वैसे तो इस कमबख्त पूंछ पर कई नामी-गिरामी कलमकारों ने कई-कई बार कितना-कितना लिखा है मगर ये पूंछ है भी तो भारत-पाक सम्बंधों पर द्विपक्षीय वा...
वैसे तो इस कमबख्त पूंछ पर कई नामी-गिरामी कलमकारों ने कई-कई बार कितना-कितना लिखा है मगर ये पूंछ है भी तो भारत-पाक सम्बंधों पर द्विपक्षीय वार्ताओं जैसी, जिस पर कोई कितना भी जी भरकर लिख लें कुछ न कुछ और लिखने की गुंजाइश रह ही जाती है। आज इस पर आपको यकीन चाहे न आये मगर कल देख लेना जब किसी को लिखने के लिए कुछ भी मौजू नहीं मिलेगा तो उसे यह पूंछ ही नजर आएगी, कलम भांजने के लिए।
मैंने जब जब भी किसी पूंछधारी को अपनी पूंछ सीधी, टेढ़ी, ढीली, ऐंठ व हिला कर अपने भाव प्रकट करते देखा तब तब मुझे अपनी पूंछ विहीनता पर तरस आया। ऐसा भी नहीं है कि हमारे पूर्वजों के कभी पूंछ होती ही नहीं थी, वैज्ञानिक बता रहे हैं कि हमारे आदी मानवजी के पूंछ होती थी मगर सभ्यता की सनक में उसने पूंछ का इस्तेमाल ही नहीं किया। फलतः उसकी पूंछ घिसते-घिसते लुप्त हो गई, यानि अपने बेअक्ल अज्जाद सभ्यता जैसी हकीर चीज की खातिर पूंछ जैसी नियामत से हाथ धो बैठे। उनकी उस बेवकूफी का खामियाजा हम ही क्या हमारी अगली नस्लें भी भुगतेगी।
जो भी आप में से पुंछ की अहमियत समझते हैं उनको अफसोस तो होता होगा कि हमारे पूंछ नहीं है और मौके बेमौके पर हैरत भी होती होगी कि हमारे सिर्फ पूंछ ही नहीं है, और तो कोई कमी नहीं नजर आती। कभी-कभार पूंछ की जरुरत भी महसूस हुई होगी और इस संभावना को भी एकदम नकारा नहीं जा सकता कि इस तरफ आपका ध्यान ही नहीं गया हो क्योंकि रुढ़िवादिता कल्पनाशीलता को प्रभावित अवश्य करती है।
कुछ भी हो अगर पूंछ होती तो निश्चित रुप से शाखामृग जैसी ही होती जिसकी सहायता से शरीर पर कहीं भी बैठी मक्खी उड़ाने में सुगमता रहती। पूंछ की स्थिति देख कर मातहत अफसरों के मूड को पढ़ लेते। तेज चलते पंखें की हवा से फड़फडा़ते कागजों को टाइपिस्ट दोनों हाथों से टाइप करते-करते पूंछ से ही थामे रख लेती। भूगोल के अध्यापक दोनों हाथ जेबों में डाले-डाले ही नक्षे पर झट से पूंछ का सिरा रख कर समझा देते कि फलां स्थान यहां स्थित है। विद्यार्थी रैगिंग के समय किन्हीं दो पूंछों में खेंच के गांठ लगा देते। यानि कुल मिलाकर हर कोई पूंछ का कुछ न कुछ सार्थक उपयोग अवश्य कर लेता। मोहल्ले की खवातीन किसकी पूंछ में ऐरा लग गया है, विषय पर गपशप कर टाइम पास कर लेती।
अगर पूंछ होती तो रोजगार पर भी प्रभाव होता। हर एक अस्पताल में एक पूंछ विशेषज्ञ रखना पड़ता, शहरों, कस्बों, में गली-गली में पूंछ पार्लर होते, पूंछ को लंबा और पुष्ट करने के तेल व दवाईयां बेचने वालों की भीड़ फुटपाथों पर मिलती। डाक्टर नब्ज, सीना, पेट का चैक अप करने के बाद पूंछ को भी जड़ के पास से टटोलते कि कहीं मरीज की पूंछ ढीली तो नहीं। कलर थैरेपी में पूंछ पर एक खास रंग के कपडे़ की चिंदी बांधने में काफी सहुलियत रहती।
पूंछ होती तो यकीनन सरकारी नौकरियों में तो कद,वजन, छाती, पेट के साथ-साथ पूंछ की भी न्यूनतम लम्बाई निर्धारित की जाती जो कि मैदानी, पहाड़ी सभी लोगों पर समान रुप से लागू होती। यहां तक कि आरक्षित वर्ग को भी इस पूंछ की लम्बाई के मामले में कोई रियायत नहीं मिलती। लड़की-लड़के का रिश्ता तय करते वक्त भी इसको खास तवज्जो दी जाती। ऐसे में लड़के का बाप हाथ जोड़कर कहता भाई साहब माना कि आपका लड़का शिक्षित है, सुंदर है, अच्छी तनख्वाह लेता है मगर इसकी पूंछ देखिए इसे मैं तो क्या कोई गरीब भी अपनी बेटी देकर बिरादरी में अपनी नाक नहीं कटवाना चाहेगा। पूंछ के होने से छोटी-मोटी दिक्कतें तो आती।
आती तो आती कौन परवाह करता उनकी। दर्जियों को सिलाई करते वक्त पूंछ के लिए जगह रखनी पड़ती, जिसके चारों ओर गोटे व कसीदे का काम करना पड़ता, यात्री वाहनों में हिदायतें लिखवानी पड़ती कि चलते वाहन में यात्री अपनी पूंछ बाहर न निकाले। अखबारों में ऐसी खबरें अक्सर आया करती हैं कि एक भीड़ भरी बस में एक वृद्ध महिला यात्री की पूंछ का कचूमर निकला या रवाना हो चुकी बस में दौड़कर चढ़े यात्री की पूंछ फाटक में फंस कर कटी अथवा सरकारी अस्पताल में एक आदिवासी महिला ने एक पूंछ विहीन बच्चे को जन्म दिया, जिस विचित्र बच्चे को देखने अपार भीड़ उमड़ी।
अगर किसी को शास्त्रों के बारे में गूढ़ ज्ञान है तो उसे यह भी पता होगा कि कलियुग में बिना पूंछ वाले सभी देवगण पृथ्वी पर प्रकट नहीं हो पाएंगे, सिर्फ हनुमानजी ही हमारी रक्षार्थ आ रहे हैं।इस प्रकार हर दृष्टि से पूंछ का महत्व हैं। हमारे पूंछ होनी चाहिए, मगर है नहीं। इसके लिए हमें कुछ करना चाहिए। वैज्ञानिकों को मिसाइलें बनाने जैसे बेकार के कामों से हटा कर आदमी के पूंछ विकसित करने जैसे काम में लगा देना चाहिए। वैज्ञानिकों को इस शोध में सौ पचास वर्ष लगेंगे जो हमें कतई गवारा नहीं। जिसकी वैकल्पिक व्यवस्था के रुप में पूंछ प्रत्यारोपण की व्यवस्था की जा सकती हैं। जानवरों की पूंछें काटने के मामले में मेनका जी को मनाने की जरुरत जरुर पड़ेगी। मगर वो मान जाएगी, क्योंकि यह कोई धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र विशेष का मामला न होकर समूचे मुल्क का मामला है। कोई भी राजनीतिक पार्टी लोकसभा में पूंछ प्रस्ताव उठाएगी तो उसका टेबलें थपथपा कर जोरदार स्वागत किया जाएगा जैसा सांसदों के भत्ते व सुविधाएं बढ़ाए जाने के अवसरों पर अक्सर होता है।
जब पूंछ प्रत्यारोपण संभव हो जाएगा तो जनभावनाओं का आदर करते हुए प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंदीदा पूंछ चुनने का मौलिक अधिकार भी दिया जाएगा। ये और बात है कि कुत्ता, बिल्ली, शेर , चीता, घोङा, बंदर, लंगूर आदि श्रेष्ठ श्रेणी की पूंछें आम आदमी तक नहीं पहुंच पाएगी। उसे तो फुटपाथ पर अपने स्वयं के खर्चे से चूहे, गिरगिट या छिपकली आदि की पूंछ ही लगाकर संतोष करना पड़ेगा। खतरनाक जानवरों की पूंछें तो नेता अफसर ले उड़ेंगे। अभिनेता घोड़े या नील गायों की पूंछें पसंद करेंगे वहीं तारिकाएं व आधुनिकाएं बकरी या खरगोश जैसी छोटी पुंछे चुनेंगी ताकि देह प्रदर्शन में बाधक न बनें। बालों के विगों की तरह बाजार में स्वदेशी व आयातित कृत्रिम पूंछें भी मिलने लग जाएगी। कई अस्पतालों में तो पूंछ स्केण्डल भी होंगे। मेरे तो एक छोटी सी पूंछ उगना शुरु हो गई आप अपनी रीढ़ खम्ब के निचले सिरे को ध्यान से टटोलें कि कहीं पूंछ वाली जगह में थोड़ा बहुत उभार प्रतीत हो रहा हो।
पुरुषोत्तम विश्वकर्मा
vyangya ka kathanak leek se hat kar ek swasth vyangatmak hasya hai bhai ratalami ko esase roobroo karwane ke liye dhanyawad
जवाब देंहटाएंRAJESH VIDROHI
LADANUN NAGOUR RAJ
Rajesh ji sahana ke liye dhanyavad
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