दीप्ति परमार का आलेखः समकालीन हिन्दी उपन्यासः नारी विमर्श

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पिछली सदी का अंतिम दशक और प्रारंभिक सदी का प्रथम दशक लगभग दलित और स्त्री विमर्श के दशक रहे हैं । इन दशकों में महिला लेखन एक नयी पहचान लेक...

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पिछली सदी का अंतिम दशक और प्रारंभिक सदी का प्रथम दशक लगभग दलित और स्त्री विमर्श के दशक रहे हैं । इन दशकों में महिला लेखन एक नयी पहचान लेकर आया । समग्र साहित्य जगत ने एक स्वर से यह स्वीकार किया है कि हिन्दी साहित्य साहित्य में नारी जीवन सम्बन्धित साहित्य अब पूर्णतः परिवर्तित हो चुका है । प्राचीनकाल से नारी जीवन और उससे जुड़ी समस्याएँ अधिकांश पुरुष लेखकों की लेखनी से ही हुई है । लेकिन साठ के दशक के बाद महिला लेखिकाओं का आगमन बड़ी तेजी से हुआ और सदी के अंत तक आते आते तो इसकी संख्या और रचना शक्ति भी एक वैचारिक परिवर्तन के साथ शिखर पर पहुँची दिखाई देती है ।

हिन्दी कथा लेखन के क्षेत्र में श्रीनिवासदास लिखित हिन्दी का प्रथम उपन्यास ’परिक्षागुरु‘ (1890) जिस समय प्रकाशित हुआ उसी समय एक अनाम लेखिका का उपन्यास ’सुहासिनी‘ (1890) प्रकाशित हुआ । इसी समय प्रियम्वदा देवी का ’लक्ष्मी‘(1908), गोपालदेवी का ’लक्ष्मी बहू‘ (1912)भगवानदेवी का ’सौन्दर्य कुमारी‘ (1914) प्रकाशित हुए । हिन्दी उपन्यास के विकास में अनेक महिला उपन्यासकारों के उद्देश्यपूर्ण सृजन का योगदान है । समकालीन हिन्दी उपन्यास क्षेत्र में उषा प्रियम्वदा, ममता कालिया, मन्नू भंडारी, मैत्रेयीपुष्पा, प्रभा खेतान, मृदुला गर्ग, कृष्णा सोबती, मालती जोशी,अलका सरावगी, नासिरा शर्मा, कुसुम अंसल, सुमिता जैन, क्षमा शर्मा आदि लेखिकाएँ स्त्री विमर्श को सुविचारित रूप में कथा साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत कर रही है । स्त्री जीवन से जुड़े विविध पहलुओं को, उसके जीवन की विसंगतियों और विडम्बनाओं का कतरा दर कतरा निचोड़ता हुआ तार तार बुनता हुआ यह कथात्मक साहित्य उनकी ज़िन्दगी के अंधेरे कोनो में सर्च लाईट की तरह आरपार जाकर देखने का जोखिम उठा रहा है ।

सदियों से पुरुष प्रधान समाज में नारी की अवहेलना हुई है । इसके विरुहृ अपने मूलभूत अधिकारों एवं स्त्री तत्त्व की ओर सचेत हुई नारी का निरुपण ही इन उपन्यासों का अनुष्ठान बना नज़र आता है । महादेवी वर्मा के अनुसार ’’हमें न किसी पर जय चाहिए न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुत्व चाहिए, न किसी पर प्रभुता ! केवल अपना वह स्थान, वे स्वत्व चाहिए, जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परंतु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग नहीं बन सकेगी ।‘‘(श्रृंखला की कड़ियां, अपनी बात से- महादेवी वर्मा) मेहरुन्निसा परवेज़ ने निश्चित रूप से स्त्री लेखन की जरूरत को स्पष्ट किया है कि नारी के मौन को शब्द नारी ही दे सकती है । उसके दुख को औरत ही समझ सकती है । वह ही पहचान सकती है औरत के शरीर पर अंकित घावों के निशानों को । पुरुष के लिए अब तक वह क्या थी ? ’नारी तुम केवल श्रद्धा हो ।‘ रमणी, प्रेयसी, रुमानी खयाल, यादों की सुन्दरी ! लेकिन स्त्री ने ही स्त्री की देह पर अंकित खूनी घावों के निशानों को दिखाया है कि किस प्रकार वह उत्पीड़ित, उपेक्षित है ।

समकालीन हिन्दी उपन्यास लेखन के माध्यम से लेखिकाओं ने नारी जीवन के विविध प्रश्नों, उत्पीड़न के साथ एक नये रूप को उसकी अस्मिता की उँचाइयों के साथ रेखांकित किया है । यह नारियाँ समाज में अपनी स्वायत्तता स्थापित करना चाहती है । रूढ़िवादी संस्कारों के पीछे आँख बंदकर चलना छोड़ चुकी है । वह अपनी समस्याओं का सामना पूर्ण क्षमता से कर रही है । इनके लिए अब पति परमेश्वर की व्याख्या पुरानी हो चुकी है । अब नारी ने समझ लिया है-’न वह पैर की जूती है और न दासी ।‘ विवाह संस्थान अब उनके लिए समाज व्यवस्था की मज़बूत शर्त न हो कर समानता का अधिकार है । वह अपने कर्तव्यों को पहचान चुकी है, अब उसे कोई गुमराह नहीं कर सकता ।

समकालीन समय में नारी मध्ययुग की माया, रीतिकाल की काम पुतली बनकर पिता, पुत्र, पति के सहारे जीने वाली नहीं रही हैं । उसने आत्मविश्वास की बहती लहरों के साथ अपने कदम मिला लिये हैं । अपने हक को छीनने के लिए उसके अन्दर विद्रोह की चिंगारिया नहीं लपटें उठ रही हैं । मृदुला गर्ग के उपन्यास ’कठ गुलाब‘ की स्मिता अपने जीजा के द्वारा किये गये बलात्कार एवं जिम जारविस द्वारा की गयी अवमानना के कारण प्रतिशोध की भावना से जल रही है । उसकी अमरिका जाकर शिक्षा एवं समृद्धि पाने के पीछे भी यही प्रतिहिंसा की भावना है । जीजा की मौत के बाद वह सोचती है कि ’वह दरिंदा तो मौका दिए बगैर मर गया, अब जिम जारविस को मौका नहीं देना है ।‘ वह अपनी सारी ऊर्जा प्रतिशोध के लिए बचाकर रखती है । वह जानती है कि वह अठारहवीं शती के इमिग्रेट जहाज से आनेवाली रुथ सूजन इलेन या राकजन नहीं वह 20 वीं शती के बोइंग जहाज की इकोनोमी क्लास में आनेवाली स्मिता हैं ।

अब नारी टूटकर बिखरने की बजाय लड़ने की हिंमत जुटा चुकी है । उसने जान लिया है कि औरत को सायंस की नहीं कराटे की जरूरत है । ’कठगुलाब‘ की असीमा बहुत छोटी उम्र में यह जान चुकी है । असीमा के विचार से कराटे सीखना मोक्ष पाने के समान है । वह सोचती है हर औरत को मारपीट करना आना चाहिए । वह नमिता के क्रूर पति पर अपने कराटे के दाँव पेंच कुछ ऐसे आजमाती है कि कुछ देर बाद ही उसे लकवा हो जाता है । असीमा को नारी का शक्ति रूप ही पसंद है । वह अपनी लड़ाई खुद लड़ना जानती है ।

प्रभा खेतान के ’छिन्नमस्ता‘ उपन्यास की नायिका प्रिया मारवाड़ी परिवारों में चल रहे बहुविवाह प्रथा के कारण दूसरी औरत को मिलने वाले दूसरे दर्जे की स्थिति, बलात्कारों का अनवरत सिलसिला, पति का कठोर शासन आदि से ऊबकर वह छिन्नमस्ता देवी बनकर अपने वक्त, परिवेश और पति से लड़ते हुई नितान्त विसंगत परिस्थितियों में भी अपना मार्ग चुन लेती है ।

आज की नारी बनी बनाई कसौटियों को तोड़ने या उन पर स्वयं कसने के तनाव भरे द्वंद्व से मुक्त होकर समाज में अपनी पुख्ता पहचान बनाने के लिए अनेक संघर्ष झेल रही है । मैत्रयी पुष्पा के उपन्यास ’चाक‘ की नायिका सारंग अत्याचारों के प्रति वेदना एवं आंसू का आलाप छोड़ संघर्ष की भूमि को अपनाती है । हिम्मत और साहस उसमें कूट कूट कर भरा है । रंजिश को वह रबड़ की तरह खींच लेती है । अपने जीवन रथ की वह स्वयं सारथी है । यह जानकर भी कि पुरुषों की दुनिया में हस्तक्षेप करना आग पर चलना हे, उसकी बराबरी करना खतरे की घण्टी है, वह हिंमत नहीं हारती । छिलान, वैश्या जैसी संज्ञाओं से गाँव में जानी जाती सारंग अपने संघर्ष, बौद्धिकता और विद्रोह की भावना से ग्राम प्रधान बन जाती है । मंदा (इदन्नमम) और कदमबाई(अल्मा कबूतरी) भी इसकी उदाहरण है ।

स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास में विघ्नरूप होने के कारण विवाह संस्था के प्रति पूर्णतया आस्थावान होते हुए भी विवाह द्वारा मिलने वाली सुरक्षा एवं बंधन ने नारी को दुर्बल बनाया है । शुभा वर्मा के कोई एक उपन्यास की नायिका अपने लिए मुक्त जीवन की कामना करती है । पुरुष को स्वामी बनाम पति के रूप में न स्वीकार कर वह उसे केवल एक संगी एवं साथी का दर्जा देती नज़र आती है । अब नारियों के नैतिकता सम्बन्धी दृष्टिकोण में भी एक क्रांतिकारी रूप देखा जा सकता है । शुभा वर्मा के ही ’मोहतरमा‘ उपन्यास की नायिका शहला बुद्धिजीवी एवं आत्मनिर्भर नारी है, जो जीवन को अपने एंग से जीना चाहती है । जीवन के प्रति शहला के अपने विचार एवं सिद्धांत है । दहेज जैसी कुरीति के दंश को झेलकर वह विवाह का ही तिरस्कार कर देती है । वह पुरुष का सहचर्य विवाह की सीमाओं से बाहर रहकर ही करने का संकल्प करती है ।

क्षमा शर्मा का ’परछाई अन्नपूर्णा‘ उपन्यास कामकाजी स्त्री का संपूर्ण विमर्श प्रस्तुत करने का प्रयास है । नायिका विभा बाहर अपने को स्थापित करने के साथ घर, परिवार और बच्चों के साथ भी तालमेल बिठाती है । अनेक तनावों और संघर्षो से गुज़रते हुए विभा अपने दैनिक कार्यों से जुड़ी रहती है ; किन्तु अपनी सद्यजात बेटी को अपने से भिन्न ताकतवर बेटी बनाने की मुहिम में जुटकर अपनी और अपनी अगली पीढ़ी के लिए बेहतर कल की संभावनाओं का पता देती है ।

’आवां‘ उपन्यास में चित्रा मृदगल ने स्त्री विमुक्ति के प्रश्न को एक अलग ही द्दष्टिकोण से सामने रखा है । पितृ सत्तात्मक सामाजिक संस्कारोंवाले परिवार के मध्य आज की स्त्री की परंपरागत स्थिति एवं परिवर्तन का विमर्श ’आवां‘ के माध्यम से प्रस्तुत हुआ है । बचपन में मौसा द्वारा किया गया यौन दुराचार एवं माँ की चुप रहने की सलाह नमिता को जड़ बना देती है । सौतेले भाई की हवस का शिकार गौतमी आत्महत्या कर लेती है । किन्तु स्मिता अपने पर हुए अत्याचार एवं यौनाचार का बदला लेने के लिए अपने शराब में घुत्त पिता को सीढ़ियों से लुढ़काकर मार देती है । प्रस्तुत उपन्यास में लेखिका ने परिवार में बेटी की सुरक्षा के प्रश्न को उठाया है साथ ही स्मिता के रूप में भविष्य के विकल्पों को भी स्पष्ट कर दिया है कि हर स्त्री को अपना संघर्ष खुद ही करना होगा । आत्मरक्षा में उठाया गया कदम अपराध नहीं होता । स्त्री को अपनी रक्षा के लिए सोचने की जरूरत पर बल देता, उनके लिए लड़ाई की जरूरत का आधार प्रदान करनेवाला यह उपन्यास स्त्री विमर्श को एक नया आधार प्रदान करता है ।

समकालीन महिला लेखिकाओं के उपन्यासों के माध्यम से स्त्री की भयावह समस्याएँ प्रस्तुत हुई है । पितृसत्तात्मक मर्यादाओं की कड़ी आलोचना है जिसने स्त्रियों का खुला शोषण किया है । यह समकालीन कथा लेखन स्त्रियों के लिए मुक्ति का मार्ग खोजता हुआ विविध पहलुओं पर विमर्श करता हुआ पूर्ण क्षमता से प्रस्तुत हो रहा है ।

--- सम्पर्कः डॉ. दीप्ति बी. परमार प्रवक्ता-हिन्दी विभाग श्रीमती आर. आर. पटेल महिला महाविद्यालय राजकोट

COMMENTS

BLOGGER: 7
  1. सामाजिक , पारिवारिक ताने बाने की इस नेक प्रस्‍तुती के लिऐ धन्‍यवाद......सतीश कुमार चौहान भिलाई
    satishkumarchouhan.blogspot.com
    satishchouhanbhilaicg.blogspot.com

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  2. यह रचना --- --- समस्या के विभिन्न पक्षों पर गंभीरती से विचार करते हुए कहीं न कहीं यह आभास भी कराती है कि अब सब कुछ बदल रहा है।

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  3. Lalit Pandya said

    अपने सामाजिक अधिकार और हक के लिए आधुनिक नारी के संघर्ष की इस प्रस्‍तुति के लिए धन्‍यवाद

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  4. Lalit Pandya said

    अपने सामाजिक अधिकार और हक के लिए आधुनिक नारी के संघर्ष की इस प्रस्‍तुति के लिए धन्‍यवाद

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  5. Lalit Pandya said

    अपने सामाजिक अधिकार और हक के लिए आधुनिक नारी के संघर्ष की इस प्रस्‍तुति के लिए धन्‍यवाद

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  6. ---समझ मे नहीं आता नारी किस हक के लिये लड रही है, नारी विमर्श क्या है, क्यों है, संघर्ष वह किससे कर रही है , जिसे वह स्वयम जन्म देती है उससे ? ।
    ---क्या नारी को वैश्या बनाने मे सिर्फ़ पुरुष का हाथ होता है, नारियां ही साथ होती हैं, नारी, बहू, बेटी पर अत्याचार में नारियां ही पुरुष के साथ संलग्न होती हैं। अकेला पुरुष कहां कुछ कर पाता?
    ---्व्यक्तिगत बलात्कार आदि पुरुष का अत्याचार नहीं--दुष्ट अनैतिक प्रक्रति-स्वभाव-अर्थात मानव मात्र के अनाचरण का मामला है, स्त्री-पुरुष का अन्तर्संबन्ध- झगडा नहीं, मानव मात्र( स्त्री पुरुशः दोनों ) के चारित्रिक पतन का है ।
    ---संघर्ष से नहीं समत्व भाव , नैतिकता से , अप्प दीपो भव- की भावना से यह सब प्राप्त होगा।
    ---बाकी सब कथा एक भ्रम से दूसरे भ्रम में फ़ंसने जैसी है।

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  7. समकालीन महिलाओं के लेखन पर अच्छी संग्रहणीय पोस्ट ....!!

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रचनाकार: दीप्ति परमार का आलेखः समकालीन हिन्दी उपन्यासः नारी विमर्श
दीप्ति परमार का आलेखः समकालीन हिन्दी उपन्यासः नारी विमर्श
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