महेश ‘दिवाकर’ का चरितकाव्य : वीरांगना चेन्नम्मा सर्ग 9

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(पिछले अंक से जारी…) सर्ग - 9 मृत्यु थैकरे की हुई, कई मरे कप्तान। सोच चैपलिन हो रहा, शिविर बीच हैरान।। एक तरह से युद्ध में, हाय! हुई ...

(पिछले अंक से जारी…)

mahesh diwaker

सर्ग - 9

मृत्यु थैकरे की हुई, कई मरे कप्तान।

सोच चैपलिन हो रहा, शिविर बीच हैरान।।

एक तरह से युद्ध में, हाय! हुई है हार।

हावी है कित्तूर पर, चेन्नम्मा का प्यार।।

नर-नारी कित्तूर के, सभी लड़ रहे जंग।

देशभक्ति की भावना, चेन्नम्मा के संग।।

सेाच-सोच कर चैपलिन, डूबा चिन्ता-सिन्धु।

दूर-दूर तक भी उसे, मिला न आशा-बिन्दु।।

घोर अन्धेरी रात है, बजा रात का पौन।

बैठ शिविर में चैपलिन, सेाच रहा है मौन।।

फतह करें कित्तूर को, सूझे नहीं उपाय।

देशभक्ति के सामने, कुछ भी नहीं बसाय।।

हारें यदि कित्तूर में, गलत जाय संदेश।

फिर तो भारत देश में, भड़के आग विशेष।।

टिकना मुश्किल हो बड़ा, यहाँ कम्पनी राज।

नहीं बचेगी विश्व में, फिर गोरों की लाज।।

जैसे हो कित्तूर में, बचे कम्पनी शाख।

चूक गये अंग्रेज तो, होय सभी कुछ राख।।

संधि करें कित्तूर से, अथवा आगे युद्ध।

हे ईशू! देना मुझे, ऐसी बुद्धि विशुद्ध।।

दिया सन्तरी ने तभी, उसे गुप्त सन्देश।

आया है कित्तूर से, सैनिक एक विशेष।।

शिवबसप्पा नाम का, रहा एक ग़द्दार।

तोपों का कित्तूर में, रहा प्रमुख सरदार।।

चेन्नम्मा ने एक दिन, उसको दिया हटाय।

लालच गोरों ने दिया, उसको लिया बुलाय।।

घोर अंधेरी रात में, गया चैपलिन पास।

उसे चैपलिन ने दिया, लालच औ’ विश्वास।।

कहा चैपलिन ने उसे, ‘फतह कराओ काज।

हम सोंपें कित्तूर को, तुमको सारा राज’।।

परख रहा था चैपलिन, उसके मुख पर भाव।

लगा दिया कित्तूर पर, कुटिलनीति का दांव।।

शिवबसप्पा लोभ में, गया सहज ही डूब।

उसे हुई कित्तूर से, मानो भारी ऊब।।

हाय! देश लुटता रहा, चन्द टकों के मोल।

शिवबसप्पा दुष्ट ने, भेद दिया सब खोल।।

द्वार पश्चिमी दुर्ग का, नवनिर्मित, कमजोर।

गोरी सेना तोप से, करे आक्रमण भोर।।

तोपों के विस्फोट से, सहज उड़े यह भाग।

घुस जायें कित्तूर में, और लगा दें आग।।

मच जाये कित्तूर की, जनता में कुहराम।

गोरी सेना के सभी, पूर्ण होंगे काम।।

तोपों पर कित्तूर की, उसने कसी लगाम।

मिला दिया बारूद में, गोबर सड़ा तमाम।।

अधिक समय कित्तूर की, तोपें करें न काम।

चलकर थोड़ी देर ही, होगा चक्का जाम।।

सौंप दिये कित्तूर के, गोपनीय सब चित्र।

कहा चैपलिन ने उसे, ‘आप हमारे मित्र’।।

शिवबसप्पा देश में, पैदा हुआ कमीन।

समझ चैपलिन ने लिया, उस पर किया यकीन।।

बुला चैपलिन ने लिये, प्रमुख सैन्य प्रकोष्ठ।

गुप्त योजना दे कहा, बन्द रखें सब ओष्ठ।।

केवल अपने काम पर, रहे सभी का ध्यान।

जीत नहीं जब तक मिले, करें लक्ष्य संधान।।

गोरों के सम्मान पर, आये तनिक न छींट।

रानी के कित्तूर की, बजे ईंट से ईंट।।

बुला तोपची सब लिये, किया मर्म संवाद।

द्वार पश्चिमी दुर्ग का, करना है बर्बाद।।

प्रात काल का सूर्य, क्यों देखे कित्तूर?

गोलों की वर्षा करो, आग उठे भरपूर।।

सब तोपों को दाग दो, तोड़ो पश्चिम द्वार।

अन्दर जा कित्तूर में, टूटें अश्व सवार।।

निकल न भागे एक भी, करो द्वार सब बंद।

ठोको बाहर द्वार पर, तालों के पैबंद।।

मारकाट ऐसी करो, याद रखे कित्तूर।

भारतवासी जान लें, गोरे कितने क्रूर।।

इधर चैपलिन दे रहा, कूटनीति-निर्देश।

उधर चेन्नम्मा मंत्रणा, सबसे करें विशेष।।

दिया गुप्तचर ने सभी, रानी को संदेश।

सजा रहा है चैपलिन, अपनी सैन्य विशेष।।

घेर रहे कित्तूर को, अगणित सैन्य सवार।

तोप निशाने साधतीं, लक्ष्य पश्चिमी द्वार।।

शिवबसप्पा ने दिया, गोरों को सब हाल।

द्वार पश्चिमी दुर्ग से, युद्ध छिड़े तत्काल।।

उधर चैपलिन के मिले, कूटनीति संकेत।

सुना गुप्तचर से सभी, रानी हुई सचेत।।

सैन्य प्रमुखों को बुला, दिया गुप्त आदेश।

करना कैसे आक्रमण, दिये सभी निर्देश।।

रात्री का चौथा प्रहर, पौ फटने में देर।

युद्ध हेतु तैयार थे, रानी के सब शेर।।

उत्साहित सब वीर थे, उच्च मनोबल साथ।

रक्षा में कित्तूर की, नहीं रूकेगा हाथ।।

बालण्णा व रायण्णा, सधे हुये गजवीर।

अपने-अपने काम पर, डटे हुये सब वीर।।

गुरूसिद्दप्पा ने कहा, रहना सभी सचेत।

पलभर की कमजोरियाँ, जीवन करें अचेत।।

चेन्नम्मा निज अश्व पर, चलते साथ दिलेर।

भरते नव उत्साह थे, सेना बीच कुबेर।।

इसी बीच अंग्रेज ने, दिया तोप को दाग।

फटा बीच मैदान में, गोला बनकर आग।।

हुये तीन कित्तूर के, सैनिक पल में ढेर।

रानी के संकेत ने, करी न पल की देर।।

इधर तोप कित्तूर से, लगी बरसने आग।

गोरों की सेना उधर, रही शिविर से भाग।।

रानी की तोपें चली, करें महा विस्फोट।

ऊपर से गोला गिरे, करता भारी चोट।।

अँग्रेज़ों के तोपची, जब करते थे वार।

नीचे से ऊपर उठें, रहे न वैसी धार।।

अँग्रेज़ों की फौज पर, पड़ी तोप की मार।

त्राहि-त्राहि मचने लगी, हुये बार पर बार।।

धुन्ध, धुँआ औ’ आग ने, घेर लिया आकाश।

गोले गिरते तोप के, करते क्षणिक प्रकाश।।

चीख सुनायी दे रही, क्रंदन चारों ओर।

धरती से आकाश तक, बचा न कोई छोर।।

मुण्ड-मुण्ड चारों तरफ, मांस-मांस के ढेर।

रक्त-रक्त ही बह रहा, हाय! हाय! की टेर।।

हाथी - घोड़े - आदमी, कटे - पड़े मैदान।

गोले गिरते तोप के, मनो गिरें शैतान।।

यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े, पशु-मानव के अंग।

रक्त-मांस के लोथड़े, जो देखे रह दंग।।

अंग्रेजी सेना जहाँ, बना वहाँ शमसान।

आग-धुँआ के बीच में, जले पड़े इन्सान।।

जले-अधजले मांस की, बदबू चारों ओर।

तोपों के गोले गिरें, क्रंदन करता शोर।।

अँग्रेज़ों का था बना, जहाँ तोप-भण्डार।

अम्बर से गोला गिरा, फटा गिरा आगार।।

कर्नल वॉकर साथ में, डिंकन गिरे धड़ाम।

झुलस चैपलिन की गयी, दायी टांग तमाम।।

वॉकर-डिंकन-देह के, टुकड़े हुये तमाम।

देख चैपलिन ने किया, रोकर युद्ध विराम।।

लड़ते-लड़ते हो गया, दिवस सुबह से शाम।

अस्ताचल गामी हुआ, सूरज अपने धाम।।

छोड़ दिया कित्तूर को, ओढ़ युद्ध का भार।

साथ चैपलिन सैन ले, पहुँचा सीमा पार।।

अँग्रेज़ों की युद्ध में, आज हुयी फिर हार।

कर्नल-जनरल-तोपची, बहुत हुये संहार।।

अँग्रेज़ों की जब हुयीं, तोपें सभी प्रशान्त।

रानी ने भी देखकर, कहा-‘रहें सब शान्त’।।

रानी ने कित्तूर के, बुला प्रमुख सरदार।

दिया सभी को जीत पर, भावों का उपहार।।

रानी ने सबसे कहा, ‘मिली निरन्तर जीत।

कड़ी परीक्षा माँगती, लेकिन आगे प्रीत।।

मत सोचो, अंग्रेज सब, आज गये हैं हार।

गोरे चुप बैठें नहीं, करें संगठित वार।।

होगा दो दिन बाद ही, घमासान फिर युद्ध।

मरा कोबरा है नहीं, हुआ चोट से क्रुद्ध।।

बता दिया कित्तूर का, शिवबसप्पा ने भेद।

किंचित् चिन्ता है हमें, सदा रहेगा खेद।।

लेकिन, सब कित्तूर के, बांके निडर जवान।

नहीं मृत्यु की मानते, वीर यहाँ के आन।।

अपने-अपने शिविर में, करो सभी आराम।

रहते हुये सचेत भी, पाओ सभी विश्राम।।

‘चेन्नम्मा की जय’ कहें, उठे सभी रणवीर।

अपने-अपने शिविर में, चले गये रणधीर।।

धरा वधू भी सो गयी, काली चादर तान।

धरती से अम्बर तलक, अद्भुत तना वितान।।

झींगुर और खद्योत मिल, छेड़ रहे थे तान।

मानो मिलकर गा रहे, अपना अन्तिम गान।।

प्राची में सूरज उगा, धरा उठी मुस्काय।

क्षितिज दूर आकाश तक, गयी सुनहरी छाय।।

धुन्ध, धुँआ औ’ आग का, कहीं नहीं था नाम।

युद्ध भूमि कित्तूर में मुर्दे पड़े तमाम।।

मनो काल की क्रूरता, धरा बनी शमसान।

यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े, पशुओं-से इन्सान।।

आस-पास कित्तूर के, पसर गयी थी शान्ति।

लेकिन, पछुआ कह रही, होगी खूनी क्रान्ति।।

कहीं अश्व का धर पड़ा, कहीं पड़े गजराज।

रूण्ड-मुण्ड लाशें पड़ीं, विकृत सैन्य समाज।।

धरती से आकाश तक, उड़ें चील औ’ गिद्ध।

मानो उनके भोज का, काम हो गया सिद्ध।।

चीर फाड़ रणभूमि में, करें श्वान- शृगाल।

अफरा-तफरी-सी मची, करते बीच बवाल।।

मांस-अस्थियाँ खींचते, मज्जा ऊदबिलाव।

गुर्राते पशु जंगली, श्वान दिखाते ताव।।

कॉव-कॉव कौआ करें, पड़ें झपटकर चील।

आँखें बाज तरेरते, ज्यों सागर में सील।।

मनुज-मनुज के बीच तो, रूका हुआ था युद्ध।

अब पशु-पक्षी लड़ रहे, मांस हेतु अति क्रुद्ध।।

बड़ा क्रूर ही दृश्य था, घृणित घोर अपार।

बनी हुई रणभूमि थी, हिंसा-मृत्यु-बजार।।

मनुज-मनुज के बीच में, रहा रक्त अनुबन्ध।

हा! वैभव का सिन्धु यह, लील रहा सम्बन्ध।।

मनुज कहीं पर मर गया, बचा कहाँ अनुराग।

देश-देश के बीच में, लगी द्वेष की आग।।

महाशक्तियाँ लड़ रहीं, पर हित बना विकार।

हिंसा औ’ आतंक ने, पागल किये विचार।

बिना बात के आक्रमण, पशुओं जैसी सोच।

मानवता को कर दिया, हाय! मनुज ने पोच।।

सीमा पर कित्तूर की, डाले हुये पड़ाव।

सोच रहा था चैपलिन, जलता शिविर अलाव।।

चला गया पूरा दिवस, लगी घुमड़ने रात।

कुमुक अभी आयी नहीं, पता नहीं क्या बात।।

रानी ने कित्तूर की, छेड़ा आज न युद्ध।

वरना तो अंग्रेज की, लगती वाट विरूद्ध।।

धन्य! भरत का देश यह, धन्य! यहाँ की रीति।

ऐसी कहीं न विश्व में, सदाचार की नीति।।

त्याग, वीरता, प्रेम की, मिलती कहाँ मिसाल?

केवल भारत विश्व में, अनुपम-दिव्य विशाल।।

दिव्य यहाँ के नारि-नर, अद्भुत बने उसूल।

ईसा-मूसा-राम भी, रमते साथ रसूल।।

चेन्नम्मा यदि चाहती, लेती हमको घेर।

पल भर में तलवार से, करती सबको ढेर।।

घेर-घेर कर मारती, मिलता कहाँ निशान।

जन्म भूमि इंग्लैण्ड की, जाती लाश विमान।।

वह अनुपम वीरांगना, रखे विश्व सद्भाव।

कर्म-धर्म में आस्था, सबका आदरभाव।।

चेन्नम्मा कित्तूर में, मानवता की पुँज।

नियम-नीति-सिद्धान्त से, हर्षित है मन-कुँज।।

रानी ने कित्तूर की, छुआ नहीं पाखण्ड।

युद्ध भूमि में अश्व चढ़, करती युद्ध प्रचण्ड।।

महिला भारत देश में, अगणित ललित ललाम।

धन्य चैपलिन हो गये, देवी किया प्रणाम।।

डूब विचारों में रहे, गये चैपलिन खोय।

विगत युद्ध की झलकियाँ, मनो दिखाता कोय।।

मिला चैपलिन को तभी, शिविर बीच सन्देश।

धारवाड़-हुबली सहित, पहुँची कुमुक विशेष।।

आयीं तीन बटालियन, ‘मैकलियड’- से शूर।

तोपों की भारी कुमुक, पहुँच रही कित्तूर।।

शोलापुर से आ रहे, सैनिक साठ हजार।

आधे घण्टे में सभी, पहुँचे अश्व सवार।।

समाचार सुन चैपलिन, हर्षित हुआ अतीब।

मानो उसके आ गयी, पल में जीत करीब।।

मेजर कर्नल-कमिश्नर, लेफ्टिनेंट-कप्तान।

बुला चैपलिन ने सभी, किया बहुत सम्मान।।

‘धन्यवाद’ सबको दिया, किया बहुत आभार।

कहा-‘मिला कित्तूर में, हमें नया संसार।।

गोरी सेना में हुये, नये प्राण संचार।

भूले कभी न चैपलिन, मित्रों का उपकार।।

अल्प सैन कित्तूर की, गोरी सैन्य विशाल।

सोच रहा था चैपलिन, होगा सुबह धमाल।।

कल होगा कित्तूर में, अज़ब-ग़छाब संग्राम।

गोरी सेना लिखेगी, निज इतिहास ललाम।।

कहा चैपलिन ने ‘सखों! पहले लो आहार।

थककर आये हो सभी, फिर होना तैयार।।

सारी सेना करेगी, दो घण्टे आराम।

प्रातकाल कित्तूर के, घेरें सभी मुकाम।।

आदेश देकर चैपलिन,

विश्राम करने को गया।

क्योंकि उसको मिल गया

आज जीवन भी नया।।

उधर जीत कित्तूर में,

मना रहे सब लोग।

लेकिन, रानी सोचती,

अब आगे का योग।।

विधना ने जो कुछ लिखा

तैसी मिले सहाय।

लाख करो प्रयत्न सब,

निष्फल रहें उपाय।।

इधर गुप्तचर दे रहे, रानी को संदेश।

पहुँच रहीं कित्तूर में, गोरी सैन्य विशेष।।

पड़े राज कित्तूर की, सीमा बीच पड़ाव।

दूर-दूर तक सैन्य बल, जलते वहाँ अलाव।।

क्या होगा कित्तूर का, रानी करे विचार।

तरह-तरह की भावना, पैदा करे विकार।।

सोच-सोच कर हो रही, रानी अति बेचैन।

विपुल सैन्य अंग्रेज़ की, सोच पड़े क्यों चैन।।

दुर्गा-मन्दिर में गयी, कहा जोड़कर हाथ।

रक्षा इस कित्तूर की, माता! तेरे हाथ।

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(अगले अंक में जारी…)

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रचनाकार: महेश ‘दिवाकर’ का चरितकाव्य : वीरांगना चेन्नम्मा सर्ग 9
महेश ‘दिवाकर’ का चरितकाव्य : वीरांगना चेन्नम्मा सर्ग 9
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