यु.एस.वावरे का आलेख : विपश्‍यना द्वारा चित्‍तशुद्धि

SHARE:

विपश्‍यना द्वारा चित्‍तशुद्धि हेतु भगवान बुद्ध का अंतिम वैज्ञानिक उपदेश (वैज्ञानिक युग के सभी लोग इसे समझकर विपश्‍यना साधना का लाभ ले स...

यु एस वावरे विपश्यना vipashyana

विपश्‍यना द्वारा चित्‍तशुद्धि हेतु भगवान बुद्ध का अंतिम वैज्ञानिक उपदेश

(वैज्ञानिक युग के सभी लोग इसे समझकर विपश्‍यना साधना का लाभ ले सकते हैं)

द्वारा यु.एस.वावरे

(वरिष्‍ठ साधक एवं सेवा निवृत्‍ति बीएचईल अधिकारी)

 

1. विपश्यना क्या है? एक संक्षिप्‍त परिचय ः

संसार का हर कार्य ऊर्जा से ही सम्‍पन्‍न किया जाता है। बिना ऊर्जा के कुछ भी संभव नहीं है। हमारा जीवन ही नहीं संपूर्ण भवचक्र भी ऊर्जा पर ही चलता है। हम जानते है कि भौतिक जगत में ऊर्जा का उपयोग मानव के विकास के लिए किया जा रहा है। परन्‍तु साथ ही साथ कुछ नासमझ लोग ऊर्जा का उपयोग मानव की बरबादी के लिए भी कर रहे हैं। ऐसा ही कुछ कार्य आहार से प्राप्‍त ऊर्जा मनुष्‍य के लिए करती है। एक तरफ यह ऊर्जा हमें स्‍वास्‍थ्‍य हमें स्‍वस्‍थ रखती है और शरीर द्वारा किए गये भौतिक कार्य से व्‍यय होती है तो दूसरी तरफ हमारे प्रतिक्रिया करने वाले स्‍वभाव के कारण संस्‍कारों को ऊर्जा में बदलकर, चित्‍त पर संग्रहित होकर, हर मृत्‍यु के बाद नया भव देकर, जन्‍म-मृत्‍यु के दुःखदायी भवचक्र में हमेशा हमेशा के लिए फंसकर रखती है।

भगवान बुद्ध की खोज के अनुसार चित्‍त पर संग्रहित संस्‍कार ही हमारे दुःख का कारण है। इसलिए उन्‍होंने संस्‍कारों के ऊर्जा की निर्जरा करने हेतु विपश्‍यना साधना ढूंढ निकाली। इस विद्या से वे स्‍वयं मुक्‍त हुए और जीवन भर यह विद्या दूसरों को बांटकर उनके मुक्‍ति में सहायक हुए। उन्‍होंने शरीर छोड़ते समय करुणामय चित्‍त से जो हमें अंतिम उपदेश दिया वह है ‘‘वय धम्‍मा संखारा अप्‍पमादेन सम्‍पादेथ'' अर्थात (चित्‍त पर संग्रहित) संस्‍कार (उनकी ऊर्जा) व्‍यय होने वाले स्‍वभाव की है, (विपश्‍यना साधना द्वारा) उनका व्‍यय करने का कार्य निरालय होकर करते रहिये (और चित्‍त शुद्ध करते रहिये जिससे मुक्‍ति प्राप्‍त होगी)।

ऊर्जा के आधार पर शरीर और चित्‍त की कार्य करने की पद्धति, मन की प्रतिक्रिया द्वारा संस्‍कारों का निर्माण एवं चित्‍त पर उनका संग्रह, विपश्‍यना साधना से संस्‍कारों की निर्जरा (व्‍यय) इत्‍यादि हम अधिक गहराईयों से जानने का प्रयत्‍न करेंगे। इससे हर व्‍यक्‍ति को विपश्‍यना साधना अपनाने में सुविधा होगी।

2. आहार की ऊर्जा से शरीर के अनु-अनु में कंपन ः

हमें आहार से ऊर्जा प्राप्‍त होती है। हृदय की धड़कन इसी ऊर्जा से होती है। मान लीजिए धड़कनों की यह गति 70 धड़कने प्रति मिनिट है। हृदय रक्‍त को इस गति से शरीर के अनु-अनु तक पहुंचाता है और शरीर के प्रत्‍येक अनु का कंपन होता रहता है। इस उदाहरण के अनुसार शरीर के अनु-अनु के कंपन की गति 70 कंपन प्रति मिनिट रहेगी। इस तरह आहार की ऊर्जा शरीर के अनु-अनु के कंपनों की ऊर्जा में बदलती है।

3. आहार की ऊर्जा का व्‍यय और उपयोग ः

3.1 शरीर के अनु-अनु के सामान्‍य कंपनों की ऊर्जा शरीर के अंदरुनी अवयवों के कार्य में तथा हमें स्‍वस्‍थ रखने में व्‍यय होती है। इस तरह शरीर के प्रत्‍येक अनु के 70 कंपनों की ऊर्जा प्रति मिनिट शरीर में व्‍यय होगी। शरीर के लिए होने वाला ऊर्जा का यह व्‍यय इलेक्‍ट्रीक ट्रांसफार्मर में होने वाले नो-लोड-लॉसेस के समान है।

3.2 भौतिक कार्य में ऊर्जा का व्‍यय ः

मान लो अब हम भौतिक कार्य करना (अपने शरीर द्वारा) आरंभ कर देते है। इसमें सबसे पहले हृदय की धड़कन बढ़ेगी। मान लो यह 75 धड़कनें प्रति मिनिट हो गयी याने 5 धड़कने प्रति मिनिट बढ़ गयी। शरीर के अनु-अनु का कंपन भी 75 कंपन प्रति मिनिट होगा। इन 5 कंपनों की (शरीर के हर अनु की) ऊर्जा प्रति मिनिट शरीर द्वारा किये गए भौतिक कार्य में व्‍यय होगी।

3.3 नये संस्‍कारों के निर्माण में ऊर्जा का उपयोग ः

मान लीजिए अब हम कोई भी भौतिक कार्य नहीं कर रहे हैं। परंतु जीवन में आने वाले मन चाहे प्रसंग पर या अनचाहे प्रसंग पर, चाहिये (राग) या नहीं चाहिये (द्वेष) की प्रतिक्रिया कर रहे हैं। इस समय भी हृदय की धड़कनें बढ़ती हैं। मान लीजिये अब हृदय 76 धड़कन प्रति मिनिट की गति से धड़क रहा है। याने 6 धड़कनें प्रति मिनिट की वृद्धि। शरीर के अनु-अनु का कंपन भी बढ़ जायेगा। शरीर के प्रत्‍येक अनु की 6 कंपनों की ऊर्जा प्रति मिनिट अब संस्‍कारों की ऊर्जा में परिवर्तित होगी और यह चित्‍त पर संग्रहीत होती रहेगी। इंद्रिय जगत के विषयों पर मन सतत प्रतिक्रिया करता ही रहता है और संस्‍कारों का निर्माण तथा चित्‍त पर उनका संग्रह होता ही रहता है। यह क्रिया भवचक्र के हर जीवन में जन्‍म से मृत्‍यु तक बिना रुके चलती ही रहती है और चित्‍त पर अनगिनत संस्‍कार संग्रहित होते रहते हैं।

4. भगवान बुद्ध की खोज के अनुसार ये संस्‍कार ही हमारे दुःख का कारण हैं। ये हमें निम्‍नानुसार दो तरह से दुःख पहुंचाते हैं।

4.1 वर्तमान जीवन में दुःख ः

क्‍योंकि ये संस्‍कार केवल प्रतिक्रिया करने से ही निर्माण होते हैं, जितने अधिक संस्‍कार बनेंगे उतना ही अधिक हमारा स्‍वभाव, व्‍यक्‍तिगत जीवन में प्रतिक्रिया करने वाला होगा। शुरु-शुरु में मानसिक प्रतिक्रिया होती है और जब प्रतिक्रिया करने की तीव्रता बढ़ती है तब प्रतिक्रिया वाणी द्वारा और शारीरिक कार्य द्वारा भी प्रगट होने लगती है। इसी कारण गाली गलोच करना, झूठ बोलना, निंदा करना, हिंसा करना, चोरी करना, व्‍यभिचार करना, शराब का सेवन करना इत्‍यादि दुर्गुण जीवन में अपने आप आने ही लगते हैं। इससे हम स्‍ययं तो दुःखी होते ही हैं और दूसरों के दुःख का कारण भी बनते हैं। वर्तमान का सदाचारी व्‍यक्‍ति, भविष्‍य का दुराचारी व्‍यक्‍ति है ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा। इसलिये संस्‍कारों की निर्जरा करने की विद्या अतिशीघ्र हर व्‍यक्‍ति को सीखनी चाहिये।

4.2 भवचक्र में फंसे रहने का दुःख

मृत्‍यु के समय कोई एक संस्‍कार उभरकर चित्‍त से बाहर आता है और उसकी ऊर्जा निम्‍न तीन प्रकार से कार्य करके अगला नया भव प्रदान करती है तथा उस भव को मृत्‍यु तक चलाने में मदद करती है।

4.2.1 इस पुनर्भव के संस्‍कार की ऊर्जा का एक हिस्‍सा चित्‍त को मृत शरीर से अलग कर बचे हुए सभी संस्‍कारों के साथ नये शरीर प्राप्‍ति हेतु नये गर्भ में पहुंचाता है।

4.2.2 इस संस्‍कार की ऊर्जा का दूसरा हिस्‍सा नये शरीर का गर्भ में निर्माण एवं उसका पूर्ण विकास करना इस कार्य में उपयोग में आता है।

4.2.3 इस संस्‍कार की ऊर्जा का तीसरा हिस्‍सा चित्‍त पर ही संग्रहित रहता है और जन्‍म से मृत्‍यु तक उसकी थोड़ी-थोड़ी ऊर्जा समय के साथ बाहर आकर, चित्‍त का शरीर के साथ संपर्क बनाये रखने में खर्च होती रहती है। यह ठीक वैसे ही होता है जैसे स्‍कूटरचालक अपनी ऊर्जा खर्च करके, चलते हुए स्‍कूटर के साथ अपना संपर्क बनाये रखता है।

5. भगवान बुद्ध की खोज के अनुसार विपश्‍यना साधना से संस्‍कारों की ऊर्जा का व्‍यय करके दुःख के कारण को जड़ों से समाप्‍त करने से, उससे होने वाला दुःख स्‍वतः समाप्‍त हो जाता है। इसे भी हम वैज्ञानिक पद्धति से समझेंगे।

5.1 विपश्‍यना साधना ः

इस साधना में प्रथम शरीर के अनु-अनुओं में निरंतर होने वाले कंपनों को, संवेदना के रूप में जानने की (अनुभव करने की) मन की शक्‍ति जगाई जाती है। बाद में इन संवेदनाओं को समता भाव से या तटस्‍थ भव से (मन अविचल रख कर) जानते रहना होता है। संवेदना सुखद, दुखद या न्‍यूट्रल होती है। समता का आधार होता है संवेदनाओं का उदय-व्‍यय वाला या अनित्‍य स्‍वभाव और उसके साथ यह समझ कि जो अनित्‍य है वह स्‍थायी नहीं है। और उसमें मैं-मैरा कहने वाली कोई चीज नहीं है। यह साधना पहली बार अनुभवी आचार्यों के पास रहकर, उनके विशिष्‍ट मार्गदर्शन में, साधना संबंधी सभी नियमों का पालन करते हुए सीखनी होती है। इसके बाद अपने दैनंदिन जीवन में नियमित रूप से इस साधना का अभ्‍यास करना होता है। इस साधना से नये संस्‍कार बनने की क्रिया बंद होती है और साथ ही साथ चित्‍त पर संग्रहित पुराने संस्‍कार एक-एक करके उखड़ने लगते है और उनकी ऊर्जा शरीर पर व्‍य य करके उनको जड़ों से समाप्‍त किया जाता है।

5.2 विपश्‍यना साधना से नये संस्‍कार बनना इस तरह बंद होते है।

5.2.1 शरीर की संवेदनाओं को जानते हुए मन प्रतिक्रिया नहीं करता। इसलिये (मन को समता में या तटस्‍थ भव में रखने से) हमारे हृदय की धड़कन सामान्‍य ही रहती है। इस स्‍थिति में शरीर के अनु-अनु का कंपन भी सामान्‍य भी रहता है और इनके कंपनों की ऊर्जा शरीर को स्‍वस्‍थ रखने में ही व्‍यय होती है। शरीर के अनु-अनु का कंपन नहीं बढ़ने से, संस्‍कारों की निर्मिती के लिए आहार से कोई भी ऊर्जा प्राप्‍त नहीं होती। नये संस्‍कार न बनने से उनकी चित्‍त पर संग्रहित होने की क्रिया भी रुक जाती है।

5.2.2 नये संस्‍कार न बनना और उनका चित्‍त पर संग्रहित न होना। यह स्‍थिति सामान्‍यतः मृत्‍यु के समय ही संभव होती है। इसलिये मृत्‍यु के समय चित्‍त से कोई एक संस्‍कार उभरकर ऊपर आता है और पैरा 4.2 के अनुसार कार्य करके नया भव प्राप्‍त करता है। विपश्‍यना साधना से ‘‘नये संस्‍कार का बनना और उनका चित्‍त पर संग्रहित होने का कार्य बंद होना'' यह स्‍थिति मृत्‍यु के समय की स्‍थिति से मेल खाती है। इसलिये कोई एक संस्‍कार उभरकर चित्‍त से बाहर आता है (जैसे मृत्‍यु के समय होता है) परंतु यह संस्‍कार पैरा के अनुसार कार्य करके नया भव प्रदान नहीं कर सकता, क्‍योंकि उसे ऐसा करने से आयु-संस्‍कार रोकता है। क्‍योंकि शरीर जीवित है और शरीर के अनु-अनु का सामान्‍य कंपन हो रहा है, इसलिये उभरकर बाहर आये हुए संस्‍कार की ऊर्जा अब शरीर के अनु-अनु के कंपनों की ऊर्जा बढ़ाने में उपयोग में आती है। मान लीजिए इस संस्‍कार के कारण शरीर के अनु-अनु के कंपन की ऊर्जा दस प्रतिशत बढ़ गयी। अब शरीर के समस्‍त अनुओं की 10 प्रतिशत बढ़ी हुई ऊर्जा शरीर पर व्‍यय होगी और शरीर का अंदरुनी तापमान बढ़ेगा। इसके कारण साधक गर्मी, दबाव, दुखाव, भारीपन, हल्‍कापन इत्‍यादि कुछ भी अनुभव कर सकता है। इसमें भी साधक को समता ही रखनी होती है। इस तरह कुछ समय में एक संस्‍कार पूरी तरह उखड़कर व्‍यय हो जायेगा। समता बनी रहने से साधना में अब दूसरा संस्‍कार चित्‍त से उभरकर बाहर आयेगा और वह भी पहले संस्‍कार की तरह व्‍यय हो जायेगा। लंबे समय तक साधना करते रहने से सारे संस्‍कार व्‍यय होते है और चित्‍त परिपूर्ण शुद्ध होता है।

5.2.3 चित्‍त को परिपूर्ण रूप से शुद्ध करना -यह इस साधना का उद्‌देश्‍य है।

5.2.4 निर्वाण का साक्षात्‍कार ः

इस साधना में पुनर्भव के संस्‍कारों की ऊर्जा और आयु संस्‍कारों की ऊर्जा दोनों एक साथ व्‍यय होती रहती है। पुर्नभव के संस्‍कारों की संवेदना शुरू में घनीभूत होती है और बाद में वह सूक्ष्‍मता की ओर बढ़ती है। आयु संस्‍कार के कारण निर्माण होने वाली संवेदनाएं करीब-करीब अति सूक्ष्‍म और एक ही सूक्ष्‍मता की याने स्‍थिर रहती है। लंबे समय के साधना के बाद एक क्षण ऐसा भी आता है जब पुर्नभव के कारण निर्माण होने वाली संवेदना की सूक्ष्‍मता और आयु-संस्‍कार के कारण निर्माण होने वाली संवेदना की सूक्ष्‍मता बिल्‍कुल बराबर होती है। परंतु इन दोनों संवेदनाओं को निर्माण करने वाले बल विरुद्ध दिशा में होने से इस क्षण साधक अनु-अनुओं में संवेदना रहित स्‍थिति अनुभव करता है-यह निर्माण का साक्षात्‍कार है। निर्वाण के साक्षात्‍कार के पहले पुनर्भव के संस्‍कारों की संवेदनाएं प्रभावी होती है। निर्वाण के साक्षात्‍कार के बाद से आयु-संस्‍कार की संवेदनाएं प्रभावी होती है। परंतु निर्वाण के साक्षात्‍कार के बाद मुक्‍ति निश्‍चित होती है। इसलिए निर्वाण का साक्षात्‍कार करना यह इस साधना का एक मात्र उद्‌देश्‍य है। चित्‍त की परिपूर्ण शुद्धि और निर्वाण का साक्षात्‍कार दोनों एक ही है।

6. विपश्‍यना साधना का लाभ

6.1 वर्तमान जीवन में सुख शांति ः

साधना करते हुए समता में रहकर संस्‍कारों का व्‍यय किया जाता है। जैसे जैसे संस्‍कार में व्‍यय होते जाएंगे, मन समता में रहना आरंभ कर देता है और समता में रहने का स्‍वभाव पुष्‍ट होने लगता है। व्‍यवहार जगत में विपरीत परिस्‍थिति में भी शरीर और वाणी से किये जाने वाले गलत कामों में कमी होने लगती है और आगे चलकर साधक शरीर वाणी और मन से भी गलत काम नहीं करता। इससे साधक वर्तमान जीवन में सुख शांति महसूस करने लगता है और दूसरों के लिए भी सुख शांति के वातावरण का निर्माण करता है।

6.2 चित्‍त की परिपूर्ण शुद्धि से भवचक्र से मुक्‍ति ः

लंबे समय तक साधना करने से सारे संस्‍कार व्‍यय हो जाते है और मृत्‍यु के समय चित्‍त को नये गर्भ में ले जाने वाली पुनर्भव के संस्‍कारों की ऊर्जा उपस्‍थित न होने से, चित्‍त जनम-मरण के चक्र से हमेशा हमेशा के लिए छूट जाता है। इस तरह भव चक्र के हर जीवन में जन्‍म, जरा, रोग और मृत्‍यु से होने वाले दुःखों से छूट जाता है।

7. इस तरह भगवान बुद्ध का अंतिम उपदेश ‘‘वय धम्‍मा संखारा अप्‍पमादेन सम्‍पादेथ'' पूरी तरह वैज्ञानिक है। साधना का सिद्धांतिक पक्ष आज की वैज्ञानिक शिक्षा से भी मेल खाता है। मेडीकल साइंस के अनुसार भी (अॉटोनामिक सिस्‍टम) इसे समझा जा सकता है।

7.1 शरीर में आहार की ऊर्जा जो भौतिक कार्य में परिवर्तित होती है उसका नियंत्रण मोटर न्‍यूरॉन द्वारा होता है।

7.2 शरीर से चित्‍त की ओर जाने वाली नये संस्‍कारों की ऊर्जा और चित्‍त से शरीर की ओर आने वाली पुराने संस्‍कारों की ऊर्जा का नियंत्रण ‘‘सेन्‍सरी न्‍यूरॉन'' द्वारा होता है।

इस तरह आज की वैज्ञानिक शिक्षा, साधना के सिद्धांतिक पक्ष को समझने में, हर पढ़े लिखे व्‍यक्‍ति को मदद करती है।

8. पुर्नजन्‍म को मानना या न मानना इससे इस साधना का कोई संबंध नहीं है। क्‍योंकि यह साधना ऊर्जा पर आधारित सत्‍य से संबंधित है। परंतु नीचे दिये हुए पुराने साधकों के अनुभव पुर्नजन्‍म के बारे में उसके होने की दिशा निश्‍चित करता है (आगे चलकर नये लोगों के साधना सीखने पर वे अपने अनुभव द्वारा भी इसकी सच्‍चाई जानेंगे) ।

8.1 साधना में निर्जरा किये गये संस्‍कारों की संख्‍या, इस जनम में, जनम से लेकर आज तक निर्माण और संग्रहित किये गये संस्‍कारों की संख्‍या से कई गुना अधिक है। यह इस बात को दर्शाता है कि हमने ये अधिक संस्‍कार वर्तमान जन्‍म के पहले वाले जीवनों में निर्माण और संग्रहित किये है।

8.2 साधक साधना करते हुए यह स्‍वयं अनुभव करता है कि ऐसे अनेक संस्‍कार है जिनकी निर्जरा की गयी है और उनकी निर्जरा होते समय, जो सुखद या दुखद संवेदनाओं के अनुभव हुए है उनकी तीव्रता वर्तमान जीवन में अनुभव किये गये सुखद या दुखद संवेदनाओं की तीव्रता से भिन्‍न है। ऐसे भी अनेक संस्‍कार पाये जाते है जिनकी निर्जरा होते समय जो सुखद या दुखद संवेदनाओं के अनुभव हुए है उनकी तीव्रता वर्तमान मनुष्‍य जीवन में अनुभव किये गये सुखद या दुखद संवेदनाओं की तीव्रता से मेल खाते है। यह इस बात का संकेत है कि हमारे पूर्व के अनेक जीवन, मनुष्‍य के या अन्‍य योनियों में गुजरे है।

9. सामान्‍य/जनरल ः

9.1 विपश्‍यना साधना वैज्ञानिक होने से हर संप्रदाय, जाति, देश, मान्‍यता, का व्‍यक्‍ति इसे अपना सकता है।

9.2 साधना का आलंबन अपने ही श्‍वास और संवेदना पर आधारित है, इसलिए वैज्ञानिक और सार्वजनिन है।

9.3 साधना के दस दिवसीय शिविर भारत और भारत के बाहर अनेक स्‍थानों व अनेक भाषाओं में नियमित रूप से लगते रहते है। सारे शिविर पुराने साधकों के दान से चलाये जाते है। इसलिये धनी या निर्धन दोनों प्रकार के व्‍यक्‍ति इसका लाभ ले सकते हैं।

9.4 साधना वैज्ञानिक होने से और उसके सिद्धांत को बुद्धि द्वारा पहले से ही समझने लेने से हर कोई इसे निःसंकोच होकर अपना सकता है।

9.5 अनेक प्रकार की साधनाएं सीखकर बाद में उनमें से सर्वश्रेष्‍ठ चुनने में जो जीवन का बहुमूल्‍य समय नष्‍ट होता है, उससे साधक बन सकता है।

9.6 साधना संबंधित सारे निर्देश व प्रवचन विश्‍वविख्‍यात प्रमुख विपश्‍यनाचार्य पूज्‍य श्री सत्‍यनारायण गोयंका गुरुजी की वाणी में रिकार्ड किये गये अॉडियो वीडियो कैसेट/सीडी द्वारा दिये जाते हैं।

9.7 जिन व्‍यक्‍तियों का अध्‍यात्‍म में बिल्‍कुल विश्‍वास नहीं परंतु विज्ञान में विश्‍वास है ऐसे व्‍यक्‍ति इस साधना से विशेष रूप से लाभान्‍वित हो सकते हैं।

9.8 विपश्‍यना साधना संबंधित कुछ ही सीमित वैज्ञानिक बातें यहां बताई गयी है, जिससे साधना पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है यह सभी जान सकें। साधक साधना सीखकर जैसे-जैसे साधना में प्रगति करेगा अनेक वैज्ञानिक सच्‍चाईयां वह स्‍वयं अनुभव करेगा।

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: यु.एस.वावरे का आलेख : विपश्‍यना द्वारा चित्‍तशुद्धि
यु.एस.वावरे का आलेख : विपश्‍यना द्वारा चित्‍तशुद्धि
http://lh6.ggpht.com/_t-eJZb6SGWU/TF-bXpGUsPI/AAAAAAAAI1E/pzY5KUYYKCk/image_thumb.png?imgmax=800
http://lh6.ggpht.com/_t-eJZb6SGWU/TF-bXpGUsPI/AAAAAAAAI1E/pzY5KUYYKCk/s72-c/image_thumb.png?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2010/08/blog-post_6891.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2010/08/blog-post_6891.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content