हरेन्द्रसिंह रावत की रचनाएँ

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कहो उसे क्या बोलोगे ? जहाँ आदमी आदमी से कटता हो, पैसा पैसा ही रटता हो, बात बात पर फटता हो, अपनी बातों से हटता हो, दुष्कर्म करके नटता ह...

कहो उसे क्या बोलोगे ?

जहाँ आदमी आदमी से कटता हो, पैसा पैसा ही रटता हो,

बात बात पर फटता हो, अपनी बातों से हटता हो,

दुष्कर्म करके नटता हो, दो नावों पर चलता हो,

काले धन पर पलता हो,

क्या तुम भी ऐसे हो लोगे, कहो उसे क्या बोलोगे ? १

स्वयं झूठों का भाई हो, कुकर्मी जिसकी माई हो,

घूस रिश्वत खाई हो, कुर्सी में ही कमाई हो,

रंगीन तबीयत पाई हो, जग में होती हंसाई हो,

सफेद टोपी लगाई हो, क्या उसका भेद तुम खोलोगे,

कहो उसे क्या बोलोगे ? २

काला जिसका चस्मा हो, कुटिलता से हँसता हो,

ठंडा पीता रसना हो, सर्प जैसे ड़ंसता हो,

हो डकैत न फंसता हो, गला ग़रीब का कसता हो,

करोड़ों का मालिक पर झुग्गियों में बसता हो,

ऐसा दुर्जन हो पास में क्या आँख मूंद कर सो लोगे ?

कहो उसे क्या बोलोगे ? ३

ग़रीबों के बीच में जाता हो, साथ बैठकर खाता हो,

गाँवों की हरिजन बस्ती में रोज ही आता जाता हो,

विपक्ष को खूब जलाता हो, मन ही मन हर्षाता हो,

रईसों को तड़पाता हो,

आम आदमी के बच्चों संग आ के घुल मिल जाता हो,

उसकी नाव में बैठ कर क्या तुम भी वैसे हो लोगे,

कहो उसे क्या बोलोगे ? ४

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और एक दिन

भगवान ने पूछा इंसान से, क्यों तोड़ता है फूल तू,

और मिटाता जा रहा है कुदरत की शान को,

इस गुलशन की महक को पक्षियों की चहक को,

गुनगुनाते भंवरों को क्यों हटाना चाहता है,

स्वर्ग जैसी संपदा को क्यों मिटाना चाहता है ?

क्यों काटता है पेड़ तू पौधों का बचपन छीनता,

नदी नालों को लूटता बालू में सोना ढूंढता,

तोड़ता पर्वत शिखर को, मिटाता है शान को,

अंध गलियों में भटकता,

ईर्षा लालच में अटकता,

क्यों भूलता तू जा रहा है अपनी ही पहिचान को ?

प्रदूषण के जहर को गंगा में मिलाता जा रहा है,

और इस काली कमाई को स्वयं तू खा रहा है !

मैंने बनाई थी धरा जीव जंगल के लिए,

और हर पर्वत शिखर पर टिमटिमाते थे दिए,

तैंने दीए क्यों बुझाए, और पर्वत क्यों गिराए,

क्यों अपनी पाप गठरी उज्ज्वल हिमालय पर गिराए,

कुदरत के नाव रंग को तू बदरंग कर गया,

और गुलशन के चमन में दहशत की अग्नि भर गया,

अपने कुकर्मों के बोझ से अब तू क्यों बेचैन है ?

दिन तो कभी का ढल चुका हो गई अब रैन है,

अब भी संभल जा आदमी ये धरा बच जाएगी,

नहीं तो सब मिट जाएगा, जब प्रलय आ जाएगी !

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सांड गुस्से में था

एक दिन शाम को मैं कार्यालय से घर आ रहा था,

बीच गली एक भारी सांड खड़ा था,

न दाएँ न बाएँ बीच में अड़ा था,

आस पास कुछ भी लाल न पड़ा था।

लाल लाल आँखें मुझे घूर रहा था,

लाल वाले सांड से बचना,

कभी बुजुर्गों ने कहा था।

मैं पीछे मुड़ा, "इधर आ", सांड ने मुझसे कहा,

"अब भाग रहा है, डर के गोले दाग रहा है,

तुम्हारी दो टाँग, हमारी चार,

जिसका दूध पीता है वो है हमारी नार,

ज़्यादा होशियार बना उठा कर पहुँचा दूँगा जमुना पार।

बहुत सताया है इस आदमी की जात ने हमारी बिरादरी को,

अब हमारी बारी है।

ग्यारह सांड मेरे पीछे सारे क्रिकेट खिलाड़ी हैं,

मेरे सीँग बैट तुझे बॉल बनाउँगा,

छ्क्का मार बाउँड्री पार पहुँचाउँगा।

सत्ता में सरकार भी यही कर रही है,

स्वयं सचिन गावस्कर बन कर,

जनता को बैट बॉल बना नचा रही है,

सी बी आई को जेब में रख कर,

विपक्ष को डरा रही है,

बाहुबलियों, अपराधियों को

मंत्री बना दिल से लगा रही है,

जनता एक न हो जाए, बहाना बना रही है,

जाति धर्म ऊँच नीच की अग्नि जलाकर

समाज को बाँट रही है।

सच कहूँ तुम आदमियों की तो कोई पहिचान ही नहीं है,

हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, कट मरते हो भाई भाई!

कांग्रेस-बीजेपी, सीपीएम, किसने ये पार्टी बनाई,

कुदरत की हरियाली पर राहू केतु ने नज़र लगाई,

नदी नालों में जहर मिलाकर दुर्गंध ये किसने फैलाई?

पेड़ काट जंगल मिटाए, आग लगी पर बुझा न पाए,

जीव जन्तु भी तुमने मारे, बताओ अब तुम क्यों घबराए ?

बैल बना हमको मारा, खुद खाया तुमने माल पुवा,

मवेशी चारा खाया तुमने, बदहज़मी भी नहीं हुआ।

अब तुम मवेशी चारा खाओ, बैल सांड़ संसद पहुँचाओ,

नहीं तो देख हमारे सीँघ, मार रहा नहीं मैं डींग,

तुमको नाच नचाएंगे, हम सरकार चलाएँगे,"

यह कहते हुए वह मेरी ओर भागा,

एक भयानक गर्जना गोला दागा,

"बचाओ बचाओ " कहकर मैं चिलाया,

नींद खुली अपने को बेड के नीचे पाया।

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सेवा की कीमत

उत्तराखंड के पहाड़ी गाँव में एक बहुत ही सीधा साधा सज्जन रहता था। उसके माता पिता ने तो उसका नाम संग्रामसिंह रखा था, लेकिन गाँव के बुजुर्ग उसे प्यार से संग्रामू बुलाते थे। माता पिता स्वर्ग वासी हो गये थे, छोड़ गये थे पीछे सीधीनुमा खेत जो काफ़ी दूर दूर तक फैले हुए थे, एक बैलों की जोड़ी और थोड़ा सा अनाज जो कम से कम अगली फसल आने तक के लिए काफ़ी हो जाता था। यह परिवार पुश्तैनी किसान था, दादा खेती ही करते थे, पिता ने भी वही किया और अब संग्रामू भी उसी पैतृक परंपरा को आगे बढ़ा रहा था। वह बहुत ही सीधा था इसलिए गाँव वाले उसका मज़ाक भी उड़ाया करते थे। शादी हुई और विडंबना देखिए उसकी पत्नी गूंगी थी नाम था शर्मीली। ईश्वर की रचना तो देखिए, वह इंसान के कर्मों के अनुसार उसे गूंगा, बहरा, लंगड़ा और काना तो बना देता है लेकिन उसे शान से जीने के लिए कोई विशेष हूनर दे देता है और शर्मीली को भी भगवान ने एक ऐसा ही हूनर दे रखा था जो आम महिलाओं में देखने को नहीं मिलता। वह इशारों इशारों में अपनी मन की बात सबको आसानी से समझा देती थी और उनकी बातों को समझ जाती थी। वह बहुत मेहनती और कुशाग्र बुद्धी की थी। अपना काम समय पर निपटा कर अपने संगी साथियों की भी मदद करती थी। इस तरह उसने अपने लिए सभी उमर के स्त्री पुरुषों में अपनी एक विशेष जगह बना ली थी। वह सबेरे सूर्य निकालने से पहले ही उठ जाती थी, गोशाला में जाकर मवेशियों को बाहर निकाल कर उन्हें दाना पानी देना, गोबर को ठिकाने लगाना। इस गाँव में पानी की बड़ी समस्या थी इसलिए दूर से पानी अपने लिए तथा मवेशियों के लिए लाना, खाना बनाना, फिर पति जो सबेरे सबेरे ही खेतों में हल लगाने चला जाता उसके लिए नाश्ता बनाना और लेकर खेतों में जाना। जब हल लगा कर पति नास्ता खाने लगते तो शर्मीली का काम शुरू हो जाता। डले फोड़ना, बैलों को हल से खोलना, उन्हें भी नास्ता खिलाना पानी पिलाना और उनके कंधों और पूरे शरीर की मालिश करना। बैलों का भी नाम था, गोरा और कैन टा। दोनों बैल अपनी मालकिन को खूब पहिचानते थे। पति तो घर चला जाता था और पत्नी बैलों को चराने के लिए खेतों में छोड़ देती थी और अपने आप साथ ही के जंगल में अन्य महिलाओं के साथ घास काटने चली जाती थी। और एक दिन घास काटने में मग्न थी, साथ के खेत में बैल चर रहे थे, अचानक कहीं से एक बड़ा भारी भरम देह वाला भालू आ गया। सारी महिलाएँ शोर मचाती हुई की "भालू आया भालू आया", भाग खड़ी हुई, शर्मीली बेचारी गूंगी बहरी उसको क्या पता शोर मच रहा है या भगदड़ मच रही है, वह तो अपने में मस्त होकर घास काट रही थी। भालू ने उस पर आक्रमण करने के लिए तेज़ी से उसकी तरफ दौड़ लगाई, दोनों बैलों ने भालू को देख लिया। जैसे ही भालू शर्मीली के नज़दीक पहुँचा, दोनों बैलों ने दोनों तरफ से अपने सीँगों से भालू पर ज़ोर दार हमला बोल दिया, नज़दीक पर भालू को देख कर शर्मीली तो बेहोश हो गई। दोनों बैलों के सीँगों से बड़ी मुस्किल से अपने को बचा कर भालू गिरता पड़ता भाग खड़ा हुआ । शर्मीली की जान बच गई। भालू घायल हो चुका था। गाँव में भी खलबली मच गई की शर्मीली को भालू ने खा लिया है, लोग भागते हुए वहाँ आए, देखा दोनों बैल खड़े होकर भागते भालू को देख रहे हैं और शर्मीली बिना कोई चोट खाए बड़े अचरज से अपने प्यारे प्यारे बैलों को देख रही है। सब लोगों ने बड़े प्यार से दोनों बैलों की मालिश की और पुर इलाक़े में खबर फैला दी की संग्रामू के दोनों बैलों ने उसकी पत्नी शर्मीली को एक दुर्दांत भालू से बचाया। आप पशुओं को प्यार करो वे बदले में अपना प्यार तुम्हें देंगे।

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उल्लू की होशियारी

हमारे धार्मिक ग्रंथ उल्लू को लक्ष्मी, धन की देवी का वाहन बताते हैं। दूसरे शब्दों में जिसके पास ज़्यादा धन हो जाता है वह उल्लू बन जाता है। कहने का मतलब की धन इतना होना चाहिए की इंसान धन की चका चौंध में अँधा न बन जाए। यह पक्षी रात को देखता है और दिन की रोशनी में आँख बंद कर करके किसी अंधेरी गुफा में बैठा रहता है। इसकी आवाज़ भी बड़ी डरावनी होती है। शब्दों के हिसाब से भी इसे नकार दिया गया है। जो बुद्धू होता है उसे उल्लू कह कर अलंकृत कर दिया जाता है। एक शायर ने तो यहाँ तक कहा है की " बाग उजाड़ने के लिए एक ही उल्लू काफ़ी है जहाँ शाख शाख पर उल्लू हो उस गुलशन का क्या होगा ?" लेकिन सभी उल्लू एक जैसे नहीं होते, अगर उन्हें प्यार मिले, दुलार मिले, आश्रय मिले तो वे भी आपके साथ वैसे ही व्यवहार करेंगे। रोज चार बजे बच्चों की छुट्टी हो जाती थी,। एक दिन चार बजे सारे बचे बैग का बोझ कमर पर लटका कर घर की तरफ भागने लगे। उन बच्चों में एक पाँच साल का शीतल भी था। वह जीव जंतुओं से बड़ा प्रेम करता था। रास्ते में उसे एक चिड़िया का बच्चा तड़पता हुआ मिला, सारे बच्चे यह कहते हुए भाग गए की यह उल्लू का बच्चा है इस को छूना भी पाप है। लेकिन शीतल उसे अपने घर ले आया। घर में उसका एक बड़ा भाई नरेश और छोटी बहिन नर्वदा थी, उनके घर में पहले एक पालतू तोता था, उसके लिए पिंजरा लाया गया था, तोता तो उड़ गया और पिंजरा खाली पड़ा था । तीनो भाई बहिन ने मिलकर उसे पिंजरे के अंदर बिठाया, उसे पानी पिलाया, मखी और कीड़े मार कर उसे खिलाए। उनकी माँ ने बच्चों की शैतानी माफ़ कर दी लेकिन पापा को भनक भी नहीं पड़ने दी। पा पा सुबह ही कार्यालय के लिए घर से निकल जाते थे और देर रात घर आते थे। इस समय तक बच्चे उस उल्लू के बच्चे को खिला पिला कर अंधेरे अंधेरे बाहर भी शैर कराने ले जाते थे और पा पा के आने तक पिंजरे में बंद कर देते थे। वह उल्लू भी समय की नाज़ुकता को समझता था और कोई किस्म का शोर गुल नहीं करता था। धीरे धीरे वह बड़ा होता गया, अब बच्चे रात को उसे बाहर छोड़ने लगे, वह रात भर बाहर रह कर सुबह उजाला होने से पहले ही अपने पिंजरे में बैठ जाता था। अब वह अपने खाने पीने का स्वयं ही इंतज़ाम कर लिया करता था। बच्चे भी अब उस से ध्यान हटा कर अपनी पढ़ाई में मन लगाने लगे।

सब कुछ ठीक चलने लगा था लेकिन एक दिन परिवार के सारे सदस्य रात को एक पार्टी में चले गये, उल्लू को बच्चे बाहर निकालना भूल गये। वह पिंजरे के अंदर था लेकिन पिंजरा खुला था, दरवाजे बंद थे। उसने घर में इधर उधर देख कर पानी तो पी लिया लेकिन पेट की भूख तो कुछ खाने से ही बुझेगी , वह खाने की तलाश कर ही रहा था की एक चूहा बाहर से बिल के रास्ते घर के अंदर घुस गया और उछाल कूद मचाने लगा, मौका मिलते ही उल्लू ने उस मोटे ताजे चूहे को खाकर पेट की भूख मिटा दी। अब वह पिंजरे में बैठा आराम करने लगा, अचानक दरवाजा खुला और तीन मोटे तगड़े पहलवान जैसे डकैत घर के अंदर घुस गये। उन्होने पहले दरवाजा अंदर से बंद किया, पाँच सेल वाली टार्च जलाई और लगे कीमती सामान इकट्ठा करने। तिजोरी तोड़ी जेवर निकाले, रुपये पैसे, कीमती भांडे बर्तन एक स्थान पर जमा करने लगे। उल्लू पिंजरे के अंदर से सब कुछ देख रहा था और अवसर की तलाश में था। जब चोरों ने सब सामान इकट्ठा कर लिया गठरी बाँध ली, और चलने की तैय्यारी करने लगे की अचानक उल्लू ने टार्च वाले डाकू के हाथ पर अपने पैने पंजों से वार कर दिया , उसके हाथ से टार्च नीचे गिर गयी। वह दर्द के मारे चिल्लाने लगा। अब के उल्लू ने दूसरे के मुँह पर जोरदार पंजों से वार किया वह भी लहू लुहान होकर नीचे गिर कर चिल्लाने लगा। तीसरा दरवाजा खोलने की कोशिश करने लगा अब के उसके चेहरे का नक्शा बिगाड़ा गया और चौथे को भी पंजों से झपट्टा मार मार कर अध मरा कर दिया । उन्हें लगा कि उन्हें भूत ने उनके कर्मों की सज़ा दी है। अब ना तो वे उठ सकते थे और न कुछ कर सकते थे। रात के दो बजे के लग भग परिवार के लोग आए देखा घर भीतर से बंद है, उनके होश उड़ गये। किसी तरह से दरवाजा खोला, अंदर जाकर जो दृश्य देखा उससे वे भौंचक्के रह गये। सारा सामान गठरियों में बँधा था। चारों डकैत बेहोश लाहुलुहान पड़े थे। और उल्लू महाराज मंद मंद मुस्कराते हुए अपने मालिकों को देख कर जैसे कह रहा हो, "उल्लू को प्रेम करो उसकी जीवन रक्षा करो, वह डाकुओं से तुम्हारी मदद करेगा। " बच्चों के पा पा ने पहली बार उल्लू को अपने घर में देखा और स्नेह का सैलाब आँखों में भर कर उसकी तरफ निहारा, जैसे उसे आशीष दे रहे हों और कह रहे हों, "कि आज तैंने परिवार के सदस्य होने का पक्का प्रमाण दे दिया। आज तू न होता तो पता नहीं क्या होता ?"। चारों डकैतों को पुलिस में सौंप दिया गया, और डाकुओं को पकड़ने में पुलिस की मदद करने, बहादूरी से डकैतों से मुकाबला करने के लिए बच्चों के पा पा को प्रशस्ति पत्र और एक लाख की नकद राशि प्रदान की गई।

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हरेन्द्रसिंह रावत, द्वारका दिल्ली

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रचनाकार: हरेन्द्रसिंह रावत की रचनाएँ
हरेन्द्रसिंह रावत की रचनाएँ
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