देश में एक ओर जहां आर्थिक वृद्धि दर 9 फीसदी तक पहुंचने के दावे किए जा रहे हैं, वहीं इसकी तुलना में शहरी और ग्रामीण स्तर पर बेरोजगारों की स...
देश में एक ओर जहां आर्थिक वृद्धि दर 9 फीसदी तक पहुंचने के दावे किए जा रहे हैं, वहीं इसकी तुलना में शहरी और ग्रामीण स्तर पर बेरोजगारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। कुछ समय पहले राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण ने जो आकलन कराया था, उसमें बेरोजगारों की संख्या महज 2.8 प्रतिशत बताई गई थी। लेकिन हाल-ही में पहली मर्तबा केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने भी इस बाबत एक सर्वेक्षण कराया है जिसके अनुसार देश में बेरोजगारों की संख्या शहरी इलाकों में 7.3 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 11.1 प्रतिशत है। बढ़ती आर्थिक दर और बढ़ती बेरोजगारी के बीच यह विसंगति इस तथ्य को तसदीक करती है कि भारत के विश्वस्तर पर आर्थिक महाशक्ति बन जाने के दावे, महज छलावे हैं। इस सर्वे की हकीकत उन सर्वेक्षणों के परिप्रेक्ष्य में भी सही साबित हो रही है जो भारत की बदहाली की तसवीर, मानव विकास सूचकांक और बढ़ती भूखों की संख्या व बेलगाम होते भ्रष्टाचार के सिलसिले में पेश आई हैं।
भयावह बेरोजगारी की यह देन आर्थिक उदारीकरण की नीतियों और बाजारीकरण की है। आवारा पूंजी और भ्रष्टाचार से उपजे काले धन ने भी इसमें तड़का लगाया है। पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री दावा करते थे कि आर्थिक विकास का लाभ छनकर समाज के कमजोर तबकों के पास पहुंचेगा, जो निम्न तबके को खुशहाल बनाएगा। लेकिन इसके उलट बढ़ती बेरोजगारी की जो तस्वीर सामने आई है उसने तय किया है कि उभरती अर्थव्यवस्था का लाभ एक सीमित वर्ग को ही मिला है। समावेशी दृष्टि से रोजगार सृजन की ईमानदार कोशिशें विश्वग्राम की परिकल्पना में सर्वथा उपेक्षित ही रहीं। ऐसी स्थितियों के निर्माण के चलते ही 45.5 फीसदी रोजगार के अवसर कृषि क्षेत्र में उपलब्ध होने के बावजूद इस क्षेत्र से कंपनियों को आर्थिक दोहन के लिए अनुकूल नीतियां तो बनाई गईं, लेकिन कृषि संबंधी संसाधन और रोजगार सुदृढ़ हों ऐसे कोई उपाय नहीं किए गए। श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट ने भी इस हकीकत का खुलासा करते हुए कहा है कि रोजगार सृजन के मामले में शहरों के बरक्स ग्रामीण इलाकों की घोर उपेक्षा की गई। खेती किसानी में उद्योगपतियों की पूंजी निवेश की पहल कर कृषि से जुड़े खुदरा व्यापार को हथियाने की तो नीतियां बनाकर उन पर अमल के रास्ते खोले गए, लेकिन स्थानीय स्तर पर खेत और किसान के हालत सुधरें ऐसे मुकम्मल उपाय नहीं किए गए। लिहाजा आवश्यकता के अनुसार ग्रामीण इलाकों में रोजगार के अवसर सुलभ नहीं हो पाए।
खाद्य असुरक्षा के हालात जिस तेजी से बदतर हो रहे है और भूख का दायरा सुरसामुख की तरह फैलता जा रहा है, उसकी तह में आर्थिक उदारीकरण के चलते कृषि और उससे जुड़े मानव संसाधन को नजरअंदाज करना ही है। इसीलिए खेती व गांव से जुड़ी आबादी 66 फीसदी होने के बावजूद, देश की कुल आमदनी में इनकी भागीदारी महज 17 फीसदी मानी जाती है। 33 फीसदी आय पर दावा देश के उद्योगपति करते हैं। जबकि 50 फीसदी आमदनी को सीधे-सीधे सरकारी मशीनरी कब्जा लेती है।
गांवों में रोजगार के हालात इसलिए भी बदहाल हुए हैं, क्योंकि स्वतंत्रता के बाद से ही नेहरु ने नीतियां शहरों के विकास और औद्योगीकरण को तरजीह देते हुए बनाईं। नतीजतन ग्रामों में उपलब्ध कृषि खनिज और जल संपदा का ग्रामीणों के श्रम से बेतहाशा दोहन कर शहरों को समृद्धशाली बनाने की दिशा में तो काम किए गए, लेकिन कृषि और ग्राम आधारित रोजगार को ‘अकुशल श्रम' का दर्जा देते हुए इनकी मजदूरी के मूल्य को कम से कमतर आंका गया। यही नहीं इनकी निरक्षरता को अज्ञानता के दर्जे में लाकर इन्हें उपहास का पात्र भी बनाया जाता रहा है। केवल इसी बिना पर फसल और फसल से बने उत्पादों के मूल्य हमेशा उद्योगों से उत्पादित वस्तुओं की तुलना में कम रखे गए। ऐसे कारणों के चलते जहां अमीरी व गरीबी के बीच फासला बढ़ा, वहीं ग्रामीण अंचलों में नए रोजगार सृजित नहीं होने के कारण बेरोजगार बढ़े और हालात दयनीय हुए। हमारी सरकार, सरकारी नौकरी-पेशाओं के वेतन-भत्ते बढ़ाते हुए उन्हें आर्थिक सुरक्षा मुहैया करा रही है लेकिन किसान और कृषि मजदूरों को खाद्य सुरक्षा भविष्य निधि, मातृत्व लाभ, पेंशन, स्वास्थ्य सुविधाएं जैसी सामाजिक व आर्थिक सुविधाएं मिलें, यह अब तक किसी सरकार को जरुरी नहीं लगा है।
श्रम मंत्रालय के सर्वेक्षण के बरक्स यदि हम ग्रामीण आबादी की सुध लेने का विचार करते हैं तो हमें खेती-किसानी के हित में फौरन कुछ उपाय करने चाहिए जिससे वहां रोजगार के अवसर सृजित हों और गरीबों की आमदनी बढ़े। इस लिहाज से सरकार को सेज (विशेष ओद्योगिक क्षेत्र) विकसित करने की बजाय ऐज (विशेष कृषि क्षेत्र) को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके बावजूद सार्वजनिक हित के दृष्टिगत भूमि अधिग्रहण जरुरी हो तो किसान को नियमित आय का प्रबंध किया जाना चाहिए। क्योंकि पीढ़ियों से एक जैसा काम करते चले आने के कारण किसान को जमीन के बदले में चाहे जितना भी मुआवजा दे दिया जाए, आखिर में उन्हें अपनी आजीविका से हाथ धोना ही पड़ता है।
सभी विकसित देशों में किसानों को सीधे रियायत दी जाती है। अमेरिका ने तो हाल ही में एक विधेयक लाकर किसानों को सीधे दी जाने वाली मदद में पहले की तुलना दस फीसदी का इजाफा किया है। चीन भी किसान और गरीब की आमदनी बढ़ाने के नजरिये से ऐसी नई अर्थव्यवस्था को आकार देने में लग गया है जो घरेलू खपत पर आधारित हो। लिहाजा इन देशों का अनुकरण करते हुए हमें रियायत की पूरी की पूरी राशि किसानों को जोत के आकार के हिसाब से उनके निजी खाते में हस्तांतरित करने की नीति बननी चाहिए। इसके साथ ही भूजल के पुनर्भरण, सिंचाई परियोजनाओं को प्राथमिकता और बिजली की उपलब्धता कृषि के लिए आसान हो, ऐसे प्रावधान अमल में लाने की जरुरत है। केंद्र द्वारा राज्य सरकारों को आवंटित धन को दूसरे मदों में खर्च कर लेने की शिकायतें आम फहम हो गईं हैं, इस दुरुपयोग को सख्ती से प्रतिबंधित करने की जरुरत है। खेती लाभ का धंधा बने इस दृष्टि से फसल प्रसंस्करण संबंधी उद्योग गांव एवं कस्बों में लगें। ऐसे उपायों को अमल में लाने के लिए हमें विकास की उस अवधारणा में तब्दील लानी होगी, जो विकास को केवल शॉपिंग मॉलों, चौड़ें राजमार्गों, कारों की बिक्री और सेंसेक्स में उछाल के आकलन से नापती है। खेती, किसान और मजदूर को तवज्जो दिए बिना न तो विकास को समावेशी बनाया जा सकता है और न ही ग्रामों में रोजगार के नए अवसरों का सृजन किया जा सकता है। चौतरफा खुशहाली आए इसके लिए जरुरी हो गया है कि किसान और मजदूर के बदतर हाल पर गौर किया जाए ?
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
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