पुरूषोत्तम विश्वकर्मा के व्यंग्य

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सातवीं पढ़ा व्‍यंग्‍यकार चाचा दिल्‍लगीदास कक्षा नवम्‌ की पाठ्‌‌य पुस्‍तक ‘गद्य-पद्य संग्रह भाग एक' का कोई पाठ पढ़ कर एक लंबी सांस लेने ...

सातवीं पढ़ा व्‍यंग्‍यकार

चाचा दिल्‍लगीदास कक्षा नवम्‌ की पाठ्‌‌य पुस्‍तक ‘गद्य-पद्य संग्रह भाग एक' का कोई पाठ पढ़ कर एक लंबी सांस लेने के बाद बोले कि मरहूम गोपाल प्रसाद व्‍यास, अल्‍लाह तआला उनकी रुह-ए-पाक को जन्‍नत में मकाम दे, अगर आज जिन्‍दा होते, तो मैं उनसे पूछता जरुर कि क्‍यों हजूर, क्‍या ये गधा ही बचा था आपके कुछ लिखने के लिए? हजरत ने जिस अंदाज से गधे की तारीफें की हैं, उसे देख कर पूरे यकीन से कहा जा सकता हैं कि जनाब ने भले ही कोई गधा न पाला हो, मगर अव्‍वल किस्‍म के गधों से उनका पाला जरुर पड़ा है। चाचा ऊपर हाथ करके जरा संजीदगी के साथ बोले कि परवर दिगार इस जुबां से बेजा न कहलवाए, इस तंजनिगार ‘व्‍यासजी' ने गधे को काफी गौर कर करीब से देखा है, वरना एक उचाट-सी नजर डालते हुए पास से गुजर कर, या दुलत्ती के खौफ से कनखियों से देखते हुए गधे से बच निकलने की स्‍थिति में गधे को इतनी सूक्ष्‍मता से परखा नहीं जा सकता। गधे में पाई जाने वाली या यूं कहे कहना बेहतर रहेगा कि ढूंढी तमाम खुसिसियात के मद्देनजर ये दावा किया जा सकता हैं कि कातिब वाकई गधा विशेषज्ञ रहा होगा। और हो न हो, कोई गैर-मतबुआ ‘गधा ग्रंथ' भी रख छोड़ा होगा।

चाचा कुछ झुंझलाकर बोले कि भतीजे माना कि ‘व्‍यासजी' को गधा अति प्रिय था। वो ही उनका पे्ररणा स्‍त्रोत, सोच का आधार, कल्‍पना का आदि-अंत, कामयाबी का नुस्‍खा, उनकी अपनी र्एप्रोज' था। उन्‍हें खर महाशय में अनेक खूबियां नजर आती थी। इस गर्धर्भराज में उन्‍हें न जाने किस-किस की छवि नजर आती होगी, मगर इसका अर्थ ये तो नहीं कि चाहे जिसकी तुलना अपने गधे से कर डालें। यहां तक कि अपने राष्‍ट्रीय नेताओं की, जिनमें प्रजाजन आज तक एक महापुरुष तलाशता आया है। जगह-जगह जिनकी तस्‍वीरें और पोस्‍टर चस्‍पा कर हम उन्‍हें पूजते आए हैं। चाचा ने अपने हाथ में थामी पुस्‍तक मेरे हवाले करते हुए कहा कि इस किताब में छपा लेख ‘अगर गधे के सींग होते' पढ़ कर देखना। गौर से नहीं, जरा सरसरी नजर से ही देखोगे, तो पाओगे कि इस लेख के कतिपय अंश ही क्‍या पूरा का पूरा लेख ही विवादित है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनकी जरा सी तारीफ क्‍या कर दी, जनाब बेलगाम हो गए। इसी लेख में एक जगह राजा की आड़ में किसी को सजा-धजा गुड्डा बताया गया है और ये किसी शीर्षस्‍थ नेता की और इशारा है, तो खाल वाली उपमा से भी कहीं ज्‍यादा गंभीर प्रकृति का है। एक जगह महिलाओं में पवित्रताओं की संख्‍या दिन-दिन घटने का ज्रिक है, जो एक सनातन विवाद है अपने आप में। चाचा ने जाते-जाते कहा कि बात मेरी समझ से परे है कि इस लेख को नवीं कक्षा की पुस्‍तक में किसने क्‍या सोचकर घुसेड़ा, कभी त्रय साहब से मुलाकात हो, तो जानूं। एक सातवीं पास लेखक को नवीं स्‍तर की कक्षा में शिक्षा स्‍नातकों से पढ़वाकर छात्रों को हम कैसा भाषा ज्ञान देना चाहते हैं। मेरी समझ में तो यह भी नहीं आ रहा कि क्‍या राजस्‍थान में कोई प्रिंटिंग प्रेस था ही नहीं, जो पुस्‍तकें सरल प्रिंटिंग प्रेस, मथुरा जाकर छपीं। कुछ भी हो, अगले वर्ष तो इस लेख को चार लाख बराणवे हजार विधार्थियों ने पढ़ लिया, अगले वर्ष से इसका कोई हल खोजना है। चाचा उठ कर किताब बगल में दबाते हुए बोले कि कपूत ये लेखक बड़े खर दिमाग होते है। एक वो डार्विन था, जो सबको बंदर की औलाद बता गया। इन व्‍यासजी ने जो कर दिखाया, सामने है।

ग़रीब देश के अमीर सांसद

चाचा दिल्‍लगी दास ने जब सांसदों के भत्ते पाँच गुना बढ़वा लेने की कवायद के समाचार पढे तो अचानक उनकी आंखों में पानी आ गया जब वर्तमान में सांसदों को मिलने वाले भत्तों पर गौर किया तो उनकी विपन्‍नता पर तरस आया और चाचा की आंखों से अविरत्‍न अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। जब मन कुछ हल्‍का हुआ तो रुंधे गले से बोले कि आज बिचारे इन सांसदों को मिलता ही क्‍या है, सिर्फ माह में छियालिस हजार नकद और फ्री बिजली, पानी, टेलिफोन, आजीवन सपत्‍नीक रेल्‍वे पास, वायुयान की बत्तीस टिकटें जैसी चंद टुच्‍ची सुविधाओं के अलावा। माना कि पाँच व षोंर् में इन पर साढे आठ नो सौ करोड़ रुपये खर्च हो जाते हैं मगर वो कौन-से पूरे के पूरे इनकी जेब में जाते हैं।

चाचा आगे बोले कि आज राजनीति की दुर्दशा के लिए ये अत्‍यल्‍प ही जिम्‍मेदार हैं जब इतनी कम तनख्‍वाह में कुशल श्रमिक तक नहीं मिलते तो फिर इतने से भत्ते व नाकाफी सहूलियतों में स्‍वच्‍छ राजनीति की छवि वाले सांसद कहां से उपलब्‍ध होंगे जरा गौर करने की बात हैं। इन भत्तों से तो वर्तमान में हाथ लगे सांसदों को रजनीतिक क्षेत्र में बनाये रखना भी दुष्‍कर होगा। इस खरीद फरोख्‍त को रोकने के लिए ये भत्ते व अन्‍य सुविधाएं पर्याप्‍त साबित नहीं होगी। ये भत्ते ही तो कारण है देश की वर्तमान दुर्दशा के, जब तक सांसदों का ध्‍यान इन भत्तों से नहीं हटेगा तो ये देश के विषय पर कब सोचेंगें।

चाचा ने अपना तफसला मुसलसल जारी रखते हुए अपनी वाकिफीयत जाहिर की, कह रहे थे कि माना कि संसद में सत्तापक्ष के अलावा प्रतिपक्ष भी होता है और सत्तापक्ष के हर जायज नाजायज कदम का विरोध कर अपना अस्‍तित्‍व कायम रखने की चेष्‍टाएं करते रहते है मगर विरोध तब करते है जब कुर्सी की लड़ाई होती है जब पेट की लड़ाई का मामला होता है तो ये ही सांसद अपने-अपने सिद्धांत, आपसी रंजिशें व प्रतिद्वन्‍द्विता भुला कर एक होकर लड़ते है। सिर्फ ऐसे ही अवसरों पर इनको एक राय होते देखा जा सकता है।और जब इनके भत्ते बढ़ जाएंगे तो ये मेज थपथपा कर उस फैसले कर स्‍वागत करेंगें। एक दूसरे के गले मिलकर बधाईयां देंगे।

चाचा जरा झुंझला कर बोले कि कुछ समझ में नहीं आ रहा कि सरकार इनके भत्ते बढ़ाने में इतनी हील-हुज्‍जत क्‍यों कर रही है। पिछली सरकारों की भांति बढ़ा क्‍यों नही ंदेती। ये सांसद है कोई सरकारी कर्मचारी तो है नहीं सो पूर्व स्‍पीकर की रहनुमाई में कमेठी बनाने,‘कैग' को सौंपने किसी बाहरी एजेंसी को मामला सुपुर्द करने, आयोग गठन करने जैसी अड़चनें डाली जा रही हैं। इसका विरोध करने वाले साहबान को शायद सांसदों की माली हालत का पता नहीं, कुल जमा 300 सांसद ही तो करोड़पति हैं 30धन्‍ना सेठ बाकी बेचारे तो आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे है। इनको जितना मिलता है उससे कहीं अधिक तो किसी कमाऊ सरकारी महकमें का चपरासी भी झटक लेता है महिनें भर में। इनके भत्तों से कई गुणा ज्‍यादा देश के रईशजादे तफरीह में उड़ा देते हैं। उनकी तुलना में तो सांसद मोटी रस्‍सी से खूंटे पर बंधी काली गाय से प्रतीत होते है जिसको तौलकर सूखा चारा डाला जाता है।

आज चाचा इन सांसदों की बेचारगी पर तरस खाकर खासे मेहरबान नजर आ रहे थे बोले कि चाहे कोई कमेठी बने या किसी की भी रहनुमाई कोई आयोग गठित है इन सांसदों की मांग मानी ही जानी चाहिए। इनके साथ-साथ इनकी सांसद निधि को भी दो से बढ़ा कर पांच करोड़ कर देनी चाहिए। माना कि पूर्व ‘राजग' सरकार ने इस मांग को निर्दयता पूर्वक रौंद दिया था मगर इस ‘सम्‍प्रग' सरकार को ऐसी गलती कभी नहीं करनी चाहिए। भला दो करोड़ रु. सालाना कोई सांसद निधि हुई। ये सरासर एक सांसद की खुली तौहीन है इतनी सी निधि के कारण ही तो हमारे मुल्‍क को अभी भी गरीब मुल्‍कों में शुमार किया जाता है।

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रचनाकार: पुरूषोत्तम विश्वकर्मा के व्यंग्य
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