प्रमोद भार्गव का आलेख - हर तीसरा भारतीय भ्रष्‍ट

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य ह शीर्षक नहीं कथन है जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुए केंद्रीय सतर्कता आयुक्‍त (सीवीसी) प्रत्‍यूष सिन्‍हा ने कहा है। उनका दावा है कि देश के...

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ह शीर्षक नहीं कथन है जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुए केंद्रीय सतर्कता आयुक्‍त (सीवीसी) प्रत्‍यूष सिन्‍हा ने कहा है। उनका दावा है कि देश के तीस फीसदी भारतीय पूरी तरह भ्रष्‍ट हो चुके हैं। मसलन प्रत्‍येक तीन में से एक व्‍यक्‍ति पूरी तरह भ्रष्‍ट है। उन्‍होंने यह भी कहा कि बमुश्‍किल बीस प्रतिशत लोग पूरी तरह ईमानदार माने जा सकते हैं। उनका यह कहना अतिरंजित नहीं है। जिस देश में भ्रष्‍टाचार को सामाजिक स्‍वीकृति मिल चुकी हो वहां इसका फैलना स्‍वभाविक जरूरत बन जाती है। वैसे भी भ्रष्‍टाचार पर नजर रखने वाली सर्वोच्‍च संस्‍था ट्रांपैरेंसी इंटरनेशनल भारत को भ्रष्‍टतम देश की सूची में चौरासीवें स्‍थान पर रखा है। संस्‍था ने भारत को 10 में से 3.4 अंक दिये हैं। दुनिया के सबसे कम भ्रष्‍ट देश में न्‍यूजीलैंड का स्‍थान सबसे ऊपर है और इसे 10 में से 9.4 अंक दिये हैं। जबकि सबसे भ्रष्‍ट देश सोमालिया को 1.1 अंक दिये गए है।

जो राष्‍ट्रीय संपत्ति गरीब की भूख, कुपोषण, अशिक्षा दूर करने और स्‍वावलंबन का पर्याय बनना चाहिए थी, वह भ्रष्‍ट तंत्र को विकसित कर राष्‍ट्रीय संपत्‍ति को निजी संपत्‍ति में बदलने का काम कर रही है। देश में आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्‍यूरो और आयकर विभाग के ताजा छापों में बरामद अरबों की संपत्‍ति ने कुछ ऐसी ही सच्‍चाई से साक्षात्‍कार कराया है। अब तक भ्रष्‍टाचार के तंत्र का विस्‍तार राजनीतिकों, नौकरशाहों और ठेकेदारों तक रेखांकित था, लेकिन ताजा खुलासों से साबित हुआ है कि निजी बैंक, बीमा और चार्टर्ड कंपनियां भी नाजायज संपत्‍ति को जायज संपत्‍ति में तब्‍दील करने के कारोबार का हिस्‍सा बन गई हैं। मुनाफे के इस प्रलोभन-तंत्र को तोड़ने के लिए अब जरुरी हो गया है कि भ्रष्‍टाचार निवारक कानून में संशोधन कर भ्रष्‍ट संपत्‍ति को जब्‍त करने का प्रावधान तो हो ही, देश के नौकरशाह और कर्मचारियों को हर साल संपत्‍ति का ब्‍यौरा देना ऐसी बाध्‍यकारी शर्त हो, जो सूचना-अधिकार के दायरे में आती हो।

लोकतांत्रिक मूल्‍यों में भ्रष्‍टाचार के तंत्र का यह सर्वव्‍यापी विस्‍तार व दखल राष्‍ट्रघाती है। यह सामाजिक सद्‌भाव को तो खंडित करता ही है, लोकतांत्रिक और आर्थिक प्रक्रिया में बहुसंख्‍यक लोगों की भागीदारी भी वंचित रह जाती है। संसाधनों के आबंटन में अनियमितता बरती जाती है, नतीजतन गरीब, वंचित, व सीमांत तबके के हित प्रभावित होते हैं। सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक विषमता का आधार भी भ्रष्‍टाचार बन रहा है। भ्रष्‍टाचार राष्‍ट्रीय सुरक्षा की दृष्‍टि से भी एक बड़ा खतरा है। 1993 के मुबंई विस्‍फोट में जो हथियार प्रयोग में लाए गए थे, वे उस तस्‍करी का परिणाम थे जो भ्रष्‍टतंत्र के बूते फलीभूत हुई थी। ऐसी भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था जिस देश में सम्‍मान व प्रतिष्‍ठा की सूचक बन गई हो उस देश की लोकतंत्रीय प्रणाली और संप्रभुता कब तक कायम बनी रह पाएगी, यह सवाल भी एक आम भारतीय को कचोटता रहता है। दरअसल लोकतंत्र की उम्र बढ़ने के साथ-साथ भ्रष्‍ट-तंत्र लगातार मजबूत होता रहा है। यही कारण है कि हमारे देश में जनकल्‍याणकारी योजनाएं आम-जन की हित पोषक साबित होने की बजाय अब तक सरकारी अमले के लिए रिश्‍वत का चमत्‍कारी तिलिस्‍म सिद्ध होती रही हैं।

‘टांसपरेंसी इंटरनेशनल इंडिया सेंटर फार मीडिया स्‍टडीज' ने जो अध्‍ययन किया है, वह बताता है कि एक साल के भीतर हमारे देश में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों को मूलभूत, अनिवार्य व जनकल्‍याणकारी सेवाओं को हासिल करने के लिए तकरीबन नौ सौ करोड़ रुपए की रिश्‍वत देनी पड़ती है। यह सच्‍चाई सांस्‍कृतिक रुप से सभ्‍य, मानसिक रुप से धार्मिक और भावनात्‍मक रुप से कमोवेश संवेदनशील समाज के लिए सिर पीट लेने वाली है। इस अध्‍ययन ने प्रकारांतर रुप से यह तय कर दिया है कि हमारे यहां सार्वजनिक वितरण प्रणाली, ग्रामीण रोजगार गारंटी, मध्‍यान्‍ह भोजन, खाद्य सुरक्षा, पोलियो उन्‍मूलन के साथ स्‍वास्‍थ्‍य लाभ व भोजन के अधिकार संबंधी योजनाएं किस हद तक जमीनी स्‍तर पर लूट व भ्रष्‍टाचार का हिस्‍सा बनी हुईं हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में किस कदर भ्रष्‍टाचार है कि अरूणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री गोगांग पपांग एक हजार करोड़ रूपये के घोटाले में जेल में हैं। जब किसी प्रदेश के सर्वोच्‍च राजनयिक की यह स्‍थिति हो फिर सरकारी मशीनरी के बारे में क्‍या कहा जाए ?

यही कारण है कि प्रशासनिक पारदर्शिता के जितने भी उपाय एक कारगर औजार के रुप में उठाए गए वे सब के सब प्रशासन की देहरी पर जाकर ठिठक जाते हैं। ई-प्रशासन के बहाने कंप्‍यूटर का अंतर्जाल सरकारी दफ्तरों में इसलिए फैलाया गया था कि यह प्रणाली भ्रष्‍टाचार पर अंकुश तो लगाएगी ही ऑन लाइन के जरिये समस्‍याओं का समाधान भी तुरत-फुरत होगा। लेकिन इस नेटवर्किंग में करोड़ों रुपये खर्च कर दिए जाने के बावजूद कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आए। न्‍यायालयों, राजस्‍व न्‍यायालयों और पुलिस का वही परंपरागत ढर्रा जस की तस कायम है। फाइलों के निराकरण अथवा फैसलों में रंचमात्र भी गति नहीं आई। कंप्‍यूटर सरकारी क्षेत्र में टायपराइटर का एक उम्‍दा विकल्‍प भर बनकर रह गया है। में इसलिए फैलाया गया था कि यह प्रणाली भ्रष्‍टाचार पर अंकुश तो लगाएगी ही ऑन लाइन के जरिये समस्‍याओं का समाधान भी तुरत-फुरत होगा। लेकिन इस नेटवर्किंग में करोड़ों रुपये खर्च कर दिए जाने के बावजूद कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आए। न्‍यायालयों, राजस्‍व न्‍यायालयों और पुलिस का वही परंपरागत ढर्रा जस की तस कायम है। फाइलों के निराकरण अथवा फैसलों में रंचमात्र भी गति नहीं आई। कंप्‍यूटर सरकारी क्षेत्र में टायपराइटर का एक उम्‍दा विकल्‍प भर बनकर रह गया है।

सूचना के अधिकार को भ्रष्‍टाचार से मुक्‍ति का पर्याय माना जा रहा था। क्‍योंकि इसके जरिये आम नागरिक हरेक सरकारी विभाग के कामकाज व नोटशीट पर अधिकारी की दर्ज टिप्‍पणी का लेखा-जोखा तलब कर सकता है। लेकिन सरकारी अमले की अनियमितताएं घटने की बजाय और बढ़ गईं। भ्रष्‍टाचार पर किए अध्‍ययन इसका उदाहरण हैं। इससे जाहिर होता है कि सूचना का अधिकार भी भ्रष्‍टाचार से मुक्‍ति की कसौटी पर खरा नहीं उतरा ? ऐसा इसलिए संभव हुआ क्‍योंकि हमारे जो श्रम कानून हैं वे इस हद तक प्रशासनिक तंत्र के रक्षा कवच बने हुए हैं कि वे पारदर्शिता और जवाबदेही की कोई भी शर्त स्‍वीकारने को मजबूर नहीं होते ? यही कारण है कि केरल काडर के आईएएस अधिकारी औ मौजूदा संचार सचिव पीजी थॉमस की नियुक्‍ति केंद्रीय सतर्कता आयुक्‍त जैसे महत्‍वपूर्ण पद पर विधिवत रहने के बावजूद हो जाती है। जबकि लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्‍वराज ने थॉमस की नियुक्‍ति पर आपत्‍ति दर्ज की थी। दअसल 90 वें के दशक में केरल के पामोलीन आयात घोटाले में थॉमस का नाम आया था। वे तब केरल राज्‍य के खाद्य व आपूर्ति सचिव थे। आखिर बेदाग छवि के अधिकारी मौजूद हैं तो विवादास्‍पद अधिकारी का चयन सीवीसी आयुक्‍त जैसे महत्‍वपूर्ण पद पर क्‍यों ? विपक्ष सवाल उठा रहा है कि यह नियुक्‍ति कि इस नियुक्‍ति के जरिए केंद्र सरकार 2 जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले की लीपापोती करना चाहती है। क्‍योंकि संचार सचिव के रूप में उनके मंत्रालय में घटा यह घोटाला अब सीवीसी आयुक्‍त के रूप में उन्‍हीं के सामने जांच के लिए आएगा। लिहाजा एक ओर तो सीवीसी जैसी संस्‍था राजनैतिक हठधर्मिता का औजार बनेगी, वहीं दूसरी ओर ईमानदार अधिकारियों के मनोबल को ठेस पहुंचेगी।

दरअसल हमने औपनिवेशिक जमाने की नौकरशाही को स्‍वतंत्र भारत में जस की तस मंजूर कर लेने की एक बड़ी भूल की थी। नतीजतन आज भी हमारे लोकसेवक उन्‍हीं दमनकारी परंपराओें से आचरण ग्रहण करने में लगे हैं, जो अंग्रेजी राज में विद्रोहियों के दमन की दृष्‍टि से जरुरी हुआ करते थे। इसी दंभ के चलते सूचना के अधिकार की मांग को नकारने के मामलों में लगातार इजाफा हो रहा हैं।

इस सिलसिले में कानून मंत्री वीरप्‍पा मोइली और सीबीआई नौकरशाहों के लिए ढाल बनी संविधान के अनुच्‍छेद 310 एवं 311 में बदलाव की वकालत कर रहे हैं। क्‍योंकि भ्रष्‍टाचार समाप्‍त करने में यही अनुच्‍छेद रोड़े अटका रहे है। लिहाजा लोकसेवक से जुड़ी सेवा शर्तों को नए सिरे से परिभाषित करने की नितांत जरुरत है। सर्वोच्‍च न्‍यायालय के पूर्व मुख्‍य न्‍यायाधीश के जी बालकृष्‍णन ने भी भ्रष्‍टाचार को विधि के शासन और लोकतंत्र के लिए खतरनाक माना था। संविधान के अनुच्‍छेद 310 और 311 ऐसे सुरक्षा कवच हैं जो देश के लोकसेवकों के कदाचरण से अर्जित संपत्‍ति को सुरक्षित करते हैं। अभी तक भ्रष्‍टाचार निवारक कानून में इस संपत्‍ति को जब्‍त करने का प्रावधान नहीं है। इन अनुच्‍छेदों में निर्धारित प्रावधानों के चलते ही ताकतवर नेता और प्रशासक जांच एजेंसियों को प्रभावित तो करते ही हैं तथ्‍यों व साक्ष्‍यों को भी कमजोर करते हैं।

कुछ ऐसे ही कारणों के चलते हमारी अदालतों में भ्रष्‍टाचार से जुड़े नौ हजार से भी ज्‍यादा मामले लंबित हैं। मायावती और मुलायम सिंह यादव के आय से अधिक संपत्‍ति के मामले में सीबीआई तेजी नहीं दिखा पा रही है। अनुसूचित आयोग के अध्‍यक्ष बूटा सिंह के बेटे पर लगे करोड़ों की रिश्‍वतखोरी के आरोप में सीबीआई को पूछताछ करना मुश्‍किल हो रहा है। शिबू सोरेन फिर से झारखण्‍ड के मुख्‍यमंत्री बन गए हैं। इन समस्‍याओं से निजात के लिए ही वीरप्‍पा मोइली की अध्‍यक्षता वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने एक ‘राष्‍टीय लोकायुक्‍त' के गठन की सिफारिश की है। इसके मातहत प्रधानमंत्री को छोड़कर सभी केंद्रीय मंत्री, मुख्‍यमंत्रियों, राज्‍यमंत्रियों, सांसदों, विधायकों और मंत्री का दर्जा प्राप्‍त पद आ जाते हैं। इसी के अधीन देशभर में सीबीआई की 72 नई अदालतें वजूद में लाने का प्रावधान है। करोड़ों-अरबों रुपए खर्च कर अस्‍तित्‍व में लाया जाने वाला यह प्रस्‍तावित ढांचा भ्रष्‍टाचार संबंधी मामलों में सीबीआई की तेज गति से मदद करेगा और फिर सीबीआई अदालतें मामले का निपटारा करेंगी। ऐसे दावे किए जा रहे है। लेकिन इतना बड़ा ढांचा खड़ा कर दिए जाने के बावजूद क्‍या गारंटी है कि वह अन्‍य आयोगों की तरह सफेद हाथी साबित न हो ? क्‍योंकि अब तक जितने भी नए कानूनी प्रावधानों और आयोगों को वजूद में लाने की कवायद की गई है वे दृढ़ राजनीतिक इच्‍छाशक्‍ति के बगैर नक्‍कारखाने में तूती ही साबित हुए है ?

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रचनाकार: प्रमोद भार्गव का आलेख - हर तीसरा भारतीय भ्रष्‍ट
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