प्रमोद भार्गव के सामाजिक सरोकारों के आलेखों की ई-बुक – आम आदमी और आर्थिक विकास : 5

SHARE:

आम आदमी और आर्थिक विकास प्रमोद भार्गव पिछले अंक से जारी… इस अंक में - 16. औद्योगिक क्रांति के पर्यावरणीय दुष्‍परिणाम 17. सिंह बनाम आद...

आम आदमी और आर्थिक विकास

clip_image001

प्रमोद भार्गव

clip_image003

पिछले अंक से जारी…

इस अंक में -

16. औद्योगिक क्रांति के पर्यावरणीय दुष्‍परिणाम

17. सिंह बनाम आदिवासी संघर्ष

18. मुसीबत का मानसून

19. व्‍यापार के लिए एड्‌स का हौवा

20. संकट बनता इलेक्‍ट्रोनिक कचरा

--

औद्यौगिक क्रांति के पर्यावरणीय दुष्‍परिणाम

औद्योगिक क्रांति जिस तरह से औद्यौगिक हवस के रूप में सामने आ रही है, उसके चलते पूरी दुनियां में जो पर्यावरणीय संकट बढ़ा है, उसके ऐवज में प्रतिवर्ष एक करोड़ तीस लाख लोग मौत के मुंह में समा रहे हैं। वायु मंडल में प्रमुख ग्रीन हाउस गैस कार्बन डाईऑक्‍साइड रिकार्ड स्‍तर पर पहुंच गई है। इस समय इसका घनत्‍व 387पीपी.एम हो गया है, जो कि औद्योगिक क्रांति के समय मौजूदा स्‍तर से 40 फीसदी ज्‍यादा है। दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन से उपजे संकट लोगों का मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य बिगाड़ रहे हैं। बड़ी औद्योगिक, सिंचाई व वन परियोजनाओं को अमल के परिप्रेक्ष्‍य में जिन वनवासियों को विस्‍थापित किया गया है, उनका समुचित पुनर्वास न होने के कारण उनकी आय हैरानी की हद तक घटी है और उनका जीवन यापन किसी तरह भगवान भरासे चल रहा है।

दुनिया में औद्यौगिक क्रांति का विस्‍तार जिस गति से हो रहा है उसी गति से पर्यावरण का विनाश भी हो रहा है। विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन की हाल ही में आई एक रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि पर्यावरण में सुधार लाकर हर साल होने वाली एक करोड़ तीस लाख मौतों को रोका जा सकता है और कुछ देशों में विभिन्‍न बीमारियों के कारण होने वाले एक तिहाई आर्थिक खर्च को भी कम किया जा सकता है। पर्यावरणीय घातक कारकों में प्रदूषण, प्रदूषित कार्य स्‍थल, विकिरण, शोर, कृषि संबंधी जोखिम, कीटनाशक, जीवाश्‍म ईंधन और जलवायु परिवर्तन हैं। दुनियां के 23 देशों में दस प्रतिशत से अधिक मौतें गंदगी, खराब मल विसर्जन व्‍यवस्‍था, दूषित पेयजल और घरों में भोजन पकाने के लिए लकड़ी या गोबर के कंडों के प्रयोग से होती हैं। इन घातक कारकों में सबसे ज्‍यादा प्रभावित देशों में अंगोला, बुरकिना, फासो, माली और अफगानिस्‍तान हैं। भारत में भी जीवाश्‍म ईंधन के बड़ी मात्रा में इस्‍तेमाल से वायु प्रदूषण होता है, जिसका दुष्‍प्रभाव ग्रामीण अंचलों में देखने को मिलता है।

पर्यावरणीय घातक कारकों का सबसे अधिक प्रभाव कम आय वाले देशों पर पड़ता है। शोध बताते हैं कि कम आय वाले देशों में रहने वाले हर व्‍यक्‍ति का स्‍वास्‍थ्‍य जीवन उच्‍च आय वाले देशों में रहने वाले व्‍यक्‍ति के मुकाबले हरसालबीस गुना कम होता जाता है। जबकि ये आंकड़े इस बात को भी स्‍पष्‍ट करते हैं कि आज दुनिया में कोई भी देश पर्यावरणीय घातक कारकों के प्रभाव से अछूता नहीं है। यहां तक की जिन देशों में पर्यावरणीय स्‍थिति अच्‍छी है वे पर्यावरणीय घातक कारकों से होने वाली बीमारियों के कारण पड़ने वाले आर्थिक बोझ का छह में से एक भाग कम कर सकते हैं। इतना ही नहीं पर्यावरणीय घातक कारकों में सुधार लाकर हृदय संबंधी रोगों और सडक दुर्घटनाओं में भी कमी लाई जा सकती है।

औद्यौगिकीकरण की सुरसामुखी भूख, खदानों में वैद्य-अवैद्य उत्‍खनन, जंगलों का सफाया और व्‍यापार के लिए जल स्रोतों पर कब्‍जे की हवस बढ़ जाने के कारण हमारे यहां भी वनवासियों के हालात भयावह हुए हैं। पिछले 35-40 साल के भीतर करीब चार करोड़ आदिवासी आधुनिक विकास की परियोजनाएं खड़ी करने के लिए अपने पुश्‍तैनी अधिकार क्षेत्रों जल, जंगल और जमीन से खदेड़े गए हैं। जिनका उचित पुर्नवास लालफीताशाही और भ्रष्‍टाचार के चलते आज तक नहीं हो पाया है। अपने जायज हकों के लिए जब ये अनपढ़ और साधनविहीन वनवासी संघर्ष करते हैं तो इन्‍हें कानूनी पेेंचीदगियों में उलझा दिया जाता है। वन विभाग और जिला प्रशासन की ये हरकतें इन्‍हें वन और वन्‍य प्राणियों का शत्राु बना देने के लिए भी बाध्‍य करती हैं। छत्‍तीसगढ़, आंध्रप्रदेश और उडीसा में पसरा नक्‍सलवाद गलत वन नीतियों का भी दुष्‍परिणाम है।

अकेले मध्‍यप्रदेश की ही बात करें तो वन्‍य प्राणियों के प्रजनन, आहार, आवास और संवर्द्धन की दृष्‍टि से ऐसे दस प्रतिशत वन ग्रामों को विस्‍थापित की जाने की कार्यवाही जारी है जो राष्‍ट्रीय उद्यानों व अभ्‍यारण्‍य क्षेत्रों में बसे हैं। ऐसे कुल 784 ग्रामों की पहचान की गई है, जिनमें 82 ग्राम या तो बेदखल कर दिए गए हैं या उनकी बेदखली का सिलसिला जारी है। वन विभाग दावा तो यह करता है कि ऐसे 19 हजार 908 परिवारों को विकास की मुख्‍य धारा में लाया जा रहा है। लेकिन मुख्‍यधारा का स्‍वप्‍नलोक तब दरक गया जब शिवपुरी के माधव राष्‍ट्रीय उद्यान, श्‍योपुर के कूनों पालपुर अभ्‍यारण्‍य और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व फारेस्‍ट क्षेत्रों से जिन रहवासियों की बेदखली के बाद उनकी आर्थिक आय और जीवन स्‍तर का आकलन किया गया तो पाया गया कि इनकी आमदनी 50 से 90 प्रतिशत तक घट गई है। उड़ीसा के अभ्‍यारणयों से विस्‍थापितों का भी यही हश्र हुआ। कर्नाटक के बिलिगिरी रंगास्‍वामी मंदिर अभ्‍यारण्‍य में लगी पाबंदी के कारण सोलिंगा आदिवासियों को दो दिन में एक ही मर्तबा भोजन नसीब हो रहा है। ऐसा ही हश्र बड़ी बांध परियोजनाओं के लिए किए गए विस्‍थापितों का है। ऐसे ही लोग ‘‘भारत की राष्‍ट्रीय प्रतिदर्श'' रिपोर्ट में शामिल हैं, जिनकी आमदनी प्रतिदिन मात्रा नौ रूपये आंकी गई है।

एक बड़ी आबादी पर ये संकट पर्यावरणीय विनाश का नतीजा हैं। यदि हमें इस आबादी के प्रति जरा भी सहानुभूति है तो तत्‍काल उन वन नीतियों को बदलने की जरूरत है, जिससे जैव विविधता, जल स्रोत और आदिवासी कही जाने वाली मानव नस्‍लों को बचाया जा सके। इनके भविष्‍य से हम खिलवाड़ करेंगे तो हमारी पीढ़ियों का भविष्‍य भी सुरक्षित रहने वाला नहीं है। क्‍योंकि आम लोगों की उदासीनता और आर्थिक असुरक्षा उनमें आक्रोश और प्रतिकार की भावना जगा रही है। हाल ही में कूनो पालपुर अभ्‍यारण्‍य के विस्‍थापितों और वनकर्मियों के बीच टकराव के हालात ऐसे ही असंतोष की उपज हैं।

बेतहाशा हुई औद्यौगिक क्रांति के ही दुष्‍फलस्‍वरूप जलवायु परिवर्तन हुआ। वायुमण्‍डल में कार्बन डाईऑक्‍साइड के घनत्‍व में हुई बढ़त ने पृथ्‍वी की जो प्रतिवर्ष अरबों टन कार्बन सोखने की क्षमता थी, वह क्षमता कम हुई। ग्रीन हाउस गैसें जितनी बड़ी मात्रा में उत्‍सर्जित की जा रही हैं उनके दुष्‍प्रभाव को 25 प्रतिशत सोखने की ही क्षमता अब पृथ्‍वी में रह गई है। यह पर्यावरणीय विकास मानव और प्राणी समुदायों के लिए घातक सिद्ध हो रहा है।

जलवायु परिवर्तन के चलते सामने आ रही प्राकृतिक आपदाएं व्‍यक्‍ति के स्‍वास्‍थ्‍य पर प्रतिकूल असर डाल रही हैं। सुनामी चक्रवात के बाद 20 से 30 प्रतिशत लोग मनोवैज्ञानिक विकारों की गिरफ्‍त में थे। अमेरिका में आया समुद्री तूफान कैटरीना भी मानसिक विकारों का कारण बना। उड़ीसा में आया तूफान भी लोगों के लिए मानसिक संकट बना। जलवायु परिवर्तन से उपजी आपदाएं कृषि पर निर्भर रहने वाले लोगों पर भी असरकारी साबित हो रही हैं। भारत के किसान इस परिवर्तन के सबसे ज्‍यादा शिकार हुए। किसानों ने सूखे की मार झेली। उन पर देनदारियां बढ़ीं। नतीजतन किसानों ने बड़ी संख्‍या में आत्‍महत्‍याएं की। भारी भरकम पैकेज के बाद भी यह सिलसिला अभी थमा नहीं है। यही कारण है कि 71 हजार करोड़ के कृषि ऋण पैकेज की घोषणा के वाबजूद 448 किसान आत्‍महत्‍या कर चुके हैं।

पर्यावरणीय विनाश का विकल्‍प मनुष्‍य के हाथ में नहीं है। इसलिए जरूरी है कि औद्यौगिक विकास को लगाम लगाई जाए। यह कथित क्रांति थमती है तो पर्यावरण की प्रकृति स्‍वभाविक विकास करेगी और पर्यावरण सुरक्षित होगा तो उन मौतों को रोका जा सकेगा जो पर्यावरणीय क्षति के कारण हो रही हैं।

सिंह बनाम आदिवासी संघर्ष

शिवपुरी और श्‍योपुर मार्ग पर बियावान जंगल हैं। जिसे कूनों पालपुर अभ्‍यारण्‍य के नाम से अधिसूचित करीब ढाई दशक पहले किया गया था। कूनों नदी इस अभ्‍यारण्‍य के वन्‍य प्राणी व वनवासियों की जीवन रेखा रही है। गुजरात के गिर अभ्‍यारण्‍य के एशियाई सिंह बसाने के फेर में इन घने वन प्रांतरों से सुविधाजनक पुर्नवास और समुचित मुआवजा दिए जाने के सरकारी आश्‍वासन पर हजारों आदिवासियों को एक दशक पहले खदेड़ दिया गया था। उनका अब तक न तो स्‍तरीय पुनर्वास हुआ और न ही मुआवजा मिला। नतीजतन रोटी, कपड़ा और मकान के असुरक्षित भाव के चलते आदिवासी आक्रोशित हो उठे और संगठित आदिवासी समूहों ने अपने पुराने आवासों में बसने के लिए जंगल की ओर कूच कर दिया। लेकिन अपने वाजिब हकों की लड़ाई में संघर्षशील आदिवासी जब अभ्‍यारण्‍य में घुसने लगे तो पूर्व से ही तैनात पुलिस और वनकर्मियों द्वारा निहत्‍थों पर की गई गोलीबारी ने इनकी मुहिम को थाम दिया। मरा तो कोई भी नहीं लेकिन पुलिस फायरिंग से आदिवासी घायल जरूर हुए। आदिवासियों की पत्‍थरबाजी से कुछ वनकर्मी भी लहुलुहान हुए ऐसी भी खबर है लेकिन इसके साक्ष्‍य नहीं हैं। यहां आश्‍चर्यजनक यह भी है कि आदिवासी तो देखते-देखते विस्‍थापित कर दिए गए लेकिन वन अमला अभी तक इन जंगलों में एक भी सिंह का पुनर्वास करने में तमाम कोशिशों के बावजूद कामयाब नहीं हुआ।

यह अजीबों गरीब विडंबना हमारे देश में ही संभव है कि वन और वन्‍य प्राणियों का आदिकाल से संरक्षण करते चले आ रहे आदिवासियों को बड़ी संख्‍या में जंगलों से केवल इस बिना पर बेदखल कर दिया गया कि इनका जंगलों में रहना वन्‍य जीवों के प्रजनन, आहार व नैसर्गिक आवासों के दृष्‍टिगत हितकारी नहीं है। इसलिए ऐसे आवासों को चिन्‍हित कर परंपरागत रहवासियों का विस्‍थापन किया जाना नितांत आवश्‍यक है। इसी कथित जीवन दर्शन के आधार पर संपूर्ण मध्‍यप्रदेश में आदिवासियों को मूल आवासों से खदेड़े जाने का सिलसिला निर्ममता से जारी है।

देश के प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम का इतिहास जितना पुराना है आदिवासियों को वनों से बेदखल कर वन अभ्‍यारणयों की स्‍थापना का इतिहास भी लगभग उतना ही पुराना है। जिसकी बुनियाद अंग्रेजों के निष्‍ठुर और बर्बर दुराचरण पर टिकी है। दरअसल जब मंगल पांडे ने 1857 के संग्राम का बिगुल फूंका था तब मध्‍यप्रदेश के हिल स्‍टेशन पचमढ़ी की तलहटी में घने जंगलों में बसे गांव हर्राकोट के कोरकू मुखिया भूपत सिंह ने भी फिरंगियों के विरूद्ध विद्रोह का झंडा फहराया हुआ था। प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम तो अंग्रेजों की कुटिल व बांटों और राज करो कि नीतियों तथा सामंतों के समर्थन के चलते जल्‍दी काबू में ले लिया गया लेकिन भूपत सिंह को हर्राकोट से विस्‍थापित करने में दो साल का समय लगा। इस जंगल से आदिवासियों की बेदखली के बाद ये वन 1859 में ‘बोरी आरक्षित वन' के नाम से घोषित कर दिए गए। इसके बाद 1862 में वन महकमा वजूद में आया। हैरानी इस बात पर है कि तभी से हम विदेशियों द्वारा खींची गई लकीर के फकीर बने चले आ रहे हैं। नीति और तरीके भी वहीं हैं। दरअसल हम विकास के किसी भी क्षेत्र में विकसित देशों का उदाहरण देने के आदी हो गए हैं। जबकि हमें वन, वन्‍य जीव और उनमें रहवासियों के तारतम्‍य में अपने भूगोल वन और वन्‍य जीवों से आदिवासियों की सहभागिता और स्‍थानीय पारिस्‍थितिकी तंत्र को समझने कि जरूरत है।

विकसित देशों में भारत की तुलना में आबादी का घनत्‍व कम और भूमि का विस्‍तार ज्‍यादा है। इसलिए वहां रहवासियों को बेदखल करके वन्‍य प्राणियों को सुरक्षित की जाने की नीति अपनाई जा सकती है, परंतु हमारे यहां मौजूदा परिवेश में कतई यह संभव नहीं है। जिन भू-खण्‍डों पर वन और प्राणियों की स्‍वछंद अस्‍मिता है, मानव सभ्‍यता भी वहां हजारों-हजार साल से विचरित है। दरअसल यूरोपीय देशों में वनों के संदर्भ में एक अवधारणा ‘‘विल्‍डरनेस'' प्रचलन में है, जिसके मायने हैं मानवविहीन सन्‍नाटा, निर्वात अथवा शून्‍यता। जबकि हमारे पांच हजार साल से भी ज्‍यादा पुराने ज्ञात इतिहास में ऐसी किसी अवधारणा का उल्‍लेख नहीं है। इसी वजह से हमने अभी तक जितने भी अभ्‍यारण्‍यों अथवा राष्‍ट्रीय उद्यानों से रहवासियों का विस्‍थापन किया है वहां-वहां वन्‍य जीवों की संख्‍या अप्रत्‍याशित ढंग से घटी है। सारिस्‍का और रणथम्‍बौर जैसे बाघ आरक्षित वन इसके उदाहरण हैं। सच्‍चाई यह है कि करोड़ों अरबों रूपये खर्चने के बावजूद जीवन विरोधी ये नीतियां कहीं भी कारगर साबित नहीं हुई हैं। बल्‍कि अलगाव की उग्र भावना पैदा करने वाली विस्‍थापन व संरक्षण की इन नीतियों से स्‍थानीय समाज और वन विभाग के बीच परस्‍पर तनाव और टकराव के हालात तो उत्‍पन्‍न हुए ही आदिवासियों को वनों और प्राणियों का दुश्‍मन बनाए जाने पर भी विवश किया गया।

शिवपुरी जिले का ही करैरा स्‍थित सोन चिड़िया अभ्‍यारण्‍य गलत वन नीतियों का माकूल उदाहरण है। 1980 में यहां पहली बार एक किसान ने दुर्लभ सोन चिड़िया देखकर कलेक्‍टर शिवपुरी को इसकी सूचना दी। तत्‍कालीन कलेक्‍टर ने वनाधिकारियों के साथ जब इस अद्‌भुत पक्षी को देखा तो इस राजस्‍व वन को अभ्‍यारण्‍य बना देने का सिलसिला शुरू हुआ और 202 वर्ग कि.मी. का राजस्‍व वन सोन चिड़िया के स्‍वछंद विचरण के लिए 1982 में अधिसूचित कर दिया गया। इसके बाद देखते-देखते झरबेरियों से भरे इस वन खंड में सोन चिड़िया और काले हिरणों की संख्‍या आशातीत रूप से बढ़ गई। लेकिन इनके संरक्षण के लिए इस अभयारण्‍य क्षेत्र में आने वाले 11-12 ग्रामों के विस्‍थापन की प्रक्रिया ने जोर पकड़ा तो देखते-देखते करीब साढ़े तीन हजार काले हिरणों और चालीस सोन चिड़ियाओं की आबादी के चिन्‍ह मिटा दिए गए। नतीजतन विस्‍थापन का सिलसिला जहां की तहां थम गया। यहां ऐसा इसलिए संभव हुआ क्‍योंकि विस्‍थापित किये जाने वाले गांव आदिवासी बहुल ग्राम नहीं थे। इनमें सवर्णों और पिछड़ी जातियों की बहुसंख्‍यक आबादी थी। ये राजनीति में रसूख तो रखते ही ये प्रशासन में भी प्रभावशील हस्‍तक्षेप रखते थे। आर्थिक रूप से भी इनकी सक्षमता ने इन्‍हें विस्‍थापित नहीं होने देने में मदद की।

दरअसल जब यहां सहजीवन को पलीता लगाए जाने वाली नीतियां अपनाई जाने लगीं तो ग्रामीणों के संगठनों ने ‘‘न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी'' वाली नीति अपना ली और कुछ ही दिनों में वन्‍यजीवों की मनोहारी छलांगों की टांगें काट दी गईं और उड़ानों के पर कतर दिए गए। करैरा अभ्‍यारण्‍य एक चेतावनी है कि नीतियों पर पुनर्विचार नहीं किया गया तो मानव और प्राणियों के बीच कटुता का भाव बढ़ेगा जिसका असर वन और वन्‍य जीवन पर ज्‍यादा पड़ेगा।

सच पूछा जाए तो वनवासी वन प्राणियों के लिए संकट कतई नहीं हैं। इनके सामूहिक विनाश का कारण तो औद्यौगिक लिप्‍सा, खदानों में वैद्य-अवैद्य उत्‍खनन और वह लकड़ी माफिया है जो राजनीतिक व प्रशासनिक सांठगांठ के बूते समूची वन संपदा का धडल्‍ले से दोहन करने में लगे हैं, जबकि विस्‍थापन का दंश वनवासी झेल रहे हैं। पिछले चालीस साल में आधुनिक विकास के नाम पर जितनी भी परियोजनाओं की आधारशिलाएं रखी गई हैं उनके निर्माण के मददेनजर अपनी पुश्‍तैनी जड़ों से उखाडे गए चार करोड़ के करीब रहवासी विस्‍थापन का अभिशाप दशकों से झेल रहे हैं। कूनो पालपुर तो ताजा उदाहरण है। यह भी केवल संयोग नहीं है कि अधिकांश विस्‍थापित आदिवासी मछुआरे और सीमांत किसान हैं। विकास परियोजनाएं सोची समझी साजिश के तहत उन्‍हीं क्षेत्रों में अस्‍तित्‍व में लाई जाती हैं जहां का तबका गरीब व लाचार तो हो ही, अडंगा लगाने की ताकत और समझ भी उसमें न हो?

लेकिन यह वाकई इत्तेफाक है कि कूनो पालपुर के बेदखल टकराव के मूड में आ गए। दरअसल कूनों में गिर के एशियाई सिंह बसाए जाने की योजना एक दशक पूर्व इस इलाके के चौबीस वनवासी ग्रामों को विस्‍थापित कर पुर्नवास की प्रक्रिया के साथ अमल में लाई गई थी। विस्‍थापितों को यह भरोसा जताया गया था कि सर्व सुविधायुक्‍त पुनर्वास स्‍थलों में बसाए जाने के साथ समुचित मुआवजा भी उपलब्‍ध कराया जाएगा। 1998 से 2002 तक पुनर्वास की प्रक्रिया के तहत विस्‍थापितों को आंशिक सुविधाएं हासिल भी कराई गईं। परंतु मुआवजे की जो धनराशि 2003 में देनी चाहिए थी उससे इन्‍हें आज तक वंचित रखा गया। हालांकि कई मर्तबा मांगों के ज्ञापन और प्रदर्शन के बाद दिसंबर 2007 में मुआवजा की चार करोड़ 71 लाख रूपये की राशि वनमंडल द्वारा एक सूची संलग्‍नीकरण के साथ कलेक्‍टर श्‍योपुर को दी भी गई। लेकिन राजस्‍व महकमा की जैसी की आदत है वह राशि और फाईल पर कुण्‍डली मारकर बैठ गया, जिससे कुछ भेंट पूजा की व्‍यवस्‍था बने? दाने-दाने को मोहताज हुए सहरिया आदिवासी कब तक सबर करते? न्‍याय संगत अधिकार के लिए वे टूट पड़े और दण्‍ड भी भुगता। प्रशासन ने पांच सौ आदिवासियों के विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज करा दी। आखिर जिला प्रशासन और वन विभाग बताए कि इसमें लाचार आदिवासी गलत कहां हैं? और कैसे हैं? वैसे इन जंगलों में सिंह बसाए जाने की योजना को तो पलीता लग गया है क्‍योंकि गिर के सिंह देने से गुजरात सरकार ने साफ इंकार कर दिया है। अब बेवजह सिंहों को लेकर वनवासियों से तकरार के क्‍या मायने हैं?

मुसीबत का मानसून

पिछले कुछ सालों से मानसून तबाही की मुसीबतें लेकर आ रहा है। मौसम के इस बदले मिजाज को लेकर पूरी दुनिया में अफरा-तफरी मची है। वैज्ञानिकों के कुछ समूह इसे भू-मंडल में बढ़ते तापमान का कारण मान रहे हैं तो कुछ मौसम परिवर्तन की इन भविष्‍यवाणियों को नकारते हुए कह रहे हैं कि जब मौसम के सिलसिले में तात्‍कालिक भाविष्‍यवाणियां सटीक नहीं बैठ रही तो सौ साल के पूर्वानुमानों पर कैसे विश्‍वास किया जा सकता है। बहरहाल मौसम वैज्ञानिकों की अटकलें कुछ भी हों बरसात के रूप में प्रकृति का कहर कठोर निर्ममता के साथ जारी है।

जून माह से मानसून आ जाने की अटकलों का दौर शुरू हो जाता है। यदि औसत मानसून आये तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आये तो पपड़ाई धरती और अकाल की क्रूर परछाईयां देखने में आती हैं। लेकिन इस बार मौसम विज्ञानियों की भविष्‍यवाणियों से परे मानसून ने जो तेवर दिखाये हैं उससे देश के दक्षिणी और पश्‍चिमी भारत का बहुत बड़ा भू-भाग बाढ़ की विस्‍मयकारी चपेट में है, तो उत्तरी भारत कमोबेश औसत से कम वर्षा होने के कारण फिलहाल सूखे की आशंकाओं से ग्रस्‍त है। मानसून की इस लीला के आंखमिचौनी खेल की पड़ताल आधुनिक तकनीक से समृद्ध मौसम विभाग आखिर ठीक समय पर क्‍यों नहीं कर पाता और क्‍यों तबाही के मंजर में सैंकड़ों लोगों की जान और अरबों-खरबों का नुकसान देश को उठाना पड़ता है....?

टीवी समाचार चैनल खोलने और समाचार पत्रों के पन्‍ने पलटने पर प्रमुखता से बाढ़ से तबाही की खबरें देखने व सुनने को मिल रही हैं। बाढ़ से आई तबाही का आंकलन करें तो पता चलता है कि 32 हजार गांव हर साल बाढ़ का कहर झेलते हैं। 2 करोड़ लोगों पर मानसून की मार सीधे-सीधे पड़ती है। 22 लाख घर जमींदोज हो जाते हैं। 18 लाख हेक्‍टेयर फसल नष्‍ट हो जाती है, जिससे 20 लाख किसान प्रभावित होते हैं। अब तो बाढ़ का प्रकोप मुंबई, कोलकाता, अहमदाबाद, सूरत, बड़ौदा, राजकोट, नासिक, रायगढ़, रायपुर आदि विकसित माने जाने वाले शहरों में भी देखा जाने लगा है। सैंकड़ों नगरीय लोग और मवेशी बे-मौत मार जा रहे हैं।

मौसम विभाग द्वारा कुछ क्षेत्रों में औसत अथवा कुछ में औसत से कम बारिश होने की संभावना जताई थी लेकिन वर्षा ऋतु ने जर्बदस्‍त बरसकर यह बाढ़ का कहर बरपा दिया। आखिर हमारे मौसम वैज्ञानिकों के पूर्वानुमान आसन्‍न संकटों की क्‍यों सटीक जानकारी देने में खरे नहीं उतरते? क्‍या हमारे पास तकनीकी ज्ञान अथवा साधन कम हैं अथवा हम उनके संकेत समझने में अक्षम हैं...? मौसम वैज्ञानिकों की बात मानें तो जब उत्तर-पश्‍चिमी भारत में मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दाव का क्षेत्र बनता है। इस कम दाव वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्ध से भूमध्‍य रेखा के निकट से हवाऐं दौड़ती हैं। दूसरी तरफ धरती की परिक्रमा सूरज के गिर्द अपनी धुरी पर जारी रहती है। निरंतर चक्‍कर लगाने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्‍हें नई दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्ध से आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाऐं भूमध्‍य रेखा को पार करते ही पलटकर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैंं। ये हवाऐं भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्‍सों में विभाजित होती हैं। इनमें से एक हिस्‍सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर उड़ीसा, पश्‍चिम बंगाल, बिहार, झारखण्‍ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, हिमाचल हरियाणा और पंजाब तक बरसती हैं। अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली हवाऐं आन्‍ध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्‍ट्र, मध्‍यप्रदेश और राजस्‍थान में बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्‍य और कश्‍यप सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिजाज का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाऐं भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमण्‍डल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्‍थिति निर्मित होती है तो मानसून के रुख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज्‍यादा बरसाती रूप में भारतीय धरती पर गिरता है।

महासागरों की सतह पर प्रवाहित वायुमण्‍डल की हरेक हलचल पर मौसम विज्ञानियों को इनके भिन्‍न-भिन्‍न ऊंचाईयों पर निर्मित यंत्र तापमान और हवा के दबाव, गति और दिशा पर निगाह रखते हैं। इसके लिये कम्‍प्‍यूटरों, गुब्‍बारों, वायुयानों, समुद्री जहाजों और रडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता ली जाती है। इनसे जो आंकड़ें इकट्‌ठे होते हैं उनका विश्‍लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता है। हमारे देश में 1875 में मौसम विभाग की बुनियाद रखी गई थी। आजादी के बाद से मौसम विभाग में आधुनिक संसाधनों का निरंतर विस्‍तार होता चला आ रहा है। विभाग के पास 550 भू-वेधशालायें, 63 गुब्‍बारा केन्‍द्र, 32 रेडियो पवन वेधशालाएं, 11 तूफान संवेदी और 8 तूफान सचेतक रडार केन्‍द्र हैं, 8 उपग्रह चित्रा प्रेषण और ग्राही केन्‍द्र हैं। इसके अलावा वर्षा दर्ज करने वाले 5 हजार पानी के भाप बनकर हवा होने पर निगाह रखने वाले केन्‍द्र 214 पेड़ पौधों की पत्तियों से होने वाले वाष्‍पीकरण को मापने वाले, 35 तथा 38 विकिरणमापी एवं 48 भूकंपमापी वेधशालाऐं हैं। अब तो अंतरिक्ष में छोड़े गये उपग्रहों के माध्‍यम से सीधे मौसम की जानकारी कम्‍प्‍यूटरों में दर्ज हो रही है।

बरसने वाले बादल बनने के लिये गरम हवाओं में नमी का समन्‍वय जरूरी होता है। हवाऐं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक प्रति एक हजार मीटर की ऊंचाई पर पारा 6 डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमण्‍डल की सबसे ऊपरी परत ट्रोपोपॉज तक चलता है। इस परत की ऊंचाई यदि भूमध्‍य रेखा पर नापें तो करीब 15 हजार मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान लगभग शून्‍य से 85 डिग्री सेन्‍टीग्रेड नीचे पाया गया। यही परत धु्रव प्रदेशों के ऊपर कुल 6 हजार मीटर की ऊंचाई पर भी बन जाती है। और तापमान शून्‍य से 50 डिग्री सेन्‍टीग्रेड नीचे होता है। इसी परत के नीचे मौसम का गोला या ट्रोपोस्‍फियर होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर ट्रोपोपॉज के संपर्क में आती है। ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की नन्‍हीं-नन्‍हीं बूंदें बनाती है। पृथ्‍वी से 5-10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर बड़ी बूंदों में तब्‍दील होते हैं और बर्षा के रूप में धरती पर टपकना शुरू होते हैं।

दुनिया के किसी अन्‍य देश में मौसम इतना दिलचस्‍प, हलचल भरा और प्रभावकारी नहीं है जितना कि भारत में, इसका मुख्‍य कारण है भारतीय प्रायदीप की विलक्षण भौगोलिक स्‍थिति। हमारे यहां एक ओर अरब सागर और दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी है और ऊपर हिमालय के शिखर। इस कारण हमारे देश का जलवायु विविधतापूर्ण होने के साथ प्राणियों के लिये बेहद हितकारी है। इसीलिये पूरे दुनिया के मौसम वैज्ञानिक भारतीय मौसम को परखने में अपनी मनीषा लगाते रहते हैं। इतने अनूठे मौसम का प्रभाव देश की धरती पर क्‍या पड़ेगा इसकी भविष्‍यवाणी करने में हमारे वैज्ञानिक क्‍यों अक्षम रहते हैं इस सिलसिले में प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. राम श्रीवास्‍तव का कहना है कि सुपर कम्‍प्‍यूटरों का बड़ा जखीरा हमारे मौसम विभाग के पास होने के बावजूद सटीक भविष्‍यवाणियां इसलिये नहीं कर पाते क्‍योंकि हम कम्‍प्‍यूटरों की भाषा ''अलगोरिथम'' नहीं पढ़ पाते। वास्‍तव में हमें सटीक भविष्‍यवाणी के लिये मात्रा दो सुपर कम्‍प्‍यूटरों की जरूरत है, लेकिन हमने करोडों रूपये खर्च करके एक्‍स.एम.जी. के-14 कम्‍प्‍यूटर आयात किये हैं। अब इनके 108 टर्मिनल काम नहीं कर रहे हैं, क्‍योंकि इनमें दर्ज आयातित भाषा अलगोरिथम पढ़ने में हम अक्षम हैं। कम्‍प्‍यूटर भले ही आयातित हों लेकिन इनमें मानसून के डाटा स्‍मरण में डालने के लिये जो भाषा हो, वह देशी हो, हमें सफल भविष्‍यवाणी के लिये कम्‍प्‍यूटर की देशी भाषा विकसित करनी होगी क्‍योंकि अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिमालय भारत में है, अमेरिका अथवा ब्रिटेन में नहीं। लिहाजा जब हम बर्षा के आधार श्रोत की भाषा पढ़ने व संकेत परखने में सक्षम हो जाऐंगे तो मौसम की भविष्‍यवाणी सटीक बैठने लगेंगी।

हांलाकी मौसम की भविष्‍यवाणियां बांच लेने भर से स्‍थितियां नहीं बदल जातीं। वैसे मानसून की जटिलता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि सारे प्रासंगिक आंकड़ों की पहचान करना, उन्‍हें नापना और उनका विश्‍लेषण करना आसान काम नहीं है यदि ये क्षमताएं विकसित होती हैं तो की गईं भविष्‍यवाणियां भी मौसम पर खरी उतरने की उम्‍मीद की जा सकती है।

व्‍यापार के लिए एड्‌स का हौवा

हाल ही में एड्‌स पाठ्‌य-पुस्‍तकों के माध्‍यम से से चर्चा में आया है। इस तथाकथित ‘काम-शिक्षा' का विरोध कर रहे शिक्षकों एवं भारतीय संस्‍कृति के पैरोकारों को भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने ‘पाखंडी' कहते हुए महिलाओं को इस महामारी से बचाव के लिए कंडोम खरीदने की वकालत की है। इससे जाहिर है कि मर्ज की दवा तलाशने की बजाय कंडोम का बाजार तैयार करने की कोशिशें बतौर षड्‌यंत्र रची जा रही हैं। इस षड्‌यंत्र की पृष्‍ठभूमि में यूनिसेफ और बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों का दबाव परीलक्षित होता है।

हाल ही में दिल्‍ली में संपन्‍न हुई ‘नेशनल विमेन फोरम ऑफ इंडिया नेटवर्क ऑफ पीपुल लिविंग विद एचआईवी-एड्‌स' की सभा में रेणुका चौधरी ने पुरूषों को एड्‌स फैलाने के लिए जिम्‍मेदार ठहराते हुए महिलाओं को आगाह करते हुए कहा कि महिलाओं को पुरूषों से सतर्क रहना चाहिए और सुरक्षा के लिए कंडोम खरीदने के लिए शर्म छोड़ देनी चाहिए क्‍योंकि भारत में 25 लाख से भी ज्‍यादा एड्‌स रोगी हैं जिनमें से 40 फीसदी महिलाएं हैं इसलिए एड्‌स से बचाव के लिए उन्‍हें स्‍वयं चिंता करनी होगी। दरअसल अब कुछ स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं की भाषा हमारे मंत्री भी बोलने लगे हैं, जिससे उनकी लाचारी ही परिलक्षित होती है। क्‍योंकि एड्‌स से पीड़ित 5 युवक सबसे पहले 1981 में अमेरीका में पाए गए थे। यह मामला उस इलाके में सामने आया जहां उन्‍मुक्‍त यौन संबंध बनाने की खुली छुट है और समलैंगिकों की बहुतायत है। लेकिन अपनी कमजोरियों पर पर्दा डालने के लिए अमेरिकी विशेषज्ञों ने एक अवधारणा रची गढ़ी की यह बीमारी 1970 से ही फैल रही थी और इसके वायरस अफ्रीका में पाए जाने वाले ग्रीन मंकी प्रजाति के बंदर में पाए गए। बंदर से यह पूरे अफ्रीका, फिर अमेरीका और फिर इस वायरस का विस्‍तार पूरी दुनिया में हुआ। लेकिन कालांतर में इस वायरस पर हुए अनुसंधानों ने एड्‌स के जन्‍म के अमेरिकी तत्‍व को सर्वथा झुठला दिया।

दरअसल अमेरीका ने अफ्रीका के खिलाफ एड्‌स को सीधे-सीधे हथियार के रूप में इतेमाल किया। एक तो नस्‍लीय सोच को बढ़ावा देने के रूप में, दूसरे अफ्रीका पर यह आरोप तब मडा गया जब अमेरीका को दक्षिण अफ्रीका पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने थे। अमेरिका ने अफ्रीका में इस संक्रमण के फैलने का आधार बताया कि वहां समलैंगिक और यौन संबंधों में उन्‍मुक्‍तता तो है ही, वैश्‍यावृति भी बहुत बडे़ स्‍तर पर है। लेकिन क्‍या यही उन्‍मुक्‍तता अमेरीका तथा अन्‍य पश्‍चिमी देशों में नहीं है? बल्‍कि यौन संबंधों के मामलों में पश्‍चिमी देशों की और बदतर हालत है। यह तथ्‍य इस बात से भी सत्‍यापित होता है कि दुनिया में सबसे ज्‍यादा यौन अपराध अमेरीका में होते हैं। लेकिन यही सवाल जब अमेरीका के समक्ष उठाया जाता है तो उसका जवाब होता है कि हमने इस महामारी पर अकुंश लगाने के लिए अत्‍याधुनिक दवाओं एवं संसाधनों का आविष्‍कार कर लिया है। फलस्‍वरूप एड्‌स हमारे यहां काबू में है और अब इस पर विकासशील देशों को नियंत्रण की जरूरत है।

भारत में भारत के खिलाफ जो हल्‍ला बोला जा रहा है, उससे जाहिर होता है कि इसे एक साजिश के तहत हथियार के रूप में इस्‍तेमाल किया जा रहा है। यह बात एड्‌स रोगियों के सिलसिले में सरकारी और गैर सरकारी आंकड़ों से एकदम साफ हो जाती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार अब तक 27 हजार लोगों में एड्‌स के एचआईवी जीवाणु पाए गए हैं, जबकि हमारे देश में अमेरीका और अन्‍य पश्‍चिमी देशों की आर्थिक मदद से चलने वाले निजी स्‍वास्‍थ्‍य संगठनों का यह आंकड़ा 25 लाख पर जाकर ठहरता है। यही नहीं लंदन के टेक्‍सवैली विश्‍वविद्यालय द्वारा किये गये अध्‍ययन की जो रिर्पोट सामने आई है उसके अनुसार तो भारत की एक चौथाई आबादी पर इस रोग के संक्रमण का खतरा मंडरा रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है की भारत में कम से कम 22 करोड़ 30 लाख मर्द सैक्‍स के मामले में सक्रिय हैं इनमें से 10 प्रतिशत वैश्‍यागामी हैं। मसलन भारत में कुल वयस्‍क पुरूषों की संख्‍या में से आधे से कहीं ज्‍यादा रोजी रोटी की चिंता छोड़ सैक्‍स के फेर में लगे रहते हैं। यदि इस संख्‍या में संभावित एड्‌स के संक्रमण से पीड़ित महिलाओं और बच्‍चों को जोड़ दिया जाए तो भारत का हर दूसरा नागरिक एड्‌स की गिरफ्‍त में होना चाहिए?

अब सवाल यह उठता है कि वास्‍तव में एड्‌स की महामारी भारत के लिए आसन्‍न खतरा है और अमेरीका ने इस पर नियंत्रण के लिए दवाएं खोज ली हैं तो वह मानवता के नाते भारत व अन्‍य विकासशील देशों को दवाएं व तकनीक उपलब्‍ध क्‍यों नहीं करता? एड्‌स का निदान खोजने के संदर्भ में भारत की हालत भी हास्‍यास्‍पद है। भारत इस समस्‍या से निपटने के लिए बुनियादी और स्‍थाई हल तलाशने की बजाय एड्‌स के लिए जो धनराशि बंटित कर रहा है, वह एड्‌स के संदर्भ में प्रचार-प्रसार, परिचर्चा तथा गोष्‍ठियों की मद में शमिल है। जबकि एकाध करोड़ खर्च करके एक आधुनिक प्रयोगशाला सुसज्‍जित की जाए और उसमें एड्‌स के जीवाणु का गंभीरता से अध्‍ययन कर उसके जन्‍म की जड़ से लेकर अंत करने के उपाय तलाशे जाएं? लेकिन अभी तक हमारी सरकार के हाथों ऐसी कोई कारगर योजना नहीं है।

भारतीय चरित्रा के मामले में मूलतः सांस्‍कृतिक संस्‍कार व सरोकार वाले हैं। उनके व्‍यवहार में परिवार व समाज के स्‍तर पर रिश्‍तों में मर्यादा की एक लक्ष्‍मण रेखा है, जिसे लांघ कर पश्‍चिमी देशों की तरह यौन आनंद की सामाजिक स्‍वीकृति कभी नही बन सकती? जबकि पश्‍चिमी देशों में यौन संबंधों को लेकर स्त्री व पुरूषों के बीच जो विक्रति, उन्‍मुक्‍तता और सैक्‍स की जो अनिवार्यता है उसकेचलते एड्‌स जैसी महामरी का खतरा भारत की अपेक्षा पश्‍चिमी देशों को अधिक है।

भारत के बुद्धिजीवी भी इस महामारी के संदर्भ में नए सिरे से सोचने लगे हैं। उनका कहना है कि एड्‌स दुनिया की बीमारियों में एक मात्रा ऐसी बीमारी है जो दीन-हीन, लाचार, कमजोर और गरीब लोगों को ही गिरफ्‍त में लेती है, ऐसा क्‍यों? एड्‌स से पीड़ित अभी तक जितने भी मरीज सामने आये हैं उनमें न कोई उद्योगपति है, न राजनेता, न आला अधिकारी, न डाक्‍टर-इन्‍जीनियर, न लेखक-पत्राकार और न ही जन सामान्‍य में अलग पहचान बनाये रखने वाला कोई व्‍यक्‍ति? जबकि अन्‍य बीमारियां के साथ ऐसा नहीं है। इससे स्‍पष्‍ट होता है कि एड्‌स के मूल में क्‍या है और उसका उपचार कैसे संभव है अभी साफ नहीं है। इस पर अभी खुले दिमाग से नये अनुसंधानों की और जरूरत है। एड्‌स से बचाव को लेकर ‘कंडोम' को अपनाऐं जाने पर जिस तरह से जोर दिया जा रहा है उससे परिभाषित होता है कि एड्‌स की बचाव की बजाए कंडोम के व्‍यापार के विस्‍तार पर जोर ज्‍यादा है।

संकट बनता इलेक्‍ट्रोनिक कचरा

संकटों के घिरे रहने वाले देश भारत में अब ‘इलेक्‍ट्रोनिक कचरा' एक बड़ा संकट बनने जा रहा है। भोपाल गैस त्रासदी के गवाह रहे यूनियन कर्बाइड के कचरे को भी अभी तक पूरी तरह ठिकाने नहीं लगाया जा सका है। ऐसे में इलेक्‍ट्रोनिक कचरा भविष्‍य में पर्यावरण को कितना प्रदूषित करेगा यह समय के गर्भ में जरूर है लेकिन जिस पैमाने पर यह कचरा उत्‍सर्जित किया जा रहा है उसके खतरे गंभीर होंगे, इतना तय हैं।

भारत में इलेक्‍ट्रोनिक कचरे की समस्‍या लगातार बढ़कर भयावह होती जा रही है। इस कचरे के सिलसिले में गैर सरकारी संगठन ‘ग्रीन पीस' ने 20 बड़ी कंपनियों का अध्‍ययन किया है। इस अध्‍ययन ने तय किया है कि कंम्‍युटर, प्रिंटर, स्‍केनर, मोबाइल, फोन, टीवी, रेडियो, विडियो का निर्माण करने वाली ये कंपनियां कुल मिलाकर 1040 टन कचरा प्रतिदिन उगलती हैं। इन उपकरणों की बढ़ती जरूरत और खपत के चलते यह अंदाज भी लगाया जा रहा है कि साल 2012 तक इस कचरे की मात्रा बढ़कर दो गुनी हो जाएगी। यानी 15 फीसदी की दर से यह कचरा बढ़ेगा और एक साल में इसका वजन आठ लाख टन होगा। बीते साल इस कचरे का वजन तीन लाख 80 हजार टन था। इस कचरे में एक अनुमान के मुताबिक 50 हजार टन वह कचरा भी शामिल होगा जो विकसित देशों से भारत जैसे विकासशील देशों में धर्मार्थ भेजा जाता है या इस बहाने दोबारा उपयोग के लिए आयात किया जाता है। जबकि सच्‍चाई यह है कि इस कचरे का एक बड़ा हिस्‍सा बिना प्रयोग किए ही कचरे का हिस्‍सा बना दिया जाता है। बचे-खुचे उपकरण दो-चार मर्तबा बमुश्‍किल इस्‍तेमाल के लायक होते हैं। क्‍योंकि इनका उपयोग पहले ही इतना कर लिया गया होता है कि ये उपकरण भारत में आने के बाद इस्‍तेमाल के लायक रह ही नहीं जाते हैं।

दरअसल धर्मार्थ आयात किया जा रहे ये उपकरण बहूराष्‍ट्रीय कंपनियों के ऐसे औद्योगिक-प्रौद्योगिक अवशेष हैं जो कूड़े में तब्‍दील हो चुके होते हैं। इस कचरे को ठिकाने लगाने के लिए दुनिया के 105 देशों ने भारत को ‘कूड़ादान' (डंपिग ग्राउड) समझा हुआ है, इसलिए ये देश किसी न किसी बहाने इस कचरे को भारत भेजते रहते हैं। सबसे ज्‍यादा कचरा चीन, अमेरिका, आस्‍ट्रेलिया, जर्मनी और ब्रिटेन से आता है। चीन तो तिब्‍बत के कई क्षेत्रों से अपने परमाणु व इलेक्‍ट्रोनिक कचरे को भारत की नदियों में तक बहा देता है। जिससे नदियां प्रदूषित होने के साथ उथली भी हो रही हैं।

भारत में जो कचरा आता है व पैदा होता है उसमें से तीन प्रतिशत कचरे को निपटाने की कानून सम्‍मत व्‍यावस्‍था है। बाकी कचरे को जहां-तहां, जैसे-तैसे खपा दिया जाता है। जिसके नतीजे कलांतर में बेहद खतरनाक रूप में सामने आते हैं। इस कचरे में शीशा, पारा, क्रोमियम, पॉलीविनाइल क्‍लोराइड (पीवीसी) बेरिलियम, जस्‍ता जैसे जहरीले पदार्थों का इस्‍तेमाल होता है। इनके संपर्क में लगातार रहने पर व्‍यक्‍ति के तांत्रिका तंत्र, मस्‍तिष्‍क, हृदय, गुर्दे, हडि्‌डयों, जननांगों व अंतः स्रावी ग्रंथियों पर घातक असर पड़ता है। इन अवशेषों को अवैज्ञानिक तरीके से नष्‍ट करने पर जल, जमीन और वायु समेत पूरे परिवेश का पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है।

इलेक्‍ट्रोनिक कचरे को नष्‍ट करने का सबसे आसान तरीका एक दशक पहले तक धरती में गड्‌ढ़ा खोदकर दफनाने का था। लेकिन जिन-जिन क्षेत्रों में यह कचरा दफनाया गया, वहां पर्यावरण बेतरह प्रभावित हुआ और अनेक बीमारियां पनपने लगीं। इन बीमारियों में लाइलाज त्‍वचा रोग प्रमुख था, जो महामारी की तरह फैला। तमाम लोग व पशु काल-कवलित हुए। इसके बाद इन देशों का शासन-प्रशासन सख्‍त हुआ और उसने इस औद्योगिक-प्रौद्योगिक कचरे को अपने देशों में नष्‍ट करने पर प्रतिबंध लगा दिया। और यह कचरा धर्मार्थ ठिकाने लगाने के बहाने भारत भेजा जाने लगा।

भारत में 20 ऐसी बड़ी कंपनियां हैं जिनसे बड़ी मात्रा में इलेक्‍ट्रोनिक कचरा निकलता है। इनमें ‘ग्रीन पीस' के अध्‍ययन के मुताबिक सबसे बुरी हालत सैमसंग की है। इसके अलावा एप्‍पल, माइक्रोसॉफ्‍ट, पेनासोनिक, पीसीएस, फिलिप्‍स, शार्प, सोनी, सोनी इरेक्‍सन और तोशीबा ऐसी कंपनियां हैं जिनके पास ऐसी कोई सुविधा नहीं हैं कि अपने उपकरण खराब होने पर वापस लेकर उसका निपटान करें। विप्रो और एचसीएल दा ऐसी कंपनियां जरूर हैं, जिनके पास समुचित व्‍यवस्‍था है। नोकिया, मोटोरोला, एस्‍सार और एलजी ऐसी कंपनियां हैं जिनकी कचरा निपटान के सिलसिले में स्‍थिति बेहतर मानी जा सकती है। हैरानी की बात यह है कि ज्‍यादातर बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां अपने इलेक्‍ट्रोनिक कचरे का निपटारा अन्‍य देशों में खुद करती हैं लेकिन भारत में शासन और प्रशासन की ढिलाई के चलते इस कचरे को नष्‍ट करने का दायित्‍व वे नहीं निभातीं? भारत में जनहित व पर्यावरण सुरक्षा की दुष्‍टि से ‘इलेक्‍ट्रोनिक कचरा प्रबंधन संबंधी कोई कानून भी नहीं है जो कंपनियों पर अंकुश लगाए जाने के साथ इलेक्‍ट्रोनिक उत्‍पादन में जहरीले तत्‍वों का प्रयोग न करने के लिए कंपनियों को बाध्‍य कर सके? बहरहाल सबसे पहले इस कचरे से वैधानिक स्‍वरूप में निपटने की दृष्‍टि से केन्‍द्र सरकार को कानून बनाने की जरूरत है।

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: प्रमोद भार्गव के सामाजिक सरोकारों के आलेखों की ई-बुक – आम आदमी और आर्थिक विकास : 5
प्रमोद भार्गव के सामाजिक सरोकारों के आलेखों की ई-बुक – आम आदमी और आर्थिक विकास : 5
http://lh4.ggpht.com/_t-eJZb6SGWU/TI4tw_5qMmI/AAAAAAAAJDs/LKxj3GcU9hU/clip_image001%5B3%5D.jpg?imgmax=800
http://lh4.ggpht.com/_t-eJZb6SGWU/TI4tw_5qMmI/AAAAAAAAJDs/LKxj3GcU9hU/s72-c/clip_image001%5B3%5D.jpg?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2010/09/5_15.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2010/09/5_15.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content