प्रमोद भार्गव का आलेख – भूख और सड़ते अनाज का अर्थशास्‍त्र

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हमारे देश में सड़ता अनाज इंसान की प्राकृतिक भूख की जरूरत से नहीं लाभ-हानि के विश्‍वव्‍यापी अर्थशास्‍त्र से जुड़ा है। इसलिए चुनिंदा संपादको...

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हमारे देश में सड़ता अनाज इंसान की प्राकृतिक भूख की जरूरत से नहीं लाभ-हानि के विश्‍वव्‍यापी अर्थशास्‍त्र से जुड़ा है। इसलिए चुनिंदा संपादकों के साथ बातचीत में अर्थशास्‍त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को यह कहने में कोई आत्‍मग्रंथि परेशान नहीं करती कि यदि अनाज को यों ही भूखों को बांट दिया गया तो किसानों को पैदावार के लिए प्रोत्‍साहित नहीं किया जा सकता। क्‍या विडंबना है कि आर्थिक मंदी के दौर में जब औद्योगिक घरानों को बडे़ पैकेज दिए तब क्‍यों यह बात नहीं सोची गई कि प्रोत्‍साहन पैकेजों से उद्योगपति ज्‍यादा औद्योगिक उत्‍पाद बाध्‍य नहीं होंगे ? यही नही कंपनियों की दी जाने वाली अनेक प्रकार की छूटें (सब्‍सिडी) जन कल्‍याण योजनाओं के खर्च से चार गुना ज्‍यादा हैं। छूट के बावजूद देश के प्रमुख सौ उद्योगपतियों पर 1.41 लाख करोड़ रूपये कर के रूप में बकाया हैं। मौजूदा बजट में ही गरीबों की खाद्य सुरक्षा की दुहाई देने वाली सरकार ने कुटिल चतुराई से 450 करोड़ रूपये की छूट की कटौती की है। लेकिन ये सब तथ्‍य इसलिए नजरअंदाज कर दिए जाते हैं क्‍योंकि भूख और सड़ते अनाज का भी अपना एक अर्थशास्‍त्र है, जिसकी बहाली सरकार के लिए जरूरी है। अलबत्ता सड़ते अनाज को मुफ्‍त या सस्‍ते में बांटकर खाद्य सुरक्षा के दृष्‍टिगत नई खरीदी पर सरकार के ऊपर छूट का दोहरा बोझ बढ़ता ? मुफ्‍त में अनाज बांटा जाता तो व्‍यापारियों के हित प्रभावित होते। अनाज के दाम घटते और अनाज भण्‍डारों में व्‍यर्थ पड़ा रहता ? इसलिए प्रधानमंत्री के इस बयान को हम गरीबी और कुपोषण के सिलसिले में भले ही आर्थिक सरंचना की विफलता कहें, लेकिन बाजार और व्‍यापारी के हित-पोषण की अर्थशास्‍त्रीय दृष्‍टि से यह सफलता का सूक्‍ति वाक्‍य है।

सच्‍चाई तो यह है कि बाजारवाज के मद्‌देनजर हमारे देश में भूख को भी आर्थिक दोहन का मुकम्‍मल आधार बनाया जा रहा है। देश में 30 से 35 लाख टन अनाज भण्‍डारण की क्षमता है, लेकिन समर्थन मूल्‍य पर अनाज खरीदा जाता है 60 से 65 लाख टन। ऐसे में आधा अनाज खुले में भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। तिस पर भर भी गौरतलब यह है कि समाचार माध्‍यमों से हैरानी में डालने वाली जानकारियां यहां तक आ रही हैं कि भारतीय खाद्य निगम ने अपने कुछ गोदाम बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों को सस्‍ती दरों पर किराये पर उठा दिये हैं। ऐसे विपरीत हालातों में कंपनियों का माल तो सुरक्षित है, लेकिन सरकारी खरीद का कुछ माल बरामदों में तो कुछ खुले में सड़ रहा है। इन गरीब विरोधी हालातों के चलते 168 लाख टन गेहूं बरबाद हो चुका है। इस अनाज से देश के 20 करोड़ भूखों को एक साल तक खाद्य सुरक्षा हासिल कराई जा सकती थी। देश में तकरीबन इतने ही ऐसे लोग हैं। अनाज को इसलिए भी जान बूझकर सड़ने को छोड़ दिया जाता है जिससे अनाज खरीद पर किए गोलमाल पर पर्दा डला रहे।

सरकार की तरफदारी करने वाले कुछ अर्थशास्‍त्रियों का तर्क है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्‍यम से बांटे जाने वाले इस अनाज में बहुत झोल हैं। भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था के चलते अनाज का एक बहुत बड़ा हिस्‍सा फिर से कारोबारी सस्‍ती दरों पर खरीद लेंगे और फिर सरकार को बेच देंगे। यह आशंका जायज है। राजनेता, अधिकारी और व्‍यापारियों के बीच कदाचरण का ताजा और उम्‍दा उदाहरण अरूणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्‍यमंत्री गोगांग अपांग का है। हाल ही में उन्‍हें पीडीएस से जुडे़ एक हजार करोड़ रूपये के घोटाले में हिरासत में लिया गया है। लेकिन वितरण प्रणाली में दोष के चलते गरीबी रेखा के नीचे रह रही एक तिहाई आबादी को भूखे पेट नहीं छोड़ा जा सकता ? न्‍यायाधीश डीपी वाधवा भी कह चुके हैं कि पीडीएस में उपभोक्‍ता तक राशन पहुंचते-पहुंचते अस्‍सी प्रतिशत तक काला बाजारी की गिरफ्‍त में आ जाता है।

सर्वोच्‍च न्‍यायालय को नीति-निर्धारण में दखल न देने की हिदायत देकर प्रधानमंत्री ने साफ कर दिया है कि सरकार गरीबों की हितकारी है या विरोधी ? जनता के ‘आहार के अधिकार' को अनीति में बदलकर जब उनकी खाद्य सामग्री सड़ने को खुले में छोड़ दी जाएगी तो नागरिकों का संवैधानिक दायित्‍व बनता है कि वे न्‍यायालय का दरवाजा खट खटाएं। अदालत के आदेश की अवहेलना करते हुए प्रधानमंत्री ने जब अपना रूख साफ कर दिया तो अब जनता और जन संगठनों का हक बनता है कि वे वास्‍तविक खाद्य सुरक्षा के लिए देश की राजनैतिक अर्थव्‍यवस्‍था बदलने में मजबूती से जुटे जाएं। जिससे नए रूप में जब यह कानून सामने आए तो इतना सशक्‍त, असरकारी और जवाबदेह हो कि मौजदा प्राणलियों से भूखे के पेट में पहुंचने वाला अनाज ‘ऊंट के मुंह में जीरा' भर न रह जाए। इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता संपूर्ण राष्‍ट्र के प्रति हो न होकर देश के केवल 150 जिलो के प्रति है।

इस समय अमेरिका के दबाव में पूरी दुनिया में ऐसे उपाय और नीतियां अमल में लाई जा रही हैं जिससे खाद्यान्‍न का व्‍यापार बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के कब्‍जे में पहुंच जाए। दुनिया के अनाज व्‍यापार पर फिलहाल तीन कंपनियां कारगिल, एडीएम और बंग कुण्‍डली मारकर बैठी हैं। विश्‍व का 90 फीसदी अनाज बाजार पर इनका सीध्‍ ाा नियंत्रण है। अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष, विश्‍व व्‍यापार संगठन और विश्‍व बैंक के हमेशा ऐसे प्रयास रहते हैं कि इन खाद्यान्‍न कंपनियों और इनके कृपापात्र बड़े कृषकों को अनाज आयात-निर्यात के अवसर मिलें। तिसरी दुनिया के जो देश इन कंपनियों की जकड़न में आ गए हैं उन्‍हें ये ऐसी फसलों की पैदावार के लिए विवश करते हैं जिससे यूरोप और अमेरिका के हित साध्‍य हों। ऐसी ही लाचारी के चलते केन्‍या को फूल उत्‍पादन और ब्राजील को अमेरिका के लिए सोयाबीन पैदा करने के लिए मजबूर किया गया। नतीजतन स्‍थानीय लोगों की खाद्य सुरक्षा संकट में आ गई। इन्‍हीं विवशताओं के चलते मेक्‍सिको में पचास लाख छोटे किसान और कृषि मजदूर नगरों की ओर पलायन कर गए। कृषि विरोधी ऐसी ही वजहों से विश्‍व की कृषि पैदावार में 3.5 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है।

हमारे देश में अनाज का संकट वास्‍तविक नहीं है सरकारी योजनाओं में भ्रष्‍टाचार फलने-फूलने और व्‍यापारियों को लाभ पहुंचाने के दृष्‍टिगत खाद्य संकट कृत्रिम रूप से भी खड़ा किया जाता है। सामान्‍य स्‍थिति में भी एफसीआई के भण्‍डारों में पचास हजार करोड़ रूपये से ज्‍यादा का खाद्यान्‍न बर्बाद हो जाता है। फसल काटने, दांय (थ्रेसिंग) करने से लेकर किसान के घर और फिर अनाज मंडियों से सरकारी व निजी भण्‍डार गृहों तक पहुंचाते-पहुंचाते इतना अनाज बर्बादी की भेंट चढ़ जाता है, जितनी आस्‍ट्रेलिया जैसे देशों की कुल पैदावार है। व्‍यर्थ जाने वाले इस अनाज का संचय और उचित भण्‍डारण व वितरण कर लिया जाए तो भारत विश्‍व भूख सूचकांक से बाहर आ जाएगा।

भारतीय खाद्य निगम यदि विकेंद्रीकृत भण्‍डारण नीति अपनाए तो ग्राम स्‍तर पर भी भण्‍डारण के श्रेष्‍ठ प्रबंध किए जा सकते हैं, जिनमें अनाज बारिश, बाढ़, चूहों व अन्‍य कीटों से बचाकर पूरे साल सुरक्षित रख लिया जाता है। गांव में ही समर्थन मूल्‍य पर अनाज खरीदकर एफसीआई उसके भण्‍डारण की जवाबदेही किसान पर डाल दे। भण्‍डारण सुविधा व सुरक्षा के दृष्‍टिगत किसान को प्रति िक्‍ंवटल एक तय राशि अलग से दे। यदि ऐसे उपाय सुनिश्‍चित होते हैं तो देश यातायात लदाई-उतराई में होने वाले खर्च से भी बचेगा। इस अनाज को किसान के भण्‍डार से निकालकर सीधे गांव में मध्‍यान्‍ह भोजन और बीपीएल व एपीएल कार्ड धारियों को भी पीडीएस के जरिये आसानी से उपलब्‍ध कराया जा सकता। इस विधि को यदि नीतिगत मूर्त रूप दे दिया जाता है तो व्‍यापारिक कालाबाजारी की आशंकाएं भी नगण्‍य रह जाएंगी।

लेकिन देश में जब जान-बूझकर केंद्रीयकरण की (कु) नीति अपनाकर चंद बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों को खेती और फसल के उत्‍पादन के साथ बीज, जीएम बीज, खाद, कीटनाशक और खरपतवार नाशक उत्‍पादों के निर्माण की जिम्‍मेबारी सप्रयास सौंपी जा रही हो तो भला ग्राम स्‍तर पर अनाज भण्‍डारण की बात कैसे सोची जा सकती है। कुछ ऐसे ही कुत्‍सित उपायों से कृषि और किसान को संकट में डाला जा रहा है। जबकि देश की 66 फीसदी आबादी सीधे कृषि से जुड़ी है। इसके बावजूद देश की आमदनी से जुड़े स्रोत पर कृषि का दावा केवल 17 प्रतिशत माना जाता है। वहीं निजी कंपनियों का हिस्‍सा एक प्रतिशत से भी कम है, लेकिन वे 33 फीसदी कमाई पर अपना दावा जताती हैं। और शेष कमाई मसलन 55 प्रतिशत सरकारी अधिकारी कर्मचारी हथिया लेते हैं।

आय पर दावों की इतनी विषमता के बावजूद केंद्र सरकार की मंशा है कि बीपीएल और एपीएल कार्ड धारियों की संख्‍या में इजाफा न हो, ताकि खाद्यान्‍न छूट से लेकर गरीबी उन्‍मूलन से जुड़ी योजनाओं पर दी जाने वाली छूटें कम बनी रहें। इसलिए प्रधानमंत्री की यह बात भी गरीबों के प्रति छद्‌म संवेदना प्रतीत होती है, जिसमें वे राहुल गांधी के विचार से सहमति जताते हुए कहते हैं कि देश में दो तरह के भारतीय मौजूद हैं। ऐसा इसलिए है क्‍योंकि कृषि और गैर कृषि व्‍यवसायों में लगे लोगों की आय के बीच बहुत बड़ा अंतर है, जो अस्‍थिरता पैदा करने वाला है। इन हालातों को समझने की कोशिश करने के बावजूद आम आदमी के भले की दुहाई देने वाली सरकार बजट घाटा कम करने के बहाने 450 करोड़ रूपये की छूटों में बेहिचक कटौती कर लेती है। इससे जाहिर होता है कि सरकार इंसान की प्राकृतिक भूख अर्थात भोजन के अधिकार के प्रति ईमानदार नहीं है। इस भूख के प्रति सरकार अतनी हृदयहीन व निंरकुश हो गई है कि वह सड़ते अनाज को भी गरीबों में बांटने को तैयार नहीं है। सरकार के लिए सड़ता अनाज भी अर्थशास्‍त्रीय लेखा-जोखा भर रह गया है।

 

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प्रमोद भार्गव

शब्‍दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी म.प्र.

लेखक प्रिंट और इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्‍ठ पत्रकार है।

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प्रमोद भार्गव का आलेख – भूख और सड़ते अनाज का अर्थशास्‍त्र
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