इसमें कोई दो राय नहीं कि सत्य के उद्घाटन के अतिरिक्त इतिहास की कोई वैचारिक अथवा सांस्कृतिक प्रतिबद्धता नहीं होनी चाहिए। इतिहास में धर्म...
इसमें कोई दो राय नहीं कि सत्य के उद्घाटन के अतिरिक्त इतिहास की कोई वैचारिक अथवा सांस्कृतिक प्रतिबद्धता नहीं होनी चाहिए। इतिहास में धर्मनिरपेक्ष सोच अथवा पंथनिरपेक्ष मूल्यों का भी समावेश नहीं होना चाहिए। क्योंकि तटस्थ दृष्टिकोण से लिखा गया इतिहास तो होता ही धर्म अथवा पंथ निरपेक्ष है। इतिहास आस्था का आधार अथवा विश्वास का प्रतीक भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि आस्था, विवेक और तर्क का शमन करती है। इतिहास बौद्धिक कट्टरता का निष्ठावान अनुयायी भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि इतिहास से संबद्ध सांस्कृतिक संकीर्णता, सांप्रदायिकता से कम खतरनाक नहीं है। इसलिए जब किसी प्रकरण से जुड़े नए साक्ष्य और प्रमाण उपलब्ध हुए हों तो उनकी प्रामाणिकता सत्यापित होने पर इतिहास-दृष्टि बदलना जरुरी हो जाता है। क्योंकि कालांतर में इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्वत होगी जो अतीत को वर्तमान साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्तुत करेगी। इस दृष्टि से हमारे तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवी अयोध्या विवाद से जुड़े मामले में जिस तरह से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा विवादित स्थल पर कराए उत्खनन से सामने आए तथ्यों को नकारने की जो जड़ता अपना रहें हैं, उससे लगता है उनकी विषयगत वैचारिक सैद्धांतिकता उसी तरह बौद्धिक कट्टरता का शिकार हो गई है, जिस तरह से कुछ राजनीतिक दलों की सैद्धांतिकता सांप्रदायिक कट्टरतावाद का शिकार वोटों के लिए हो जाती है।
मनुष्य में दो तरह की अंतर्चेतनाएं होती हैं। एक प्राकृतिक जो अवचेतन में जन्मजात संस्कारों से संचालित होती है। दूसरी, का अवलंबन जिज्ञासा है, जिसकी तुष्टि हेतु ज्ञानार्जन जरुरी है। इस अध्ययन और अनुसंधान से प्राप्त किया जा सकता है। नए साक्ष्य और प्रमाण प्रचलित मान्यता और पूर्वग्रही दुराग्रहों के परिमार्जन में सहायक हो सकते हैं। विवेकशील प्रक्रिया की यही गतिशीलता विज्ञान अथवा वैज्ञानिक समझ की द्योतक है। यही जिज्ञासा मनुष्य की आंतरिक चेतना को गतिशील व जीवंत बनाए रखने का काम करती है। इसी चेतना से प्राप्त ऊर्जा आविष्कार के नए स्त्रोत तलाशती है, जो पुरानी मान्यताओं पर नई मान्यता स्थापित करती है। इससे मूल्य आधारित समाज व्यवस्था समय-समय पर परिवर्तित होती रहती है तद्नुरुप समाज नए मूल्यों को धारण करता हुआ गतिशील व आधुनिक बना रहता है। लेकिन हमारे इतिहास का यह दुखद एवं शर्मनाक पहलू है कि न तो आजादी के बाद हमने भारतीय इतिहास का नए तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर पुनर्लेखन कराया और न ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का समग्र लेखन करके उसे इतिहास का हिस्सा बनाया। छोटे-मोटे प्रयास दक्षिणपंथी सरकारों ने किए भी तो उन्हें धर्मनिरपेक्ष स्वरुप खडिंत हो जाने का हौवा खड़ा कर नकार दिया। इससे देश के उन सामंतो, नवाबों और जमींदारों का राष्ट्रघाती चरित्र व चेहरा जनता के सामने नहीं आ पाया जो आजादी के लड़ाई में अंग्रेजों के साथ थे। बल्कि कालांतर में यही राष्ट्रघाती लोग राजनीति की अग्रिम पंक्ति में आ गए और उन्होंने लोकतंत्र में बड़ी साफगोई से सामंती मूल्यों को प्रच्छन्न रुप में पुनर्स्थापित कर दिया।
अपनी-अपनी आजादी हासिल करने के अनेक देशों ने राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाते हुए राष्ट्र के इतिहास का पुनर्लेखन कराया। इस प्रक्रिया में जापान, जर्मनी और चीन जैसे प्रमुख राष्ट्र शामिल हैं। लेकिन हमारे देश के नीति-नियंता और वामपंथी इतिहासकार स्वतंत्रता प्राप्ति के छह दशक बाद भी आंग्ल और वाम विचार तथा आंग्ल इतिहासकारों द्वारा लिखे हुए इतिहास को अनमोल थाथी मानते हुए राम की खड़ाऊ की तरह सिर पर लादे घूम रहे हैं। यह सोच का ही नहीं वरन अफसोस और अपमान का विषय है। आज सीमांत प्रदेशों में अलगाव की आवाज उठना, देश में अंतकर्लह का पैदा होना, जातीय संघर्ष का बढ़ना और सांप्रदायिक खाई और प्रशस्त होने के प्रमुख कारणों में से एक कारण अपने ही देश और जाति के इतिहास को ठीक-ठीक नहीं जानना भी है।
अयोध्या विवाद के सिलसिले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खण्डपीठ लखनऊ के फैसले का जनता- जर्नादन ने सम्मान किया। मुद्दे से जुड़े प्रमुख पक्षकारों ने भी मर्यादित बयान देकर संयम व विवेक की परिपक्वता दर्शाई, लेकिन अब संकट उन छद्म वामपंथी इतिहासकार और बुद्धिजीवियों की ज्ञान-दक्षता को है जो बाबरी विवाद में मुस्लिम पक्ष को हर तरह का गोला-बारुद मुहैया कराने में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। चुनौती व दिक्कत उन राजनीतिज्ञों को भी है जो इस विवाद को भुनाते हुए अपनी राजनीति चमकाने में लगे रहे हैं। इसलिए एक ओर आहत बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि इस फैसले में इतिहास, साक्ष्य, तार्किकता और धर्म निरपेक्ष मूल्यों को नजरअंदाज कर धार्मिक आस्था और दिव्यता को मान्यता दी गई। दूसरी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करूणानिधि ने तो इस विवाद को आर्य षड्यंत्र ही घोषित कर दिया, इन बयानबाजियों से तो ऐसा लगता हैं कि जब फैसले के बाद शरारती तत्व अपनी मांदों में शांत हैं तब कथित बुद्धिजीवी और कुछेक राजनेता आम लोगों को बहकाने, उकसने व भड़काने की कवायद में तो लगे ही हैं सुनियोजित ढंग से न्यायालय की अवमानना भी कर रहे हैं।
जबकि यह फैसला एक ऐसा अवसर हैं जब हम एक जटिल प्रश्न का उत्तर व समाधान इस न्यायिक हल कर एक बड़े सवाल पर सोमनाथ की तरह हमेशा के लिए पूर्ण विराम लगा सकते हैं। क्योंकि इस निर्णय में राम के प्रति आस्था और उनके व्यक्तित्व की प्रखर दिव्यता का उल्लेख अवश्य हैं, लेकिन इसका आघार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के 574 पृष्टीय प्रतिवेदन को ही बनाया गया हैं। इसी बिना पर तीनों जजों ने विवादित स्थल की केंद्रीय भूमि को निर्विवाद रूप से राम का जन्म स्थल माना हैं। जब-जब इतिहास को किसी भी शासन या व्यक्तियों के प्रति समर्पित किया गया हैं, उसकी सच्चाई संदेह के दायरों में रही हैं। कमोबेश भारत के इतिहास का भी यही हश्र हुआ है। अफ्रीका के प्रसिद्ध कवि बोल सोयंको ने 13 नवंबर 1988 को बीसवीं नेहरू व्याख्यान माला में कहा था, भारत के इतिहास ग्रंथों में जो कुछ लिखा है उसमें हर जगह एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा हुआ हैं। बोल सेयंको का मानना था कि भारत का इतिहास यूरोप के हितों को ध्यान में रखकर लिखा गया हैं। लाज की बात तो यह है कि आज भी हम अंग्रेज इतिहासकारों के लिखे उपनिवेशीय समर्थक इतिहास को तथ्यपरक और प्रामाणिक मानते चले आ रहे हैं और इस भ्रम से मोहभंग किए बिना उस भ्रम को और मजबूत करने की कोशिश करते जा रहे है। ऐसे इतिहास ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी ताकत के विरूद्ध हुए प्रत्येक आंदोलन व विद्रोह को देशद्रोह की संज्ञा दी। जबकि अधिकांश आंदोलनों व विद्रोह को जन समर्थन मिला हुआ था। अंग्रेजों की बाटों और राज करो की इस नीतिगत दृष्टि का सटीक व सही जवाब आखिरकार क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विनायक दामोदर सावरकर ने कथित विद्रोह की समग्रता की धरोहर को 1857 को स्वतंत्रता संग्राम पुस्तक के रूप में जनता के सामने रखा। मार्क्स और एंगेल्स जो इस युद्ध के समकालीन थे, उन्होंने भी अनेक घटना क्रमों का यथार्थ प्रस्तुतीकरण ‘‘न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून'' में किया। यदि 1857 की इस कौमी एकजुटता और सांस्कृतिक मूल्यों की इतिहास दृष्टि को आधुनिक इतिहासकारों ने आगे बढ़ाया होता तो आज हम अयोध्या फैसले को भी भारतीय राष्ट्र-राज्य के परिप्रेक्ष्य में एक निर्णायक फैसले के रूप में देख रहे होते।
विवादित स्थल से पुरातत्वीय उत्खनन में मिले पुरातत्वीय अवशेष और अभिलेख इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों की आंख खोलने वाले प्रमाण साबित होने चाहिए थे, लेकिन इन्होंने उत्खनित तथ्यों को झुठलाने का हठ किया। क्योंकि ये अवघारणाएं इनकी सोच और गढ़ी हुई विचारधारा के विपरीत गईं। जबकि उत्सर्जित नवीन स्रोतों को शोध का नया आघार बनाकर इतिहास दृष्टि में परिवर्तन लाने की जरूरत थी।
इतिहास संबद्ध इन इतिहासकारों की तार्किक विशेषज्ञता कितनी उथली और थोथी थी इसका उल्लेख फैसले में माननीय न्यायाघीश सुघीर अग्रवाल ने करते हुए लिखा है कि तथ्यों के बारे में विशेषज्ञ शुतुरमुर्ग जैसा रुख अपना रहे थे। मुकदमे में ये बुद्धिजीवी सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से स्वतंत्र विषय विशेषज्ञ, इतिहासकार और पुरातत्वेत्ता के रूप में पेश हुए थे। इनके बयान कितने सतही व हास्यास्पद हैं, बतौर बानगी देखिए, सुविरा जायसवाल ने कहा कि विवादित स्थल के बारे में उन्हें जो भी जानकारी मिली हैं वह समाचार पत्रों में छपी रपटों और दूसरों की बताई गई जानकारी पर आधारित हैं। इन्होंने मध्यकाल के इतिहास विशेषज्ञों द्वारा दी राय के आघार पर इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपना बयान अदालत में दर्ज कराया था। प्रकरण में गवाही के रूप में न्यायालय में पेश हुई सुप्रिया वर्मा ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के उत्खनन को चुनौती दी। लेकिन उनका शर्मनाक पहलू यह रहा की उन्होंने ‘‘ग्राउंड पेनीट्रेशन राडार'' सर्वे की रिपोर्ट ही नहीं पढ़ी थी। खुदाई में इस आधुनिक तकनीक का उपयोग न्यायालय के आदेश से हुआ था। सुप्रिया वर्मा और जया मेनन ने एएसआई पर आरोप लगाया था कि आघार स्तंभ खुदाई स्थल पर प्रायोजित ढंग से आरोपित किए गए। लेकिन अदालत ने पाया उत्खनन के दौरान वे स्थल पर मौजूद ही नहीं थीं। इसी तरह एक अन्य पुरातत्वविद् शिरिन भटनागर ने जिरह के बीच स्वीकारा कि उन्हें मैदान में काम करने का कोई अनुभव नहीं है। कुछ इतिहास पुस्तकों की उन्होंने भूमिकाएं जरूर लिखी हैं। न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल ने इन विशेषज्ञों के ज्ञान के संदर्भ में तल्ख टिप्पणी करते हुए लिखा, मौलिक शोध अनुसंधान और जरूरी अध्ययन किए बगैर विशेषज्ञों ने अपनी राम दी। इस कारण सद्भाव स्थापित होने की बजाय ये ज्यादा जटिलताएं, वैमनस्य और विवाद पैदा करने में सहायक बने।
प्रखर मार्क्सवादी डॉ रामविलास शर्मा ने जब ऋग्वेद और सारस्वत सभ्यता की आधुनिक संदर्भों में पड़ताल शुरू की तो इन वामपंथियों ने उन्हें हिंदू पुनरूत्थानवादी पतनशील प्रवृत्ति का मानकर उनकी निंदा की थी। डॉ शर्मा ने अपने नए शोध में पाया कि जब जर्मन में राष्ट्रवाद का अभ्युदय हुआ तो उनका मानना था कि हम लोग आर्य हैं और भारतवासी आर्य भाई हैं। इसलिए उन्होंने जो भाषा परिवार गढ़ा था, उसका नाम ‘‘इंडो जर्मेनिक'' रखा। बाद में फ्रांस और ब्रिटेन वाले आए तो उन्होंने कहा कि ये जर्मन सब लिए जा रहे हैं, सो उन्होंने उसका नाम ‘‘इंडो यूरोपियन'' रखा। मार्क्स जिस समय 1853 में भारत संबंघी लेख लिख रहे थे, उस समय उन्होने भारत के लिए लिखा हैं कि यह देश हमारी भाषाओं और हमारे धर्मों का आदि स्रोत है। इसलिए 1853 तक यह घारणा नहीं बनी थी कि आर्य भारत में बाहर से आए। 1850 के बाद जैसे-जैसे ब्रिटिश साम्राज्य सुदृढ़ हुआ और फ्रांसीसी तथा जर्मन भी यूरोप और अफ्रीका में अपना साम्राज्य विस्तार कर रहे थे तब उन्हें लगा कि ये भारतीय हमसे प्राचीन सभ्यता कैसे हो सकते हैं ? तब उन्होंने यह सिद्धांत गढ़ा कि आर्य भारत में बाहर से आए।
हमारे देश में जब-जब कोई विचारक, चिंतक, लेखक अथवा इतिहासकार, वेद, उपनिषद् पुराण या अन्य प्राचीन ग्रंथ और आध्यात्मिक ज्ञान की नई दोनों के साथ आधुनिक संदर्भों में व्याख्या करता है तो वामपंथियों का उसका उपहास करना एक स्थायी स्वभाव बन गया हैं। जबकि यह वक्त तकाजा हैं कि नये पुरातत्वीय निष्कर्षों को ऐतिहासिक भूलों को ठीक करने का आघार बनाया जाए।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
यह काम अभी भी हो जाये तो अच्छा हो.. वैसे उम्मीद कम है..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आलेख | लेखक को बहुत बहुत शुभकामनाएँ |
जवाब देंहटाएंआप्ने जो कुछ भी कहा है सत्य कहा है और किसी टिप्पणी की आवश्यकता ही नही रही.
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