अनुत्तरित रह गए कई सवालों के बावजूद याचक के रुप में पेश आए ओबामा की तीन दिनी भारत यात्रा के कई फलितार्थ रहे। भारत का व्यक्तित्व जहां एक...
अनुत्तरित रह गए कई सवालों के बावजूद याचक के रुप में पेश आए ओबामा की तीन दिनी भारत यात्रा के कई फलितार्थ रहे। भारत का व्यक्तित्व जहां एक वैश्विक महाशक्ति को दाता के रुप में सामने आया, वहीं प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह अपने अब तक के कार्यकाल में किसी विश्वस्तरीय नेता से बेवाकी से दोटूक बातचीत करते नजर आए। ओबामा को इस बात के लिए साधुवाद देना चाहिए कि उन्होंने भारत को अपनी ताकत की पहचान कराते हुए साफ किया कि वह महाशक्ति है। इस बल की पहचान इस बात की प्रतीक है कि गरीबी, मानव विकास सूचकांक और भ्रष्टाचार संबंधी तमाम कमजोरियों के बावजूद हम एक वैश्विक शक्ति बन चुके हैं। ओबामा की इसी यात्रा के दौरान संयोग से भारत ने गरिमा बढ़ाने वाली दो वैश्विक उपलब्धियां भी हासिल कर लीं। एक भारत अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष के शीर्ष दस देशों में भागीदार हो गया है, दूसरे उसे सयुंक्त राष्ट्रसंघ की उस सलाहकार समिति का सदस्य भी बना लिया गया है जो राष्ट्रसंघ के बजट का आवंटन दुनिया के जरुरतमंद देशों को करती है। इधर ओबामा ने भारत को सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य बनाए जाने का भरोसा देकर भारत की पड़ोसी व एशियाई मुल्कों में हैसियत तो बढ़ाई ही, उसका दबदबा भी कायम कर दिया। लिहाजा ओबामा यात्रा को अब सिर्फ बाजार तक सीमित करके आंकने की बजाए विश्वव्यापी परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।
किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण खूबी अथवा विलक्षणता यह होती है कि जब लोग निर्वाचित प्रतिनिधि से प्रसन्न नहीं होते तो चुनने का आगामी अवसर मिलने पर वे उसे मतदान के जरिए नकारते हुए नाराजगी जताने लगते हैं। बेचारे बराक हुसैन ओबामा को इस परिस्थिति से दो साल के भीतर ही हुए मध्यावधि में चुनाव रुबरु होना पड़ गया। अमेरिकी मतदाताओं ने प्रतिनिधि सभा में उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी की बजाए सीनेट में विपक्षी रिपब्लिकनों को विजयश्री हासिल कराई। इस हार ने ओबामा को अहसास कराया कि अमेरिकी पूंजीपतियों के हाथों में केंद्रित हो चुकी पूंजी को बाजार में लाकर अर्थव्यवस्था की धुरी को वे ठीक से घुमा नहीं पा रहे हैं। लिहाजा वे अमेरिका में न बढ़ती बेरोजगारी का हल खोज पाए और न ही आर्थिक मंदी को गति देकर नागरिकों की नाराजी दूर कर पाए। गोया, हार का मुंह देखने के साथ ही भारत में बड़े बाजार की संभावनाओं की तलाश में खरे उतरकर भारत की मदद से वे अपने देश में 50 हजार अमेरिकी नौजवानों को नई नौकरियों की सौगात दिलाने में कामयाब हो गए। अपने देश में इस बिना पर ओबामा अमेरिकी कंपनियों को जता सकते हैं कि आउटसोर्सिंग के मसले पर अब उन्हें अपने रुख पर स्थिर नहीं रहना चाहिए। इसी मुद्दे पर हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी भारतीय सनातन नैतिकता की कड़े तेवरों में दुहाई देते हुए दो टूक शब्दों में कि ‘भारत अमेरिकी नौकरियां चुराने के धंधे में शामिल नहीं हैं' कहकर याचक ओबामा को आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर पुनर्विचार के लिए विवश कर दिया है। इसीलिए उन्हें कहना पड़ा कि अमेरिकी अर्थनीति और रोजगार की दृष्टि से आउटसोर्सिंग को वे बड़ा मुद्दा नहीं मानते।
अमेरिका ने पाकिस्तान पोषित आतंकवाद के सिलसिले में अपना रुख साफ करते हुए साफ कर दिया है कि भारत अब पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए स्वतंत्र है। अमेरिका को अब पाकिस्तान में मौजूद आतंकियों के पनाहगाह मंजूर नहीं है। मुंबई हमलावरों को भी न्यायिक दण्ड दिलाने का ओबामा ने समर्थन किया। लेकिन अब जरुरत हमें है कि हम दृढ़ता से पेश आकर सैन्य कार्रवाई करते हुए पाकिस्तान द्वारा कब्जाए कश्मीर में स्थित आतंकी शिविरों व आतंकवादियों को पंजाब के उग्रवाद की तरह नेस्तनाबूद करें। ओबामा ने यह भी भरोसा जताया है कि वे प्रायोजित आतंकवाद खत्म करने के लिए पाकिस्तान पर दबाव डालते रहेंगे। लेकिन ओबामा ने इस बावत कोई गारंटी नहीं ली कि अमेरिका द्वारा आगामी पांच वर्षों में पाकिस्तान को जो 7.5 अरब डॉलर की आर्थिक इमदाद की जानी है उसका उपयोग पाकिस्तान भारत में अशांति और हिंसा फैलाने के रुप में न करे। चूंकि अमेरिका और पाकिस्तान अफगानिस्तान में तालिबानों के विरुद्ध जारी लड़ाई में परस्पर निर्भर हैं, इसलिए इस धनराशि का सदुपयोग हो, ऐसी किसी गारंटी के लिए वह पाकिस्तान को बाध्य नहीं कर सकता।
ओबामा यदि भारत के समक्ष याचक के रुप में नहीं होते तो वे संयुक्त राष्ट सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के मुद्दे से जुड़े अमेरिकी समर्थन को भी टाल जाते। आर्थिक उदारवादी दौर के बाद पहली मर्तबा अमेरिका अपना अभिमत स्पष्ट करने को मजबूर हुआ है। हालांकि खुलकर दावेदारी के समर्थन के बावजूद एकाएक भारत को सदस्यता मिलना आसान नहीं है। अमेरिका अर्से से जापान को सदस्यता दिए जाने का पक्ष ले रहा है, इसके बाद भी जापान अभी कतार में ही है। दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी और ब्राजील भी इस परिषद् की स्थायी सदस्यता हासिल करने की प्रतिस्पर्धा में हैं। भारत को अभी चीन का विरोध भी झेलना होगा। ओबामा द्वारा भारत को महाशक्ति जता दिए जाने के कारण चीन भारत को सदस्यता न मिले इस दृष्टि से कड़ा रुख अपनाएगा। बहरहाल तमाम तकनीकी जटिलताएं दूर होने के बाद ही भारत को यह सदस्यता हासिल हो सकेगी। लेकिन अमेरिका की खुली हिमायत ने सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता लेने की दिशा में मार्ग प्रशस्त जरुर कर दिया है।
भारत एक शक्ति बनकर एक नया आकार ले रहा है इसकी तसदीक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आई उन दो उपलब्धियों से भी हुई है, जो हाल ही में भारत ने हासिल की हैं। पहली, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की सदस्य सूची में जो शीर्ष दस देश हैं उनमें एक अब भारत भी है। विश्व ग्राम की अवधारणा में जैसे-जैसे आर्थिक उदारवाद की पहुंच बड़ी वैसे-वैसे दुनिया मे आर्थिक ताकतें ध्रुवीकृत होती गईं और देखते देखते आर्थिक शक्तियों ने सामरिक शक्तियों को पीछे धकेल दिया। परिणामस्वरुप अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की भी हैसियत विश्वव्यापी हो गई। इस लिहाज से भारत की इसमें उपस्थिति एक प्रमुख घटना है। फिलवक्त इसमें अमेरिका और जापान का ही प्रमुखता से दखल था। लेकिन अब भारत के साथ चीन, रुस और ब्राजील भी इसके शीर्ष सदस्य देश बन गए हैं। लिहाजा तय है इस कोष का धन अब एशियाई देशों में भी न्यौछावर होगा।
भारत ने दूसरी उल्लेखनीय उपलब्धि संयुक्त राष्ट्रसंघ की बजट सलाहकार समिति की सदस्यता निर्वाचन प्रक्रिया से गुजरकर प्राप्त की है। यहां भारत के विरुद्ध चीन, जापान और पाकिस्तान थे। लेकिन एशिया के अन्य देशों ने भारत पर भरोसा जताकर उसके हित में मतदान किया और समिति की गरिमामयी सदस्यता से नवाजा भी।
भारत यात्रा के दौरान तय है बराक ओबामा भी इन उपलबिधयों से परिचित हो गए होंगे। इसलिए ओबामा ने भारत को शक्ति संपन्न विकसित देश कहकर उसके मान को चार चांद लगाए। इस सम्मान के लिए भारत की ओर से राष्ट्रपति ओबामा को तहेदिल से शुक्रिया अदा करना चाहिए।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
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