यह एक बिडंवनापूर्ण विस्फोटक स्थिति है कि जो किसान देश व दुनिया का अन्नदाता है, वह लगातार भोजन के अधिकार से वंचित होता जा रहा है। संयुक्...
यह एक बिडंवनापूर्ण विस्फोटक स्थिति है कि जो किसान देश व दुनिया का अन्नदाता है, वह लगातार भोजन के अधिकार से वंचित होता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि भूमि की बिगड़ती सेहत, पर्यावरण क्षरण, पानी का निजीकरण बढ़ते शहरीकरण, सड़कों, मालों और औद्योगीकरण के लिए भूमि का अधिग्रहण, देशी-विदेशी निवेशकों की ओर से बड़े पैमाने पर भूमि की खरीद और जैव ईंधन के बढ़ते इस्तेमाल से कृषि भूमि पर लगातार दबाव बढ़ रहा है, इन वजहों से दुनिया के करीब 50 करोड़ छोटे किसान भुखमरी के कगार पर पहुंच चुके हैं। विकास का यह मॉडल एक ऐसी उलटबांसी साबित हो रहा है जो अन्नदाता माने जाने वाले किसान को ही भोजन के अधिकार से वंचित करता चला जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र के ‘भोजन का अधिकार' अभियान से जुड़े अधिकारी ओलिवर डे शटर की ओर से गरीब मुल्कों के किसानों की दयनीय हालत बयां करने वाली एक रिपोर्ट में कहा है कि तथाकथित विकास को महिमामंडित करने वाले इन कारणों ने मिलकर किसानों के लिए एक ऐसा तानाबाना खड़ा कर दिया है, जो बेहद विस्फोटक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि विकासशील व गरीब देशों में छोटे किसानों की जमीन साल दर साल घट रही है। उन्हें ऐसी जमीन पर खेती करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, जो बंजर होने के साथ कम उपजाऊ तो है ही, सिंचाई के भी कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं। कथित विकास के ये उपाय खेती-किसानी से जुड़ी ग्रामीण आबादी के लिए भोजन के अधिकार के लिए बड़ा खतरा पैदा करने वाले हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक हर साल करीब तीन करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि पर्यावरण क्षरण और औद्योगीकरण के कारण नष्ट हो जाती है। इस विसंगति के बावजूद एक तिहाई कृषि भूमि अनाज उपजाने की बजाय जैव ईंधन की खेती के लिए इस्तेमाल कर ली जाती है। इन हालातों के निर्मित हो जाने के कारण वे छोटे व सीमांत किसान जो अपनी आजीविका के लिए भूमि और प्राकृतिक जल संसाधनों पर आश्रित हैं बेतरह प्रभावित हो रहे हैं। वर्ष 2008 से खाद्यान्नों की कीमतों में आई तेजी और कृषि जिंसों को वायदा कारोबार का हिस्सा बना दिए जाने से एक ओर तो भूमि का खेती से इतर कार्यों में प्रयोग बढ़ गया है, वहीं दूसरी ओर सीमित आय वाला आम आदमी अनाज को खरीद लेने की ताकत से ही बाहर होता जा रहा है।
वर्तमान में दुनिया की आबादी लगभग छह अरब दस करोड़ है। संयुक्त राष्ट्र के एक आकलन के मुताबिक यह आबादी इस सदी के मध्य, मसलन 2050 तक सालाना सात करोड़ अस्सी लाख की बढ़ोत्तरी दर के चलते नौ अरब बीस करोड़ हो जाएगी। वाशिंगटन भू-नीति संस्थान का कहना है कि इतनी आबादी को पेट भर खाद्यान्न मुहैया कराने के नजरिए से सोलह सौ हजार वर्ग किलोमीटर अतिरिक्त कृषि रकबे की दरकार होगी। लेकिन खेती का रकबा बढ़ने की बजाय घट रहा है। जिसके चलते दुनिया में भूखों की आबादी में इजाफा हो रहा है।
जीवनदायी जल का जिस तरह से उद्योगों में इस्तेमाल बढ़ने के साथ जल के निजीकरण की प्रक्रिया बढ़ रही है, उसी तादाद में सीमांत किसान लघु सिंचाई के प्राकृतिक संसाधनों से दूर होता चला जा रहा है। संसार में 14 हजार लाख घनमीटर पानी है। कुल उपलब्ध पानी में 97.3 फीसदी समुद्र का खारा पानी है, जो सिंचाई और पेयजल के रूप में अनुपयोगी है। प्रकृति के समस्त व विभिन्न जल स्रोतों में 2.7 फीसदी पानी ऐसा है जो पीने व सिंचाई के लायक है। इस पानी का 0.01 भाग नदियों के रूप में है जो औद्योगीकरण व शहरीकरण के दबाव में लगातार प्रदूषित होता जा रहा है। शेष पानी बर्फ, दलदल झीलों, तालाबों व भाप के रूप में पृथ्वी व वायुमण्डल में है। धरती में उपलब्ध जल में से 70 फीसदी जल का उपयोग खेती में होता है। औद्योगिक व आधुनिक कृषि को जिस तरह से प्रोत्साहित कर बढ़ावा दिया जा रहा है, उसमें पानी की और ज्यादा जरूरत पड़ती है। एक किलो अनाज के उत्पादन में तीन घन मीटर पानी की जरूरत होती है जबकि इतने ही मांस के लिए 15 घन मीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि गाय, सूअर, बकरा, मुर्गी इन सबके पोषण के लिए भी अनाज की ही जरूरत रहती है।
भूगर्भीय जल के अत्यधिक दोहन के चलते भारत, चीन, पश्चिमी एशिया, रूस और अमेरिका के अनेक हिस्सों में तेजी से जलस्तर गिरा है। इन कारणें से दुनिया की करीब दो अरब आबादी पानी का संकट झेलने को अभिशप्त है। यदि किसी देश में जीवनदायी जल की उपलब्धता 1700 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष कम होती चली जाए तो यह हालत आसन्न संकट का संकेत है। भारत, चीन और अमेरिका इस संकट की ओर लगातार बढ़ रहे हैं। वैसे भी भारत विश्व-स्तर पर जल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। हालांकि भारत में सभी प्राकृतिक स्रोतों में 1880 लाख हेक्टेयर मीटर पानी उपलब्ध है। लेकिन 680 लाख हेक्टेयर जल का ही उपयोग संभव हो पाता है। इस जल पर भी दोहन के खर्चीले व अत्याधुनिक संसाधनों के कारण बड़े किसानों का एकाधिपत्य बढ़ता जा रहा है नतीजतन लघु सिंचाई साधनों से खेती करने वाले किसान सिंचित साधनों से वंचित होते जाकर भूखी आबादी का दायरा बढ़ा रहे हैं। ऐसे हालातों के चलते बीसवीं शताब्दी में वैश्विक आबादी तो तीन गुना ही हो पाई, लेकिन पानी का उपयोग सात गुना बढ़ गया। इस शताब्दी के मध्य में जब यह आबादी नौ करोड़ से ऊपर हो जाएगी तब पानी का संकट किस हाल में होगा, यह सोच का विषय है ?
अमेरिका और अन्य यूरोपीय देश बड़ी मात्रा में खाद्यान्नों का उपयोग जैव ईंधन के निर्माण में करने लगे हैं। गोया गेंहू, चावल, मक्का और सोयाबीन फसलों का कायांतरण ऐथोनाल और बायोडीजल के उत्पादन में किया जा रहा है। इन उपायों को अंजाम ऊर्जा संसाधनों की ऊंची लागतों को कम करने के लिए वैकल्पिक जैव ईंधनों को बढ़ावा देने की दृष्टि से किया जा रहा है। जैव ईंधन के उत्पादन ने अनाज बाजारों के स्वरूप को ही विकृत कर दिया है। अमेरिका द्वारा खाद्यान्नों को मवेशियों के लिए चारे के रूप में भी इस्तेमाल किए जाने से मानव आबादी की भूख का दायरा लगातार बढ़ रहा है। यदि अनाज को जैविक ईंधन से अलग नहीं रखने के उपाय संभव नहीं होते है तो कालांतर में बड़ी मात्रा में किसान भोजन के अधिकार से वंचित होकर भूखों के बढ़ते दायरे में शामिल हो जाएगा।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये
जवाब देंहटाएंबढ़ती जनसंख्या पर काबू पाना बहुत जरूरी है.
जवाब देंहटाएं'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय ' यानी कि असत्य की ओर नहीं सत्य की ओर, अंधकार नहीं प्रकाश की ओर, मृत्यु नहीं अमृतत्व की ओर बढ़ो ।
जवाब देंहटाएंदीप-पर्व की आपको ढेर सारी बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं ! आपका - अशोक बजाज रायपुर