प्रमोद भार्गव का आलेख : जायसी के राजनीतिक दोहन की जरूरत

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प्रेम मार्गी सूफी धारा के कवि मलिक मोहम्मद जायसी को कुछ अर्से से ओछी राजनीति के चलते मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने की नीयत से राजनीतिक बिसात...

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प्रेम मार्गी सूफी धारा के कवि मलिक मोहम्मद जायसी को कुछ अर्से से ओछी राजनीति के चलते मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने की नीयत से राजनीतिक बिसात का मोहरा बनाने की निम्र स्तरीय कोशिश की जा रही है। किसी भी देवपुरुष को महापुरुष को और संस्कृति पुरुष को विशेष समुदाय या जाति को राजनीतिक लाभ उठाने की दृष्टि से महिमा मंडित करके उसके राजनीतिक दोहन की प्रवृत्ति हमारे राजनेताओं में अब एक परंपरा का स्वरूप ग्रहण करती जा रही है। जायसी को इसी परंपरा का शिकार बनाने की कोशिश में कांग्रेस लगी है। करैरा (अमेठी)अधिवेशन की जो स्मारिका छापी जानी थी उसके आवरण पर महात्मा गांधी या अन्य किसी राष्ट्रीय पुरुष का चित्र छापा जाने की बजाए जायसी का चित्र छापे जाने की कोशिश जायज ठहराने के लिए बहस-मुवाहिशे शुरू हो गए थे। क्योंकि अमेठी संसदीय क्षेत्र में जायसी का जन्मस्थान जायस नगर एक बड़ा कस्बा है और पूरे संसदीय क्षेत्र में मुस्लिम आबादी इतनी है कि मुस्लिम कार्ड किसी भी उम्मीदवार को हराने-जिताने में किसी हद तक निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

जायसी के राजनीतिक दोहन की हाल ही की कोशिशों के पहले कान्वेंटी संस्कृति के प्रधानमंत्री राजीव गांधी जायसी की मजार का साढ़े तीन लाख रुपए अनुदान में देकर जीर्णोद्घार करा चुके हैं। लेकिन 1989 और 91 में जो लोकसभा चुनाव हुए उनमें राजीव गांधी की विजय का कारण राजनीतिक पारिवारिक आधार और इस क्षेत्र में अंधाधुंध विकास के लिए जो घन बहाया गया वह बना न कि जायसी। क्योंकि जायसी अकेले अमेठी इलाके के मुसलमानों में लोकप्रिय नहीं हैं पूरे उत्तरप्रदेश और हिन्दी बहुल प्रदेशों में उनकी लोकप्रियता है। इसलिए यदि जायसी के नाम का मुस्लिम कार्ड चला होता तो कांग्रेस मुस्लिम कार्ड के बलबूते पूरे हिन्दी बेल्ट जीती होती। वैसे भी जायसी को जाति से मुसलमान होने के नाते मुसलमानों का कवि सिद्ध करना भी एक घटिया हरकत के अलावा कुछ नहीं है। वे साहित्य के ऐतिहासिक मूल्यांकन की कसौटी पर ठेठ भारतीय जनमानस में पैठ बनाने वाले सूफी कवि थे।

सूफी कवियों का पर्याय उन मुस्लिम संतों से था जो दुनियादारी में रहते हुए भी परमात्मा के चिंतन में डूबे रहकर भक्ति का शाश्वत संदेश देते रहे। इसी में उन्हें नश्वर जीवन के मुक्ति की अनुभूति होती रहती थी। हालांकि सूफी की इस आराधना पद्धति या मौलिक विचारधारा को इस्लाम विरोधी मानकर मुसलमान खलीफाओं ने सूफियों पर घोर अमानवीय अत्याचार किए। सूफी कवि मंसूर को यह कहने पर कि मैं खुद ही खुदा हूं। सजा-ए-मौत दे दी गई थी। तो जिस सूफी मत का प्रादुर्भाव इस्लाम की कट्टरता के विरोध में हुआ और जिस मत के निष्ठावान अनुयायी नैसर्गिक रूप से अतिशय उदार, सहिष्णु, अपरिग्रही व सत्य अहिंसा में विश्वास रखने वाले थे और जिनमें एक प्रमुख सूफी कवि जायसी थे, ऐसे संत के राजनीतिक दोहन का औचित्य कैसे जायज ठहरा सकती है कांग्रेस ? ऐसे कुट्टिसत प्रयासों से एक उदार मना विराट व्यक्तित्व को बौना करने के अलावा तात्कालिक लाभ उठाने वाले राजनेता कुछ नहीं कर सकते।

भारत में सूफी संतों की पहली खेप मुस्लिम आक्रांताओं के साथ आई थी। ये मुस्लिम फौजों के साथ आए। तेरहवीं चौदहवीं शताब्दी एक भारत में सूफी साधना पद्धति मजबूती से पैर जमा चुकी थी। हालांकि इनके सामने जो परिवेश था वह मुसलमानों के सत्तानसी हो जाने के कारण विषाक्त था और हिन्दू व मुस्लिम संस्कृतियों का परस्पर टकराव जारी था। धर्मांध बादशाहों के धार्मिक उन्माद के मद से लबालब मुस्लिम संस्कृति पुरातन भारतीय संस्कृति पर हावी होने की कोशिश कर रही थी। इसके प्रत्युत्तर में हिन्दू संस्कृति अपनी प्राचीनता विराटता और संपूर्णता के स्वाभिमान का स्वावलंबन लिए आक्रांताओं के सांस्कृतिक दबाव से उभरने का प्रयत्न व अपनी अस्मिता की रक्षा में जुटी थी। इन टकरावों से दोनों ही धार्मिक समुदायों में परिस्थितिजन्य सामाजिक संकीर्णतायें जन्म लेने लगीं और भारतीय जनमानस आक्रांताओं के भय और संत्रास के वशीभूत हो दायरों में सिमटकर कूपमंडूक होता चला गया। इस कूमंडूकता से उबारने और टकराव को आलने का काम दोनों समुदायों के संत कवियों ने ही किया।

कबीर ने तो ब्राह्मण और मौलवी दोनों की कट्टरता को अपनी वाणी से तल्ख फटकार लगाई और अंधविश्वासों व आडंबरों से मानव मात्र को उबारने की ठोस वाणी दी। इस फटकार के बावजूद कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए ही जीवन पर्यंत सम्मानित रहे। यहां तक की उनकी मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार को लेकर हिन्दू और मुसलमान दोनों में विवाद हुआ। दूसरी तरफ मुस्लिम सूफी संतों ने प्रेम के उदात्त पहलू को अपनी वाणी दी। इन संतों और सूफियों ने साम्प्रदायिक सद्भाव की जो जमीन तैयार की उसमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही संस्कृतियों के सम्यक स्वरूप को नये आयाम दिए गए और समष्टिगत हितों के लिए मानवीय गुणों व मानव मात्र को एक माला में गुंफित करने वाली रचनाधार्मिता की रचना की। इसीलिए इस रचनाधर्मिता, संतों और सूफियों को जनमानस ने पूरे आदर के साथ स्वीकारा।

इश्क मिजाजी (लौकिक प्रेम) और इश्क हकीकी (ईश्वर प्रेम)के सूफी कवि जायसी की रचना ‘पद्मावत’ में भारतीय इतिहास और लोक जीवन की प्रसिद्ध प्रेमकथा है। इसी कथा में कुछ कल्पना का पुट देकर जायसी का कोमल हृदय अध्यात्मपक्ष को प्रस्तुत करता हुआ। रचना कर्म के दायित्व को हिन्दू कथानक होने के बावजूद भी पूरी गंभीरता से निवर्हन होता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर और जायसी का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, ‘कबीर ने अपनी भाड़ फटकार के द्वारा हिन्दुओं और मुलसमानों का कट्टरपन दूर करने का जो प्रयत्न किया वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ। हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं। मनुष्य मनुष्य के बीच जो रागात्मक संबंध है वह उनके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के जीवन मेें जिस हृदय साम्य का अनुभव मनुष्य कभी कभी किया करता है उसकी अभित्यंजना उनसे न हुई। कुतबन जायसी आदि इन प्रेम कहानी के कवियों ने प्रेम का शुरू मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य दशाओं को सामने रखा जिनका मनुष्य मात्र के हृदय पर एकसा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिन्दू हृदय और मुसलमान हृदय आमने सामने करके अजनबीपन मिटाने वालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिन्दुओं की कहानियां हिन्दुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया।

धर्म पर से मुल्लाओं की इजारेदारी तोडऩे वाले और पुरोहितवाद को लताडऩे वाले सूफी संत जायसी का राजनीतिक दोहन करने की मंशा रखने वाले जायसी की मजार पर चादर चढ़ाते वक्त मुस्लिम वोट बैंक को प्राप्त करने की मनौती मांगने की महत्वाकांक्षाओं से बाज आएं और इस सूफी संत से कुछ मानवीय गुण उधार लें और बुत परस्ती करने की बजाय जायसी की तरह ही मानव सेवा मात्र से बैकुण्ठ धाम को प्राप्त हों। कांग्रेस अथवा किसी भी राजनीतिक दल का वोट हथियाने की दृष्टि से प्रकट किया गया प्रेम जायसी को साम्प्रदायिक दायरे की गुंजलक में जकडऩे के अलावा कुछ नहीं करेगा। इसलिए इस प्रेममार्गी सूफी संत के राजनीतिक दोहन की प्रवृत्ति पर प्रतिबंध लगाना जायसी के जाति, धर्म, वर्ग, सम्प्रदाय, क्षेत्रवाद, नस्लवाद आदि से ऊपर उठे विराट व्यक्तित्व के सार्वभौम व्यापकता के हित में तो है ही राजनीतिकों की स्वार्थपरकता संकीर्णता को छिपाए रखने के हित में भी है।

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प्रमोद भार्गव

शाही निवास, शंकर कालोनी,

शिवपुरी (म.प्र.) पिन- 473-551

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प्रमोद भार्गव का आलेख : जायसी के राजनीतिक दोहन की जरूरत
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