सुरेन्द्र अग्निहोत्री का आलेख – आजादी का तमाशा कब तक?

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वास्‍तव में हम स्‍वतन्‍त्रता का सुख अनुभव कर रहे हैं? नहीं, तो क्‍यों? क्‍या इसी आजादी के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर दिया था। तमसो मा ज्‍यो...

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वास्‍तव में हम स्‍वतन्‍त्रता का सुख अनुभव कर रहे हैं? नहीं, तो क्‍यों? क्‍या इसी आजादी के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर दिया था। तमसो मा ज्‍योतिर्गमय का उद्‌घोष करने वाले देश में कालिमा के बादल कैसे छटेंगे। लोकतंत्र के चारों पाये एक दूसरे से अधिक शक्‍तिशाली बनने की जुगत करने में लगे है, लोकहित को तिरोहित कर दिया हैं। स्‍वराज की परिकल्‍पना करते समय सोचा था कि भारतीय नागरिक आजादी के उपरांत अभाव, तनाव, उत्‍पीड़न से मुक्‍त होकर प्रगति के नये सोपान तय करेंगे पर आजादी के बाद इसके विपरीत काले अंग्रेजों ने हमें दिया भाषा, धर्म, जाति और क्षेत्रवाद का यह नासूर जिसका जितना इलाज किया जाता है वह उतना ही अधिक तेजी के साथ बढ़ता जा रहा है। जिसके कंधे पर हल का बख्‍खर रखकर यह देश अन्‍नदाता बना है, उन्‍हीं श्रमपुत्रों ने वर्ष 1976 में केन्‍द्रीय श्रम मंत्रालय के तत्‍कालीन संयुक्‍त सचिव डी. बंदोपाध्‍याय को मध्‍य प्रदेश के रतलाम जिले में अपना यह गीत सुनाया थाः-

‘‘जागो तरेती अंधारा में जाऊ,

जागो तरेती अंधारा में आऊ,

म्‍हारो आखी उभर में अंधारूझ,

अंधारूझ है उजारू कर कानो है''

उठकर अंधेरे में जाता हूं, अंधेरे में लौटकर आता हूँ, मेरे पूरे जीवन में अंधेरा है, अंधेरा है, उजाला कहीं नहीं। आदमी की नियति बदल जाती तो अब अंधियारी की कालिमा समाप्‍त हो चुकी होती पर हमारा राष्‍ट्र कर्ज के तेल पर दीपक की लौ को प्रकाशमान करने की विकृत चेष्‍टा कर रहा है। उधार की रोशनी से कितना प्रकाशमान हो जाया जा सकता यह प्रश्‍न कब सुलझेगा? बात यहीं समाप्‍त नहीं हो जाती है सारा देश वर्तमान में दो विचारधाराओं के बीच पिस रहा है अति आधुनिक और पुरातन के भारत को आदिम युग में ले जाने की चेष्‍टा हो रही है इसकी स्‍पष्‍ट झलक राजस्‍थान के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी देखी जा सकती है यहां की महिलाएं सजा के तौर पर लौसा पहनने के लिए विवश है। लौसा कच्‍छे (अंडरवियर) के आकार का लोहे का यंत्र होता है। यह लोहे की पटि्‌टयों का बना होता है,जिसकी पटि्‌टयां औरत के गुप्‍तांगों पर चढ़ जाती है और एक वृत्‍ताकार पट्‌टी से कस दी जाती है। बाद में इसमें ताला जड़ दिया जाता है। लौसा के कारण औरत की दिनचार्या कष्‍टप्रद हो जाती है तो दूसरी ओर खुलापन का नंगा नाच चल रहा है। स्‍वछंदता और परतंत्रता की बीच स्‍वतंत्रता का अर्थ ही खो गया प्रतीत होता है।

क्षणिक लाभ के लिए राष्‍ट्र कर्णधर हमें वोटो के खातिर कब तक लड़ाते रहेगें और हम स्‍वयं अपनों को शिकार बनाते रहेंगे यह प्रश्‍न भी हमें चिंतन के लिए विवश करता है। भारतीय राजनैतिक धरातल पर गांधी से जे0पी0 के अवतरण तक सामाजिक, आर्थिक मुद्‌दे परिवर्तन के दायरे से परे रहने के कारण व्‍यवस्‍था से जुड़े सभी बुनियादी लाभ जनमानस के बीच नहीं आ सके है। पहली बार पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से स्‍वीकारा कि सरकार द्वारा ग्रामों के लिए आवंटित धन में 85 प्रतिशत बीच के बिचौलिए द्वारा लूट लिया जाता है मात्र 15 प्रतिशत धन ही पहुंच पाता है यह कटु सत्‍य जान लेने से ही काम नहीं चल सकता है जरूरत इस बात की थी कि व्‍यवस्‍था में अमूल-चूल परिवर्तन लाए जाते पर दुर्भाग्‍य से राजीव गांधी के बाद सिंहासन पर बैठने वालों ने अपना मुँह मोड़ लिया। गाँधी के ग्राम स्‍वराज और स्‍वदेशी के मूल-मंत्र से आम जनों के उद्योग धंधे पुर्नस्‍थापित हो सकते थे विश्‍व व्‍यापार संघ के आगे घुटने टेक कर उन्‍हें पंगु बना दिया। विदेशी सहायता से सर्वाजनिक उपक्रम की स्‍थापना तक तो उत्‍पादन के उपदान खड़े होने के साथ ही नैतिक पतन की शुरूआत हो गयी। हमारे यहां लक्ष्‍मी को धन-धान्‍य कहा गया है। धाना यादि धान ही धन का स्‍त्रोत था जो कड़ी मेहनत से ही खेत से प्राप्‍त होती थी बिना मेहनत किये कुछ भी नहीं मिल सकता था, लेकिन विदेशी उपक्रम में श्रम घट गया और उसका स्‍थान मशीनों द्वारा ग्रहण करने से हमारे हाथ बेकार हो गये। लंबे समय तक कार्य न मिलने से हमारी कार्यक्षमता समाप्‍त हो रही है।

राजनैतिक हस्‍तक्षेप के परिणाम स्‍वरूप देश में हड़ताल, धरना, प्रदर्शन का स्‍थायी शगल फैशन का रूप धारण कर चुका है शासकीय सेवा में कार्यरत कर्मचारी, अधिकारी जो कि सेवक थे आज मालिक की तरह व्‍यवहार कर रहे हैं। लोकशाही लालफीताशाही के मकड़जाल में उलझकर रह गई है। उत्‍तरदायित्‍व का निर्धारण न होने के कारण विकास की अवधारणा ही ध्‍वस्‍त हो गयी है। एक बांध अथवा सड़क के निर्माण के समय जो बजट निर्धारित होता है वह कार्यपूर्ण होने तक पाँच गुना अधिक खर्च हो जाने के बाद भी पूर्णता के बिन्‍दु पर कार्य को नहीं पहुंचाया है जिसके कारण खर्च हुआ धन मात्र अपव्‍यय ही साबित होता है आखिर जनता की खून पसीने की कमाई पर यह बन्‍दरबाट कब तक चलती रहेगी। लोकतन्‍त्र के मन्‍दिर लोकसभा, राजसभा, विधानसभा तथा विधान परिषद, की बैठकों के आंकलन का समय कब आयेग, कब हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधि इन पवित्र स्‍थानों का उपयोग लोकहित मे करेंगे। क्‍या सिर्फ वाक आउट और शोर शराबा ही आज की जरूरत है? क्‍या करोड़ों अरबों रूपये का लोकधन हमारे प्रतिनिधियों को इसीलिए मिल रहा है? राजनेता बिना कार्य करे रातों रात करोड़ पति बन जाये। लोक द्वारा करो के माध्‍यम से भेजा गया लोकधन व्‍यक्‍तिगत तिजोरी में चला जाये? सरकार अपनी मर्जी से चलायी जाए सिर्फ बहुमत के गणित से, तो फिर क्‍या जरूरत है इस कवायद की क्‍योंकि गणित पक्ष में है तो सरकार जनहित को तिरोहित करने वाले विधेयक रोज लागू करती रहेगी और हमारे प्रतिनिधि दल के नियमों के कारण मूकदर्शक बने रहेंगे। व्हिप जारी करने की परम्‍परा ने सीधे तौर पर सदस्‍य की स्‍वतंत्रता को परतन्‍त्र बना दिया है उसके विपरीत मताधिकार का प्रयोग पार्टी अनुशासनहीनता के रूप में लेकर सदस्‍यता समाप्‍त करने की कोशिश की जायेगी फिर लोकतन्‍त्र कैसा? किसे स्‍वतन्‍त्रता है जब हमारे प्रतिनिधि ही जिन्‍हें हमने लोकसभा और विधान सभा में भेजा है इतने पंगु है तो फिर यह आजादी का तमाशा क्‍यों? कब तक चलता रहेगा।

-सुरेन्‍द्र अग्‍निहोत्री

राजसदन' 120/132 बेलदारी लेन, लालबाग, लखनऊ।

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. बिलकुल ठीक कहा जी आपने

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  2. कुछ भी अच्छा नहीं हो सकता इस अभिशप्त देश में. जब तक कि नेताओं और भ्रष्ट अधिकारियों, सत्ता के दलालों और जनता को चूसने वाले उद्योगपतियों के ऊपर ऎटम बम न फूटे..

    जवाब देंहटाएं
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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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