नरेश मेहन का कविता संग्रह – पेड़ का दुःख

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पेड़ का दुःख मुझे रोक लिया था कल पीपल के पेड़ ने और कहा था देखो मेरी तरफ मैं वही पेड़ हूँ जिसकी टहनियों पर लटक कर तुम इत...

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पेड़ का दुःख

मुझे

रोक लिया था

कल पीपल के पेड़ ने

और कहा था

देखो मेरी तरफ

मैं

वही पेड़ हूँ

जिसकी टहनियों पर

लटक कर

तुम इतने बड़े हुए।

तुम गिरे थे

मेरे तने से

कई बार

चढ़े थे कई बार।

तुम्हारे नन्हें पैरों की

गुदगुदाहट

अभी भी मुझे याद है;

तुम खेला करते थे

कुरांडंडी

तपती दुपहरी में

फिर सोते थे

गहरी नींद

मेरे बदन की छाया में।

मैं कितना खुश रहता था

तुम्हारे साथ।

ये जो खुदे नाम

तुम देख रहे हो

यह तुम्हारे ही खोदे हुए है

मैंने इन नामों को

बहुत सहेज कर रखा हैं

अनायास

पीपल का पेड़ कराहा

और कहने लगा

क्या हो गया है

तुम्हें और तुम्हारे शहर को?

क्यों नहीं तोड़ते

मेरी टहनियां और पत्ते

उन पर क्यों नहीं लटकते

तुम्हारे बच्चे?

सच पुछो तो

मेरा तना

आजकल

बहुत तड़फता है

टहनियां उदास रहती है

नन्हें हाथों और पेरों के

कोमल स्पर्श के लिए।

भाई्!

कहो ना

अपने बच्चों से

मेरे पास आएं

'भले ही

ठोक जाएं

अपने नन्हें हाथों से

एक कील

या खोद जाएं

अपना नाम

मेरे बदन पर।

बहुत उदास था

पीपल का पेड़

रूआंसा हो कर

देख रहा था

छत पर लगे

डिस्क एण्टीना को

और

कान पर लगे मोबाईल को

मन ही मन

बुदबुदा रहा था

इसी ने छीनी है

मेरी खुशी

मेरे बच्चे मुझसे।

 

------

गिलहरी

पेड़ से उतर कर

बहुत चहकती-फुदकती थी

मेरे आंगन में

बच्चों की तरह

एक गिलहरी।

कभी पूंछ हिलाती

मेरी गुड़िया की तरह

कभी मुंह बनाती

अठखेलियां करती।

कभी पेड़ पर

कभी मुंडेर पर

चढ़ती-उतरती

निकल जाती पास से

एक बच्ची की तरह।

मुझे

बहुत अच्छी लगती थी

वह गिलहरी

ठीक मेरी बेटी की तरह।

मैं चाहता था

यूं ही खेलती रहे

मेरे आंगन में

मेरी बच्ची

और यह गिलहरी।

मगर

एक दिन

काट दिया गया वह पेड़

एक विशाल भवन के लिए।

पेड़ के साथ ही

चली गई गिलहरी

न जाने कहां

कर गई सूना

मेरा जहां

ठीक उसी तरह

चली गई थी

पराई हो कर

जैसे

मेरी बेटी!

------

पृथ्वी सम्मेलन

आज

पहली बार

मेरे कमरे में

एक चिड़ी के बच्चे ने

चौंच खोली

मुझे यों लगा

कि मेरे शब्द

यह चूजा ले गया

और

पूछ रहा है

मेरा जन्म तो

पेड़ पर होना था

फिर क्यों हुआ

पंखे की डिब्बियां में?

क्या तुम्हारा

पृथ्वी सम्मेलन

इस पर कुछ सोचेगा?

------

विरासत

हमें मिली है

विरासत मे शुद्व हवा

शुद्व पानी

खुली धरती

और साफ निर्मल नदियां।

हमने

निकट से भोगा है

प्रकृति को प्यार से

हमने छीनी है

अपने बच्चों से

उनकी जमीन

और

हम दे रहे है

अपने बच्चों को

गंदला पानी

फास्ट फूड

और उसको पालने वाली

पॉलीथीन की अमर थैलियां

तथा वाहनों का

आत्मघाती धुआं।

विरासत में

क्या हम यही देंगे

अपने भोले-भाले बच्चों को?

------

तुम भी सीख लो

मैं

फूल हूँ

सौंदर्य का प्रमिमान।

मेरा रंग-रूप

खूशबू

सब खूबसूरत हैं।

मैं

जिस स्थान पर होता हूँ

उसको भी बना देता हूँ

मनमोहक

मैं

तीखी और कंटीली

डालियों पर भी

हरदम मुस्करात रहता हूँ

आओ

तुम भी सीख लो

समाज को सुन्दर बनाना

ताकि वह

हर वक्त मुस्कारता रहे

मेरी तरह

हर संकट में

------

पेड़ की चाह

मैं पेड़ हूँ

तुम्हें सब कुछ देता हूँ;

मीठे फल

शुद्व हवा

ठंडी छांव

और अंत में

सौंप देता हूँ

अपना सारा बदन।

बदले में चाहता हूँ

मेरे लिए

थोड़ा सा समय

जिसमें रहे सको

अमन चैन से

अपने बच्चों

और अपने पड़ौसियों के संग

मेरे साथ

------

मैं पृथ्वी हूँ

मैं पृथ्वी हूँ

तुम्हारी जननी

इसीलिए तुम

मुझे कहते हो

धरती मां।

मेरा काम

सिर्फ देना है।

तुम एक दाना डालते हो

मैं तुम्हें

हजारों दाने देती हूँ।

तुम

एक पेड़ लगाते हो

मैं तुम्हें

हजारों फल देती हूँ

फिर भी

न जाने

क्या ढूंढते हो

मेरे गर्भ में

और करते हो विस्फोट

टटोलते हो

मेरे अंतस को।

मेरे अंतस में

तुम्हारे लिए

अथाह मुहब्बत के सिवाय

कुछ भी नहीं है।

मेरे पुत्रों।

ठीक नहीं है।

परीक्षा लेना

अपनी मां की।

------

मेरा घर

घर होता है

प्रकृति का खजाना

जहां

धूप होती है

छांव होती है

सभी को

आसरा देने की

आस होती है

जहां चिड़िया

तिनका-तिनका लाकर

घोंसला बनाती है

चींटिया आती है पंक्तिबद्व

भंवरे गुनगनाते हैं

मक्खियां भिन्न-भिन्नाती है

कॉकरोच अपनी लम्बी मूंछो से

कोनो की टोह लेते हैं

मकड़ियों बुनती रहती है जाले

अनाज की बोरी के पीछे से

झांकती चुहिया

छुप जाती है

उसी के पीछे

जरा सी आहट सुनकर

और दबे पांव आकर

बिल्ली पी जाती है

बच्चों के लिए रखा दूध

वह केवल डरती है

कुत्ते से

जो बैठा रहता है

घर के दरवाजे पर

आगन्तुकों को पहचाने के लिए

मेरा घर

बहुत सलौना है

एकदम प्रकृति की तरह

------

बैल की पीड़ा

हल पर जुते

बैल की पीठ पर

प्रहार हुआ

पहले लाठी का

फिर जुबान का

चलता क्यों नहीं

क्या दुध नहीं पीया

अपनी मां का?

मां की याद आई

तो बैल सहम गया

मन ही मन बड़बड़ाया

मां का दूध

मुझे कहां नसीब था

मेरे हिस्से का दूध तो

हमेशा तूने ही पीया है

मैं तो

हमेशा निहारता रहा हूँ

भूखे पेट

मां के स्तनों

और तुम्हारी करतूतों को।

मां कहती थी

क्यों उदास होता है बेटा

मानव सेवा करना हमारा धर्म है

आदमी तो

हमेशा से बेशर्म है

उधर देखो

उस बकरी को

मानव सेवा के लिए

वह दूध के साथ-साथ

अपने ही नहीं

अपने बच्चे के बदन को भी

सौंप देती है।

दूध से बड़ा

ममता का त्याग है

जो बकरी हमेशा करती है

मानवता

धर्म का उल्लंघन

हर बार करती है।

परन्तु निराश मत हो बेटा

मानवता हमारे ही बल पलती है

अगर

हमारी नस्ल नहीं होती

तो यह मानवता

किसका दम भरती?

------

प्रकृति

मैं बहुत डरता हूँ

प्रकृति के प्रकोप से

मैंने भोगा है

उसका कहर।

जब किया गया

मुझे तहस-नहस

कालीबंगा में

अब है वहाँ

सिर्फ खण्डहर

और मेरी अस्थियाँ

मैं तुम्हें

करता हूँ आगाह

मत करो छेड़-छाड़

प्राकतिक सम्पदा से

और मत करो

उसकी ओजोन में छेद।

ऐसा न हो

एक दिन तुम्हे बनना पड़े

मेरी तरह

कालीबंगा के खण्डहर।

------

मेरा गांव

गांव से आए हो

बताओ

क्या हाल हैं

मेरे गांव के

क्या अब भी

वैसा ही है

मेरा गांव!

पगडंडिया

अब भी

लेती होगी

धने पेड़ों की छांव

जिस पर लड़ते होंगे

ग्वालों के पांव।

आज भी

आती होगी

गांव में

सरसों के फूलों की महक

जब आता होगा

बंसत को झोंका

मेरे गांव में।

अब भी

नव यौवन सा

संवर जाता होगा

जब बरसात में

चिड़िया चहकती हैं

और मोर

तानता है छतर।

अब भी

ऋतुएं

जीवन को संवारने

पसारती होंगी पांव

और

थिरक उठते होगे

मोरो जैसे

युवाओं के पांव।

बताओं ना

क्या अब भी

वैसा ही है

मेरा गांव।

या

वह भी हो गया है

ठीक शहर जैसा

बिना सिर

बिना पांव!

------

थोड़ा सा आकाश

कोई लौटा दे

मुझे तकली व सूत

तख्ती व कलम

साथ में

सयानी बूआ।

मिट्टी से खेलना

मिट्टी से औढ़ना

मिट्टी से नहाना

पूछो बच्चों से

गंदे होने के डर से

क्यों नहीं

खेलते मिट्टी से।

कहां गये

कच्ची ईटों व

खपरैलों के

वे छोटे-छोटे मकान

और

वो बड़े-बड़े पेड़?

बस

अब तो बचा है

थोड़ा सा आकाश

कम हवा

और अधिक घुटन

------

थार

मैं

थार हूँ

सूरज की तरह गर्म

और

चांद की तरह नर्म।

मेरे बदन पर

पसरी रेत

केवल रेत नहीं

एक कहानी हैं।

इसके सान्निध्य में

आकर

ऋषि-मुनियों

शूरवीर और छत्रधारियों ने

हदय परिवर्तित किये है।

यह मेरी रेत के कण का

तेज है

जो माथे पर लग जाने से

आदमी

मर-मिटता है देश पर।

मेरी कहानी

खेजड़े

फोग

बेर और आक जानते हैं।

जो

वर्षो से

प्यासें खड़े

अंतस जाप करते हैं।

ये शूरवीर हैं

जो अपनी धरती के लिए

जीते हैं-मरते हैं।

मेरे धोरे

प्यासे जरूर हैं

मगर धैर्यहीन नहीं हैं

उड़-उड़ कर जाते हैं

इनके कण आकाश तक

निश्चय के साथ

कि कभी ले आएंगे

बरसते आसमान को

धरती पर उतार कर।

कभी तो

बरसना ही होगा

थार मे जमकर

इसीलिए

मेरे बदन पर खड़े हैं

मेरे जाए थम कर।

------

मां

मैंने जाना

पहली बार

मां का कष्ट।

मैंनें देखी

पहली बार

छलकती ममता।

जब

मेरी पत्नी

मां बनी

पहली बार।

------

ठहराव

ठहराव

कितना कष्टदायक है

यह बात

सूरज से पूछिए।

भोर में

जब सूरज उगता है

और शाम ढले

जब सुस्ताने जाता है

जब

कितना शांत होता है?

मगर

जब उसे ठहरना होता है

दोपहरी मे धरती के ऊपर

तब कितना चिलचिलाता है

उसके चेहरे पर

अथाह रक्तिम क्रोध

उभर आता है।

शायद वह

चलने में ही

सार समझता है

और यही बात

समझाना चाहता है

आदमी को

दिन भर।

------

इतिहास

मैं

आज के

भ्रष्टाचार

अनैकिता

दोगलेपन

भाई-भतीजावाद

और

भेदभाव का हल

इतिहास में

ढूंढना चाहता था।

इसी के निमित

मैंने टटोला इतिहास

मुझे कहीं भी

राहत नही मिली।

इतिहास के पृष्ठों पर

पृष्ठ-दर-पृष्ठ

भरा पड़ा था

ऐसा ही सब कुछ।

जहां

अहित्या अपने पथराये बदन को

लिए बैठी थी

एकलव्य के हाथ में

कटा अगूंठा था

गांधारी बैठी थी

आंखों पर पट्टी बांधे

कर्ण बैठा था

सवालों की भट्टी सुलगाए

अन्धे धृतराष्ट्र

पुत्र मोह में

उलझे पड़े थे

और

मजबूर किया जा रहा था

त्याग के लिए

महाबलिष्ठ गंगापुत्र को।

मैं इतिहास से क्या सीखूं

समझ नहीं पा रहा।

अपने ही संगों से

जुए में हारने वाला

युधिष्ठर बनना भी

अब तो

रास नहीं आ रहा।

अब तो

नया कुछ करना होगा

भरना होगा पौरूष

इतिहास में कुछ

------

नरभक्षी

कब तक करोगे

भ्रूण हत्या

कब तक रोकोगे

आदमी के जन्म को?

तुम

धरती पर आ गये हो

इसलिए मानते हो

अपना एकाधिकार।

अपनी भूख की

शंाति के लिए

चंद-चिथड़ों

और सिर छुपाने के लिए

एक छत की चिंता में

करते हो

भ्रूण हत्या।

यह मात्र भ्रूण हत्या नहीं

हत्या है

हमारें सम्बन्धों की

हमारी भावनाओं की।

जरा सोचो

जब हम

अगली सदी में जाएंगे

अपने बच्चों के लिए

बूआ-मौसी

कहां से लाएंगे

तोतली आवाज में

कैसे कहेंगे हमारे बच्चे

ताया-ताई

चाचा-चाची

भैया-भाभी

और फिर कहां जाएगा

देवरानी-जेठानी का रिश्ता?

यह सब रिश्ते

खंडहर हो जाएंगे

कालीबंगा की तरह।

फिर

आदमी आदमी कहां रहं जाएगा

मां के ही पेट में

बच्चों को भखने वाला

नरभक्षी हो जाएगा।

------

कतार

भीड़

और शोर-शराबे का

दूसरा नाम है

मेरा शहर।

जहां पर मुझे

सुबह से शाम तक

लगना पड़ता है

कतार में

सिर्फ

चंद आवश्यकताओं के लिए।

मुझे लगना पड़ता है

कतार में

तेल के लिए

बस के लिए

बीमार होने पर

दवाई के लिए।

कई बार

अपनी पहचान तलाशता हूँ

सिर्फ राशन कार्ड में

जिसके लिए भी

मुझे लगना पड़ा था

कतार में।

कतार-दा-कतार में लगकर

इस शहर में

मैं कतरा-कतरा हो गया हूँ

आप जानते ही हैं

कतरे की कोई

पहचान नहीं होती।

------

ज़िन्दगी

रोज

एक झोंपड़ी का

निर्माण हो रहा है

उसके कोने में

भूख का

एक नई भूख के साथ।

देखता हूँ जब भी

इन झोंपड़ियों में

तपते हुए शरीरों को

चिथड़ों की कैद में

बिलखते बचपन को

तब सोचता हूँ

ज़िन्दगी कैसे सांस ले रही है?

ऊँची-ऊँची मीनारों से

उठता धूआं

लगता है

इनकी सांसो को

कैद कर लेगा।

रोज देखता हूँ

इन ज़िन्दा लाशों को

मानो

ज़िन्दगी सिसक रही है।

जब सारा विश्व सोता है

ठंडी नींद

तब यहां जीवन सुलग रहा होता है।

------

बाबू

बाबू

मात्र ऑफिस की ही

दरकार नहीं है

वरन्

अपने आप में

सरकार ही है।

जो

नफे नुकसान

और

अभाव से जूझती है

अपने आश्रित के

मूल्य सूचकांको को

चेहरों पर

आंकती है

मगर

उनके हल

ऑफिस में तलाशती है

वास्तव में बाबू

मिश्रित अर्थव्यवस्था है

एक से दस तारीख तक

वह होता है पूंजीपति

ग्यारह से बीस तक

बेहतर समाजवादी

इक्कीस से तीस तक

कमजोर साम्यवादी।

अगर कभी

आ जाए किसी महीनें में

इक्कतीस तारीख

तो वह हो जाता है

बाजार में उग्रवादी

तथा घर में

मात्र सीधा साधा

अलसाया पति।

इस स्थिति में

वह

ऑफिस में

हो जाता है बेकाबू

इस दरम्यान

यदि कोई

इसके धक्के पड़ जाए

तो मक्खी की तरह

फाइलों में दब जाता है।

------

मन का दरवाजा

मेरे

मन की कुंडी

मेरे पास थी

जिस के दरवाजे पर

मैंने लगा रखा था

मजबूत ताला

क्या मजाल है कि

खोल सके कोई साला।

दस्तकें होती थीं

दस्तक दर दस्तक

मैं

प्रत्येक दस्तक पर चौंकता था

मगर

उठकर कभी

दरवाजा खोलने की

जरूरत नहीं समझी।

बाद मे पता चला

दस्तक देने वाले हाथ

बहुत मजबूत थे

जो

लोगों की ज़िन्दगी के साथ

ठीके वैसे ही खेलने का

शौक रखते हैं

जैसे

आवारा और मनचले बच्चे

सड़क पर पड़े

खाली डिब्बों के साथ

पैरों से खेलते हैं।

मैं इन हाथों का खेल

बहुत पहले जानता था

इनको बहुत नजदीक

से पहचानता था

उनके हाथों

या पैरों का

खिलौना नहीं बनना चाहता था

इसलिए

मैंने अपने मन का दरवाजा

मुश्तैदी से बंद कर रखा था।

------

मछली

कोई बिन्दू है

न मुसलमान

न कोई बामन न ठाकुर

न ऊँचा न नीचा

न छूत न अछूत

न कोई जाति है

न कोई धर्म

बस अब मछलियां हैं

केवल मछलियां

जिनमें से

कुछ छोटी हैं

कुछ एक बड़ी।

बड़ी मछली हमेशा

छोटी मछली को

खा जाती है।

यही तो हैं

वर्षो से

हमें बताया गया

समाज का सच्चा नियम।

अब

इसमें समाज का क्या कसूर

कि तुम हर बार

छोटी मछली ही रह जाते हो

किसी बड़ी मछली के लिए।

------

आदमी के भीतर

मैं

देख रहा हूँ

इस शहर के लोगों को

जरूर कुछ हो गया है

या होता जा रहा है

झूठे नाम के लिए

क्यों लड़ते हैं?

सस्ती वाह-वाही

हासिल करने की

फिराक में क्यों रहते हैं

वक्त बदलते है

लोग बदलते है

लेकिन

इनकी हवस

नहीं बदल रही हैं

खाक मे मिल रहे हैं

खाक में मिला रहे हैं

जल रहे हैं

जला रहे हैं

क्यों इन्सान की नसल को

बिगाड़ रहे हैं?

इस शहर में

जिन्हें

मैं जान सका

एक-एक आदमी तिलस्मी है

इनकी तहों तक

पहुँचने में मेरा

बहुत सा वक्त

बरबाद हो गया।

मैंने जो कुछ देखा व जाना

बहुत भंयकर था

इसीलिए कई बार

इच्छा होती है

नंगा होकर

इन लोगों के बीच

एक लम्बी दौड़ लगाऊं

सब पर हँसता हुआ

क्योंकि

मैं उन्हें नंगा कना चाहता हूँ।

इतने लोग

इतनी बातें

इतना छल-कपट

इतना ज़हर

इसी एक आदमी के भीतर

जो हर दूसरे आदमी हो

निगलना चाहता है।

अब आदमी

आदमी क्यों नहीं हैं?

------

आजकल

मुझे नहीं मालूम

मैं क्यों उदास जो जाता हूँ

किसी के साथ हाथ मिलाते हुए

किसी के साथ हंसते हुए।

क्यों नहीं मिलता मुझे

कोई निस्वार्थ हाथ

जिसे मैं हाथ मे लेकर

अपने दुःख को बांट सकूं

क्यों नहीं मिलता

वह चेहरा

जिसके हंसने से

मैं खूलकर हंस सकूं।

आजकल

सारा समाज

क्यों नकली हो रहा है

लोग क्यों नकली हाथ

व चेहरे रखते है?

हंसते क्यों नहीं खुलकर

और क्यों नहीं हंसने देते?

अगर यही

नकली दौर चलता रहा

तो हंसने-हंसाने

मिलने-मिलाने का उपक्रम

नेस्तनाबूद हो जाएगा

और असली सब कुछ

नकली हो जाएगा

लोकतंत्र की तरह।

------

बुढ़ापा

बहुत दूर

छूट गया बचपन

न जाने कहां

खो गई जवानी

अतीत तो अब

लगता है कहानी।

सांसे सिमटने लगी हैं

इस दौर में

कोई न रहा अपना

न जाया

न काया और न माया।

अपने है तो बस

आंखो में सूखते अश्क

मुख में चंद दाँत

और अपचियाती आंत।

कभी रहे मजबूत कंधे

जिन पर

छोटे भाई-बहन

बेटा-बेटी झूलते थे

अब वे

खूद झूल गए हैं

और

पांव तो मानो

चलना ही भूल गए हैं।

शेष बची हैं

बूढ़े जिस्म में

एक हाथ में लाठी

और आँखों पर

शीशों का नम्बर बदलती ऐनक

अब तो

जैसे भी हो

जी लेते हैं

दर्द ही दर्द मिलते हैं

सह लेते हैं।

सब कुछ

हो गया नीरस

बस आया है हाथ

फीकी चाय का एक प्याला

जिसे पीना होता हैं

खासंते-खासंते

बलगम को हल्क में

धकेलते हुए।

------

कोई तो हल कीजिए

समस्याएं होती है

तुम्हारे लिए

घर की

देश-विदेश की

पास-पड़ौस की

आर्थिक मंदी की

मुद्रा स्फीति

शेयर बाजार

और मूल्य-सूचकांक की।

जूझो भले ही इन से

तुम ठाट-बाठ से।

मगर

गरीबी की रेखा के नीचे दबे

उस करणिये की समस्या का

केाई तो हल कीजिए

जो

दो जून रोटी के लिए

अपना यौवन

उजाड़ रहा हैं

और कबाड़ रहा है

भूख दर भूख।

उसे

कभी पता नहीं चलता

कब बूढ़ापा आता हैं

कब जवानी चली जाती हैं।

वह बेचारा

तुम्हारे लिए

वोट बन कर

तुम्हारी तरफ

आस में ताकता

मौत के मुंह में

चला जाता है

बिना कोई खबर बनें।

------

ताजा खबर

गरीब को

जो भी मिला

विरासत मे मिला है।

पीढ़ी दर पीढ़ी

पुश्तैनी कर्ज

जिसमें रोज

कुछ बढ़ोतरी होती है

एक घूंट पानी की तमन्ना

एक जोड़ा जूती का जुगाड़

रंबे, खुरपे व दराती की जरूरत

मौसम-बेमौसम चटनी

प्याज की महक

ठण्डी बासी रोटी के लिए

जमीन गिरवी रखने की नौबत।

हाथ से खिसकती

धरती के साथ-साथ

बढ़ता चला जाता है

कर्ज का बोझ

झुकती चली जाती है कमर

मिटती चली जाती है

कमर और पेट की

असल पहचान

और

खुदती जाती है कब्र।

बस इतनी सी है

मेरे पास

लाचार पेट की

ताजा खबर

------

मौत

गरीब की मौत

भूख से हुई

और

अमीर की मौत

अधिक खाने से।

मैंने

पहली बार देखा

मौत का

यह अंदाज।

------

राष्ट्रीय शोक

मैंने

एक दिन

पाई थी दफ्तर

से

एक दिन की छुट्टी

और मनाया था

राष्ट्रीय शोक

जिस दिन था

एक नेताजी का

मृत्यु दिवस।

राष्ट्रीय शोक तो

उस दिन भी था

जब

एक थानेदार ने

डाला था

एक अबला की चोली में हाथ

और

सुलाया था

अपनी ही मां के बदन पर

उसके जवान बेटे को

मगर

उस दिन

दफ्तर मे न छुट्टी थी

न नियंताओं को चिंता।

मैं लाख चाहकर भी

नहीं मना गया

राष्ट्रीय शोक।

------

लोकतंत्र

पच्चास साल बाद भी

तुम्हारे लिए

लोकतंत्र

एक अनसुलझी पहेली रही है

तुम्हारें सोच में

यह फिलहाल

वोट की एक थैली रही है।

लोकतंत्र क्या है?

चुनाव क्यों है?

घीसू मोची

बखूबी जानता है

कि जिसकी लाठी हो

भैंस उसी की होती है।

गरीब हमेशा

गरीब होता है

बेशक कोई तंत्र हो।

शेर और बकरी का भी

भला कोई मुकाबला होता है।

जबकि शेर की जीत

निश्चित होती है

फिर किस बात की जीत

और किसी बात का मुकाबला?

------

जेब का फलसफा

हम

जब छोटे थे

तब सोचते थे

जेबें बहुत कुछ होती हैं

इसीलिए

पितजी के कुर्ते में

जेब होती है

जिनमें से

निकलते रहते है

रोज-रोज नोट।

हमने भी

सपना देखा

ऐसी ही

अदद जेब का।

चाहा हमारी भी जेब से

निकले मनचाहे नोट।

देखते ही देखते

हमारे भी कपड़ों में

जेबें आ गई।

मैंनें अपनी इन जेबों को

बहुत महफूज रखने का

प्रयास किया।

लेकिन फिर भी जेब

फट जाती थी।

बहुत कम होता था

कि मेरी जेब में

कुछ होता

सिवाय

खाली उंगलिया रेंगने के।

आज चालीस की उम्र में

हमारें सपने ठूट गए

जेब जो पहले नहीं थी

हम खुश थे।

जेब जब

अपनी हुई

न जाने कहां सरक गई।

और हमारें बच्चें

देख रहे हैं वही सपने

जो कभी हमनें देखे थे।

यूं जेबों का सफर

दूसरी पीढ़ी मे चला गया

और

अभावों का फलसफा

बिना सुलझे दरक गया।

आज

जेबों को ताकते

जब भी

अपने पोतों को देखता हूँ

उनमें अपना

अक्स तलाशता हूँ

जो

अनायास ही पा जाएंगे जेबें

और सौंप जाएंगे

अपनी अगली पीढ़ी को

अभावों से भरकर।

------

नारी किश्ती

नारी और किश्ती में

कितनी समानता है

दोनों जूझती है लहरों से

दूसरों को किनारे पहुंचाने के लिए।

किनारे पर पहुंच कर

फिर से लौटना होता है

दूसरे किनारे पर

महज

दूसरों के सुख के लिए।

किनारों के बीच

संघर्ष कितना जटिल है

यह जानने की कोशिश

मर्द कभी नहीं करते

मगर

संघर्ष करने वाले

संघर्ष से कभी नहीं डरते।

नारी तुम एक किश्ती हो

सचमुच एक हस्ती हो।

तुम्हारे पास

देने को बहुत कुछ है

ढेर सारा प्यार

जैसे लबालब भरा हो तलाब

जिस मे तुम तैरती रहती हो

किश्ती की तरह।

------

बूढ़ा तालाब

तुम्हारी नजरों में

आजकल मैं

एक नकारा, गंदला

बूढ़ा तालाब हूँ।

परन्तु दोस्तो

कुछ पल ठहरों

अपनी सोच को

विराम जरा दो

और झांको

अतीत में

देखो मेरी ओर

मैं वही तालाब हूँ

जिसका जल कभी

नगर की हवेलिया मे

मेरा ही गारा

ईटे जोड़ता था।

यह जो भीमकाय गढ़ है

इसके गुम्बद

मेरे ही जल के बल से

गगन चूम रहे हैं

तुम्हारें शहर के बूढ़े रूंख

मेरे ही दम पर

आज तक झूल रहे हैं।

उधर देखो

वह बूढ़ा बरगद

मेरे सौंदर्य की कहानी

हवा को सुना रहा है

अपने भीतर संजोये

इतिहास को गुनगुना रहा है।

सदियों से

अपनी जटाओं की अंगुलियों में

मुझे थमा कर

मेरे बदन पर पसरा कर

इस कदर मौन खड़ा है

इसके भीतर

जमाने भर का दर्द पड़ा है

क्या तुमने कभी

उसे पढ़ा है।

मेरे बदन से सटे

अनधड़ से दिखने वाले

यह पत्थर

सदा ऐसे काले नहीं थे

संगममरी काया रखते थे।

इन्ही पनघटों पर

गूंजती थी कभी

पायलों की झनकार

यहीं, ठीक यहीं

मचल जाया करते थे नंदलाल

पा कर पनिहारियों की मुनहार।

मेरा जल कभी

हुआ करता था निर्मल

जिसमें खिलते थे हंस

तब कहां था

आज सा घ्वंस?

मेरी काया पर

जब कभी

पूर्णिमा का चांद उतरता था

निहारता था मुझे

तब दूर बैठा

स्वर्ग का देवता

दाह मे तड़फता था

और तुम्हारे इस नगर के

युवा मन

मेरे जल से अठखेलियां करते

रात को अलविदा करते थे।

बूढ़ा तालाब तड़फा

यह अनायास

क्या हो गया नगर को

अपने दिन भर के

गंदियाये बदन का मैल

और सड़ांघते मल को

मेरे जल में मिलाने लगा है

अपने कुकृत्यों से

मेरी आभा मिटाने लगा है

रोक लो अपने नगर को

वह कितना अंधा हैं

वह नहीं जानता

मेरे नाश में ही

उसका विनाश बंध है।

मैं बूढ़ा निढाल

आदम स्पर्श चाहता हूँ

मैं भी तुम्हारी तरह

मनोरम काया चाहता हूँ

मैं नहीं चाहता

नगर का विनाश

नगर क्यों चाहता है

मेरा नाश?

मैंने बहुत सहेजा है

तुम्हारें बुजुर्गो के बदन को

अब तुम भी करो

थोड़ा सा यतन

मेरे पनघट के पत्थरों को

थोड़ा सा करो स्पर्श।

------

मेरी पंखुड़ियाँ

ये मौसम

मुझे छेड़ता है

हवाएँ भी

करती हैं

बहुत तंग।

तितलियाँ

मेरी सहेलियां हैं

भँवरें रहते हैं

मेरे संग।

टहनियों मे

मैं खिला-खिला सा

रहता हूँ हरदम।

लेकिन

कुछ आदम हाथ

मुझे छेड़ते हैं

करते है

मुझे तंग

मेरी पंखुड़ियों को

तोड़ते मसलते हैं

फैंक देते है

गंदी जगह पर।

मुझे तोड़ो अवश्य

मैं तो तुम्हारे लिये ही

खिलता हूँ।

तुम

टूटते हो जब

अपने ही भीतर

कितना अनुभव

करते हो दर्द

वैसा ही सोचा

कभी मेरे लिये भी

टूटने का दर्द।

------

माँ की किस्मत

कितना सजाया

उस चिड़िया ने

तिनका-तिनका लाकर

रोशनदान में

अपना घर।

चिड़िया के बच्चों ने

बदल दिया

विरानी को

चहचहाती खुशहाली में।

नन्हों ने

मिलायी चोंच

अपनी माँ की

चोंच में।

देखी उनमें

अपनी माँ।

कुछ दिनों बाद

नन्हें बड़े हो गए

उड़ गए

किसी के साथ।

उस सजे-सजाये घर में

अब चिड़िया अकेली थी

घर फिर विरान था।

फिर

एक दिन

वह घोंसला

बाहर फेंक दिया गया।

मैं सोचता हूँ

हर माँ

ऐसी किस्मत लेकर

क्यों आती हैं।

------

(चित्र – प्रदीप भारावी की कलाकृति, साभार मानव संग्रहालय, भोपाल)

COMMENTS

BLOGGER: 6
  1. नरेश मेहन की कविताएं पढ़ कर आनंद आया। वाह क्या प्रयास है! समूचा कविता संग्रह उपलब्ध करवा कर श्लाघनीय कार्य किया है बधाई ! नरेश मेहन मेरी पीढ़ी के सशक्त कवि हैँ।इन की कविताएं सूक्षम सँवेदनाओँ को अंवेरती हैँ और व्यापक को उकेरती हैँ।इनकी व्यष्टि मेँ समष्टि समाई रहती है।सार्थक प्रयास के लिए आपको व मेहन जी को साधुवाद !
    -ओम पुरोहित'कागद'
    मो-09414380571
    omkagad.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  2. प्रकृति के बेहद नजदीक दिल से जुड़े कवि नरेश मेहन अच्छे कवि के साथ साथ व्यक्ति भी बहुत बढ़िया है. इनकी इतनी सारी कविताएँ ओर अन्य पाठक भी पढ़े..इन्हें पाठकों के प्यार के साथ
    केंद्रीय साहित्य अकादमी का अवार्ड भी मिले. मेरे परम मित्र ओर छोटे भाई के लिए मेरी शुभकामना है.
    दीनदयाल शर्मा,09414514666, www.http://deendayalsharma.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  3. dear naresh
    apki kavita PER KA DUKH pariavaran per ek molik
    aur bahut bhavna puran rachna he .aj tak kisi rachnakar ne parivaran per is dhang se rachna nahin ki he .achi lagi.

    from TARA SINGH SAINI

    जवाब देंहटाएं
  4. Naresh ji aapne keval ped ka dukh hi nahi ujagar kiya h balki iske goodh me kahi na kahi ek manushya ka aantrik dukh bhi jhalkata h. ek teesh si mahsoos hoti h maanav keval bhotikvaadi ban gaya h parntu prukriti prdatt aanand ko bhulta v chodta ja raha h.
    bahut hi murmspurshi kavita h.
    sanjaykumar4820@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
  5. बेनामी5:17 pm

    R/SIR,
    AAP KI KAVITA 'PED KA DUKH ' PAD KAR PARIYAVARAN KO BACHANE KI PRERNA MILATI HAI ,KAASH AAP KI AGALI KAVITA ' PED KI KHUSHI 'HO .
    mastan singh
    blog--- penaltystroke.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  6. बेनामी10:28 pm

    कवि नरेश मेहन की काव्य कृति पेड़ का दुःख पर्यावरण को बचाने की प्रेरणा देती है..काश ! मेहन की का आगामी काव्य कृति का नाम पेड़ का सुख हो.. मस्तान सिंह
    penaltystorke.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
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नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद 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रचनाकार: नरेश मेहन का कविता संग्रह – पेड़ का दुःख
नरेश मेहन का कविता संग्रह – पेड़ का दुःख
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रचनाकार
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