व्यंग्य लेखन पुरस्कार आयोजन – अरविन्द कुमार झा का व्यंग्य : चोर विद्या

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(प्रविष्टि क्रमांक - 34) (महत्वपूर्ण सूचना : पुरस्कारों में इजाफ़ा – अब रु. 10,000/- से अधिक के पुरस्कार! प्रतियोगिता की अंतिम ति...

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(प्रविष्टि क्रमांक - 34)

(महत्वपूर्ण सूचना : पुरस्कारों में इजाफ़ा – अब रु. 10,000/- से अधिक के पुरस्कार! प्रतियोगिता की अंतिम तिथि 31 दिसम्बर 2009 निकट ही है. अत: अपने व्यंग्य जल्द से जल्द प्रतियोगिता के लिए भेजें. व्यंग्य हेतु नियम व अधिक जानकारी के लिए यहाँ http://rachanakar.blogspot.com/2009/08/blog-post_18.html देखें)

तब मैं दस साल का था. एक दिन जब मैं दुकान से सामान खरीद रहा था चतुरानन्दजी की नजर मेरे उपर पडी. वह मुझे ऎसे देखने लगे जैसे कोइ छिछोले स्वभाव का व्यक्ति किसी सुकोमल और खूबसूरत नवयौवना को देखता है. फ़िर उन्होने मेरी आंखों में झांकते हुए पूछा " चोकलेट खाओगे ?". मैंने हामी भर दी. उन्होने ढेर सारी टोफ़ी अपनी जेब से निकालकर मुझे दे दिया. फ़िर कहने लगे " सारे ले लो , फ़्री के हैं ". " फ़्री के ?"--- मैंने पूछा " कैसे ?". कहने लगे " बेटे , मुझे किसी चीज के लिये किसी के पास हाथ नहीं फ़ैलाना पड़ता. बहुत ही प्रेक्टिकल लाइफ़ जीता हूं मैं. तुम भी यदि प्रेक्टिकल लाइफ़ जीना चाहते हो तो मुझे अपना गुरू बना लो.". मैं ठहरा दस साल का अबोध बालक , प्रेक्टिकल लाइफ़ समझ में नहीं आया. मैं सोचने लगा यदि प्रेक्टिकल लाइफ़ जीने से फ़्री में चोकलेट मिल जाये...... तो अच्छा ही है. " हूं....... तो आप मुझे सिखायेंगे ?" मेरे आग्रह को सहर्ष स्वीकारते हुए कहा " क्यों नहीं. जरूर...... तुम आज शाम को मेरे घर आ जाओ."

मैं शाम को उनके घर पहुंचा. वह समझाने लगे " बेटे मैं तुम्हें चोरविद्या कि शिक्षा दूंगा. प्रेक्टिकल लाइफ़ से मेरा मतलब चोरविद्या ही था ". मैंने पूछा " चोरविद्या ? ये क्या होती है ?" कहने लगे " ये एक प्रकार की शिक्षा अर्थात एडुकेसन है जिसमे बिना मांगे , बिना खर्च किये और बिना औरों के जानकारी के गुप्त तरीके से अपने दिमाग , शरीर और हृदय के उपयोग से किसी अन्य व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में आनेवाले वस्तु को ग्रहण किया जाता है. " तब मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था , मुझे परिभाषा बिल्कुल ही समझ में नहीं आया. " बेटे ये एक कला है. " मेरे मुंह से निकल पड़ा " ओ....., मेरे बाबूजी कहते हैं कि मुझे तो बिजनेस करना है. " " तो तुम्हें व्यवसायी बनना है यही ना ? बेटे आजकल इस कला का व्यवसायीकरण हो चुका है और जब तुम इस कला को अपनाओगे तब ये कला जो व्यवसाय बन चुका है उसे फ़िर से कलाकृत कर दोगे ".

मैं फ़िर से उनकी बात नहीं समझ पाया. उनकी पारखी नजरें यह जान रही थी. वह पुनः समझाने लगे " अच्छा बताओ बिजनेस क्या होता है ? " स्वयं ही जबाव देने लगे " पूंजी खर्च कर लाभ कमाना , यही ना ? " मैंने सिर हिला दिया. " इसमें पूंजी नहीं लगता है , थोड़ा सा जोखिम है पर मार्जिन ओफ़ प्रोफ़िट बहुत ज्यादा है. यदि ज्यादा जोखिम लोगे तो मार्जिन ओफ़ प्रोफ़िट इतना ज्यादा हो सकता है कि तुम सोच भी नहीं सकते. यदि तुमने इस कला को अपना लिया तो विद्या की देवी मां सरस्वती की कृपा से तुम्हारे घर में मां लक्ष्मी का भंडार होगा ".

मैं सोच में पड़ गया. मैं पूरी तरह समझ तो नहीं रहा था लेकिन सोच रहा था चाचाजी कुछ अच्छी बात कह रहे थे. तभी मेरे मुंह से निकल पड़ा " मां भी तो सरस्वती और लक्ष्मी मैया की पूजा करती है. " वह झट से बोल पड़े " बिल्कुल. दूसरों के घरों में रखे हुए धन अर्थात लक्ष्मी को अपने सरस्वती अर्थात बुद्धि के बल पर गुप्त रूप से प्राप्त करना सबसे बड़ी पूजा है. रात के अंधेरे में जब सभी सो रहे हो , वातावरण शांत हो , किसी परायी मूल्यवान वस्तु पर दृष्टि केन्द्रित करना सबसे बड़ा ध्यान है. समय एवं परिस्थिति के अनुरूप शरीर को ढालकर कभी अतिमंद गति से चलना और कभी अतिवेग से दौड़ना - शरीर के लिये भी स्वास्थ्यप्रद है. बेटे इस कला में गुण ही गुण हैं. इसे चोर - दर्शन कहते हैं ". चाचा किसी बहुत बडे दार्शनिक की तरह बोल रहे थे.

मैंने पूछा " लेकिन चाचा यह शिक्षा तो काफ़ी कठिन होगा न ? " उन्होंने कहा - " थोड़ा सा........, लेकिन कुछ नैसर्गिक गुणों के आधार पर तुम सर्वथा योग्य हो. " मैंने पूछा " कैसे ?. उनका जबाव था " तुम्हारे पिता एक सम्मानित व्यक्ति हैं , उनके नाम पर अन्य लोग तुम पर विश्वास करेंगे. दिखने में काले हो ---- अंधकार की तो बात छोड़ो , प्रकाश में भी तुम्हें आसानी से देखना मुश्किल है. उपर से काले होने के कारण शनि की कृपा - दृष्टि सदैव बनी रहेगी. दुबले - पतले हो -- छोटे से रास्ते से भी आ जा सकते हो. नाटे भी हो --- समय आने पर इसका भी लाभ प्राप्त होगा. ईश्वर ने तुम्हें तेज दिमाग दिया है , देखना मैं तुम्हे इस कला में मास्टर बना दूंगा ".

मुझे गुरू तो मिल ही गया था. सोचा जल्दी ही अवसर का फ़ायदा उठाया जाय. मैंने कहा -" चाचा आप कल से ही मुझे यह विद्या सिखाना चालू कर दो. " " कल नहीं बेटे आज. काल करे सो आज कर आज करे सो अब. और प्राथमिक शिक्षा अपने मात - पिता से ग्रहण करो अर्थात घर की लक्ष्मी पर हाथ फ़ेरने का अभ्यास करो. तुम्हारी मां रुपये कहां रखती है ?. " " अपने कमरे की टेबुल पर एक डब्बे में. " उन्होंने धीरे से कहा -" आज रात उस डब्बे में रखे सारे रुपये गायब कर दो....... ध्यान रहे मात - पिता को बिल्कुल पता नहीं चलना चाहिये. " चाचा की बात सुनकर मैं सन्न रह गया. अब मैं पूरी बात समझ रहा था. चाचा मुझे चोर बनाना चाह रहे थे. मैं भले ही नटखट था लेकिन चोरी को पाप समझता था. मैंने कहा -" तो आप मुझे चोरी करना सिखा रहे हैं ? " " नहीं बेटे. मैं तुम्हें व्यवहारिक जीवन जीना सिखा रहा हूं. मानव जीवन तो क्षणिक होता है. सोचो इस संसार में कोई भी व्यक्ति ऎसा नहीं है जिसने चोरी न किया हो. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी एक बार अपने घर से सोना चुराया था."

मैंने कहा -" लेकिन गांधीजी ने बाद में चोरी करना बंद कर दिया था." " मैं आशा करता हूं तुम वही गलती नहीं करोगे. वीर एक बार जिस रास्ते पर निकल पड़ता है उस रास्ते से वापस नहीं आता. गांधीजी ने चोरी बंद कर दिया.... इसका परिणाम क्या हुआ ? अपनी रोजी - रोटी के लिये दक्षिण - अफ़्रीका तक उन्हें भटकना पड़ा."- चाचा ने चोरी और वीरता को समानार्थक सिद्ध कर दिया था. चाचा की बातों में दम था. पहली ही रात सफ़लता - पूर्वक मैंने अपने कार्य को पूरा किया , घर से पूरे दो सौ रुपये गुप्त रूप से प्राप्त किया. चाचा के जादुई व्यक्तित्व के प्रभाव ने मेरे भीतर ग्लानि के बदले गर्व को पैदा किया. चोरी की इस पहली घटना ने न केवल मेरे आत्म - विश्वास को बढ़ाया बल्कि मेरी हिम्मत को भी चौगुना कर दिया.

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अरविन्द कुमार झा

डिपो वस्तु अधिक्षक

भंडार नियंत्रक कार्यालय

द.पु.म.रेलवे, बिलासपुर

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