सुखनंदन एडवोकेट सिविल कोर्ट, आजमगढ़, उ.प्र., 276001 दिनकर हिन्दी के उन कुछ एक साहित्यकारों में से हैं, जिनकी प्रतिभा का लोहा चिन्त...
सुखनंदन एडवोकेट
सिविल कोर्ट, आजमगढ़, उ.प्र., 276001
दिनकर हिन्दी के उन कुछ एक साहित्यकारों में से हैं, जिनकी प्रतिभा का लोहा चिन्तन के क्ष्ोत्र में भी माना जाता है। उनकी इस असाधारण ख्याति का कारण है उनकी रचना ‘संस्कृति के चार अध्याय'। संस्कृति से संबंधित अध्ययनों में इस पुस्तक को एक अनिवार्य पठनीय संदर्भ ग्रंथ के तौर पर मील के पत्थर की हैसियत प्राप्त है। दिनकर के रचना संसार के संस्कृति के चार अध्याय की स्थिति अन्य काव्य रचनाओं से कुछ अलग सी है। न केवल इसमें अभिव्यक्ति के रूप (गद्य) की भिन्नता है, बल्कि इसमें उनका स्वर भी और उनके निष्कर्ष भी भिन्न हैं। यह भिन्नता बहुत मानीखेज है और दिनकर की वास्तविक छवि का निर्माण करते हुए इसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। दिनकर पर विचार करते समय इस भिन्नता का इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि यह दिनकर प्रेमियों और पाठकों को दो भिन्न दिशाओं में प्रेरित करती है।
भारत के स्वाधीनता आंदोलन को हिंदी कविता में सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति देने वाले रामधारी सिंह दिनकर, विशाल जन समुदाय की आकांक्षा को अपनी ओजस्वी वाणी से मुखरित करने वाले अद्वितीय कवि हैं। पुरातन विपथगामी परम्पराओं और प्रवृत्तियों पर उन्होंने प्रगतिशील संभावनाओं का वज्राघात किया था। जीवन और जगत के दमनकारी यथार्थ को बदलने और मानवीय उत्थान के नए शिखर की ओर द्रुत गति से बढ़ते जाने की अदम्य भावना दिनकर के काव्य का प्राणतत्व है। शोषण-दमन और प्रगति की राह में आने वाली बाधाओं से समझौता हीन संघर्ष दिनकर के काव्य का स्थाई भाव है। उनके लिए अत्याचार करने वाला ही नहीं अहिंसक बनकर प्रतिरोध करने वाला भी पाप का भागी है। ‘प्रणभंग' में भीष्म पितामह जैसे ज्ञान वृद्ध पात्र के माध्यम से दिनकर की मान्यता है-
छीनता हो स्वत्व कोई, और तूं
त्याग तप से काम ले यह पाप है
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है।[1]
अपनी कविताओं में दिनकर ने न तो भारतीय संस्कृति और अतीत का महिमामंडन किया और न ही वर्तमान व्यवस्था से उन्होंने कोई झूठी उम्मीद पाली। उन्होंने धर्म-जाति और लैंगिक भेदभाव पर आधारित संस्कृति की निर्मम आलोचना की और मौजूदा व्यवस्था में व्याप्त गैरबराबरी और शोषण के कटु यथार्थ को उसके नग्न रूप में सामने रखा- स्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बच्चे अकुलाते हैं/ मां की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं/ युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाये जाते हैं।[1]
समाज में फैली इस भीषण दरिद्रता का कारण मुट्ठी भर ‘देवताओं' द्वारा अपनी विलासिता के लिए खड़ा किया गया स्वर्ग है और बिना इस स्वर्ग की संपत्ति को बलपूर्वक हासिल किए, यह दरिद्रता नहीं मिटने वाली। दिनकर ने यह जिम्मेदारी खुद उठाते हुए चुनौती दी- हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं/ ‘दूध-दूध' ओ वत्स, तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।[1] शोषक और शोषितों के बीच किसी काल्पनिक समन्वय से इस समानता का समाधान यहां होने वाला है। उसके लिए व्यवस्था से संघर्ष अनिवार्य है। युगों-युगों से अन्याय और दमन की सत्ता के शिकार जनगण को प्रतिशोध में उठ खड़े होने और इस व्यवस्था को बदल देने के लिए दिनकर आह्वान करते हैं-
पिलाने को कहां से रक्त लाएं दानवों को?
नहीं क्या स्वत्व है प्रतिशोध का हम मानवों को?
जरा तूं बोल तो, सारी धरा हम फूंक देंगे;
पड़ा जो पंथ में गिरि कर उसे दो टूक देंगे।
कहीं जो पूछने बूढ़ा विधाता आज आया;
कहेंगे, हां, तुम्हारी सृष्टि को हमने मिटाया।[1]
सत्ताधारियों ने अपने वर्चस्व की निरंतरता के लिए समूचे समाज को धमोंर्-संप्रदायों, जातियों, मत-मतांतरों में विभाजित किया था, जिसका कोई भी प्राकृतिक आधार नहीं है। समाज में मौजूद गैर बराबरी और भेद-भाव प्राकृतिक या ईश्वरकृत नहीं है, यह इस सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है ‘नीचे हैं क्यारियां बनीं तो बीज कहां जा सकता है?' इस व्यवस्था का विरोध करते हुए दिनकर मनुष्य को उसके कर्म और गुणों से पहचानने का आग्रह करते हैं। विभेदात्मक संस्कारों से ग्रसित प्राणी स्वाधीन राष्ट्र और जनवादी व्यवस्था को कुत्सित करता है। स्वतंत्र भारत में इस प्रवृत्ति का दिनकर ने खुल कर प्रतिवाद किया है-
घातक है जो देवता सदृश दिखता है
लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है
जिस प्राणी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा है
समझो उसने ही हमें यहां मारा है।[1]
स्वाधीनता आंदोलन की उमंगों में होश संभालने वाले दिनकर ने जो कुछ अपनी प्रौढ़ावस्था में देखा, अत्यंत विक्षुब्धकारी था। स्वाधीनता आंदोलन के कर्णधार ही भारत के भाग्यविधाता बने थे। दिनकर के शब्द उस कुटिल विसंगति को उजागर करते हैं, जिसमें आस्था की आड़ में देव मूर्तियों की तश्करी होती है और ‘मंदिर का देवता, चोर बाजारी में पकड़ा जाता है।'
‘हुंकार', ‘रेणुका', ‘कुरुक्ष्ोत्र', ‘रश्मिरथी', ‘उर्वशी' जैसी रचनाओं से दिनकर हिंदी काव्य जगत में शीर्षस्थ यशस्वी कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। कवि सम्मेलनों के माध्यम से उन्हें जबरदस्त लोकप्रियता प्राप्त हुई। असाधारण प्रतिष्ठा पाकर भी दिनकर ने यहीं विराम नहीं लिया। सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्र निर्माण की दिशा और दृष्टि की सुस्पष्टता के लिये उन्होंने ‘संस्कृति के चार अध्याय' की रचना की। यह महाग्रंथ उनके गहन अध्ययन, वैचारिक सहिष्णुता और राष्ट्रीय बंधुत्व की भावना को सुदृढ़ पृष्ठभूमि देने की महत्वाकांक्षा से अनुप्राणित सृजनशीलता का सुपरिणाम है। हिंदी साहित्य के इतिहास में पहली बार किसी कवि ने इतिहास, परम्परा, धर्म, दर्शन जैसे साहित्येतर क्ष्ोत्रों में इतना सशक्त हस्तक्ष्ोप प्रस्तुत किया। यशस्वी कवि और संवेदनशील राष्ट्रवादी चिंतक के रूप में दिनकर ने राष्ट्रीय एकता एवं सांस्कृतिक समन्वय का जो स्वप्न देखा संस्कृति के चार अध्याय उसका मूर्तरूप है।
दिनकर की कविताओं में मानवतावादी आदर्श, न्यायपूर्ण व्यवस्था की कामना तथा ओज एवं पौरुष की उन्मुक्त उड़ान है। अपनी स्वतंत्र प्रवृत्ति के कारण दिनकर का काव्य न केवल उन्हें हिंदी का शीर्षस्थ कवि सिद्ध करता है बल्कि भारत की सीमाओं को पार कर विश्व के काव्य जगत में प्रतिष्ठा पाने में समर्थ है। यह भविष्य निर्णय करेगा कि विश्व के श्रेष्ठतम कवियों की पंक्ति में दिनकर का स्थान कौन सा है। दिनकर ने ‘संस्कृत के चार अध्याय' की रचना में अपनी कविताओं की रचना प्रक्रिया से नितांत भिन्न पद्धति का अनुसरण किया है। उन्होंने फूंक-फूंक कर कदम रखते हुए एक-एक विषय को लिया और चुन-चुन कर संदर्भों के साथ अपनी विवेचना प्रस्तुत की है। अपनी दिशा और दृष्टिकोण के अनुरूप दिनकर ने वेद, उपनिषद, कुरान, बाइबिल तथा विभिन्न धर्म ग्रंथों एवं समाज सुधारकों और मनीषियों आदि के साक्ष्य के आधार पर अपना यह ग्रंथ निर्मित किया है।
दिनकर की गद्य रचनाओं में ‘संस्कृति के चार अध्याय' न केवल आकार में विशाल है वरन धार्मिक तथा दार्शनिक ग्रंथों में निहित प्रमुख तत्वों के गहन अध्ययन-विश्लेषण के जरिये मानवतावादी जनवादी मूल्यों का प्रतिपादन है। संस्कृत, बंगला, फारसी, उर्दू आदि भाषाओं के ग्रंथों तथा विभिन्न विचारकों के उद्धरणों और व्याख्याओं तथा सटीक निष्कर्षों की प्रस्तुति के कारण यह ग्रंथ हिंदी पाठकों के लिये अद्वितीय है। जिन बुद्धिजीवियों-पाठकों को लक्ष्य बनाकर यह ग्रंथ लिखा गया- उन्होंने उत्सुकतापूर्वक इसका समादर भी किया। भारत भूमि पर वैदिक काल से लेकर अपने युग तक के इतिहास को दिनकर ने चार क्रांतियों के आधार पर चार अध्यायों में विभाजित किया है, जिसे 1962 के द्वितीय संस्करण में अंतिम रूप ।
इस ग्रंथ का प्रथम अध्याय, भारत के मूलवासियों से आयों के ‘मिलन' से संबंधित है, जिससे ‘भारत की बुनियादी संस्कृति बनी।'[1] महावीर और गौतम बुद्ध का यज्ञवाद और उपनिषदों की चिंतन धारा के विरुद्ध विद्रोह दूसरे अध्याय का विषय है। विजेताओं के धर्म के रूप में इस्लाम का हिंदुत्व के साथ संपर्क तीसरे अध्याय का तथा भारत में यूरोपीयों के आगमन का हिंदुत्व और इस्लाम दोनों पर प्रभाव चौथे अध्याय के विषय हैं। भारत व्यापी विविध परम्पराओं, मान्यताओं, तथा विद्वानों की स्थापनाओं से उन्होंने संवाद के साथ जहां-तहां असहमति, छेड़-छाड़ और प्रतिवाद भी किया है। प्रथम अध्याय में कतिपय रोचक संदर्भ दर्शनीय है-
‘‘आर्य शब्द की व्युत्पत्ति ऋ धातु से बताई जाती है जिसका अर्थ गति होता है। आर्य कदाचित् गत्वर (घुमक्कड़) लोग थे। एशिया के रेगिस्तानी इलाकों से निकलकर जब वे भारत में पंहुचे, यहां की उर्वरा धरती ने उनके घुमक्कड़ स्वभाव को बदल दिया...।''[1]
‘‘जिन लोगों को आयों ने दास-दस्यु, निषाद, अनास और शिश्नदेवा कहा है, उनसे आयों की मुठभेड़ केवल भारत आकर हुई, यह बात बहुत समीचीन नहीं दिखती।...आयों का संघर्ष इन सभी लोगों से हुआ था, जिसकी प्रतिध्वनि वैदिक साहित्य में अत्यंत परिवर्तित रूप में सुनाई देती है।''[1]
‘‘जब आर्य यहां आए, उससे पहले ही सभ्यता का विकास यहां हो चुका था और धर्म तथा संस्कृति के अंग रूप ग्रहण कर चुके थे। आयों ने इन सबको लेकर आर्य धर्म का संगठन किया।''[1]
‘‘उन्होंने इसी वेद-पूर्व सभ्यता को भारतीय सभ्यता का आधार बनाया।''[1]
दिनकर की दृष्टि में समाज का ध्यान मानव उत्पीड़न से हटाकर धर्म के सूक्ष्म तत्वों की ओर ले जाना उपनिषदकारों का उद्देश्य था। सारी सृष्टि के ब्रह्ममय होने और मोक्ष जैसा समाधान मनुष्य की असली समस्याओं के निवारण के लिए था, जिसमें जीवन-मरण की समस्या भी है।[1] इस चिंतन धारा में बहने वाले वैरागियों और सन्यासियों की संख्या उतरोत्तर बढ़ी गई थी। ‘‘अज्ञात रूप से वेदों के इषत विरुद्ध सोचना उपनिषदकारों ने आरम्भ किया था और जनता के मन पर से वेदों के प्रभुत्व को उखाड़ फेंकने की सच्ची कोशिश महावीर और बुद्ध ने की।''[1]
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे पंचव्रत पर आधारित कर्मवादी जैनधर्म परिष्कृत तथा उन्नत जीवन बनाने का माध्यम है। जैनधर्म की भांति, बौद्ध धर्म भी यज्ञ विरोधी, पशुहिंसा विरोधी, वेदों की प्रामाणिकता को अस्वीकारने वाला, प्रचलित जनभाषा में उपदेश देने वाला था। जैन धर्म से बौद्ध धर्म की भिन्नता तो विशेषकर क्षणिकवाद, नैरात्मवाद, शून्यवाद और विज्ञानवाद आदि एकांतिक दृष्टिकोण से थी। बुद्ध ने तप और भोग के बीच से मध्यम मार्ग का अनुसरण किया।[1] बुद्धदेव ने (1) जातिप्रथा को चुनौती दी, (2) शास्त्रों का तिरस्कार किया और (3) मनुष्य की स्वतंत्र बुद्धि को स्फुरण प्रदान किया।[1] दिनकर के अनुसार तथागत बुद्ध द्वारा घोषित चार आर्य सत्य तथा अष्टांगिक मार्ग जीवन में उतारने योग्य हैं। ‘यह धर्म का बड़ा ही व्यावहारिक रूप था' इस कारण ‘‘समाज में जो वर्ण ब्राह्मण से जितना ही दूर था, वह बौद्ध धर्म की ओर उतने ही वेग से खिंचा।''[1] अपनी लोकप्रियता के कारण ही बौद्ध धर्म विश्वधर्म बन गया। आगे चलकर जब जैन और बौद्ध धर्म स्थापित हो गए तो स्वयं संघ संपत्ति और विलासिता के केंद्र बन गए जिसके चलते उन्हें ब्राह्मणों तथा उनके समर्थक शासकों के प्रहार झेलने पड़े। वेद-उपनिषद, ब्राह्मणग्रंथों, गीता, जैन-बौद्ध धर्मों, वैष्णव, शैव, शाक्त सम्प्रदायों तथा संत परम्पराओं के सटीक विवेचन के साथ संस्कृत के चार अध्यायों में से दूसरा संपूर्ण होता है।
तीसरा अध्याय ‘हिंदू संस्कृति और इस्लाम' है। इस्लाम का जन्म धर्म के रूप में हुआ था किंतु परिस्थितियों ने उसे राजनीतिक रूप दे दिया। खलीफा मुसलमानों के राजा भी थे और धर्मगुरू भी। आचार और विचार में सरल इस्लाम ने समानता की शिक्षा से अत्याचार से पीड़ितों को एकताबद्ध किया और धर्म विजय के नाम पर खड़गवाद ने 100 वर्षों में दुनिया का सबसे शक्तिशाली राज्य स्थापित किया।
मुसलमान आक्रामक पहले लूटपाट के लिए भारत में आते थे किंतु पृथ्वीराज चौहान और जयचंद की पराजयों के बाद स्थापित मुसलमानी हुकूमत ने हिंदू शासकों की शासन परम्परा को चकनाचूर कर दिया। उस समय भारत में धार्मिक संप्रदायों, जातियों में विभाजित, शोषण उत्पीड़न के शिकार बहुसंख्यक किसान, शिल्पी और दासों को भांति-भांति के कर देने अतिरिक्त शासन और राज्य व्यवस्था में दखलंदाजी का कोई हक नहीं था। ‘कोउ नृप होइ हमहिं का हानी' की तर्ज पर शासक बदलने पर भी उपज का 1/2 से 1/5 तक देना ही था। परिणामस्वरूप कुछ हजार मुसलमानों की सेना दिल्ली, अवध, बिहार, बंगाल, उत्तर से दक्षिण भारत तक अबाध गति से विजय पर विजय प्राप्त करती गई थी। शासन व्यवस्था में मुसलमान हिंदू राजाओं से भी ज्यादा निरंकुश थे। अपना धर्म बचाये रखने के लिए मुसलमान शासन में जजिया कर देना पड़ता था। तब भी हिंदू धर्म की जड़ता का आलम यह था कि मनु और याज्ञवल्क्य जैसी ‘‘स्मृतियों में जाति भ्रष्ट मनुष्य को जाति में लाने का कोई प्रबंध नहीं था।... हिंदू यही मानते थे जिसके शरीर पर मुसलमान के छूए हुए पानी का छींटा पड़ गया, वह किसी प्रकार हिंदू नहीं रह सकता है।''[1]
इस्लाम के अनुयायियों में संकीर्ण कट्टरतावादी ही नहीं, संवेदनशील मानवतावादी न्यायप्रिय भी होते रहे हैं। शियों में एक उग्र संप्रदाय ने ‘हुलूल' और ‘तकसीर' की घोषणा की। अर्थात मनुष्य ईश्वर कोटि का बन सकता है और ईश्वर मनुष्य।[1] मोतजली संप्रदाय के चिंतकों ने बुद्धिवाद के क्षितिज को अधिक विस्तार दिया। अल गजाली (1051 से 1120 ई.) धर्म मीमांसा करते हुए, धर्म पर सोचते-साचते हुए वे नास्तिकता पर पहुंचे और धर्म मात्र से उनका विश्वास उठ गया।[1] मुक्त चिंतकों में उमर खैयाम और अबुल अका (1057 ई.) का बड़ा नाम है। इब्नसीना यूनानी दर्शन के प्रेमी थे। सूफी मत को दिशा इन्हीं दार्शनिकों ने दी।[1] अपनी आस्था के लिए ‘अनल हक' (अहम् ब्रह्मोस्मि) पुकारते हुए 922 ई. में मंसूर सूली पर चढ़े थे।
सूफियों में इस्लाम कठमुल्लावाद और ब्राह्मणों के पाखण्ड का निर्मम विरोध कबीर जैसे संतों ने किया। इस्लाम और हिंदुत्व में यह समन्वय की धारा थी। विवेकसंगत समन्वय की धारा ने संकीर्णतावाद के विरुद्ध संघर्ष किया है। भारत में आकर इस्लाम ने खान-पान, आचार- विचार, सामाजिक व्यवस्था में बहुत कुछ बदला और भारतीय समाज को भी प्रभावित किया। रहीम, रसखान, अकबर, नानक, कबीर समन्वय की धारा के प्रतीक हैं। राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में नजरुल इस्लाम, जोश, अकबर इलाहाबादी, चकबस्त, जमील मजहबी आदि की रचनाओं ने ओज और स्फूर्ति दिया था, साम्प्रदायिकता से मुक्त एकता और समन्वय को दृढ़ता दी थी।
‘भारतीय संस्कृति और यूरोप' शीर्षक चौथे अध्याय में भारत की खोज 1498 ई. करने वाले वास्कोडिगामा से लेकर ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति के बाद के भारत का विस्तृत विवरण दिनकर जी ने प्रस्तुत किया है। स्वार्थों के संघर्ष में कई लड़ाइयों के बाद अंग्रेजों ने भारत में अपना शासन स्थापित कर लिया। यूरोपवासियों ने अपने व्यापार और शासन के दौरान शस्त्रास्त्र तथा युद्धकला ही नहीं, धर्म दर्शन, साहित्य और शिक्षा के क्ष्ोत्रों में आर्श्चयजनक प्रगति की ओर भारतीयों को आकर्षित किया। 18वीं सदी के अंतिम दशकों में अंग्रेजों ने भारत में पश्चिमी शिक्षा पद्धति की नींव डालनी आरम्भ की। 1857 के बाद तो शिक्षा के क्ष्ोत्र में बड़े काम हुए, एक के बाद एक विश्वविद्यालय खुलने लगे।
ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों ने जहां भारतीयों में शिक्षा का लोकप्रिय बनाया, वहीं उनमें से अनेक स्वयं प्राच्यविद्या में पारंगत होते गए। अंग्रेजों और अंग्रेजी शिक्षा के संपर्क में आने वाले जागरूक भारतीयों में विद्या के प्रति अनुराग बढ़ता गया था। इन शिक्षित भारतीयों में अपनी संस्कृति के प्रति अटूट आस्था थी। स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, लोकमान्य तिलक, महायोगी अरविंद, महात्मा गांधी, सर इकबाल जैसे मनीषियों के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं उनके सामाजिक प्रभाव का विशद विवेचन दिनकर जी ने किया है।
‘संस्कृति के चार अध्याय' की रचना एवं प्रकाशन ऐसे संक्रमण काल में हुआ था जब सांस्कृतिक विरासत को राष्ट्र हित में सजोना था, उस राष्ट्र के हित में जिसका नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम के महानायक नेहरू कर रहे थे। भारतीय धार्मिक मान्यताओं, दार्शनिक दुरूहताओं, सांस्कृतिक मूल्यों तथा भारतीय विचारकों की मानवीय संवेदनाओं को आत्मसात किए बिना ऐसे ग्रंथ की रचना संभव नहीं है। संस्कृति के चार अध्याय जैसे श्रम साध्य ग्रंथ की रचना कर के दिनकर ने हिन्दी साहित्य के एक अभाव को संपूरित किया। इस अध्ययन में चिंतन, मनन और लेखन की प्रक्रिया में ज्ञान की गंगा में गोता लगाते-लगाते वे स्वयं भी निखरते गए। उनका लेखकीय उद्देश्य पाठकों में नया प्राण फूंकना था। उन्हें विश्वास रहा है कि इस ग्रंथ में ‘‘अर्द्ध सत्य और अनुमान चाहे जितने रहे हो, किंतु जो प्रतिमा इस पुस्तक में खड़ी की गई है, वह निर्जीव नहीं है।[1]
‘संस्कृति के चार अध्याय' के प्रकाशन ने हिन्दी पाठकों को आकर्षित किया था। संवेदनशील पाठकों ने अपने उद्गारों को मंचों से उद्घाटित किया, समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रतिक्रिया व्यक्त की और करीब तीन सौ पत्र दिनकर को प्राप्त हुए। इनमें दिनकर का ‘प्रबल समर्थन' करते हुए उनकी ‘भूरी-भूरी' प्रशंसा थी किंतु दूसरी ओर कुछ पत्रों में ‘लेखक अज्ञानी और मूर्ख है', कहते हुए ‘कठिन विरोध' भी किया गया था। दिनकर जी को जल्दी ही ज्ञात हो गया था कि ‘मेरी स्थापनाओं से सनातनी भी दुखी है और आर्यसमाजी तथा ब्रह्मसमाजी भी।' पुराणपंथी और यथास्थितिवादियों की नाराजगी का स्पष्टीकरण दिनकर जी ने तीसरे संस्करण की भूमिका (1962) में दिया। किंतु वे उन लोगों की चर्चा के प्रति मौन साध गए जिन्हें दिनकर से बड़ी अपेक्षाएं थी।
दिनकर के अनन्य मित्र और सहयोगी मन्मननाथ गुप्त ने संस्कृति के चार अध्याय को ‘गागर में सागर' मानते हुए लिखा कि मुझे पता नहीं कि ‘‘भारतीय भाषा में इतनी ठोस सामग्री कहीं एक जगह एकत्र भी है?'' या नहीं। गुप्त जी के शब्दों में- इस पुस्तक के पहले दिनकर हिन्दी के एक श्रेष्ठ कवि के रूप में प्रसिद्ध थे, पर इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद से वह एक गहन चिंतक तथा सुपठित मनीषी के रूप में हिंदी संसार में ही क्यों भारतीय साहित्य में आ गए।''[1]
धर्मग्रंथों द्वारा पोषित वैषम्य, परंपरा में व्याप्त अमानवीय दुराचरण के नंगे सत्य को आधुनिक युग में आदर्शवादी सुधारकों की अतिमानवीय सद्भावनाओं के साथ चार अध्यायों की प्रांजल भाषा में दिनकर जी ने ‘सामासिक संस्कृति' को प्रस्तुत किया है। किंतु उनकी यह प्रस्तुति उनका सर्वस्व नहीं है, उनके पास बहुत कुछ शेष था। विदेशी शासन में दिनकर का कवि, उन्मुक्त था, उन्हें विश्वास था पदच्युत होकर जनता में पद और प्रतिष्ठा दोनों मिलेगी। उनकी गर्जन और तर्जन के पीछे समूचा देश और गांधी का प्रभाव था। ‘‘सोचता हूं मैं कब गरजा था? जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं वह असल में गांधी का था, उस आंधी का था जिसने हमें जन्मा था।''[1] दिनकर के मन की कसक अकारण न थी, राजनीति और दिल्ली का सम्मोहन संभव है ‘संस्कृति के चार अध्याय' की रचना के कारक रहे हों, अन्यथा दिनकर का घोषित मत था-
वैभव की दीवानी दिल्ली
कृषक मेघ की रानी दिल्ली
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की
चुभती हुई कहानी दिल्ली[1]
सत्ताधारियों और उनके शुभचिंतकों द्वारा प्रतिष्ठित शास्त्र और साहित्य में व्यक्त अभिजात वर्गीय भारतीय संस्कृति को दिनकर जी ने ‘संस्कृति के चार अध्याय' में इस कुशलता से अभिव्यंजित किया है कि उसे भारतीय वांगमय का संक्षिप्त ज्ञानकोश कहना समुचित होगा, कम से कम हिंदी में तो वह अद्वितीय है ही। पर क्या यही राष्ट्र कवि से अपेक्षित था? शायद बिलकुल नहीं! कविताओं में दिनकर जी का राष्ट्रवाद विशाल जनता के पक्ष में मुखरित हुआ है। किसान, मजदूर, दलित, नारी आदि युगों के उत्पीड़ितों के हित में दिनकर का स्वर सदैव आक्रोश भरा रहा है। यह उत्पीड़न तथोक्त चार अध्यायों के कारण ही संभव हुआ था। अपनी कविताओं में दिनकर ने समन्वय की नहीं संघर्ष की वकालत की है। उन्होंने परम्परा में मौजूद रूढ़ियों पर प्रहार किया है, एक निश्चित पक्षधरता के साथ यथार्थ की कटुता को अभिव्यक्त किया है; जबकि चार अध्यायों का वर्णन करते हुए उनकी मूल चिंता उस ज्ञान में से ‘सत्य का अंश' खोजने की रही है ‘जिसका विकास पिछले छः हजार वर्षों में हुआ है।'[1] अपनी कविताओं में दिनकर ने ‘जो है' के साथ-साथ जो ‘हो सकता है' और जो ‘होना चाहिये' उस पर लगातार जोर दिया है। दिनकर जी का यह कवित्व पांचवें अध्याय की अपेक्षा करता है जो संभावित है। यह पांचवां अध्याय वह संस्कृति है जो जनता के जनवाद द्वारा निर्मित होगी। वर्तमान संस्कृति ने जो देश को दिया है उस संस्कृति ने देश में एक से एक रेशमी नगरों का निर्माण जारी रखा है, जो दिनकर जी को अभीष्ट न था उन्होंने अपने संपूर्ण ओज से चेतावनी दी थी-
होश करो दिल्ली के देवों होश करो
सब दिन तो यह मोहनी न चलने वाली है
होती जाती हैं गर्म दिशाओं की सांसे
मिट्टी फिर कोई आग उगलने वाली है
भावी संस्कृति के निर्माताओं को दिनकर जी ने न सिर्फ पहचाना बल्कि उनके भवितव्य की घोषणा करते हुए मौजूदा व्यवस्था के पोषकों को सिंहासन खाली करने का आदेश दिया-
आरती लिये तू किसे ढूढ़ता है मूरख
मंदिरों, राज प्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में...
दो राह, समय के रथ का घरघर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।[1]
This article has an important view about "sanskrit ke char addhyay" and for research scholor who wants to study tho poetry of ramdhari singh 'dinakar'.This is an important article for me and for my research work.Thanks to writer and editor. W.Milestone
जवाब देंहटाएं--बहुत से भ्रामक विचारों से ग्रस्त हैं यहां दिनकर जी.लगता है उन्होंने भी अन्ग्रेज़ों के लिखे भ्रमपूर्ण इतिहास को ही पढा समझा माना था, वास्तविक गहराई में वे गये ही नहीं .यथा..
जवाब देंहटाएं१."जब आर्य यहां आए, उससे पहले ही सभ्यता का विकास यहां हो चुका था और धर्म तथा संस्कृति के अंग रूप ग्रहण कर चुके थे। आयों ने इन सबको लेकर आर्य धर्म का संगठन किया।"
-- आर्य भारत में बाहर सेआये यह पाश्चात्य असत्य मान्यता है। यदि आर्य बाहर से आये तो वे उनसबको लेकर आर्य धर्म कैसे संगठित करपाते, संगठन दोनों का सम्मिलित नवीन रूप होता है। क्या मुगल भारत में इस्लाम धर्म स्वीक्रित करा पाये?
२."‘अज्ञात रूप से वेदों के इषत विरुद्ध सोचना उपनिषदकारों ने आरम्भ किया था और जनता के मन पर से वेदों के प्रभुत्व को उखाड़ फेंकने की सच्ची कोशिश महावीर और बुद्ध ने की।''
----उपनिषदकारों ने ्वेदों के इषत के विरुद्ध कब सोचा/ उपनिषद तो वेदों के व्यवहारिक भाव का ग्यान पक्ष हैं और कदापि वेदों के विरुद्ध नहीं हैं। बुद्ध और महावीर ने वेदों के प्रभुत्व को उखाड फ़ैंकने की कोशिस नहीं अपितु ब्राह्मणों के अवान्छित प्रभुत्व को उखाडने का प्रयत्न किया।
३. "आचार और विचार में सरल इस्लाम ने समानता की शिक्षा से अत्याचार से पीड़ितों को एकताबद्ध किया"
---इस्लाम आचार -विचार में सरल कब था, यदि एसा होता और हिन्दू समाज अत्याचार से पीडित होता तो उन्हें तलवार के बल पर इस्लाम फ़ैलाने की क्यों आवशयकता होती जो जग जाहिर तथ्य है।