अधूरी आजादी ․․․․․․․․․․․․․․․․․ आजादी है अभी अधूरी पाये न जनता रोटी पूरी तंत्र लोक से दूर हुआ है अवमूल्यन भरपूर हुआ है आ...
अधूरी आजादी
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आजादी है अभी अधूरी
पाये न जनता रोटी पूरी
तंत्र लोक से दूर हुआ है
अवमूल्यन भरपूर हुआ है
आज देश टुकड़ों में बंटता जीना हुआ हराम
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम
सपनों की लाशें लावारिश
बेवश की नहीं हो गुजारिश
माली ने गुलशन मसला है
गांधी का भारत कुचला है
है मसजिद में मौन रहीम और मंदिर में राम
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम
रक्तों का व्यापार हो रहा
सदियों का आधार खो रहा
मजहब जहर उगलते सारे
लगते हैं नफरत के नारे
ओ सुभाष के यौवन जागो हो न बुरा परिणाम
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम
वन्दे मातरम् के जनगण हम
इस माटी के कणकण में हम
अमर जवान न सो पायेगा
देश धर्म पर मिट जायेगा
छीन सके न भोर का सूरज औ सिन्दूरी शाम
अभी देश को लड़ना होगा एक और संग्राम
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मेरा भारत सिसक रहा है
मौन निमंत्रण की बातें मत आज करो
अंधकार में मेरा भारत सिसक रहा है
सदियों से जो सतपथ का अनुगामी था
सत्य अहिंसा प्रेम सरलता का स्वामी था
आज हुआ क्यों शोर देश के चप्पे चप्पे
वनवासी का धैर्य आज क्यों दहक रहा है
होता सपनों का खून यहां लज्जा लुटती चौराहे पर
द्रोणाचार्य की कुटिल सीख से खड़ा एकलब्य दोराहे पर
महलों की जलती आंखों से कुटियाएं जल राख हुईं
और सुरा के साथ देश का यौवन चहक रहा है
यहां सूर्य की किरणें बंद हैं अलमारी में
यहां नित्य मिटतीं हैं कलिया बीमारी में
जहां वृक्ष भी तन पर अगणित घाव लिए हों
उसी धरा में शूल मस्त हो महक रहा है
नेह निमंत्रण की बातें स्वीकार मुझे
मस्ती राग फाग की भी अंगीकार मुझे
पर कैसे झुठला दूं मैं गीता की वाणी को
कुरुक्षेत्र में आज पार्थ भी धधक रहा है
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मेरे भारत का पार्थ
कौन हमारे नंदनवन में बीज जहर के बोता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
आज चंद्र की शीतलता आक्रांत हुई है।
किरणें रवि की भी अब शांत हुई है
मौन हवाएं भी मृत्यु को आमंत्रण देती
पाषाणी दीवारें भी अब नहीं नियंत्रण करती
शब्दकार भी आज अर्थ में खोता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
हम भूल गये सांगा के अस्सी घावों को
भुला दिया हमने अपने पौरुष भावों को
दिनकर की हुंकार विलुप्त हुई अम्बर में
सीता लज्जित आज खड़ी है स्वयंवर में
राम-कृष्ण की कर्मभूमि में क्रन्दन होता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
बौनी हो गई परम्परायें आज धरा की
लुप्त हो गयीं मर्यादाएं आज धरा की
मौन हो गयी जहां प्रेम की भी शहनाई
बेवशता को देख वेदना भी मुस्काई
रोटी को मोहताज वही जिसने खेतों को जोता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
अब सत्ता के द्वारे दस्तक नहीं बजेगी
कदम-कदम पर अब क्रांति की तेग चलेगी
निर्धन के आंसू अगर अंगार बन गये
महलों की खुशियां भी उसके साथ जलेगी
देख दशा त्रिपुरारी का नृत्य तांडव होता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
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हल्ला बोल
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भ्रष्टाचार पर हल्ला बोल
टनाचार पर हल्ला बोल
मैं कहता हूं जोर से बोल
हल्ला बोल, हल्ला बोल
जो समता के रहे विरोधी
उस प्रवृत्ति पर हल्ला बोल
सपनों में भरमाया जिसने
उस नेता पर हल्ला बोल
अर्थों में बेचा शब्दों को
उस लेखक पर हल्ला बोल
गुलशन मसला जिन हाथों ने
उस माली पर हल्ला बोल
करे जो शोषण मजदूरों का
उस शोषक पर हल्ला बोल
गन्दा करते जो मंचों को
उन कवियों पर हल्ला बोल
कदम-कदम पर ठोकर
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रत्नों से भरपूर है, पर जनता से दूर है
कदम कदम पै ठोकर खाता देश मेरा मजबूर है
धर्म ने नफरत को फैलाया
मानवता का मान घटाया
लूट गरीबी और हिंसा ने
मां भारत का चीर उड़ाया
नाव फंसी झंझावातों में अभी किनारा दूर है
कदम कदम पै ठोकर खाता देश मेरा मजबूर है
वर्ण व्यवस्था से आहत है
इंसानों का मान भी
कर्ण एकलव्य के प्रश्नों से
मौन हुआ भगवान भी
धृतराष्टी परचम के नीचे मौन हुए सब शूर हैं
कदम कदम पै ठोकर खाता देश मेरा मजबूर है
अग्नि परीक्षा सीता देती
राम हुए बदनाम हैं
बरसाता जहरीली वर्षा
आज स्वयं घनश्याम हैं
गांधी और राम के बेटे सभी नशे में चूर हैं
कदम कदम पै ठोकर खाता देश मेरा मजबूर है
अंधकार का चीर के सीना
सूरज को उगना होगा
गली गली और गांव गांव में
क्रांति बीज बोना होगा
फन कुचल दो उन नागों के जो हुए मगरूर हैं
कदम कदम पे ठोकर खाता देश मेरा मजबूर है
जबसे तुमने किया किनारा
टूट गया मेरा इकतारा।
सांस-सांस में कंपन होती
मिटा भाग्य का आज सितारा॥
हमने तुमने स्वप्न बुने थे
चांद सितारे भी अपने थे।
साथ रहेंगे साथ चलेंगे
एक दूजे के लिए बने थे॥
मधुर मिलन की बंशी बजती
खुशियां रोज द्वारे झरती।
सोना लगता था वह दिन
उपवन में जब तुम मिलती॥
सूरज भी हमसे जलता था
चंदा भी नित-नित गलता था।
फूलों की मुस्कानें रोती
हाथ भंवरा भी मलता था॥
मैंने तुमसे प्रीत बढ़ाई
तुम भी मंद मंद मुस्काई।
अम्बर धरती लगा चूमने
रजनीगंधा भी इठलाई॥
आज बिखर गये सपने सारे
बदल गये नदिया के धारे।
अलगावों के बादल छाये
बदल गये अब मीत हमारे॥
तेरे रूप का रहा पुजारी
लेकिन तुम निकली पाषाणी।
होम दिया अपने को तुम पर
रूप नगर की ओ महारानी॥
तुमने अपने पथ को मोड़ा
गैरों से अब रिश्ता जोड़ा।
प्यार मिला नफरत पीऊंगा
यादों में तेरी जीऊंगा॥
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परिचय- डॉ․ महाराज सिंह परिहार
जन्म - सूर और नजीर की माटी ताजनगरी आगरा में 29 जुलाई 1958
शिक्षा - आगरा विश्वविद्यालय से एम․एम (हिंदी/अर्थशास्त्र)
ड़क्टरेट - कन्हैंयालाल माणिक लाल मुंशी हिंदी एवं भाषा विज्ञान विद्यापीठ आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी जगत की प्रख्यात बाल साहित्यकार डॉ․ उषा यादव के निर्देशन में हिंदी पत्रकारिता के विकास में आगरा जनपद का योगदान विषय पर पी-एच․डी․
प्रकाशन - नया इन्द्रधनुष, अमर उजाला, दैनिक जागरण, सरिता, सरित सलित सहित देश के कई समाचार पत्र व पत्रिकाओं में रचनाएं सहित समसामयिक लेख प्रकाशित
प्रसारण - आकाशवाणी दिल्ली, आगरा, मथुरा आदि से कविता व अन्य साहित्यिक रचनाओं सहित समाचार साप्ताहिक समीक्षा 'गत सप्ताह' का प्रसारण
लेखन - कहानी, कविता, नुक्कड़ नाटक, रिपोर्ताज, संस्मरण, समसामयिक आलेख आदि
सम्प्रतिः डीएलए में वरिष्ठ पत्रकार
संपर्क - 48 विनय नगर, शाहगंज आगरा-282010
ईमेल - pariharms57@gmail.com
महत्वपूर्ण पोस्ट, साधुवाद
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