कचरा मैदानों से फूटती शैतानी (लैंडफिल)गैसें ? केंचुओं से संभव है जहरीली गैसों पर नियंत्रण! प्रमोद भार्गव सॉफ्टवेयर इंजीनियर अभिषेक भ...
कचरा मैदानों से फूटती शैतानी (लैंडफिल)गैसें ?
केंचुओं से संभव है जहरीली गैसों पर नियंत्रण!
प्रमोद भार्गव
सॉफ्टवेयर इंजीनियर अभिषेक भार्गव आज उत्साहजनक जल्दी में थे। कल ही उनकी कंपनी ने एक परियोजना के लिए नया सॉफ्टवेयर बनाने का अनुबंध किया था और आज उन्हें उस पर काम शुरु कर देना था। फुर्ती से वे माइंड स्पेस कांप्लेक्स स्थित अपने दफ्तर में पहंचे। ईश्वर का स्मरण कर कंप्यूटर, एसी और सीलिंग फेन सब एक साथ ऑन किए। लेकिन यह क्या ? काम शुरु किए अभी एक घंटा भी नहीं बीता कि कंप्यूटर स्क्रीन धुंधलाने लगी। की-बोर्ड से दी जाने वाली कमांड कंप्यूटर ने नामंजूर कर दीं। वे कुछ सोच पाते इसी बीच एसी बैठने लगा और पंखा घरघराकर गतिहीन हो गया। धमनियों में एकाएक बढ़ते रक्त प्रवाह से अभिषेक ने माउस जोर से पटका और माथा पकड़ कर रह गए। इस स्थिति से सामना वे पहली बार नहीं कर रहे थे, बल्कि कई दिनों से इस विचित्र स्थिति से अकेले वही नहीं दफ्तर के अनेक इंजीनियर दो-चार हो रहे थे। विज्ञान और प्रौद्योगिक तकनीक विशेषज्ञों में से तमाम ने इस हरकत को शैतानी (भूत-पे्रत) हरकत समझा, तो प्रबंधन ने आलीशान बहुमंजिला इमारत में वास्तु दोष ! पंडितो, वास्तुकारों और तांत्रिकों से अलौकिक शक्तियों के निवारण के उपाय भी कराए गए लेकिन नतीजा ठन-ठन गोपाल !
जी हां मुबंई, दिल्ली, बैंगलोर, अहमदाबाद, गुड़गांव और नोएडा में तत्काल शैतान की उपज लगने वाली इन हरकतों से कुछ ऐसा ही हो रहा है। लेकिन ऐसा केवल उन स्थानों पर ही हो रहा है, जहां कचरा मैदानों (डंपिंग ग्राउंडों) पर बने आलीशान व बहुमंजिला इमारतों में आईटी, वीपीओ, कॉल सेंटर और सायबर कैफे हैं। सीमेंट, कंक्रीट और लोहे से निर्मित इन इमारती भूखण्डों में कंप्यूटर, लेपटॉप, एसी, टीवी, प्रिंटर, फ्रिज, माइक्रोवेव व अन्य इलेक्ट्रोनिक उपकरण चलते-चलते एकाएक जबाव देने लग जाते हैं। ऐसा उन भू-खण्डों पर ज्यादा देखने में आ रहा है, जहां एक दशक-डेढ़ के भीतर इमारती जंगल उगा है। यहां चांदी, पीतल और तांबे के बर्तन व इलेक्ट्रोनिक उपकरणों में इस्तेमाल होने वाले कल-पुर्जे काले पड़ जाते हैं। नतीजतन इन पुजोंर् की संवेदन-क्षमता (सेंसेविटीज) कुंद हो जाती है, लिहाजा संगणक अभियंता द्वारा दी जाने वाली क्लिक का कोई असर नहीं होता।
आखिर में इस अनंग अशरीरी प्रेत की पड़ताल की ‘‘नेशनल सॉलिड वेस्ट एसोसिएसन ऑफ इंडिया'' के रसायन वैज्ञानिक विशेषज्ञों ने। इस भयावहता का पर्दाफाश होने पर पता चला कि इलेक्ट्रोनिक उपकरणों में पैदा होने वाली हरकतें डंपिंग ग्राउण्ड में दफन कचरे से लगातार रिस रहीं लैंडफिल गैसों की देन हैं।
दरअसल लैंडफिल गैसें उन स्थलों से उत्सर्जित होती हैं, जहां गड्ढों-युक्त उबड़-खाबड़ जमीन का समतलीकरण शहरी कचरे से किया गया हो। इस कचरे में औद्योगिक और घरों में उपयोग में लाये जाने वाले इलेक्ट्रोनिक उपकरणों का कचरा भी शामिल हो तो इसमें प्रदूषण की भयानकता और बढ़ जाती है। नियम-कानूनों को ताक पर रखकर लापरवाही से तैयार किए भू-खण्डों पर खड़ी इमारतों में चल रहे सूचना तकनीक के कारोबार में प्रयोग में लाये जाने वाले ई कचरे का अपशिष्ट चांदी, तांबा प्लेडियम, टिन, सीसा, सोना और पीतल के कल-पुर्जे लैंडफिल गैसों के रूप में रिसकर हवा में तैरने से ये गैसें इन कल-पुजोंर् के संपर्क में आकर इनकी सेहत बिगाड़ देती हैं। इनका हमला निर्जीव यांत्रिक उपकरणों पर ही नहीं मानव स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डालता हैं। इनके दुष्प्रभाव से कैंसर, ऐलर्जी, गर्भपात और तंत्रिका तंत्र के गड़बड़ा जाने की समस्या पैदा हो सकती है।
हमारे देश की महानगर पालिकाएं और भवन-निर्माता कंपनियां गड्ढों युक्त भूमि के समतलीकरण का बड़ा आसान उपाय खोज लेते हैं कि गड्ढों को रोजाना घरों से निकलने वाले घरेलु कचरे और इलेक्ट्रोनिक कचरे से मुफत में पाट दिया जाए। वह भी बिना किसी रासयनिक उपाय (ट्रीटमेंट) के। विभिन्न तत्वों और रसायनों से मिश्रित दफन कचरा परस्पर संपर्क में आकर जब पांच-छह साल बाद रासयनिक प्रक्रिया शुरु करता है तो इसमें से जहरीली लैंडफिल गैसें वजूद में आने लगती हैं, जो हाइड्रोजन ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, मीथेन कार्बन मोनो ऑक्साइड और सल्फर डाय ऑक्साइड होती हैं। कचरे के सड़ने सेे बनने वाली इन गंधाती गैसों को वैज्ञानिकों ने लैंडफिल गैसों के दर्जे में रखकर एक अलग ही श्रेणी बना दी है। दफन कचरे में भीतर ही भीतर कुदरती प्रक्रिया के चलते ‘लीचेड' नामक जहरीला तरल पदार्थ जमीन की दरारों से रिसता है। लीचेड इतना खतरनाक होता है कि यह जमीन के जीव-जगत के लिए उपयोगी सहज गुणों का विनाश भी करता है। भू-गर्भ में निरंतर बहते रहने वाले जल-स्त्रोतों में भी लीचेड विलय होकर शुद्ध पानी को जहरीला बना देता है। गंधक के अनेक जीवाणुनाशक यौगिक भूमि में फैलकर इसकी उर्वरा क्षमता को नष्ट कर देते हैं। इन यौगिकों को वैज्ञानिक ‘मेरकैप्टैंस' कहते हैं।
आधुनिक जीवन शैली, कचरा उत्पादक शैली भी है। इसीलिए भारत ही नहीं दुनिया के ज्यादातर विकसित और विकासशील देश कचरे को ठिकाने लगाने की समस्या से जूझ रहे हैं। लेकिन ज्यादातर विकसित देशों ने समझदारी बरतते हुए औद्योगिक-प्रौद्योगिक कचरे को अपने देशों में ही नष्ट कर देने की कार्रवाई पर रोक लगा दी है। दरअसल पहले इन देशों में भी इस कचरे को धरती में गड्ढे खोदकर दफना देने की छूट थी। लेकिन जिन-जिन क्षेत्रों में यह कचरा दफनाया गया, उन-उन क्षेत्रों में लैंडफिल गैसों के उत्सर्जन से पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित होकर खतरनाक बीमारियों का जनक बन गया। जब ये रोग लाइलाज बीमारियों के रुप में पहचाने जाने लगे तो इन देशों का शासन-प्रशासन जाग्रत हुआ और उसने कानून बनाकर औद्योगिक-प्रौद्योगिक कूड़े-कचरे को स्वदेश में दफन करने पर सख्ती से प्रतिबंध लगा दिया। तब इन देशों ने इस कचरे को ठिकाने लगाने के लिए लाचार देशों की तलाश की और आपको हैरानी होगी कि सबसे लाचार देश निकला भारत, जहां दुनिया के 105 से भी ज्यादा देश अपना औद्योगिक कचरा समुद्रतटीय इलाकों में जहाजों से भेजकर नष्ट करते हैं। इन देशों में अमेरिका, चीन, ब्राजील, आस्ट्रेलिया, जर्मनी और ब्रिटेन प्रमुख हैं।
नेशनल एनवायरमेंट इंजिनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक रिसर्च पर्चे के अनुसार वर्ष 1997 से 2005 के बीच भारत में प्लास्टिक कचरे के आयात में 62 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। यह आयात देश में पुनर्शोधन व्यापार को बढ़ावा देने के बहाने किया जाता है। इस क्रम में सोचनीय पहलू यह है कि इस आयातित कचरे में खतरनाक माने जाने वाले आर्गनों मरक्यूरी यौगिक निर्धारित मात्रा से 1500 गुणा अधिक पाए गए हैं, जो कैंसर जैसी लाइलाज और भयानक बीमारी को जन्म देते हैं। विकसित देशों द्वारा कचरे की निर्बाध चली आ रही निर्यात की मंशा के पीछे भारत को बीमार देश बनाए रखने की दुर्भावना भी लगती है। इससे ये देश भारत में घातक बीमारियों के उपचार हेतु औषधियां, वैक्सीन-टीके और एन्टी बॉयोटिक दवायें निर्यात कर मुनाफा कमाते रहें।
सर्वोच्च न्यायालय की मूल्यांकन समिति के अनुसार देश में हर साल 44 लाख टन कचरा पैदा होता है। ऑर्गनाइजेशन फॉर कारपोरेशन एण्ड डवलपमेंट ने इस मात्रा को 50 लाख टन बताया है। इसमें से केवल 38.3 प्रतिशत कचरे का ही पुनर्शोधन किया जा सकता है, जबकि 4.3 प्रतिशत कचरे को जलाकर नष्ट किया जा सकता है। लेकिन इस कचरे को औद्योगिक इकाइयों द्वारा ईमानदारी से पुनर्शोधन न किया जाकर ज्यादातर जल स्त्रोतों में धकेल दिया जाता है। मेनयूफेक्चरर्स ऐसोशियशन ऑफ इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी के एक अध्ययन में बताया गया है कि इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के बढ़ते इस्तेमाल को देखते हुए अनुमान है कि 2011 में भारत में निकलने वाले ई कचरे की मात्रा 470 हजार टन से भी अधिक हो सकती है। ई कचरा बच्चों के खिलौनों, पुराने टीवी, कम्प्यूटर, माइक्रोवेव, और मोबाइल के रूप में भी निकलता है। कचरा भण्डारों को नष्ट करने के ऐसे ही फौरी उपायों के चलते एक सर्वे में ‘पर्यावरण नियोजन एवं समन्वय संगठन' ने पाया है कि हमारे देश के पेय जल में 750 से 1000 मिली ग्राम तक प्रति लीटर नाइटे्रट पानी में मिला हुआ है और अधिकांश आबादी को बिना किसी केमीकल ट्रीटमेंट के पानी प्रदाय किया जा रहा है, जो लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है। एप्को के अनुसार नाइट्रेट बढ़ने का प्रमुख कारण औद्यौगिक कचरा, मानव व पशु मल है। ई कचरे का निपटारा भी खतरों से जुड़ा है। क्योंकि इनसे खतरनाक व जानलेवा तत्व निकलते है। ट्रांजिस्टर की पिन में लगा कॉपर अलग करते समय डाई ऑक्सिन गैस निकलती है। कंप्यूटर के कल पुर्जों से यलो मेटल अगल करते समय साइनाइट गैस निकलती है। ये गैसें मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है।
ऐसे ही कारणों से लैंडफिल गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। नतीजतन बच्चों में ब्लू बेबी सिंड्रोम जैसी बीमारी फैल रही है। इन गैसों के आंख, गले और नाक में स्थित श्लेष्मा परत ;म्यूकोजल लाइनिंग के संपर्क में आने से दमा, सांस, त्वचा और एलर्जी की बीमारियां बढ़ रही हैं। कचरा मैदानों के ऊपर बने भवनों में रहने वाले लोगों में मूत्राशय का कैंसर घर कर लेने की आशंका ज्यादा बढ़ जाती है, वह भी खास तौर से महिलाओं में। लैंडफिल गैसें इन खतरों को चार गुना ज्यादा बढ़ा देती हैं। यह प्रदूषण गर्भ में पल रहे शिशु को भी प्रभावित करता है।
नियमानुसार कचरा मैदानों में भवन निर्माण का सिलसिला 15 साल बाद होना चाहिए। इस लंबी काल अवधि में कचरे के सड़ने की प्रक्रिया पूर्ण होकर लैंडफिल गैसों का उत्सर्जन भी समाप्त हो जाता है और जल में घुलनशील तरल पदार्थ लीचेड का बनना भी बंद हो जाता है। लेकिन प्रकृति की इस नैसर्गिक प्रक्रिया के पूर्ण होने से पहले ही हम जमीन के समतल होने के तत्काल बाद ही आलीशान इमारतों को वजूद में लाने का सिलसिला शुरु कर देते हैं। फिर नतीजा भुगतना होता है उस क्षेत्र में रहने वाली आबादी और इलेक्ट्रोनिक उपकरणों को ?
इस औद्योगिक-प्रौद्योगिक कचरे को नष्ट करने के अब प्राकृतिक उपाय भी सामने आ रहे हैं। हालांकि हमारे देश में तो घरेलू कचरे व मानव और पशु मल-मूत्र से ग्रामीण अंचलों में घर के बाहर ही ‘घूरे' में कूढ़े को प्रसंस्कृत कर खाद बनाने की प्राचीन परंपरा रही है। उपयोगिता और ज्ञान की यह ऐसी परंपरा है जिसके अंतर्गत कचरा महामारी का रुप धारण कर जानलेवा बीमारियों का पर्याय न बनते हुए खेत की जरुरत के लिए ऐसी खाद में रुपांतरित होता है, जो फसल की उत्पादकता बढ़ाने के साथ उसकी पौष्टिकता भी बढ़ाता है।
अब एक ऐसा ही अनूठा प्रयोग औद्योगिक-प्रौद्योगिक जहरीले कचरे को नष्ट करने में सामने आया है। अभी तक हम केंचुओं का इस्तेमाल खेतों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए वर्मी कंपोस्ट खाद के निर्माण में कर रहें हैं। हालांकि खेतों की प्राकृतिक रुप से उर्वरा क्षमता बढ़ाने के लिए केंचुओं की उपयोगिता सर्वविदित है, पर अब औद्योगिक जहरीले कचरे को केंचुओं से निर्मित ‘वर्मीकल्चर‘ पद्धति चलन में लाए जाने का सफल प्रयोग अस्तित्व में आया है। अहमदाबाद के निकट मुथिया गांव में एक पायलट परियोजना शुरु की गई है। इसके तहत पिछले एक साल के भीतर जमा 60 हजार टन वजनी कचरे में 50 हजार केंचुऐं छोड़े गए थे। चमत्कारिक ढंग से केंचुओं ने इस कचरे का सफाया कर दिया। फलस्वरुप यह स्थल पूरी तरह प्राकृतिक ढंग से जहर के प्रदूषण से मुक्त हो गया। लैंडफिल गैसों से सुरक्षा के लिए कचरे को नष्ट करने के कुछ ऐसे ही प्राकृतिक उपाय अमल में लाने होंगे, जिससे कचरा मैदानों में बसी आबादी व इलेक्ट्रोनिक उपकरण सुरक्षित रहें।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
कचराघर ही तो बना दिया है, धोखेबाज राजनीतिबाजों ने..
जवाब देंहटाएं---सिर्फ़ राजनीतिबाज़ों ने ही क्यों---कचरा तो आप-हम-वे-सब ही उत्पादित कर रहे हैं, अति-सुविधावादी, भौतिकवादी, विलासवादी जीवन-चर्या और विदेशी इम्पोर्टेड-भाव, विचार व वस्तुएं अपनाकर।---पर उपदेश कुशल बहुतेरे--
जवाब देंहटाएं----अच्छा आलेख है---याद करिये रक्तबीज आदि राक्षसों (प्लास्टिक व यह कचरा रक्तबीज़ ही तो है--हमीं बनाते हैं फ़िर अविनाशी होने पर हमही रोते हैं) की पुरा कथाएं हमें क्या बताती हैं-यही तो, सुविधाभोगी संस्क्रिति की हानियां।