यशवंत कोठारी का व्यंग्य -- समीक्षा के खतरे

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यारों की सूचनार्थ विनम्र निवेदन है कि इन दिनों मैं समीक्षक हो गया हूँ। इस कारण आज मैं समीक्षा के खतरे और खतरों की समीक्षा पर चर्चा करूंग...


यारों की सूचनार्थ विनम्र निवेदन है कि इन दिनों मैं समीक्षक हो गया हूँ। इस कारण आज मैं समीक्षा के खतरे और खतरों की समीक्षा पर चर्चा करूंगा। वास्‍तव में हुआ यूं कि मैं अपना एक व्‍यंग्‍य लेकर एक नामी-गिरामी सम्‍पादक के दरबार में हाजरी देने गया, व्‍यंग्‍य तो उन्‍होंने रख लिया और कुछ व्‍यंग्‍य पुस्‍तकें मेरी झोली में पारिश्रमिक स्‍वरूप डाल दी। अँधा क्‍या मांगे दो आँखें। मेरे दिल की मुराद पूरी हुई। मन में सोचा अब लेखकों से गिनगिन कर बदला लूंगा। मेरी लिखी समीक्षाएं छपने लगी, लेखक पढ़ने लगे ओर मुझे गरियाने लगे। तभी से मैं समीक्षा के खतरों पर चिंतन कर रहा हूं।

समीक्षक से शायद ज्‍यादा अच्‍छा शब्‍द है आलोचक और आलोचना को बाजवक्‍त लोग आलू-चना भी बोल देते हैं। इसी आलोचना के कारण कई लेखकों ने विधा बदल दी, कईयों ने भाषा बदल दी, और कईयों ने लिखना बंद कर दिया, मगर इन सबसे बेपरवाह होकर जो लोग लिखते रहे वे ही असली साहित्‍यकार माने गये।

समीक्षकों, आलोचकों के मठ हैं, गुट हैं, और राजनैतिक क्षेत्रों की तरह इसमें भी जातिवाद, भाई-भतीजावाद, प्रांतवाद, लिंगवाद जैसे पचासों वाद हैं। कभी-कभी समीक्षाएं पढ़ने में बड़ा मजा आता है। एक जनवादी कवि के कविता संग्रह की समीक्षा एक प्रगतिशील कवि ने कुछ इस अन्‍दाज में की कि जनवादी कवि सदा के लिए साहित्‍य के ओलंपिक से बाहर हो गये।
एक प्रगतिशील कहानीकार की आलोचना एक पूंजीवादी साहित्‍यकार ने इस तरह से की कि प्रगतिशील कहानीकार आज भी कपड़े फाड़ रहे हैं। दलित लेखक की कृति पर मनुवादी समीक्षक के विचार पढ़ने में बड़ा आनन्‍द आता है।
समीक्षकों को चाहिए कि समीक्षा के साथ ही एक जिरहबख्‍तर पहनकर निकले। पता नहीं, कब किस मोड़ पर विपक्षी रेजीमेंट मार्चपास्‍ट करते हुए मिल जाये। कभी-कभी समीक्षा के टेंक से साहित्‍य सदा के लिए रौंद दिया जाता है। साहित्‍यकार की अकाल मृत्‍यु हो जाती है और कभी-कभी समीक्षक हत्‍या भी कर बैठता है। दो समीक्षक आपस में किसी आयोजन में मिलते हैं तो जूतों में दाल बांटने लग जाते हैं।

साहित्‍य पढ़ना अलग चीज है, समीक्षा करना अलग चीज है। समीक्षक को कवि की जाति, प्रान्‍त, विचार सभी का ध्‍यान रखना पड़ता है। यदि लेखक की जाति, लिंग एक जैसा है तो निश्‍चित रूप से समीक्षा अच्‍छी होगी और यदि इन चीजों में साम्‍य नहीं है तो समीक्षक ऐसी दूर की कौड़ी लाता है कि लेखक रूपी कीड़े का कचूमर निकाल देता है।

वास्‍तव में समीक्षक लेखक सम्‍बन्‍ध वैसा ही है जैसा एक ऋषि और बिच्‍छू का होता है। बिच्‍छू बार-बार काटता है और ऋषि उसे बचाने के लिए बार-बार पानी से निकालर अपनी हथेली पर उठाता है। ,

मठाधीश आलोचक अपने खेमे के अलावा किसी को लेखक ही नहीं मानते । जनवादी अपने अलावा किसी को कहानीकार नहीं मानते। हम से है जमाना की तर्ज पर जिन्‍दा हैं ये लेखक ओर समीक्षक। बाकी सब की हत्‍या करने को हमेशा तैयार। मैं पूछता हूँ, आप मेरी हत्‍या कर देंगे मगर मेरे विचार की हत्‍या कैसे करेंगे ? आप किताब जला देंगे मगर विचार कैसे जलायेंगे। मगर इन सिरफिरों को कौन समझाये।


समीक्षक कभी-कभी बड़े मजे देता है। कभी वह ट्‌यूरिस्‍ट गाईड की तरह पुस्‍तक से परिचित कराता है और कभी एक धारावाहिक के प्रोमो की तरह पुस्‍तक प्रोमो करता है। कभी-कभी भाड़े पर लिखवाई गयी समीक्षा विज्ञापन का मजा देती है। कभी समीक्षा एक प्रोडक्‍ट की तरह खपाई जाती है।
कभी समीक्षक आग उगलता है, कभी अपना राग दिखाता है और कभी द्वेष के कारण समीक्षा के बजाय जहर लिख मारता है। समीक्षा करना कला, विज्ञान और वाणिज्‍य तीनों है। कला इसलिए कि समीक्षा के रूप में साहित्‍य के फटे में अपनी टांग फंस जाती है। विज्ञान इसलिए कि समीक्षक होते ही अपने आप विद्वत्त्‍ता आ जाती है और वाणिज्‍य इसलिए की एक पुस्‍तक मुफ्‍त मिलती है, पारिश्रमिक अलग मिलता है। मैंने भी इस सिद्धान्‍त का कई बार पालन किया। शत प्रतिशत ईमानदारी से लिखी समीक्षा भी लेखक को खुश नहीं कर सकती मगर सच को बयां करना भी जरूरी है। ,

कला की समीक्षा के अपने मजे हैं। कलाकार बेचारा अपनी कृति लिए स्‍वनामधन्‍य समीक्षकों के यहां दौड़ता रहता है। कभी-कभी समीक्षा छपने के बाद कलाकार की कृति समीक्षक के ड्राईंगरूम की शोभा बन जाती है।

फिल्‍मी समीक्षा के अदांज और भी निराले हैं। भारी लिफाफा, मुफ्‍त की शेम्‍पेन और पंचतारा होटल के डिनर के बाद भी जो समीक्षा छपती है उसे दर्शक टिकट खिड़की पर असफल घोषित कर देते हैं। नवोदित कलाकार, अपना प्रोफाइल लिए समीक्षक के चक्‍कर लगाता रहता है और प्रतिभाहीन समीक्षक शोषण करता रहता है।

भारत में समीक्षक विश्‍वविधालयों में ज्‍यादा पाये जाते हैं, वे नौकरी पेंशन के लिए करते हैं बकाया समय में समीक्षा लिखकर सम्‍पादक की सेवा में उपस्‍थित हो जाते हैं। समीक्षक अपने आप को आचार्य समझता है। वो किसी भी लेखक के भविष्‍य को बिगाडने की हिम्‍मत रखता है। साहित्‍य, कला, फिल्‍म व अन्‍य माध्‍यमों में समीक्षक को हमेशा ही सम्‍मान की नजरों से देखा जाता है। वह स्‍वयंभू अध्‍यक्ष आचार्य, रेफरी, आलोचक, जज, चयनकर्ता हो जाता है। वह पुस्‍तक चयन समिति में होता है। पुरस्‍कार समिति में होता है। वह साहित्‍य का सिरमौर हो जाता है। साहित्‍य उससे है वो साहित्‍य से नहीं।

वास्‍तव में समीक्षक साहित्‍य का सुपरमैन है और सुपरमैन खतरों की परवाह नहीं करता।
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यशवन्‍त कोठारी
86, लक्ष्‍मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर
जयपुर 302002
फोन 2670596

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