राकेश भ्रमर की कहानी – भकुआ की भैंस

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  - गांव का खेतिहर मजदूर चालीस साल की उमर में पचास-साठ का लगता है। गाल पिचक जाते हैं, हडि्‌डयां बाहर निकल आती है, और खाल सिकुड़ जाती है। ...

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गांव का खेतिहर मजदूर चालीस साल की उमर में पचास-साठ का लगता है। गाल पिचक जाते हैं, हडि्‌डयां बाहर निकल आती है, और खाल सिकुड़ जाती है। वह सूखे पेड़ का ठूंठ लगता है, जिस पर हरी कोपलें दुबारा नहीं लगतीं। हाड़-तोड़ मेहनत करते-करते उसका सारा रस निचुड़ जाता है। फिर वह किसी काम लायक नहीं रहता, लेकिन जीविका के लिए वह मरते दम तक हाड़ तोड़ मेहनत करता रहता है। यही उसका नसीब है।

लेकिन गांव का हर आदमी ऐसा नहीं होता है। गांव में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जिनकी तोंद निकली होती है, गाल फूले होते हैं और चेहरे से खून छलकता रहता है। यह लोग जमींदार टाइप के संपन्‍न किसान होते हैं, जो कभी कोई काम नहीं करते हैं, लेकिन उनके घरों में अन्‍न और धन की कमी कभी नहीं होती। रुपया-पैसा उनके घरों में घास-फूस की तरह उगता है, लेकिन मज़ाल है कि इस घास-फूस को कोई आवारा जानवर चर जाये। बड़ी हिफाजत से रुपया-पैसा और जेवरात गाड़कर रखते हैं। उनकी सुरक्षा इतनी तगड़ी होती है कि शातिर से शातिर चोर-डाकू भी उसकी भनक नहीं पा सकता।

यह संपन्‍न बिरादरी मजदूर किसान से बिलकुल अलग होती है। इन दोनों के बीच केवल इतना संबन्‍ध होता है कि मजदूर संपन्‍न किसानों के खेतों में काम करता है और रात दिन उनकी गालियां खाता है। कभी-कभी मार भी... और इस बात की शिकायत वह किसी से नहीं कर पाता। मार खाना उसका कर्तव्‍य होता है, और मारना अमीरों का धर्म। इसी बिरादरी से मिलती-जुलती एक और बिरादरी गांव में होती है, जिसे महाजन, बनिया या सूदखोर कहा जाता है। यह बिरादरी व्‍यापार करती है। वक्‍त-जरूरत पर गरीबों को कर्ज देती है और बदले में उनके घर के बर्तन-भांडे़, जेवर और दो टुकड़ा ज़मीन हड़प कर लेती है। यह उत्तम काम ठाकुर, ब्राह्मण तथा अन्‍य अमीर लोग भी करते हैं, परन्‍तु सूदखोरों को इस काम में महारत हासिल होती है, क्‍योंकि यह उनका पुश्तैनी पेशा होता है।

गरीबों को और ज्‍यादा गरीब बनाने का एक गुरूमंत्र इनके पास और होता है। मजदूर को कभी भी पूरी मजदूरी नहीं देते हैं। इसके लिए तमाम बहाने इनके पास होते हैं। मसलन... अभी टूटे रूपये नहीं हैं, अब अंधेरा हो गया है और अंधेरे में लक्ष्‍मी को घर से नहीं निकाला जाता है, अभी पूजा कर रहे हैं, खाना खा रहे हैं, खाना न भी खा रहें हों और मजदूर के सामने खड़े हों, तब भी बड़े आराम से कह देते हैं, बाद में आना आदि-आदि। जब कभी भूले-बिसरे मजदूरी देते भी तो आधी-अधूरी। पूरी मजदूरी कभी न देते कि गरीब के घर में कहीं पूड़ी-पकवान न बनने लगें। खा-पीकर कहीं वह लाल-लाल गालों और मटके जैसे पेटवाला हो गया तो उनकी बेगार कौन करेगा ? अच्‍छा कपड़ा पहनकर कहीं राजा-बाबू बन गया तो उनका मैला कौन उठायेगा ?

रामहरख इन दोनों बिरादरियों का मारा हुआ मजदूर किसान था। किशोरावस्‍था से लेकर भरपूर जवानी तक उसने एक ठाकुर के यहां नौकरी की थी। हाड़-तोड़ मेहनत की थी और मजदूरी के बदले में गाली-गलौज के साथ-साथ लात-घूंसे भी सहे थे। जरूरत पड़ने पर महाजन के यहां से कर्ज भी लिया और घर के सामान से हाथ धोये। बिला वज़ह मारपीट और सुरसा की तरह बढ़ते सूद को भुगतते-भुगतते वह आज़िज आ चुका था। बड़े लोगों की ज्‍यादतियां और बेईमानियां जब तक बर्दाश्त कर सकता था, किया। कभी चीं-चपड़ नहीं की। परन्‍तु बर्दाश्त करने की भी एक सीमा होती है।

उसकी शादी हो गयी थी। घर में पत्‍नी आने से वह कुछ खुश रहने लगा था। तब भी वह ठाकुर के यहां काम कर रहा था, परन्‍तु पत्‍नी के सामने जब उसे मालिक की गाली मिलती और वह बेवजह मार खाता तो शर्म के मारे जैसे ज़मीन में गड़ जाता। उसका मन करता कहीं डूब मरे और इस कमीनी ज़िंदगी से छुटकारा पा ले। परन्‍तु जब मन शांत होता तो जीवन के प्रति मोह बढ़ जाता। पत्‍नी बड़ी भली थी। उसकी सेवा करती और अपने प्‍यार से उसके मन की कसक कम कर देती। यह अलग बात थी कि बाहर का गुस्‍सा कभी-कभी वह उसके ऊपर भी निकालता था। पत्‍नी बिना किसी गलती के पिट जाती। कहावत है न कि माल खायें पाजी मियां, मारे जायें गाजी मियां।

इस सबके साथ महाजन का कर्ज भी चुकाना पड़ता था। घर में चाहे खाने के लाले पड़े हों, महाजन महीने के अन्‍त में बिना कोई रहम किये ब्‍याज की रकम लेने आ धमकता था। कभी ब्‍याज चुका पाते, कभी नहीं। जब नहीं चुका पाते तो गालियां सुनते। गालियां खाने से ब्‍याज या मूलधन में कोई छूट नहीं मिलती थी। ब्‍याज पर चक्रवृद्धि ब्‍याज और जुड़ जाता था। बहन की शादी का कर्ज़ ही अभी खत्‍म नहीं हुआ था। उसकी शादी का कर्ज़ और चढ़ गया था। मूलधन तो कम नहीं हो रहा था, सूद अलग से बढ़ता जा रहा था। उसे ही चुकाते-चुकाते उसकी ज़िंदगी खत्‍म होती जा रही थी। गनीमत थी कि अभी तक कोई बाल-बच्‍चा नहीं हुआ था।

परन्‍तु ज्‍यादा दिन तक वह इस ज़िल्‍लत को नहीं झेल पाया। इसका एक कारण भी था। वह गांव की चौथी ज़मात तक पढ़ा था। होशियार था। आगे पढ़ना चाहता था, परन्‍तु चौथी के बाद गांव के स्‍कूल में कोई सुविधा नहीं थी। दूर के एक स्‍कूल में जाना पड़ता था। उसका बाप भी उसे पढ़ाना चाहता था, परन्‍तु गरीब के जीवन में खुशियां रेगिस्‍तान में हरियाली की तरह होती हैं, पैसा तो ओस की बूंद की तरह... तनिक ताप चढ़ा नहीं कि खत्‍म।

गांव की चौथी ज़मात पास करने के बाद जब वह दूसरे स्‍कूल में दाखिले के लिए जाने वाला था, तभी उसकी मां का देहान्‍त हो गया। घर में छोटी बहन थी, जो अभी नासमझ थी। बाप दूसरों के खेतों में काम करता था। लिहाजा उसकी पढ़ाई खटाई में गयी। मजबूरन उसे बाप के साथ खेतों में काम करने के लिए जुटना पड़ा। दिन में खेतों में काम करता और रात में घर आकर चूल्‍हा फूंकता। यह सिलसिला तब तक चला, जब तक उसकी बहन कुछ करने लायक नहीं हुई। बाद में उसकी भी शादी हो गयी। बहन अपनी ससुराल चली गई। एक साल तक उसे फिर चूल्‍हे में आंखें फोड़नी पड़ी. एक साल बाद उसकी भी शादी हो गयी। घर में पत्‍नी आ गई तो जीवन व्‍यवस्‍थित और सुचारू रूप से चलने लगा। सुबह-शाम दाल रोटी मिल ही जाती थी।

परन्‍तु वह अपने घृणित जीवन से खुश नहीं था। वह भरपूर मेहनत करता था, परन्‍तु बिना किसी गलती के जब ठाकुर उसे गाली देता और मारने के लिए हाथ उठाता और कभी-कभी लात घूंसा खा भी जाता, तब उसका मन विषाद और आक्रोश से भर जाता। मन सुलगता, परन्‍तु किटकिटा कर रह जाता। वह अपना गुस्‍सा किस पर उतारता ? ठाकुर से पंगा ले नहीं सकता था, महाजन को पीट नहीं सकता था। ले-देकर घर में एक निरीह पत्‍नी बचती थी, जो बेवज़ह कभी-कभी उसके गुस्‍से का शिकार होती थी। फिर घर में चीख-चिल्‍लाहट मचती, रोना-पीटना मचता। एक कोहराम मच जाता। बाप उसको गालियां देता और वह मुंह दाबकर एक किनारे पड़ रहता। बीवी रोती-कराहती रहती। उसकी देह में कोई हल्‍दी लगाने वाला भी नहीं होता।

घर में दाल-रोटी चल रही थी, परन्‍तु ठाकुरों की जलालत असहनीय थी। वह उससे वह बचना चाहता था। उसका गरम खून था। कुछ पढ़ने के कारण उसमें स्‍वाभिमान भी आ गया था। वह दूसरे मजदूरों से अपने को श्रेष्‍ठ समझता था, परन्‍तु नक्‍कारखाने में किसी की तूती नहीं बोलती। मजदूरों के बीच में सब धान बाइस पसेरी थे। वह कोई राजकुमार नहीं था कहीं का कि बाकी लोगों से उसे अलग स्‍थान मिलता और उसे मान-सम्‍मान दिया जाता।

पच्‍चीस साल की उमर में वह भागकर बंबई चला गया था। तब उसे कोई बच्‍चा नहीं हुआ था। पहली बार बिना बताये भागा था। गांव में किसी को पता चल जाता तो उसकी अच्‍छी खासी पिटाई होती। ठाकुर उसे बंधुआ मजदूर समझते थे। रात-दिन काम करने के लिए गांव के मजदूर से अच्‍छा मजदूर और कहीं नहीं मिलता, यह बात ठाकुर अच्‍छी तरह समझते थे। पता चल जाता तो उसे पकड़कर जानवर बांधने वाली कोठरी में बंध कर देते। उसने किसी को कुछ नहीं बताया और चुपचाप कानपुर चला आया। वहां से गाड़ियां बदल-बदलकर चार-पांच दिन में थका-मांदा बंबई पहुंच गया था। बाद में चिट्‌ठी लिखकर उसने घर वालों को सूचित किया कि वह बंबई में था।

बंबई में काफी दिन तक वह मारा-मारा फिरा। जहां जगह मिली सो गया, जहां काम मिला कर लिया। बंबई में मेहनती आदमी के लिए काम की कमी नहीं थी। उसकी किस्‍मत अच्‍छी निकली। अपने मुल्‍क का एक आदमी उससे टकरा गया। उसी ने उसको रहने की जगह दी और भाग-दौड़कर उसके लिए काम का जुगाड़ भी किया। जल्‍दी ही उसे एक मिल में नौकरी मिल गई। पहले कच्‍ची थी, बाद में पक्‍की हो गई। नौकरी मेहनत की थी, परन्‍तु गांव की जिल्‍लत भरी मजदूरी से अच्‍छी थी। मिल के अंदर ही उसको काम करना पड़ता था। वह बहुत खुष था। साल में एक बार गांव चला जाता था। बंबई आने के दो साल बाद उसको बेटा हुआ। उसके तीन साल बाद एक बेटी। इधर वह पैसा कमा रहा था, उधर बाप खेतों में काम करता था। पत्‍नी भी खेत-खलिहान में काम कर लेती थी। दिन मजे से गुजर रहे थे। बेटा पढ़ाई में अच्‍छा था। बेटी पढ़ने नहीं जाती थी। वह घर में मां के काम में हाथ बंटाती थी।

उसका बेटा ग्‍यारह साल का था, तब गांव में उसका बाप गुजर गया। घर बिना मर्द के हो गया। परन्‍तु उसकी पत्‍नी समझदार थी। अकेली गांव में रहकर बेटे को संभालती रही। बेटे की पढ़ाई समुचित ढंग से चलती रही।

परन्‍तु गरीब के जीवन में सुख के दिन बहुत थोड़े होते हैं।

बीस साल तक उसने जमकर नौकरी की। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, परन्‍तु बुरा हो यूनियन वालों का... पगार बढ़ाने के लिए मिल में हड़ताल करवा दी। हड़ताल लंबी चली। मिल मजदूर काम पर लौटना चाहते थे, परन्‍तु यूनियनवालों की हठधर्मी और मनमानी के आगे उनकी एक न चली। वह मैनेजमेंट से समझौता करने को तैयार नहीं हुए और मिल मालिक उनकी षर्तें मानने को तैयार नहीं हुए। मजदूर कोई लखपति तो होता नहीं। रोज कुंआ खोदकर वह अपनी प्‍यास बुझाता है। हड़ताल लंबी खिचने से सब मजदूरों के घरों में फाके होने लगे। वह बेहाल हो गये, परन्‍तु यूनियन और मिल मालिक की हठधर्मी से बात बिगड़ती चली गई। हड़ताल नहीं टूटी और मिल मालिकों ने मिल में ताला लटका दिया।

सारे मजदूर बर्खास्त कर दिये गये। मिल मालिकों ने मजदूरों के प्रति थोड़ी रहम दिखाई कि उनको हरजाने के साथ उनकी पी.एफ की राषि दे दी गई। रामहरख को भी कोई बीस हजार रुपये मिले थे। उन्‍हें लेकर वह गांव आ गया। अब उसके सामने मजबूरी थी कि गांव में क्‍या करे। बेटा उस वक्‍त इंटर फाइनल में पढ़ रहा था। बेटी छोटी थी, परन्‍तु जवान हो रही थी। उसकी शादी की चिन्‍ता और घर में केवल बीस हजार। पत्‍नी गाहे-बगाहे खेत-खलिहान में काम कर आती थी। इससे दो जून की रोटी का तो नहीं, हां एक जून का प्रबन्‍ध हो जाता था। बेटी खेतों पर काम करने नहीं जाती थी। वह जवान हो चुकी थी। रामहरख को गांव के लोगों की बदनीयती का पता था।

घर के चारों सदस्‍य एक जगह बैठ गये। पत्‍नी चिंतित होकर बोली, ‘‘भगवान कभी गरीबों की नहीं सुनता। सुख की दो रोटी खा रहे थे, वह भी उससे न देखी गई। अमीरों का तो कुछ नहीं बिगड़ता, परेशान और हलाकान हम होते हैं। कभी गेहूं हैं तो चावल नहीं, कभी चावल हैं तो दाल नहीं। सब्‍जी तो देखने को नहीं मिलती। अब क्‍या होगा ?''

रामहरख का भी मुंह लटका हुआ था। उदास स्‍वर में बोला, ‘‘हम तो जैसे-तैसे गुजारा कर लेंगे। न होगा तो फिर से ठाकुर की खेत-मेंड़ में काम कर लेंगे। परन्‍तु प्रकाश की पढ़ाई का क्‍या होगा ?''

‘‘इस उमर में अब धूप में काम करोगे ? शरीर में जो दो बूंद खून है, वह भी निचुड़ जाएगा। अभी कौन से बहुत हट्‌टे-कट्‌टे हो। बदन में खाली हड्डियां ही तो हैं। कोई देखे, तो क्‍या कहेगा कि बंबई में कमाते थे।''

रामहरख मुरझाई हंसी के साथ बोला, ‘‘अब बंबई में मैं कोई अफसर तो लगा नहीं था। वहां भी मेहनत का काम था। शरीर कहां से बनेगा। दूध-घी खाता तो क्‍या प्रकाश की पढ़ाई के लिए पैसा बचा पाता ?''

‘‘सो तो है, अब वह आसरा भी टूट गया। गांव की मजदूरी तो धूप में ओस की बूंद है। न प्‍यास बुझती है, न भूख मरती है।'' वह एक आह्‌ भरकर बोली।

प्रकाश पहली बार बोला, ‘‘मैं और आगे पढ़ना चाहता हूं।''

‘‘वही तो चिन्‍ता है। अभी तो खैर तुम बिना किसी चिन्‍ता के अपनी पढ़ाई करते रहो। मैं जिन्‍दा हूं। कुछ न कुछ करूंगा। इस साल इंटर हो जायेगा। आगे देखा जाएगा।''

‘‘मैं अगले साल लखनऊ जाकर पढ़ाई करूंगा।'' प्रकाश में ऐलान किया।

‘‘लखनऊ क्‍यों... यहां पास में भी तो डिग्री कॉलेज है।'' रामहरख ने हैरानी से पूछा।

‘‘है तो, लेकिन गांव का डिग्री कॉलेज है। पढ़ाई कुछ होती नहीं। नकल करके सारे लड़के पास हो जाते हैं। ऐसी पढ़ाई से क्‍या फायदा, जिससे बाद में नौकरी भी न मिले। लखनऊ में सही मार्गदर्शन मिलेगा, तो नौकरी भी जल्‍दी मिल जायेगी।''

बात सही थी। वह पढ़ने में भी अच्‍छा था। बाप की ख्वाहिश थी कि वह जितना चाहे, पढे़। परन्‍तु पैसे की तंगी आड़े आती थी। शहर की पढ़ाई क्‍या मुफ्‍त में हो जायेगी ? दोगुना पैसा लगेगा। यहां तो घर में रहता है, घर का खाता है। वहां चाहे हॉस्‍टल में रहे चाहे कोई कमरा किराये पर लेकर, खर्चा दोनों तरफ से होगा। कमरा लेकर रहेगा तो अपने हाथ से खाना बनाएगा। ऐसी हालत में राशन घर से ले जाएगा। कुछ खर्चा कम हो जाएगा। लेकिन एक अलग परिवार जैसा खर्चा हो होगा ही। कॉपी-किताब का खर्चा अलग। खैर, जो होगा, देखा जायेगा।

रामहरख को एक और चिन्‍ता खाये जा रही थी। लड़की भी जवान हो चुकी थी। उसकी शादी के लिए भी कुछ पैसा बचाकर रखना पड़ेगा। जो लेकर आया है, उसी में कुछ बचाकर रख लेगा, तो गाढ़े में काम आएंगे। वरना गांव में और कहां से इतनी कमाई होगी कि लड़की की शादी लायक पैसा कमा सके। गांव के हर गरीब को तो उधार से ही यह कारज करने पड़ते हैं।

एक और दुश्चिंता थी उसके मन में ? बंबई की मिल में काम करते-करते वह कुछ आरामतलब हो गया था। गांव में खेतों के काम के अलावा और कोई काम नहीं था। क्‍या इस बुढ़ापे में उसे फिर से ठाकुर के खेतों में काम करना पड़ेगा ? टेंट में बीस हजार थे, परन्‍तु इसके बारे में किसी को बता नहीं सकता था। इन्‍हें तो बचाकर ही रखना होगा। गांव में पता चलता तो ठाकुर ही उसके घर में नकब लगवा देते या डाका ही डलवा देते। वह किसी नीच जाति को फलता-फूलता कहां देख सकते थे।

कुछ दिन तक तो रामहरख गांव में इधर-उधर उठता-बैठता रहा। लोगों से मिलते-जुलते, पान-बीड़ी खाते-पीते और बंबई के सुहाने दिनों की चर्चा में ही दिन गुजर रहे थे। सारे गांव को पता चल गया था कि रामहरख की मिल बंद हो गयी थी। अब वह गांव में ही रहेगा। बातें करते-करते वह लोगों से संभावित काम के बारे में जानने की कोशिश करता रहता। कोई छोटा-मोटा धन्‍धा ही कर ले... जैसे बाजार में साग-भाजी बेंचना शुरू कर दे। इसमें लागत कम थी, परन्‍तु मेहनत का काम था। किसानों के खेतों से साग-सब्‍जी खरीदकर साइकिल पर लादकर बाजार-बाजार फिरते रहो। तब जाकर कहीं दो पैसे कमा पाते। लेकिन कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा। वह कुछ समझ नहीं पा रहा था और गांव के लोग उसे कोई ढंग की सलाह नहीं दे पा रहे थे। सभी तो अनपढ़-मजदूर थे। उसकी बीड़ी पीते और सुट्‌टा मारते हुए उसे आराम करने की सलाह देते।

पचास साल की उमर हो चली थी। शरीर ढीला पड़ गया था। मेहनत के काम से उसका जी उचटता था।

एक दिन उसके पुराने मालिक शिवदान सिंह मिल गये। वह खेतों की तरफ से लौट रहे थे। रामहरख खेतों की तरफ जा रहा था। दोनों आमने-सामने पड़ गये। रामहरख ने रामजुहार की। ठाकुर साहब बोले, ‘‘हरखू, तुम बंबई से आ गए, मिलने भी नहीं आये। सुना है, काम छूट गया है ?'' उनकी बातों में सहानुभूति कम ईर्ष्‍या ज्‍यादा थी।

पुराने रिवाज के मुताबिक रामहरख को उन्‍हें मालिक कहना चाहिए था, परन्‍तु बीस साल बंबई में रहने से यह आदत छूट सी गई थी। कुछ सोचकर उसने गांव का रिश्ता निकाला और बोला, ‘‘हां काका।''

‘‘अब गांव में ही रहोगे ?'' ठाकुर साहब ने अर्थपूर्ण षब्‍दों में पूछा। रामहरख उनके पूछने का अर्थ समझ गया, फिर भी बोला, ‘‘और कहां जायेंगे। यह अपनी जनम-भूमि है। बाप दादे यही मर खप गये। हमें और कहां ठौर मिलेगा ?'' रामहरख उदासीनता की प्रतिमूर्ति बना हुआ था।

‘‘क्‍या करोगे ?'' ठाकुर साहब ने उसके मन को टटोलते हुए पूछा, ‘‘नौकरी से कितना पैसा मिला होगा ? बैठकर तो गुजारा हो नहीं सकता।''

‘‘हां, कुछ सोचेंगे,'' रामहरख अनुदात्त भाव से बोला, ‘‘खेती-किसानी के सिवा क्‍या काम है ? मजूरी छोड़कर और क्‍या करेंगे ?''

ठाकुर शिवदान सिंह की बांछें खिल गईं। मुस्‍कराते हुए बोले, ‘‘तो फिर हमारे यहां क्‍यों नहीं काम कर लेते। पुराने आदमी हो। काम जानते हो। अच्‍छा रहेगा। बैठे-ठाले दस रुपये हाथ में आएंगे।''

हुंह, हाथ में आएंगे, रामहरख ने घृणा से सोचा। इन्‍हीं के यहां बारह-तेरह साल की उमर से काम करने लगा था। लगभग चौदह-पन्‍द्रह साल तक काम किया था। जब काम छोड़ा था, शिवदान सिंह तब तीस बरस के कड़ियल जवान थे। इन वर्षों में उसने न जाने कितनी गालियां इन्‍हीं के मुंह से सुनी थी, इनके न जाने कितने लात घूंसे सहे थे। आज वह पैतालीस-पचास साल का बूढ़ा आदमी हो चुका था, परन्‍तु ठाकुर साहब पचपन पार करने के बाद भी टनाटन बने हुए थे। थोड़ा थुल-थुल हो गये थे, परन्‍तु चेहरा रौबदार और भरा-भरा था। गरीब और अमीर आदमी में यही फर्क होता है।

बुढ़ापे में क्‍या फिर से लात-घूंसे खाने के लिए वह ठाकुर साहब के यहां काम करेगा ? वह अन्‍दर ही अन्‍दर कांप गया। नहीं, कभी नहीं... उसने मन ही मन संकल्‍प किया। भूखा मर जायेगा, परन्‍तु फिर से उस नरक में नहीं जायेगा, जहां से बीस साल पहले निकलकर आ गया है। उसका रास्‍ता अब उस तरफ नहीं जाता।

टालने के से भाव से उसने कह दिया, ‘‘सोचकर बताएंगे, काका।''

‘‘इसमें सोचना क्‍या है हरखू ? बैठकर तो कुबेर भी नहीं खा सकते। खजाना खाली न हो, इसके लिए हमेशा मेहनत करनी पड़ती है। तुम गरीब आदमी हो, मेरे पुराने नौकर हो, इसलिए कह दिया। और हां, वो तुम्‍हारा लड़का क्‍या कर रहा है ? क्‍यों बेकार में पढ़ा-लिखा रहे हो। पैसे की बरबादी है। आखिर मजूरी ही करनी है। गांव में पढ़कर कौन लड़का कलेट्टर बना है ? सब तो मजूरी कर रहे हैं।''

वाह रे ठाकुर साहब! इनकी जुबान की भी बलिहारी। इनके कथन के दो अर्थ निकलते हैं। एक अर्थ इनके अपने लिए होता है, और एक अर्थ निर्धन आदमी के लिए, जो इनकी गुलामी करता है। ये अपने लड़कों को पढ़ायें, तो पैसे का सही उपयोग होता है, गरीब आदमी अपने बच्‍चों को पढ़ाये तो पैसे की बरबादी। इनके लड़के पढ़-लिखकर सदा कलेट्टर बनते हैं. गरीब लड़का लाख कोशिश करने के बाद भी मजदूर से अधिक कुछ नहीं बन सकता।

मजूरी तो नहीं करेगा अब वह किसी की, उसने मन ही मन सोचा। लेकिन ज्‍यादा दिनों तक घर में निठल्‍ला भी तो नहीं बैठ सकता था। गांव वाले बातें बनाना शुरू कर देंगे... पता नहीं कितना माल मारकर लाया है बंबई से, बैठा खा रहा है। सोचेंगे कि कहीं चोरी-डकैती की होगी ? मेहनत से इतना पैसा कहां मिलता है कि बैठकर खाया जा सके। ऊपर से लड़के की पढ़ाई... फीस भले माफ थी, परन्‍तु कॉपी-किताब के खर्चे के अलावा और भी तो खर्चे होते हैं... उसे जल्‍दी ही कुछ न कुछ करना पड़ेगा।

गांव में निठल्‍ले लोगों का एक ऐसा वर्ग होता है, जो घर-परिवार से लेकर देश-विदेश तक की सारी जानकारी रखता है और उस पर बड़ी विशद चर्चा करता है। यह वर्ग लोगों को बहुमूल्‍य सलाह भी बिना किसी मूल्‍य के प्रदान करता रहता है।

इसी वर्ग के कुछ सम्‍मानित सदस्‍यों ने उसे सलाह दी कि कस्‍बे में चाय-नाश्ते का होटल खोल ले।

किसी ने सब्‍जी की दूकान खोलने की सलाह दी। किसी ने रेहड़ी पर मूंगफली बेचने की सलाह दी तो किसी ने कहा कि बीड़ी-सिगरेट और गुटका की गुमटी खोल ले। इसमें कम पैसे में ज्‍यादा आमदनी होती है। किसी ने कहा, गांव में परचून की दुकान खोल ले।

काफी मनन और विचार-विमर्श के बाद उसने तय पाया कि घर में परचून की दुकान ही खोलनी ज्‍यादा उचित रहेगी। इसमें ज्‍यादा भाग-दौड़ नहीं थी। एक बार पूरा सामान भरवाना पड़ेगा। बाद में हफ्‍ते-पन्‍द्रह दिन में जब भी सामान कम हुआ, दौड़कर कस्‍बे से ले आये। दुकान के लिए दहलीज की कोठरी में बाहर की तरफ से एक दरवाजा लगवा देगा, बस दुकान तैयार।

गांव बड़ा था, परन्‍तु पूरे गांव में एक ही परचून की दुकान थी। खूब चलती थी। रोजमर्रा की सब चीज़बस्‍त मिल जाती थी। अब दूसरी दुकान हो जाएगी, तो लोगों को और आराम हो जाएगा।

फसल के मौके पर गरीब आदमी अन्‍न बेचकर सामान खरीदते थे। दुकानदार अन्‍न को वास्‍तविक मूल्‍य से आधी कीमत पर लेता था, परन्‍तु सामान पूरी कीमत पर बेचता था। इसमें नफा ही नफा था। अनाज खरीदने में फायदा और सामान बेचने में फायदा।

रामहरख को दुकानदारी का कोई अनुभव नहीं था, परन्‍तु दुकान से सौदा-सुलफ़ खरीदता ही था। सामान कैसे बेचा जाता है, इसकी थोड़ी बहुत जानकारी थी। इसी आधार पर उसने दुकानदारी करने की सोची। आगे की दीवार तोड़कर उसमें दरवाजा लगवाया। इसमें हजार रुपये खर्च हो गये। फिर एक दिन लड़के को लेकर पास के कस्‍बे से दुकान का सामान खरीद लाया। पूरे छः हजार का सामान आया था। उसे पता नहीं था, दुकान के लिए क्‍या-क्‍या सामान खरीदना जरूरी था। कस्‍बे के थोक विक्रेता ने ही उसे बताया कि क्‍या-क्‍या और कितना सामान रखना उपयोगी होगा। कौन सा सामान ज्‍यादा बिकता है, कौन सा कभी-कभी और कोई तो शायद ही कभी बिके। परन्‍तु ऐसे सामान भी रखने पड़ते थे। गांव में पता नहीं, कब किसको किस चीज की जरूरत पड़ जाए। इसी आधार पर कम और ज्‍यादा सामान लिया गया; ताकि कम बिकने वाला सामान पड़ा-पड़ा सड़ न जाये।

रामहरख मजदूर से दुकानदार बन गया। उसकी दुकान का कोई उद्‌घाटन समारोह नहीं हुआ। लोगों के समझाने पर उसने दो किलो बताशे गांव के लोगों में बंटवा दिये। उसकी जाति-बिरादरी के लोगों ने खुशियां मनाई, तो गांव के ठाकुर, ब्राह्मण और बनियों ने नाक-भौं सिकोड़कर कहा, ‘‘कल का चोर आज का शाह! साला, नीच, मजूरी छोड़कर सेठ बनने चला है। कैसे दुकानदारी करेगा ? उसको पता नहीं कि दुकानदारी चालाकी और बेईमानी का धन्‍धा होता है। एक दिन में धूल में मिल जायेगा।'' सबसे ज्‍यादा जलन ठाकुर नन्‍दू सिंह को हुई, जिनकी गांव में एकमात्र दुकान थी। अब उनका एक प्रतिद्वंदी पैदा हो गया था, वह भी छोटी जाति का। मन ही मन खार मान बैठे।

गांव के लोगों की भावनाओं से अनजान रामहरख ने अपनी दुकानदारी खोल दी। घर की दुकान थी, जब कोई सौदा लेने आता, दुकान खुल जाती; वरना बन्‍द रहती। हरदम दुकान में बैठने का कोई काम नहीं था। घर का कोई भी आदमी सौदा दे देता था। कभी प्रकाश तो कभी रामहरख, कभी उसकी बेटी तो कभी उसकी बीवी। उसकी बीवी पहले दुकानदारी की तिकड़मों से अनभिज्ञ थी, परन्‍तु धीरे-धीरे वह भी सौदा देने लगी। बेटी के साथ उसने सामान बेंचना सीख लिया था, लेकिन तौलवाला सौदा देते हुए अभी भी कतराती थी। तराजू और बांट-बटखरा का उसे ज्ञान नहीं था। बस बीड़ी, सिगरेट, माचिस आदि बेंच लेती थी।

शुरू-शुरू में दुकान ठीक ठाक चली। लोग अनाज से या नकद सामान खरीदते थे। फायदा नज़र आता था। घर में अन्‍न के साथ-साथ पैसा नज़र आने लगा था। जितना सामान बिकता, वापस भरवा लेता। सामान भरवाने के बाद सही फायदे का पता चल पाता था। रामहरख खुश था। उसकी पत्‍नी अब सेठानी बन गई थी। वह भी बहुत खुश रहती थी। मोहल्‍ले की औरतों के बीच उसकी एक साख और मर्यादा बन गई थी। अब औरतें उसे इज्‍जत से बुलाती थीं।

रुपया-पैसा तो जो दुकान से आ रहा था, वह था ही। रामहरख की बीवी को सबसे ज्‍यादा आराम अब इस बात से हो गया था कि सौदा-सुलफ़ के लिए बाहर नहीं जाना पड़ता था। सब कुछ घर में उपलब्‍ध था। रामहरख के पास अभी 12-13 हजार रुपये बचे थे। दुकान ठीक-ठाक चल ही रही थी। पत्‍नी ने सलाह दी कि बेटा पढ़ता है, दिमाग का काम है, उसे रोज घी-दूध मिलेगा तो पढ़ाई भी ढंग से कर पायेगा। सूखी दाल रोटी से कहां तक दिमाग का काम करेगा। लिहाजा, सलाह कर के दस हजार में एक भैंस खरीद ली गई। अब हाथ में थोड़े से रुपये बचे थे। बेटी की शादी के लिए दुकान की कमाई से बचा लेगा। फिलहाल चिंता जैसी कोई बात नहीं थी।

अब घर में घी दूध की भी कमी नहीं थी।

इस तरह आठ-दस महीने बीत गये। प्रकाश इण्‍टर पास कर चुका था। उसकी इच्‍छानुसार उसे लखनऊ भेज दिया था। वहां उसने बी.ए. में दाखिला ले लिया था। हजार रुपये प्रति मास उसका खर्च था। कभी-कभी ज्‍यादा भी लग जाते थे, जब कॉपी किताब खरीदनी होती थी या परीक्षा शुल्‍क आदि भरना पड़ता था। परन्‍तु रामहरख खुशी के उड़खटोले में उड़ रहा था। उसे दुनिया अब बहुत छोटी नज़र आने लगी थी। दुकान की आमदनी से उसके सारे खर्चे निर्बाध पूरे हो रहे थे।

दुर्भाग्‍य गरीब आदमी का कभी पीछा नहीं छोड़ता। उधर प्रकाश की पढ़ाई का नियमित खर्चा था, इधर उसकी दुकान को ग्रहण लगना शुरू हो गया। गरीब की जोरू, सारे गांव की भौजाई वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। रामहरख ने गांव में दुकान खोली थी। एक तो सारा गांव परिचित... यारी दोस्‍ती भी थी। गांव-घर के नाते दुकान में उधारी चलती थी, शुरू में कम थी, लेकिन धीरे-धीरे बढ़ने लगी। रामहरख न तो बनिया-बक्‍काल था, न बड़ी जाति का। उसे क्‍या पता था, गांव की दुकानदारी, सारी ज़िंदगी की उधारी। वह किसी को मना न कर पाता। उधारी बढ़ने से वह सामान न खरीद पाता। जब दुकान में सामान कम होने लगा और ग्राहक लौटने लगे, तब उसकी आंखें खुली। यह क्‍या-से क्‍या हो गया ? वह समझने की कोशिश करने लगा। जब समझा, तो पता चला यह उधार देने का नतीजा था।

पिछले कुछ दिनों से उसने देखा था कि गांव के बड़ी जाति के लोग, जिनके घर में न धन की कमी थी, न अन्‍न... हाथ फैलाते हुए आते, सामान खरीदते और चलते हुए कहते-

‘‘लिख लो, आज घर से सीधे आ रहा हूं। बाद में दे दूंगा।''

यह बड़े आदमियों का काम था। गरीब तो फिर भी घर का अन्‍न बेंचकर सौदा-सुलफ़ खरीदता था, परन्‍तु अमीर के घर से न अन्‍न निकलता था, न जेब से पैसा। वह गरीब मजदूरों का शोषण करने में प्रवीण थे, तो गरीब की थाली की रोटी उठाकर खाने में भी सिद्धहस्‍त थे।

रामहरख की उधार की कॉपी के सारे पन्‍ने भर गये थे, परन्‍तु दुकान खाली हो गयी थी। उधार की कॉपी में चढ़े रुपयों का जब उसने हिसाब किया, तो वह चकराकर रह गया। साढ़े चार हजार रुपये की उधारी थी पूरे गांव वालों पर। इतना रुपया किसी महाजन, ठाकुर या ब्रह्मण ने किसी गरीब आदमी को उधार दिया होता तो उससे चालीस हजार वसूलता और गरीब आदमी इसे चुकाते चुकाते ही ऊपर पहुंच जाता। यह रामहरख का अपना पैसा था, जो लोगों पर उधार था, परन्‍तु इसमें से एक पैसा भी वह नहीं वसूल पा रहा था। अब तो लोगों ने उसकी दुकान में आना ही बन्‍द कर दिया था। एक तो उसकी दुकान में सामान नहीं मिलता था। दूसरे उसने उधारी मांगनी शुरू कर दी थी। लोग मुंह चुराने लगे थे।

गांव के लोग भी बहुत ढीठ थे। एक तो सामने नहीं पड़ते और जब पड़ जाते तो रामहरख उनसे पैसे मांग बैठता। मांगने पर वह घोड़े की तरह हिनहिनाते हुए कहते, ‘‘यहां रास्‍ते में क्‍या पैसे बांधकर घूम रहा हूं। घर से ले जाना।'' घर मांगने जाओ तो भी लोग दुत्‍कार देते। नीच जाति का होने का अपमान उसे यहां भी झेलना पड़ता था। अपने पैसों के लिए भी उसे लोगों के सामने गिड़गिड़ा पड़ता, जैसे वह भीख मांग रहा हो। यह उसका दुर्भाग्‍य नहीं तो और क्‍या था ? वह चिन्‍तित रहने लगा। गरीब आदमी तो थोड़ा बहुत लौटा भी देते, परन्‍तु अमीर हड़क देते, ‘‘दे देंगे, कहीं भागे जा रहे हैं ?''

पहले तो लोग विनम्रता से मना करते थे, परन्‍तु दूसरी-तीसरी बार मांगने पर चिल्‍ला पड़ते, ‘‘सरऊ, बहुत बड़े सेठ हो गये हो। इतना मारूंगा कि पैसे मांगना भूल जाओगे। राह चलते पैसे मांगते हो। दिन खोटा हो गया।''

रामहरख मन ही मन उन्‍हें गाली देता...साले, हरामी के पिल्‍ले... उधार लेते समय तो गिड़गिड़ाते थे। अब अपना ही पैसा मांग रहा हूं, तो उल्‍टे घुड़की दे रहे हैं। इनका पैसा होता तो दस के सौ वसूलते, ब्‍याज के ऊपर ब्‍याज लगाते और जीना हराम कर देते।

लोग जब घुड़कते तो वह मन ही मन घुटकर रह जाता। वह किसी से भी एक पैसा वसूल नहीं कर पा रहा था। लोग उसे इस तरह धमकाने लगे थे, जैसे उधार देकर उसने कोई सामाजिक गुनाह किया था। मानसिक तनाव, लोगों की धमकी और पैसे के अभाव में वह दिनों-दिन घुलता जा रहा था। इधर बेटी जवान हो रही थी, उधर प्रकाश की तरफ से हर महीने हजार रुपये की मांग आ जाती। अब तो उसे स्‍वयं उधार लेने की नौबत आ गई थी।

एक दिन नन्‍दू सिंह उसकी दुकान पर पधारे और बड़ी मीठी आवाज में बोले, ‘‘अरे भाई हरखू, जब से तुमने दुकान खोल ली, हमारी तरफ आते ही नहीं। सेठ बन गए हो न्‌।''

उसने लाचारी से नन्‍दू सिंह को देखा। उनके चेहरे पर मुस्‍कराहट के साथ-साथ आंखों में खास चमक थी, जैसे उसे चिढ़ाते हुए कह रहे हो- ‘देखा, हमारे सामने खड़े होने का नतीजा। धूल में मिला दिया न्‌।'

रामहरख बोला, ‘‘अरे, भैया, कहां के दुकानदार और कहां के सेठ... हम तो मिट गये। दो पैसे की आमदनी नहीं होती, चार पैसे उधार में चले जाते हैं।''

‘‘अयं, ऐसे कैसे दुकानदारी चलेगी ?'' ठाकुर साहब हैरानी से बोले, जैसे उन्‍हें किसी बात का पता नहीं था। नन्‍दू सिंह आज से पहले कभी उसके घर या दुकान नहीं आये थे। जब दुकान खुली थी, तब भी नहीं। आज जब वह बर्बाद हो चुका था, तो उसके जले पर नमक छिड़कने के लिए आए थे। क्‍या वह समझता नहीं.. वह ठाकुर हैं। दुकान भी चला रहे हैं। क्‍या यह उधार नहीं देते होंगे, परन्‍तु इनकी उधारी भला कोई रोककर देखे। लाठी के बल पर वसूल लेंगे। इनके पास जाति और पैसे का बल है, रामहरख के पास क्‍या है ? उसकी दुकान तो बंद होनी ही थी।

ऊपर से उसने कहा, ‘‘चल रही है, जैसे-तैसे...''

नन्‍दू सिंह ने दुकान के अंदर घुसकर पूरा जायजा लिया और मुंह बिचकाते हुए कहा, ‘‘हां, भई, दुकान तो खाली हो गयी है। मैं तो कहता हूं, उधार दो। गांव की दुकान है, उधार देना ही पड़ेगा, परन्‍तु सोच-समझकर उतना ही दो, जितना वसूल हो जाये और दुकान सही ढंग से चलती रहे।''

नन्‍दू सिंह अब भोले बनकर उसे समझा रहे थे। यही बात कहने के लिए पहले क्‍यों नहीं आए ? वह सब समझ रहा था। वह यह देखने आए थे, कि उसमें अभी और कितनी जान बाकी है।

‘‘अब क्‍या करें, कोई मानता ही नहीं। पैसे मांगो, तो हजार बहाने बनाते हैं।'' रामहरख ने यह नहीं कहा कि लोग धमकाते भी हैं। अगर बता भी दिया, तो ऊपर से सहानुभूति जताएंगे और अन्‍दर ही अन्‍दर खुश होंगे, अतः उसने बात नहीं बढ़ाई। नन्‍दू सिंह थोड़ी देर तक बैठे उसकी चिंताओं में वृद्धि करते रहे और फिर समझाते हुए चले गये। ऐसा समझाना भी किस काम जो उसके किसी काम न आये।

साल-छः महीने किसी तरह बाकी बचे पैसे से दुकान में सामान भरवाकर उसे जिन्‍दा करने की रामहरख ने बहुत कोशिश की। इस बार मन को कड़ा किया था कि किसी को उधार नहीं देगा। इस सिद्धान्‍त को लागू भी किया, परन्‍तु ज्‍यादा दिन उसका रवैया चल नहीं पाया। जिसको भी उधार देने से मना करता, वही धमकी देने लगता, ‘‘बहुत गर्मी चढ़ गई है। गांव में रहकर ऐसी हिमाकत और जुर्रत... कि गांव के ही आदमी को उधार नहीं दोगे। हम क्‍या चोर-बदमाश हैं ? तुम क्‍या कभी घर से बाहर नहीं निकलोगे ? खेत-मेंड़ नहीं जाओगे ? भैंस पाल रखी है, उसके लिए चारा कहां से लाओगे ? खेत-मेंड़ में दिखाई पड़ोगे तो टांगें तोड़कर हाथ में रख देंगे। सही-सलामत घर लौटकर नहीं आओगे।''

रामहरख माथा पीट लेता। कहीं से वह पार नहीं पा रहा था। उसकी यह रणनीति भी कारगर साबित नहीं हुई। वह उधार नहीं देता, परन्‍तु लोग जबरदस्‍ती उधार ले लेते। उसे लगता, सारे गांव वालों ने उसके खिलाफ़ साज़िश रच रखी है कि उसे बरबाद करके मानेंगे। अब उसके बर्बाद होने में बचा ही क्‍या था ? दुकान तो खत्‍म हो चुकी है, ज्‍यादा से ज्‍यादा हजार-बारह सौ का सामान बचा है, वह भी उधार में चला जाएगा। दुकान नहीं बचेगी, तो वह क्‍या करेगा ? क्‍या फिर से ठाकुर के यहां मजदूरी... वह कांप गया। पचास साल की उमर में तपती धूप में क्‍या वह खेत में काम कर सकेगा ? सीधे खड़ा रह पायेगा ? उसकी आंखों के सामने खेत का दृश्य आते ही अन्‍धेरा छाने लगता था।

घर में भैंस थी, उसके लिए चारा पानी कहां से आएगा ? प्रकाश की पढ़ाई कैसे होगी ? क्‍या उसका भविष्‍य बन पायेगा ? बेटी की शादी कैसे होगी ? भैंस का घी-दूध बेचकर भी खर्चा पूरा नहीं पड़ने वाला था। पूरी उमर मेहनत मजदूरी करते-करते रामहरख वैसे भी जर्जर हो चुका था। पैसे डूबने से तो जैसे वह अधमरा हो गया था। रीढ़ की हड्‌डी टूट गयी थी। वह अधमरे सांप की तरह न तो मर सकता था, न जी सकता था। बस एक-जगह पड़े-पड़े तड़पते रहना ही उसकी नियति थी।

रात में खाट पर लेटे-लेटे उसने अपने भाग्‍य को कोसा, ‘‘मेरी मति मारी गई थी, जो दुकान करने की सोची। रुपया बैंक में जमा कर देता और मेहनत मजदूरी करता रहता तो आज यह नौबत न आती। हम कंगाल हो गये, रुपये-डूब गये, अब प्रकाश की पढ़ाई और बेटी की शादी की चिन्‍ता खाये जा रही है।''

‘‘मुझे तो लगता है, यह सारे गांववालों की चाल है। इसके पीछे नन्‍दू चौहान का हाथ लगता है। उसकी दुकानदारी ठप जो होने लगी थी। गांव में पहले अकेले उसी की दुकान थी। मनमाने भाव पर सामान बेंचता था। डांड़ी ऊपर से मारता था। सारे ग्राहक इधर आने लगे तो उसने ये चाल चली। सब उसी के सिखाये हुए आते थे और उधार सामान लेकर दुकान चौपट कर दी।''

‘‘हो सकता है, ऐसा हो, परन्‍तु नन्‍दू का हम क्‍या कुछ बिगाड़ सकते हैं ? वह ठाकुर है, अगर उसने यह सब किया भी है, तो न हम उसके ऊपर मुकदमा कर सकते हैं, न साबित कर सकते हैं।''

‘‘गरीब का कोई नहीं, भगवान भी नहीं। ऊपर वाला नहीं देखता क्‍या कि कितना अत्‍याचार हो रहा है हमारे ऊपर। उसकी आंखें फूट गई है। हमने किसका बुरा किया, किसके घर में चोरी की, किसका गला दबाया ? फिर लोग क्‍यों हमारे घर में सुख का दिया जलता नहीं देख सकते। फूंक मारकर बुझा दिया।''

‘‘सब किस्‍मत का खेल है।'' वह गहरी सांस लेकर बोला।

‘‘कोई किस्‍मत का खेल नहीं है। ये बड़ी जाति वाले... सब हरामी हैं। इनकी छाती जलती है, जब हम अच्‍छा खाते हैं और अच्‍छा पहनते है। परकास ऊंची क्‍लिास में पढ़ने लग गया है न! इससे और जलते हैं। सोचते हैं, इस तरह हमें बरबाद करके हम बेटे को पढ़ा-लिखा नहीं पायेंगे, तो मजबूर होकर उनके खेत-मेंड़ में काम करने जायेंगे।''

‘‘मेरी तो हिम्‍मत नहीं होती अब कुछ करने की।'' वह हताश थी।

‘‘नहीं करेंगे, तो क्‍या कोई हमारे मुंह में कौर डालने आएगा ? मैं तो करूंगी। रात-दिन मेहनत करूंगी, परन्‍तु इन मुंहझौंसे बड़ी जाति वालों को दिखाकर रहूंगी कि उनके बरबाद करने से हम मिट नहीं जायेंगे। जब तक हाथ-पैर सही-सलामत हैं, मेहनत-मजदूरी करके सूखी रोटी तो खा ही लेंगे। आधे पेट खाकर भी परकास को पढ़ाना है।'' बीवी की बातों में जोश था, परन्‍तु उसके शरीर में जोश और साहस का संचार नहीं हुआ।

रामहरख कुछ नहीं बोला। वह तो एक जिन्‍दा लाश की तरह बन गया था। उसके शरीर में मजदूरी करने की न तो ताकत थी, न उल्‍लास। परन्‍तु जीने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। दुकान बंद हो गयी थी। भकुआ की भैंस को पूरे गांववालों ने दुह लिया था। वह मुंह ताकता ही रह गया था।

अब उसके सामने और कोई रास्‍ता नहीं बचा था। एक ही रास्‍ता बचा था कि ठाकुर के यहां मजदूरी करता। भले ही उसके शरीर में खून और मांस नहीं था। एक ठाठ तो था ही, काम कर सकता था। करना ही पड़ेगा, अगर उसे बेटे को आगे पढ़ाना है और बेटी की शादी करनी है।

(समाप्‍त)

----.

(राकेश भ्रमर)

12, राजुल ड्‌यूप्‍लेक्‍स, निकट वैभव सिनेमा,

नैपियर टाउन, जबलपुर-482001

दूरभाष- आवासः 0761 2418001

मोबाइल- 09425600090

कहानी मौलिक, अप्रकाशित और अप्रसारित है.

(राकेश भ्रमर)

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. kahaanee men nayaa kuchh bhee naheen hai. ye so sadiyon puraanee prem chand ji ke jamaane kee kahaani hai.

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  2. रक्षाबन्धन के पावन पर्व की हार्दिक बधाई एवम् शुभकामनाएँ

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रचनाकार: राकेश भ्रमर की कहानी – भकुआ की भैंस
राकेश भ्रमर की कहानी – भकुआ की भैंस
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