सदैव चलती रहती है।
शिक्षा व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, नैतिक, चारित्रिक, संवेगात्मक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करती है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति अपनी समस्याओं का समाधान करता है, जीवन को आनन्दमय बनाता है तथा जनकल्याण के कार्यों की ओर प्रवृत्त होता है।
आज के भूमण्डलीकरण के युग में विश्व समुदाय के बीच उच्च शिक्षा का महत्व बढ़ता जा रहा है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक सदैव ही शिक्षा को सामाजिक तथा राष्ट्रीय विकास की दृष्टि से एक सम्मानजनक स्थान दिया जाता रहा है। उच्च शिक्षा के प्रति विश्व की सरकारें भी अपने आय का बहुत बड़ा हिस्सा निवेशित करती दिख रही हैं। जहाँ शिक्षा ही समाज एवं राष्ट्र के विकास की रीढ़ है,ऐसी स्थिति में भारतीय सरकार को भी इस ओर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। उच्च शिक्षा पर हाल में अमेरिकन इंस्टीट्यूट अॉफ इंटरनेशनल एजुकेशन की वार्षिक रिपोर्ट ‘ओपेन डोर 2008' इस बात का इशारा करती है कि अभी भी उच्च शिक्षा में भारत को वैश्विक केन्द्र बनने में बहुत समय लगेगा। हमारे देश में उच्च शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा नहीं है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई0आई0टी0), भारतीय प्रबन्ध संस्थान (आई0आई0एम0), कुछ केन्द्रीय विश्वविद्यालयों एवं चिकित्सा संस्थानों को छोड़ दिया जाये तो भारत की उच्च शिक्षा विश्वस्तरीय तो दूर की रही, एशिया के प्रमुख देशों के स्तर की भी नहीं है। विश्व के चुनिन्दा 300 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय न होना इस बात का प्रमाण है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सरकारों ने युवाओं को गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा प्रदान करने की दिशा में विश्ोष रुचि नहीं दिखाई है। आज देश में उच्च शिक्षा के जितने भी केन्द्र हैं वे देश के युवाओं के दस प्रतिशत हिस्से को भी शिक्षित करने में सक्षम नहीं है। यद्यपि उच्च शिक्षा में सुधार के लिये गठित समितियों ने अपनी विभिन्न रिर्पोटों में उच्च शिक्षा के लिये बजट में वृद्धि करने तथा प्रत्येक राज्य में केन्द्रीय विश्वविद्यालय, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय प्रबन्ध संस्थान, चिकित्सा संस्थान खोलने की सिफारिश की है। अब इन सिफारिशों पर अपेक्षित ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।
यहां पर मैं भारत सरकार के प्रयासों की सराहना करना चाहूंगा कि विगत वर्षों में केन्द्र सरकार ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उन्नयन हेतु कुछ प्रयास किये हैंं। प्रत्येक राज्य में एक-एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय एवं भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान खोलने की दिशा में कदम उठाया गया है। उच्च शिक्षा की बढ़ती मांग को देखते हुये इस दिशा में और प्रयास करने की आवश्यकता है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली एवं संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल संस्थान लखनऊ की तर्ज पर प्रत्येक राज्य में चिकित्सा संस्थान खोलने की नितान्त आवश्यकता है। इससे चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति आएगी और गरीब जनता को असाध्य रोगों से मुक्ति भी मिलेगी। भारतीय प्रबन्ध संस्थान की तर्ज पर प्रत्येक राज्य में प्रबंध संस्थान विकसित करने की जरुरत है ताकि वर्तमान एवं भावी पीढ़ी की शिक्षा की आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके। इसके साथ ही इन संस्थानों को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देकर इन्हें शोध की दिशा में उल्लेखनीय कार्य करने हेतु प्रेरित किया जा सकता है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि हमारे देश में विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थानों के अभाव में हजारों छात्र विदेशों में शिक्षा ग्रहण करने के लिये जाते हैं और प्रभूत मात्रा में धन खर्च करते हैं। यदि अपने देश में सरकारी क्षेत्र में विश्वस्तरीय संस्थान खोले जायें तो इन छात्रों की आवश्यकता की पूर्ति हो सकेगी और देश को आर्थिक लाभ भी होगा। यही नहीं आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश से विदेशों में जाकर शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र जितना धन व्यय करते हैं, उस धन से भारत में प्रति वर्ष भारतीय प्रबन्ध संस्थान जैसे दस संस्थान खोले जा सकते हैं।
वर्तमान में विश्वविद्यालयों से स्नातक की उपाधि लेकर निकलने वाले युवाओं में 8-9 प्रतिशत ही अच्छी नौकरियां प्राप्त करने योग्य होते हैं। तात्पर्य यह कि 90 प्रतिशत स्नातक देश के विकास में उपयुक्त योगदान देने में असमर्थ है। जबकि यह सर्वविदित है कि विकसित देशों के विकास में उच्च शिक्षा के ढ़ांचे ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। कमी हैः- राजनीतिक इच्छा शक्ति की। जरुरत है उच्च शिक्षा रुपी बीमार बच्चे को दवा देकर ठीक करने की।
21वीं सदी में शिक्षा का आश्चर्यजनक रूप से प्रचार एवं प्रसार हुआ है व साक्षारता का स्तर बड़ा है। इसका प्रत्यक्ष परिणाम हमें 14वीं लोकसभा के चुनाव में भी देखने मिला है। अब तक की चुनी गयी सभी लोक सभाओं से अधिक शिक्षित व्यक्ति चुनकर लोक सभा के सदस्य बने हैं। आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में 21वीं सदी में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को अत्यधिक तीव्रता प्रदान की है। सन् 1951 में देश में जहाँ केवल 16.67 प्रतिशत साक्षरता थी, वही 2001 में 65.38 प्रतिशत साक्षरता हो गयी है। अब शिक्षा किसी वर्ग विशेष के लिए नही अपितु सर्वसुलभ है। वहीं दूसरी ओर एक भयंकर कटु सत्य उभरकर हमारे सामने आया है कि शिक्षा के प्रसार के साथ अपराध, भ्रष्टाचार देशद्रोह, पश्चिम का अंधानुकरण, मादक पदार्थों का सेवन, हत्या फिरौती, सीडी काण्ड, बलात्कार, शिक्षा माफिया, आदि का प्रसार भी शिक्षण संस्थानों में बढ़ता जा रहा है। परिणामतः शिक्षा के मन्दिर गन्दगी के समन्दर बनते जा रहे है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमें हाल में ही देखने को मिला है दिल्ली के एक स्कूल के 17 वर्षीय छात्र रिभु की हत्या उसके चार दोस्तों के द्वारा कर दी गयी। जबकि वे फिरौती के पचास लाख रूपये भी प्राप्त कर चुके थे। ऐसा अचानक नहीं हुआ है ये हमारी संस्कृति पर ‘‘पश्चिमी संस्कृति एवं अर्थनीति'' के प्रभाव के कारण हुआ है। आज हम जिस समाज का निर्माण कर रहे उसमें मानवता, सहनशीलता, नैतिकता, त्याग, संयम, धैर्य, सादगी एवं सहिष्णुता का निरन्तर ह्रास हो रहा है। 21वी सदी जिस समाज का निर्माण कर रही है वह ‘‘व्यक्ति केन्द्रित'' व ‘‘भौतिक समृद्धि'' का प्रतीक है। परिणामतः आज शिक्षा अपने प्रथमध्येय से दूर होकर अपनी गरिमा को खोती जा रही है।
21वीं सदी में ज्ञान का बोलबाला होगा और वैश्विक अर्थव्यवस्था में कोई राष्ट्र संकेन्द्रित और नवीन एजेण्डे के जरिये ही बना रह सकता है। अतः देश की शिक्षा और ज्ञान के ढाँचे में योजनाबद्ध परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, क्योंकि 25 वर्ष से कम उम्र के 55 करोड़ नवयुवकों की आकांक्षाओं पर खरा उतरना है। 21 वीं सदी भारत विश्व की महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है और आज हमारे समक्ष सबसे बड़ी चुनौती विद्यमान है ः शिक्षा। ऐसी परिस्थिति में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की भावी दशा एवं दिशा कैसी होगी यह एक यक्ष प्रश्न है जिस पर शिद्दत के साथ वर्तमान में चिन्तन की आवश्यकता है। शिक्षा के द्वारा ही हमें एक ऐसे सशक्त, समृद्ध, शक्तिशाली राष्ट्र के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करना है, जो विश्व के लिए आदर्श प्रस्तुत कर सके।
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युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्र्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव
एसोसिएट, भारतीय उच्च अध्ययन
सस्ंथान, राष्ट्रपति निवास, शिमला (हिमाचल प्रदेश)।
सम्पर्क-वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उरई (जालौन)285001
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