खुली अर्थव्यवस्था के खेल में व्यापारिक घराने कैसे सोना चांदी काटते हैं, इसका खुला खेल है 2 जी स्पेक्टम घोटाला। इसलिए इस मामले की जांच ...
खुली अर्थव्यवस्था के खेल में व्यापारिक घराने कैसे सोना चांदी काटते हैं, इसका खुला खेल है 2 जी स्पेक्टम घोटाला। इसलिए इस मामले की जांच भी खुली, मसलन संपूर्ण पारदर्शिता के परिप्रेक्ष्य में हो, इस नजरिये से विपक्ष की इस घोटाले की संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराने की मांग संवैधानिक दृष्टि से न केवल जायज है, नैतिकता की दृष्टि से भी जरुरी है। केंद्र सरकार का पिछले कुछ दिनों से मांग को टालने का जो रवैया संसद में देखने को आ रहा है उससे यह आशंका प्रबल होती है कि दाल में कुछ ऐसा काला जरुर है जो प्रधानमंत्री की सफेद छवि पर काले छींटें डालने का काम कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी इस बाबत संदेह जताते हुए स्पष्ट किया है कि ‘जो दिख रहा है, उससे ज्यादा भी कुछ है।' जब नियम और नीतियों को ताक पर रखकर नीति-नियंता आमजन के लिए हितकारी योजनाओं को निजी और व्यापारिक घरानों के लिए इस्तेमाल करने लगते हैं तो अदालत की उपरोक्त आशंका को स्वाभाविक रुप से बल मिलता है। वैसे भी खुली अर्थव्यवस्था में कथित आर्थिक विकास के बहाने जिस तरह से राष्ट्रीय पूंजी को चंद हाथों में ध्रुवीकृत किया जा रहा है, उसके रास्ते संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य और खनिज निगमों को कॉर्पोरेट स्वामियों को सौंप देने से ही खुलते हैं। ऐसे हालातों में लोकहित की परवाह प्रधानमंत्री और उनकी टीम कैसे कर सकती है ?
केंद्र सरकार यदि यथाशीघ्र 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच संसदीय समिति को नहीं सौंपती है तो यह हठवादी अति की पराकाष्ठा होगी और हमारे धर्मसम्मत आख्यानों व उपदेशों में अति का अंत बुरा होता है। क्योंकि नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के बाद अब भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने भी मंजूर कर लिया है कि 2 जी स्पेक्टम वितरण संबंधी जो अनुबंध जिन कंपनियों से किए गए थे, वे संचार संरचना के विस्तार में न तो खरी उतरी हैं और न ही इस हेतु संचार के बुनियादी ढांचे खड़े करने में कंपनियों ने कोई दिलचस्पी दिखाई है। महज 45 मिनट के मामूली समय के भीतर जिस जल्दबाजी में बतौर अमानत राशि ड्राफ्ट समेत अन्य दस्तावेजी औपचारिकताएं पूरी की गईं, यह स्थिति अचरज में डालने के साथ यह भी दर्शाती है कि संचार मंत्रालय और उसके मुखिया ए राजा की सांठगांठ जिन कंपनियों से थी, उन्हें तैयार रहने की हिदायत पहले ही दे दी गई थी। इसलिए आनन-फानन में कागजी खानापूर्ति संभव हुई। लिहाजा 1.76 लाख करोड़ राजस्व हानि की पृष्ठभूमि में स्पेक्ट्रम को भारी भरकम मूनाफा कूटने का आसान जरिया बना लिया गया। इसलिए इन सौदों के अनुबंध होते ही मूल कंपनियों ने ये सौदे तत्काल दूसरी कंपनियों को पेटी अनुबंध पर उतार कर करोड़ों-अरबों के बारे न्यारे कर लिए। फलस्वरुप ईमानदार और धवल वस्त्रों का लबादा ओढ़े रहने वाली सरकार सच्चाई का सामना करे भी तो कैसे ?
सरकार के मातहत जांच करने वाली एंजेसियों के बरक्स हम जेपीसी से ज्यादा पारदर्शिता बरतने की उम्मीद इसलिए कर सकते हैं क्योंकि इसकी जांच करने की सीमा में कोई लक्ष्मण रेखा नहीं आती। इसलिए अब तक जो सीबीआई ए.राजा से घोटाले के सिलसिले में कोई संवाद नहीं कर पाई उसे जेपीसी सीधे तलब़ कर हर पेचीदे सवाल का कानून सम्मत जवाब मांगने के लिए विवश कर सकती है। जेपीसी जांच के लिए नोटशीट पर दर्ज टिप्पणियों की गंभीरता से पड़ताल कर उनकी बाल की खाल निकाल सकती है। चूंकि जेपीसी में प्रतिपक्ष के सभी सांसदों की भागीदारी होगी इसलिए इसकी निष्पक्षता को एक बार कुशंकाओं से परे माना जा सकता है। क्योंकि इस मामले में ए राजा से सीबीआई ने पूछताछ अदालत की फटकार के बावजूद अब तक नहीं की। जबकि स्पेक्ट्रम घोटाले की केंद्रीय धुरी राजा ही हैं। इसलिए राजा समेत अन्य राजनीतिक व व्यापारिक प्रभुत्व शाली लोगों पर हाथ वहां तक पहुंचने की उम्मीद की जा सकती है। इस घोटाले में नीरा राडिया की बिचौलिए के रुप में क्या भूमिका रही इसका खुलासा भी जेपीसी से संभव है। क्योंकि स्पेक्ट्रम हासिल करने वाली कंपनियों और सरकारी मत्रियों व प्रशासनिक अधिकारियों के बीच संवाद कायम कर तालमेल बिठाकर निर्णायक चरम पर पहुंचाने का काम नीरा राडिया ने ही किया था।
हालांकि प्रतिष्ठा का बिंदु मानते हुए केंद्र सरकार इस मांग को इस आधार पर टालती चली आ रही है कि एक गंभीर आपराधिक मामले की जांच केंद्रीय जांच समितियां ही ठीक से कर सकती हैं। प्रणव मुखर्जी ने तो अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान हुए कितने घोटालों की जांच जेपीसी से कराई यह प्रतिप्रश्न भी भाजपा समेत अन्य विपक्ष से किया ? लेकिन ऐसे सवाल थोथे अहंकार प्रदर्शन के साथ बेवजह अड़ियल रवैया अपना लेने की स्थिति भी उजागर करते हैं। क्योंकि इस मुद्दे को इस बिना पर नहीं टाला जा सकता कि पिछली सरकारों की घोटालों के परिप्रेक्ष्य में क्या भूमिका रही ? लोकतंत्र में ऐसी जड़ताओं को परंपरा का स्वरुप नहीं दिया जा सकता है ? ऐसे सवाल अव्यावहारिक व अतार्किक होते है।
संसदीय जांच समिति के गठन की मांग की जिद् को सत्तापक्ष तीन बिंदुओं के परिप्रेक्ष्य में सफाई पेश कर रहा है। पहला राजस्व हानि और आपराधिक दोष निर्धारण के सिलसिले में सरकार का कहना है कि राजस्व संबंधी मामले में आखिरकार संसदीय समिति को भी सीबीआई अथवा सीवीसी पर आश्रित होना होगा। जबकि आपराधिक कदाचार की पड़ताल और आरोप किन दोषियों पर तय हों, इसकी निगरानी स्वयं अदालत कर रही है। चूंकि राजा के इस्तीफे के बाद संचार मंत्रालय की बागडोर अब कपिल सिब्बल के हाथों में है, इसलिए प्रशासनिक गड़बड़ियों की पड़ताल और उन्हें चुस्त-दुस्त करने के मुद्दे से जो दूसरा सवाल जुड़ा है उसका उत्तरदायित्व अब उनके पास है। जिसे वे अपनी प्रशासनिक कौशल दक्षता से कमोबेश नियंत्रित कर लेंगे, ऐसी उम्मीद सत्तापक्ष जता रहा है। तीसरा सवाल भविष्य में स्पेक्ट्रम वितरण के सिलसिले में किस तरह से नीतियों का निर्धारण हो, इसे संचार मंत्रालय पर ही छोड़ दिया जाए,यह दलील खुद कपिल सिब्बल पेश कर रहे हैं, क्योंकि जेपीसी टेलीकॉम की भविष्य में क्या गति हो यह तय नहीं कर सकती ? यह विचार एकदम हास्यास्पद है। यहां गौर तलब़ है कि संसद भविष्य की नीतियों का निर्माण करती है या कोई महकमा ? यदि सांसदों में नीति निर्माण की सोच अथवा दृष्टि नहीं है तो फिर संसद और विधायिका की लोकतंत्र में जरुरत ही कहां रह जाती है ? यदि राजस्व हानि और आपराधिक दोष की जांच के बाबत सरकारी जांच एजेंसियों की ईमानदारी व निष्पक्षता की मान्यता लोकव्यापी होती तो देश की सर्वोच्च अदालत को ही बार-बार फटकार लगाते हुए प्रश्नचिन्ह लगाने की जरुरत क्यों पड़ती ? एक असाधारण घोटाले में बरती गईं प्रशासनिक अनियमितताओं और गड़बड़ियों की जांच को उसी महकमे के मंत्री के हवाले छोड़ दिया जाएगा तो उसमें निष्पक्ष पारदर्शिता बरती गई अथवा नहीं इसका निर्णय कौन करेगा ?
सरकार का यह टालू रवैया उसकी नीयत में खोट का परिचायक तो बन ही रहा है संसदीय प्रतिपक्ष को मजबूत बनाने का मार्ग भी प्रशस्त कर रही है। सरकार जेपीसी की मांग को शायद इसलिए भी ठुकराती चली आ रही है क्योंकि उसे आशंका है कि जेपीसी वजूद में लाई जाती है तो एकजुट विपक्ष सुनियोजित ढंग से प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को घोटाले के कठघरे में खड़ा न कर दे ? लेकिन वाकई प्रधानमंत्री निर्लिप्त, निर्विकार और निर्विवाद हैं यह उनकी व्यक्तिगत नैतिकता का तकाजा बनता है कि वे खुद संसदीय मर्यादा का पालन करते हुए जांच को सुव्यवस्थित रुप दें, ताकि भ्रष्टाचार में संलग्न लोगों के चेहरों से तो नकाब उतरे हीं, सत्ता का दुरुपयोग करने वाले भी बेनकाब हों ?
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
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