जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास : पी कहाँ (भाग 9)

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(पिछले भाग 8 से जारी… ) - ‘भौं पू।' कुंवरसाहब ने पुकारा? -‘जी।' जैसे कुंवरसाहब को अपने ड्राइवर से मन की बात कहने में झिझक हु...

(पिछले भाग 8 से जारी…)

Janpriya lekhak 

omprakash sharma - जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा

-‘भौंपू।' कुंवरसाहब ने पुकारा?

-‘जी।'

जैसे कुंवरसाहब को अपने ड्राइवर से मन की बात कहने में झिझक हुई। अटकते से वह बोले-‘भौंपू . ... .दरवाजा बन्‍द कर दो।'

भौंपू ने आदेश का पालन किया।

-‘बैठो।'

सुनकर भौंपू चौंका-‘मैं ठीक खड़ा हूं सरकार।'

-‘हमारा हुक्‍म है बैठो।'

झिझकता सा सकुचाता सा वह बैठ गया।

-‘भौंपू, रानी मां नहीं रहीं। कोई नहीं रहा। तुम भी तो बुजुर्ग हो?'

हाथ जोड़कर भौंपू खड़ा हो गया-‘अच्‍छा होता सरकार अगर यह सुनने से पहले धरती फट जाती और मैं उसमें समा जाता। मैं हुजूर आपका दास हूं . ... .।'

-‘नहीं। बैठो . ... .बैठ जाओ भौंपू। हम तुमसे बुजुर्ग के नाते एक राय मांगते हैं . ... .पहले बैठ जाओ।'

मजबूरी थी, भौंपू को बैठना पड़ा।

-‘हमें यह बताओ कि भौंपू हम क्‍या करें? इस हवेली में हमारा मन नहीं लगता। यह हवेली हमें जिन्‍दा आदमियों के रहने की जगह नहीं श्‍मशान या कब्रिस्‍तान जैसी लगती है।'

-‘चलिए न हुजूर कुछ दिन घूम आयें।'

-‘कहां चलोगे?'

-‘कहीं भी।'

-‘सोना की ससुराल चलोगे?'

भौंपू को जैसे बिच्‍छू ने काटा।

उसका मुंह खुला और फिर बन्‍द हो गया। उसके चेहरे पर रोष स्‍पष्‍ट था- परन्‍तु वह रोष प्रकट करने की हिम्‍मत नहीं कर सका।

कुछ क्षण मौन रहने के बाद वह बोला-‘जो हुक्‍म ।'

-‘सोना की ससुराल चलना तुम्‍हें पसन्‍द नहीं है यह मैं जानता हूं।'

-‘मुझे कहीं भी जाना पसन्‍द है हुजूर।'

-‘तुम झूठ कह रहे हो।'

-‘शायद मैं झूठ की कह रहा हूं सरकार। लेकिन भौंपू को एक बार नहीं हजार बार आजमाइए। आपकी खुशी के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं।'

-‘कुछ समझ में नहीं आता कि क्‍या करें। हमारे होशोहवास शायद दुरुस्‍त नहीं हैं। इच्‍छा होती है कि खूब शराब पियें। इतनी शराब पियें कि जब तक होश रहे पीते रहें और फिर मर जायें। लेकिन सोचते हैं कि अगर जिन्‍दा रहने का कोई सहारा मिल जाए तो . ... .।'

-‘बाजार में राधा से ज्‍यादह यास्‍मीन का नाम है ।'

कुंवरसाहब हंस पड़े।

-‘नया दर्द नहीं खरीदेंगे।' सहज भाव से गम्‍भीर बात कही उन्‍होंने।

-‘जी . ... .।'

-‘तुम नहीं समझोगे भौंपू। यह सब भाग्‍य की बातें हैं। जब मालविका हमारी नहीं हुई, राधा हमारी नहीं हुई, सोना गई तो पराई हो गई भला यास्‍मीन से हम क्‍यों उम्‍मीद करें। हम सोना के गांव चलना चाहते हैं। हम सोना से पूछना चाहते है वह किस कीमत पर हमें जिन्‍दा रखना चाहती है . ... .।'

-‘जी।'

-‘अब जो तुम्‍हारे मन में है वह कहो।'

-‘कहूं सरकार?'

-‘हां कहो, हम बुरा नहीं मानेंगे।'

-‘सोना इस घर की दासी होने लायक है। वह आपके पास खड़ी भी अच्‍छी प्रतीत नहीं होगी।'

-‘कुछ और कहो।'

-‘राधा की मैं इज्‍जत करता हूं।'

-‘कुछ और भी कहना चाहोगे?'

-‘छोटा मुंह बड़ी बात है सरकार। पहले माफ कर दें। आपके लिए एक नहीं दस स्‍त्रियां हाजिर हैं। मेरी राय है हुजूर शादी करें . ... .।'

-‘कुछ और . ... .।'

-‘पन्‍द्रह दिन में अगर पन्‍द्रह रिश्‍ते न ला दूं तो नाम नहीं।'

-‘कुछ और . ... .।'

-‘बस सरकार।'

-‘अब हमारी सुनो। भाग्‍य से विपरीत चलकर कोई जी सकता है इसका हमें विश्‍वास नहीं है। मालविका मेरी होकर भी मेरी नहीं हो सकी, राधा मेरी होकर भी खो गई और सोना . ... .।' कुंवरसाहब हंस पड़े। जबरदस्‍ती की हंसी।

उस हंसी ने जैसे भौंपू की दुखती रग दबा दी। उसकी आंखें छलछला उठीं। वह कुंवरसाहब के स्‍वभाव और उनके दुख सुख से परिचित था।

कुछ झूठ नहीं कहा था कुंवरसाहब ने।

भौंपू सोचने के लिये बाध्‍य हुआ कि सुख खरीदे नहीं जा सकते। अगर सुख खरीदे जा सकते तो आज कुंवरसाहब की स्‍थिति यह न होती।

कितने स्‍नेह से उन्‍होंने मालविका को अपनाने की कोशिश की परन्‍तु वह न मिल सकी।

कभी उन्‍होंने राधा नहीं दुत्‍कारा, परन्‍तु जाने वह स्‍वयं ही कहां गुम हो गई।

और सोना . ... .!

भौंपू की समस्‍त झुंझलाहट लुप्‍त हो गई।

-‘हुजूर।'

अपने विचारों में उलझे से कुंवरसाहब ने चौंक कर उसकी ओर देखा-‘तुमने कुछ कहा?'

-‘गाड़ी तैयार करुं?'

-‘कहां चलोगे?'

-‘सोना की ससुराल।'

-‘हां . ... . मैं चाहता था कि . ... .।'

-‘आप फिक्र न करें। आपका नमक खाया है। जब आप चाहते हैं कि वह यहां इस हवेली में रहे तो वह रहेगी, फिर वह चाहे या न चाहे।'

-‘भौंपू।' चौंकते से कुंवरसाहब बोले।

-‘सरकार वह गांव मेरा खूब जाना पहचाना है। अगर दिन दहाड़े उसे उठवा न लाउं तो नाम भौंपू नहीं।'

-‘तब फिर मत चलो।'

-‘हुजूर . ... .।'

-‘मैं तुम्‍हें अपना बुजुर्ग मानता हूं। मुझे गलत रास्‍ते पर, उस रास्‍ते पर जिस पर मेरे बुजुर्ग चले हैं मुझे मत घसीटो, मेरे सिर पर खानदानी पापों की बहुत बड़ी गठरी है मैं उस बोझ से ही दबा जा रहा हूं और बोझ सहन नहीं कर सकूंगा।'

0000

उस दिन जान बूझकर ही कुंवरसाहब ने जाना टाल दिया।

परन्‍तु वह दिन ऐसे बीता जैसे पहाड़ ! और रात . ... .रात तो बिताए न बीती।

किसी प्रकार भोर हुई। शेव करने की, नहाने की इच्‍छा नहीं हुई। प्रातः ही भौंपू उन्‍हें लेकर चल पड़ा।

वह लगभग दस बजे सोना की ससुराल वाले गांव पंहुच गए। अभी उस गांव वाला उनका अनार का बाग श्‍ौशव अवस्‍था में था। अलबत्‍ता उसी बाग में एक विशाल वट वृक्ष छांव लिए था, और छोटी सी कोठी रानी साहिबा के आदेश से बनी थी। कुंवरसाहब उसी कोठी में ठहरे। एक वृद्ध माली उसकी देखभाल करता था।

उस गांव के नम्‍बरदार मिलने आए। जाने कैसे उन्‍होंने रिश्‍तेदारी निकाली कि वह कुंवरसाहब के बड़े भाई लगते हैं-जबरन कुंवरसाहब को अपने यहां ले गए। कभी देखा नहीं, कभी परिचय नहीं हुआ लेकिन नम्‍बरदार पत्‍नि सहज ही उनकी भाभी बन गई।

यह रिश्‍तेदारी कुंवरसाहब को उस क्षण भली ही लगी।

भाभी नम्‍बरदारनी खूब ठठोली पसन्‍द थी। कुछ देर में ही अच्‍छी खासी बेतकल्‍लुफी हो गई।

भौंपू की बजाए कुंवरसाहब ने नम्‍बरदारी भाभी को राजदार बनाना उचित समझा। उससे स्‍पष्‍ट कह दिया कि वह हीरा की पत्‍नि सोना ने मिलना चाहता है।

नम्‍बरदारनी भाभी ने उलाहना दिया-‘हां देवर जी। वह राजा ही क्‍या जिसके दो चार ऐसी वैसी न हों। कौन बड़ी बात है। वह तो अकेली ही घर में सास ननद सभी कुछ है, लाए देती हूं अपने राजा के दिल की तसल्‍ली।'

अपने नए देवर का काम करने नम्‍बरदारनी भाभी बड़े उत्‍साह से गई। परन्‍तु जिस उत्‍साह से गई थी उस उत्‍साह से लौटी नहीं।

कुंवरसाहब ने पूछा-‘अकेली ही लौटी भाभी।'

-‘हां देवर जी। बाप रे बाप! हीरा की दुल्‍हन तो जितनी के उपर है उतनी ही नीचे है।'

-‘तो वह नहीं आई?'

-‘नहीं।'

-‘क्‍या कहा?'

-‘जो कहा है वह सुनने लायक नहीं है देवर जी।'

-‘जानूं तो?'

-‘न जानें तो अच्‍छा है। मैं उसे दोष क्‍यों दूं आपसे झगड़ने का मन करता है। भला वह सिर चढ़ाने लायक औरत है?'

-‘भाभी।' कुंवरसाहब जैसे कराह उठे।

-‘जिक्र मत कीजिए उस कलमुंही का।'

-‘पांव पड़ता हूं भाभी! बता दीजिए . ... .।'

-‘जानते हैं मुझसे क्‍या कहा। आंखें तरेरी नाक सिकोड़ी और बोली -‘नम्‍बरदारनी मैं क्‍या कोई पतुरिया हूं जो इस तरह बुलाने आ गई।'

-‘उसने आप से यह कहा?'

-‘फिक्र मत करो। सब बदले चुका लूंगी। पानी में रहकर मगर से बैर। मैंने भी कह दिया पतुरिया नही ंतो उस जमीन के कागज मुझे दे जो मेरे देवर से लाई है। नहर के नीचे की जमीन पर कब्‍जा जमाया है।'

-‘और क्‍या कहा उसने?'

-‘कहने लायक उसका मुंह ही कहां है देवर जी। जब मैंने डांट दी तो पांव पकड़ कर रोने लगी। लेकिन है जहर से बुझी छुरी। मैं तो जब जानती कि कागज मुझे थमा देती। कहने लगी . ... .।'

-‘क्‍या कहने लगी?'

-‘बात सुनने लायक नहीं है।'

-‘भाभी तुम्‍हें सौगन्‍ध है। पहेली मत बुझाओ। जो उसने कहा है साफ साफ बता दो।'

-‘उस नासपीटी ने कहा कि . ... .कहा कि नम्‍बरदारनी कौन औरत होगी जो टूटी नाव में पार जाना चाहेगी। किस बूते पर हीरा को छोड़कर कुंवरसाहब के पास चली जाउं? मुझे घर की दासियों ने बताया है कि शराब पीकर उन्‍हें दिल का रोग लगा है। किसी भी वक्‍त . ... .ओह देवर बाबू आप जियें हजारों साल। वह तो आपके दुश्‍मनों को मारना चाहती है।'

सुनकर कुंवरसाहब का चेहरा सफेद हो गया।

वह नम्‍बरदारनी के रोके रुके न नम्‍बरदार के।

भौंपू को आदेश दिया कि वह तुरन्‍त घर लौट चले। उन्‍होंने खाना भी नहीं खाया।

गाड़ी गांव से तीन मील दूर आ गई थी।

यकायक कुंवरसाहब ने पूछा-‘भौंपू।'

-‘जी।'

-‘सोना का घर तो तुमने देखा है?'

-‘जी।'

-‘वहां कार जा सकती है?'

-‘जी, गांव के दूसरे छोर पर है।'

-‘लौट चलो, मुझे सोना से दो बात करनी है।'

भौंपू ने गाड़ी मोड़ ली।

गंव से तनिक अलग एक छोटे से कच्‍चे मकान के सम्‍मुख गाड़ी रोकते हुए भौंपू ने कहा-‘सोना को बुला कर लाउं सरकार?'

-‘यही घर है?'

-‘जी।'

-‘मैं खुद जा रहा हूं।'

दरवाजा खुला था।

कुंवरसाहब ने अन्‍दर पांव रक्‍खा। आंगन में सोना गेहूं बीन रही थी।

कुंवरसाहब को देख कर सोना चौंकी।

वह उठ रही थी तब हाथ से थाली गिर पड़ी।

कुछ क्षण दोनों एक दूसरे को देखते रहे।

फिर यकायक वह अन्‍दर कोठे की ओर झपटी, अन्‍दर पंहुच कर उसने तड़ से दरवाजा बन्‍द करके कुंडी चढ़ा ली।

धीरे-धीरे चलते कुंवरसाहब दरवाजे तक पंहुचे।

शान्‍त स्‍वर में उन्‍होंने कहा-‘सोना मैं ऐसा जानवर तो नहीं था कि तुम मुझे देखकर इस तरह छुप जाओ।'

कोई उत्‍तर नहीं मिला।

-‘विश्‍वास करो सोना। मैं यहां रुकने नहीं आया हूं। मैं तुरन्‍त लौट जाउंगा। मुझे केवल एक बात का उत्‍तर चाहिये, मैं यह जानना चाहता हूं कि क्‍या वह सब तुमने कहा है जो मुझे नम्‍बरदारनी ने बताया है?'

उत्‍तर नहीं मिला।

वह फिर बोले-‘बिना जवाब पाये मैं नहीं जा सकूंगा। मुझे सिर्फ हां और ना में उत्‍तर चाहिए।'

जवाब मिला-‘हां।'

-‘तुमने बिल्‍कुल ठीक कहा सोना। जिन्‍दगी मौत से दोस्‍ती क्‍यों करे। तुम सुख से रहो सोना, सदा सुखी रहो।'

कुछ क्षण बाद जब सोना ने दरवाजा खोला तो कार कई फर्लांग दूर जा चुकी थी।

0000

दर्द से सिर फटा जा रहा था।

हर वस्‍तु, हर व्‍यक्‍ति . ... .घृणास्‍पद लगता था।

इच्‍छा होती थी कि कपड़े फाड़ फेंके और बीच चौराहे पर अपना सिर पटक पटक कर विलाप करें।

पागलपन !

तो क्‍या यह पागलपन के लक्षण हैं?

कुंवरसाहब ने अपने आपको सम्‍भालने की चेष्‍टा की। नहीं वह किसी भी स्‍थिति में होश नहीं गंवाएंगे।

तीसरे पहर वह वापस अपनी हवेली पंहुचे।

उन्‍हें सहारे की जरुरत थी। मानो चकरा कर गिर पड़ेंगे, फिर भी वह किसी प्रकार अपने कमरे में पंहुचे और कटे वृक्ष की भांति बिस्‍तरे पर गिर पड़े।

-‘अरे कोई है, एक गिलास पानी दो।'

किसी ने नहीं सुना।

कुंवरसाहब प्‍यासे ही बिस्‍तरे पर छटपटाते रहे और फिर इस दुखी इन्‍सान पर ममतामयी निद्रा हो दया आ गई और कुंवरसाहब गहरी नींद सो गए।

तो क्‍या वास्‍तव में यह नींद थी।

या विधाता ने श्राप बोध कराने के लिये यह माया रची थी?
या . ... .मन के उलझे विचारों की प्रतिक्रिया थी?

कुंवरसाहब विचित्र सपना देखते हैं।

कहीं दूर सितारे और अनेकों चाँद चमक रहे हैं।

मनोरम रंगीन चाँदनी !

मनोरम घाटियों के स्‍वर मंगलवाद्‌य शहनाई पर राग भैरवी के मंगल स्‍वर।

सुन्‍दर सजीली दुल्‍हनें। हाथों में आरती का थाल सजाए। कहीं बढ़ी जा रहीं हैं। अनेकों . ... .सैकड़ों . ... .।

सभी दुल्‍हन कुंवरसाहब को नफरत और भय से देखती हुई आगे बढ़ जाती हैं और थाल में जलते दीप को आंचल से छुपा लेती हैं।

यकायक दृश्‍य बदल जाता है।

वह पहचानते हैं यह उनकी जागीर का किला है।

सुनसान। कहीं कोई आवाज नहीं। निस्‍तब्‍धता।

फिर गहरी लाल रोशनी।

कुंवरसाहब अजीब-अजीब दृश्‍य देखते हैं।

किले में गांव की कोई दुल्‍हन उठाकर लाई जा रही है। वह चींख रही है। चिल्‍ला रही है। कोई राक्षस जैसा व्‍यक्‍ति उसे अपनी बांहों में भर लेता है।

गांव की कोई बेटी उठाकर लाई जा रही है, चींखती चिल्‍लाती वह अबला कुछ देर बाद लुटी लुटी सी किले की प्राचीर पर दिखाई पड़ती है और फिर किले की दीवार से कूद जाती है।

फिर इसी प्रकार की लुटी लुटी सी अनेकों स्‍त्रियां।

कोड़ों से पिटते हुए किसान !

कानों के पर्दे फाड़ देने वाला शोर।

और उस शोर से उपर एक गम्‍भीर आवाज . ... .‘सुन तेरे पुरखों ने स्‍त्रियों की आबरु को मिट्‌टी के ठीकरे से अधिक नहीं समझा। जाने कितनी बहू बेटियों ने आत्‍म हत्‍या की, जाने कितनी इस किले में जिन्‍दगी भर घुटती रहीं . ... .वह सब तुझे श्राप देती हैं एक साथ हजारों आत्‍माएं श्राप देती हैं, तुझे पत्‍नि सुख न मिले तुझे पत्‍नि सुख न मिले . ... .तुझे पत्‍नि सुख न मिले . ... .।'

चौंक कर कुंवरसाहब जाग गए।

कानों में अब भी वह स्‍वर गूंज रहे थे।

वह उठे। किसी को पुकारा नहीं। स्‍वयम्‌ पानी पिया। उन्‍होंने मेज से कागज और पैन उठाया।

लिखा-

बिदा,

जीवन तुझे नमस्‍कार !

मृत्‍यु मेरी प्रेयसी . ... .।

इतना लिखकर कागज उन्‍होंने बीच मेज पर रख दिया, उपर से रक्‍खा पेपर वेट।

उन्‍होंने स्‍वयं अलमारी खोलकर उसमें से व्‍हिस्‍की की बोतल निकाली।

लगभग एक तिहाई बोतल उन्‍होंने गिलास में डाल ली।

फिर एक ही सांस में गिलास खाली कर दिया।

इसके बाद लगभग पन्‍द्रह मिनिट तक वह बेचैनी की चाल से कमरे में ही टहलते रहे।

फिर और !

फिर और ।

बोतल खाली हो गई।

फिर वह कमरे से बाहर आ गये।

वह हवेली से बाहर आ गए।

वह हवेली से कुछ दूर आ गए . ... .वह मुड़े। हवेली की ओर हाथ जोड़े और फिर चल पड़े।

सड़क पर एक रिक्‍श्‍ो वाले ने टोका-‘हुजूर कुंवरसाहब रिक्‍शा . ... .।'

वह बैठ गए। उतरे छोटे से बस अड्‌डे पर। प्राईवेट बस का कन्‍डक्‍टर चिल्‍ला रहा था-‘गंगा घाट को आखिरी बस, जल्‍दी बैठो।'

वह आगे ड्राईवर के पास वाली सीट पर बैठ गए।

कुछ मिनिट बाद अपनी सीट पर ड्राईवर आया-‘सलाम कुंवरसाहब। गंगा घाट चल रहे है।?'

-‘हां।'

बस चल पड़ी। कुंवरसाहब को नमस्‍कार करने के चक्‍कर में कन्‍डक्‍टर को फेरी पर किताबें बेचने वाले को चलती बस से उतारना पड़ा।

कन्‍डक्‍टर ने आकर कहा-‘कुंवरसाहब नमस्‍ते।'

कुंवरसाहब ने अपना पर्स निकालकर कन्‍डक्‍टर के हाथ पर रख दिया।

-‘यह भी कोई बात हुई कुंवरसाहब। यह बस मोती बाबू की है। मोती बाबू आपकी रैयत हैं। बस आपकी है, हम आपके नौकर हैं। मैं तो सिर्फ नमस्‍ते करने आया था . ... .।'

-‘पर्स के रुपये गिनो।'

कन्‍डक्‍टर ने आदेश का पालन किया। गिनकर कहा-‘सात सौ छब्‍बीस।'

-‘हमारी तबीयत ठीक नहीं है, पर्स अपने पास रक्खेा। अगर हमें होश न रहे तो गंगा घाट के पण्‍डे रामधन तक हमें और पर्स को पंहुचा देना . ... .।'

कुछ क्षण कन्‍डक्‍टर इस मजाक का मतलब नहीं समझ पाया। बड़े लोगों की बातें . ... .बोला-‘जो हुक्‍म सरकार।'

बस तेजी से दौड़ रही थी।

सूरज डूब रहा था।

वातावरण का उजाला समाप्‍त होता जा रहा था।

अंधेरा रात हो गई।

बस जब गंगा घाट पर पंहुची तो ड्राईवर और कन्‍डक्‍टर अवाक रह गए।

कुंवरसाहब सीट पर बेहोश पड़े थे।

तुरन्‍त ही पण्‍डा रामधन को बुलाया गया।

कन्‍डक्‍टर ने उनके हाथ पर पर्स रखकर कहा-‘लो पण्‍डा जी सात सौ छब्‍बीस रुपये गिन लो। कुंवरसाहब ने कहा था कि . ... .।'

बूढ़ा पण्‍डा रो पड़ा। कुंवरसाहब की नब्‍ज डूब रही थी।

-‘भाई . ... .हवेली पर खबर करो। डाक्‍टर को शहर से लाओ। क्‍या हो गया मेरे कुंवर जी को . ... .। इन्‍हें उठाकर घाट तक ले चलो कोई कुंवर जी . ... .।'

कुछ यात्री कुंवरसाहब को उन्‍हीं के पूर्वजों के बनवाये हुए घाट की ओर लेकर चलते हैं।

बस हवेली पर सूचना देने वापस जाती हैं।

 

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(क्रमशः अगले अंक में जारी…)

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास : पी कहाँ (भाग 9)
जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास : पी कहाँ (भाग 9)
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