प्रमोद भार्गव का आलेख - भारत और चीन से भयभीत अमेरिका

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दुनिया की आर्थिक और सामारिक महाशक्‍ति माने जाने वाले देश अमेरिका को भारत और चीन जैसे विकासशील देश चुनौती दे रहे हैं, यह तथ्‍य जाहिर करता ह...

pramod bhargav

दुनिया की आर्थिक और सामारिक महाशक्‍ति माने जाने वाले देश अमेरिका को भारत और चीन जैसे विकासशील देश चुनौती दे रहे हैं, यह तथ्‍य जाहिर करता है कि धरती गोल भी हैं और घूमती भी है। हैरानी इसलिए है क्‍योंकि अमेरिका चीन और भारत से स्‍वस्‍थ प्रतिस्‍पर्घा करने की बजाय हड़बड़ी में सरंक्षणवादी उपायों को कानूनी संहिताओ में ढालने में लगा है। दूसरी तरफ बराक ओबामा देश के छात्रों से अपील कर रहे हैं कि बेंगलूरू और बीजिंग के तकनीकी पेशेवरों से मुकबला करें, जिससे मानव संसाघन के क्षेत्र में अमेरिकी वर्चस्‍व बना रहे। गोया 21 वीं सदी में भी अमेरिकी ताकत का डंका दुनिया में बजता रहे। इसके बावजूद हम हैं कि उस दौर में शिक्षा को ज्‍यादा से ज्‍यादा पश्‍चिमोन्‍मुखी बनाने में लगे हैं, जब पर दुनिया में हमारे आईटी इंजीनियरों व चिकित्‍सकों ने अपनी मेधा का परचम फहरा दिया हो। इससे तय होता है कि हमें उच्‍च शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी विश्‍व. विद्यालयों को आमंत्रित करने की जरूरत नहीं है और न ही मुक्‍त अर्थव्‍यव्‍स्‍था को अब ज्‍यादा तरजीह देने की जरूरत है।

जब दूसरे देश महाशक्‍ति बनने की होड़ में अमेरिकी बराबरी के करीब पहुंच गए हों, तब बराक ओबामा की अपने देश के लिए यह चिंता वाजिब हैं कि अमेरिका के छात्र बेंगलुरू और बीजिंग से जबरदस्‍त होड़ के लिए जुट जाएं। वैसे भी किसी भी देश का भविष्‍य युवाओं के कंधे पर टिका होता है। इसलिए ओबामा बार-बार शिक्षकों से भी कह रहे हैं कि वे यह सुनिश्‍चित करें कि शैक्षिक संस्‍थाओं में चोटी के पेशेवर तैयार होकर बाहर आएं। दरअसल आर्थिक उदारवाद और भूमण्‍डलीकरण के दुष्‍परिणाम अब अमेरिका में भी दिखाई देने लगे है।

भारत की बौद्धिक मेधा ने एक और जहां अमेरिका के सूचना तकनीक क्षेत्र में मजबूत पकड़ बना ली है, वहीं चीन के वस्‍त्र, शामियाने, खिलौने, इलेक्‍ट्रोनिक उपकरण और तमाम तरह के उत्‍पादनों ने अमेरिका के उद्योग धंधों की बुनियाद हिलाकर रख दी है। इसलिए वहां के खासतौर से कपड़ा उद्योग और मैन्‍युफैक्‍चरिंग सेक्‍टर अरसे से मांग कर रहा था कि चीन के उत्‍पादों का व्‍यापार अमेरिका में प्रतिबंधित हो। लिहाजा वैश्‍वीकरण के सबसे बडे़ पैरोकार अमेरिका पर जब आर्थिक बदहाली की आशंकाओं से जुड़े खतरे के बादल मंडराने लगे तो बाजारीकरण के प्रति प्रतिबद्धता की नैतिक जिम्‍मेवारी से अमेरिका ने मुंह फेरना शुरू कर दिया। और देखते-देखते मुक्‍त व्‍यापार दुनिया में फैलाने की वकालत करने वाले इस देश ने अपने ही देश में संरक्षणवादी उपायों को कानूनी जामा पहनाकर उन पर अमल भी शुरू कर दिया। हाल ही में अमेरिकी संसद में दो ऐसे विधेयक पारित हुए हैं जो सुनिश्‍चित करते है कि अमेरिका ने आर्थिक उदारवाद को ठेंगा दिखाने की शुरूआत कर दी हैं।

अमेरिकी संसद ने बैरी संशोधन विधेयक और बैरी संशोधन विस्‍तार विधेयक पारित कर यह अनिवार्य कर दिया है कि अमेरिका का गृह-भूमि सुरक्षा विभाग केवल अमेरिका में बना ही सामान खरीदे। वैसे बैरी संशोधन अधिनियम अमेरिका में पहले से ही लागू हैं। इस कानून के तहत वहां का प्रतिरक्षा मंत्रालय सैन्‍य सामान अमेरिका से ही खरीदने को मजबूर है। अब इसी कानून की अगली कड़ी बैरी संशोधन विस्‍तार विधेयक है, जिसमें गृह विभाग को बाध्‍यकारी करते हुए भविष्‍य में किसी प्रकार की वस्‍तु की खरीद स्‍वदेश से ही करनी होगी। चूंकि यह दोनों विधेयक संसद में सर्वसम्‍पति से पारित हुए हैं इसलिए जाहिर होता है अमेरिका का पक्ष-विपक्ष दोनों ही भारत और चीन से किस हद तक भयभीत हैं।

यही नहीं अमेरिका के ओहियो राज्‍य ने तो सरकारी कंपनियों की आईटी आउटसोर्सिंग पर रोक लगा दी थी। इससे पहले भी अमेरिका ने सीमा सुरक्षा कोश के लिए एच 1 बी वीजा और एल 1 वीजा के शुल्‍क में दो हजार डॉलर तक की वृद्धि कर दी थी। संरक्षणवादी इन सब उपायों के पीछे अमेरिका की सोच हैं कि यदि अपने देश में अमेरिका एक साल में 1000 डॉलर का निवेश करता है तो वहां हर साल 500 युवाओं को नौकरियां देने का रास्‍ता साफ होगा। अमेरिका में इस समय नौकरियां पाना एक बड़ा संकट है। यहां आर्थिक मंदी के चलते कुछ सालों के भीतर ही 56 लाख नौकरियां समाप्‍त हुई हैं। इस कारण बेरोजगारी दर 10 फीसदी तक पहुंच गई है। अमेरिका में गरीबी की दर भी लगातार बढ़ती हुई 15 फीसदी तक पहुंच गई है। मसलन वहां हरेक 7 आदमी में से एक आदमी गरीब है।

अमेरिका भले ही भारत को हौवा मानकर चल रहा हो लेकिन इन संरक्षणवादी उपायों का बुरा असर भारत पर भी पड़ेगा। भारतीय साफ्‍टवेयर निर्यातकों का मानना हैं कि अमेरिका के ये उपाय भारतीय आईटी उद्योग को चौपट करने वाले साबित हो सकते हैं। भारतीय आईटी कंपनियों के मुनाफे में अकेला अमेरिका 50 प्रतिशत का योगदान करता है। वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी भी यह मानकर चल रहे हैं कि अमेरिका के सरंक्षणवादी उपाय भारत की आईटी कंपनियों को प्रभावित करेंगे। दरअसल ओबामा अपने देश में यह संदेश देना चाहते हैं कि सरंक्षणवादी उपायों से कालांतर में अमेरिकी अर्थव्‍यव्‍यस्‍था उबर जाऐगी। लेकिन विश्‍वव्‍यापी अर्थव्‍यव्‍यस्‍था को वर्तमान संकट से उबारना है तो सरंक्षणवाद इसका हल नहीं है।

बराक ओबामा के पहले कमोवेश ऐसी ही भविष्‍यवाणी ब्रिटेन के विदेश मंत्री डेविड मिलीबैंड ने भी की थी। डेविड का कहना था अपनी बौद्धिक क्षमता और लगातार मजबूत हो रही अर्थिक वृद्धि के बूते भारत कालातंर में अंतरराष्‍ट्रीय शक्‍ति का केन्‍द्र बनने जा रहा है। उन्‍होंने अपने देश के राजनयिकों से अपील की थी कि वे विश्‍व संदर्भ में अपना दृष्‍टिकोण बदलें। क्‍योंकि विश्‍व अर्थव्‍यवस्‍था के साथ भारत और चीन के मजबूती से जुड़ जाने के कारण भविष्‍य में शक्‍ति का केन्‍द्र पश्‍चिम से हस्‍तांतरित होकर पूरब का रूख करने की तैयारी में है।

लेकिन फिलहाल भारत और चीन को किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए अमेरिका अर्थिक मंदी के दौर से भले ही गुजर रहा हो, इसके बावजूद विश्‍व की महाशक्‍ति बने रहने की उसके पास अभी पर्याप्‍त अर्थिक व सामरिक ताकत तो है ही। पश्‍चिमी देशों का बहुमत से समर्थन भी उसे हासिल है। इसलिए एशियाई मुक्‍कों में उसका दखल कायम है और वह उनकी प्राकृतिक संपदा के दोहन में भी लगा है। इराक को तेल के लिए बर्बादी के कगार पर पहुंचाकर कमजोर किया। अफगानिस्‍तान में आज भी अमेरिकी सेनाओं का वर्चस्‍व है। इससे लगता है अमेरिका अभी धन और सैन्‍य मोर्चे पर कम से कम एक पीढ़ी तक और छाया रहेगा। अपनी संप्रभुता बनाए रखने के लिए खाड़ी के एकाध और देश पर भी अमेरिका हल्‍ला बोलकर इराक की तरह उसे अपने काबू में ले सकता है। कश्‍मीर मुद्‌दे पर भारत और पाकिस्‍तान को उसने अपनी दो-मुंही चालों से पहले ही उलझा रखा है। इसलिए पूरब का कोई विकास शील देश अमेरिका को चुनौती देने की स्‍थिति में आ जाये ऐसा फिलहाल इस सदी में तो मुश्‍किल ही है।

प्रमोद भार्गव

शब्‍दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी म.प्र.

लेखक प्रिंट और इलेक्‍ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्‍ठ पत्रकार हैं ।

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. ...पूरब का कोई विकास शील देश अमेरिका को चुनौती देने की स्‍थिति में आ जाये ऐसा फिलहाल इस सदी में तो मुश्‍किल ही है। ...

    I fully agree with you. It's not possible to challenge a strong nation like America. Although living in fool's paradise is a different issue altogether.

    .

    .

    जवाब देंहटाएं
  2. Dwarka4:20 pm

    १. जब तक हमारा युवा शिक्षित होने के साथ साथ राष्ट्रवाद की भावना से भरा नही होगा ?
    २. जब तक हमारा राष्ट्र और देश की सरकार कच्चे खनिजो (खनिजो अयस्को) का निर्यात करती रहेगी ?
    ३. जब तक राष्ट्र की सेनाओं के लिए लगभग सभी विश्वस्तरीय आयुध सामग्रियों व साधनों में हम तकनीकी रूप से आत्मनिर्भर नही हो जाते ?
    मुझे समझा में आता कि तब तक हमारा महाशक्ति बनने का सपना पूरा कैसे संभव हो सकता है ?

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