दामोदर लाल जांगिड़ का आलेख – निर्बल, निरूपाय, निष्प्रभ होता समाज

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आज जिस दौर से हम गुजर रहे है , उसे देखकर तो यूं लगता है मानो किसी को भी न तो खुदा का खौफ है न कानून का भय और न ही समाज का डर। तभी तो हमें आय...

आज जिस दौर से हम गुजर रहे है, उसे देखकर तो यूं लगता है मानो किसी को भी न तो खुदा का खौफ है न कानून का भय और न ही समाज का डर। तभी तो हमें आये दिन सुनने को मिल जाता है कि सात वर्षीय मासूम के साथ बलात्‍कार, रिश्‍वत लेते रंगे हाथों गिरफ्‍तार, पुत्र द्वारा पिता की कुल्‍हाड़ी मार कर हत्‍या, अवैध सम्‍बंधों के चलते देवर के साथ मिलकर पति की हत्‍या, पति द्वारा पत्‍नी की या पत्‍नी द्वारा पति की हत्‍या, सम्‍पत्ति विवाद को लेकर भाइयों में झगड़ा, उनमें से एक की मौत,को तो हमने परिणाम के रुप में स्‍वीकार सा कर लिया है। निम्‍न वर्ग और मध्‍यम वर्ग के घरों में तो ऐसी कोई घटना हो जाये तो कोई खास तवज्‍जुह नहीं देता मगर प्रमोद महाजन के जैसे घरों में कुछ घट जाये तो मामला सुर्खियों में आ जाता है। दानिश्‍ता लोग अपने अपने नजरिये से ऐसे मामलात पर अपने विचार प्रकट कर देते हैं, मामला खबरों की सुर्खियों से सम्‍पादकीय लेखों से होते हुए परिशिष्‍ट तक चला जाता है और बात खत्‍म । आखिर क्‍यों ?

अगर जरा गौर किया जाये तो सारा का सारा दोष अपने समाज पर आता है। अपना समाज दिन ब दिन नपुंसक होता जा रहा है जिसके चलते अब इसका किसी को कोई डर नहीं रह गया। इस समाज के पास एक बहुत बड़ी सजा थी निन्‍दा, अवहेलना, जिसको बड़े से बड़ा गुनहगार झेल नहीं पाता था, तब राजा को प्रजा की निंदा के भय से किसी अपराधी को चाहे वो उसका कोई सगा ही क्‍यों न हो, सजा देनी ही पड़ती थी। आज किसी को कानून का डर नहीं, इसके पीछे भी हमारे समाज की आदर्श हीनता ही है अगर हम अब भी नहीं संभले तो वो दिन दूर नहीं कि हमारे समाज का ही हिस्‍सा कहलाने वाले अपराधी जो कुछेक काम अंधेरे में या निर्जन स्‍थान पर जाकर करते है कल अपने मंसूबात पूरे करने के लिए समय या स्‍थान की परवाह करना भी छोड़ देंगे। दिन प्रति दिन गुनाहगारों के हौसले बुलंदियां छू रहे है। समाज को अपने हिजड़ेपन का अहसास हो रहा है या नहीं कौन जाने।

यह सब इस नकारा साबित होते समाज ही की बदौलत है कि पचासों व्‍यक्‍तियों की मौजूदगी में जेसिका लाल की हत्‍या हो जाती है, एक एक करके कातिल छूट जाते है, न्‍यायालय भी निर्भीक होकर ऐसा फैसला देता है कि हंसी आ जाती है। एक नेता बड़े बड़े घोटाले कर लेने के बावजूद भी जीत कर कुर्सी पर जम जाता है, मुजरिम अदालत से छिप-छिप कर मंत्रालय सम्‍भाल लेते है। सरकारें सांसदों, विधायकों के हित मनमाफिक कानून बनाती रहती है, एक भाई की अपने बड़े भाई की हत्‍या करने की हिम्‍मत हो जाती है। यह समाज सैद्धांतिक रुप से तो खोखला हो गया सो हो गया वैचारिक दृष्‍टि से भी दीवालियेपन की हदें पार करता दिखलाई पड़ रहा है। इस समाज के बुद्धिजीवी ही है जो दलीलें दे रहे है कि एक सम्‍पन्‍न और पहुंच वाले भाई से विपन्‍न भाई को कई अपेक्षाएं होती है। उनके पूरा न होने वा बाउम्‍मीद भाई कुंठा ग्रस्‍त होकर अपने भाई की हत्‍या कर डालता है। उनकी निगाह में वो बिल्‍कुल बेकसूर होता है। और जिस समाज को बार बालाओं की जरुरत हो उस समाज के पौरुष, सिद्धांत, आदर्श व धार्मिक प्रवृति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

पुलिस की तैनातगी चप्‍पे-चप्‍पे पर करना कतई मुमकिन नहीं, वकील और जज हम साथ साथ लिए फिर नहीं सकते। हां जिसे हम समाज कहते है वो हर जगह होता है और समाज का बल है उसकी अपनी जागरुकता जिसका भय सिर्फ बस्‍तियों तक ही महदूद न होकर बीहड़ों, जंगलों तक रहता है जिसके चलते कोई शख्‍स गुनाह करने के पहले सौ बार झिझकता है, मगर वर्तमान में वो समाज अपनी धाक पूर्णतया खो चुका है। अगर किसी को थोड़ा बहुत भय है तो वो ईश्‍वर, कानून का नहीं बल्‍कि अपने से बड़े बलवान का जिसे टटोलने की हिमाकत वो नहीं करता।

ये मौजूदा हालात यूं यकबयक जलजले या सुनामी की तरह आ गये हों ऐसा भी नहीं। ये सब धीरे-धीरे किस्‍तों में हुआ है। हर दौर में उनकी हिम्‍मत बढ़ी है और आज अपने ऊरुज के नजदीक है। कभी तो पश्‍चिमी आक्रांताओं से लड़ने वाले व अंग्रेजी हुकूमत को भगा देने वाले समाज में एक दूसरे को एक दूसरे की परवाह हुआ करती थी यही उसके संगठित रहने का कारण रहा होगा। आज किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं फलस्‍वरुप हम बिखरे हुए है अपराधी संगठित है तो वो किसी से क्‍यों डरे।

आदि काल में सर्वप्रथम समाज की ही कल्‍पना की होगी, शासक, न्‍यायालय, रक्षक आदि तो उस सामाजिक व्‍यवस्‍था की उत्‍कृष्‍टता की देन रही होगी। तब अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए किसी को अंगुली उठा कर असामाजिक कहा जाता होगा और हर एक में सामाजिक होकर गर्वित होने की भावना जगायी गयी और असामाजिक होकर समाज में लांछित होने के भय ने ही लोगों को सदाचार पर विवश किया होगा। और कितना समय लगा होगा एक सुव्‍यवस्‍थित प्रणाली तय करने में। और यकीनन तब भी जब इस समाज का डर कम होने की स्‍थिति आयी होगी तो राजा, कानून, रक्षक (आज की पुलिस) की कल्‍पना कर मूर्त रुप दिया होगा ताकि सामाजिक व्‍यवस्‍था छिन्न-भिन्न न हो। वो की वो स्‍थिति वापिस आ गयी लगती है। राजा, कानून, न्‍याय अपराधी को दण्‍ड देना नहीं चाहते या उसे दण्‍डित करने में सक्षम नहीं हैं और समाज न तो अपराधी को सुधारने में सक्षम है और न ही अपराधियों को बख्‍शने वालों को। अब भी यदि समाज ने अपने नकारा होने पर ध्‍यान नहीं दिया तो वो दिन दूर नहीं कि एक बार फिर से जंगल कानून स्‍थापित हो जाय। जितनी देरी कर दी गयी है वो ही काफी है, अब और देरी करना ज्‍यादा खतरनाक साबित होगा।

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रचनाकार: दामोदर लाल जांगिड़ का आलेख – निर्बल, निरूपाय, निष्प्रभ होता समाज
दामोदर लाल जांगिड़ का आलेख – निर्बल, निरूपाय, निष्प्रभ होता समाज
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